वजाहत मिर्ज़ावजाहत मिर्ज़ा

वजाहत मिर्ज़ा उन फ़िल्मी लेखकों में से थे जिन्होंने फिल्मों में लेखन की भाषा का अंदाज़ बदला और उसे ज़्यादा सहज बनाया।

कोई भी फ़िल्म बिना कहानी के नहीं बन सकती और कहानी बिना संवादों के आगे नहीं बढ़ सकती। हम सब उन कलाकारों को याद रखते हैं जो अपनी बेहतर संवाद अदायगी से फ़िल्मों में छा गए मगर वो जानदार संवाद किसकी क़लम से निकले ये आमतौर पर हमें पता नहीं होता, न हम जानने की कोशिश करते हैं। फ़िल्मों में अक्सर तो लेखक की अहमियत को नाकारा ही गया है मगर संवाद लेखकों की तो अमूमन कोई बात ही नहीं करता। जिन फ़िल्मों को क्लासिक की श्रेणी में रखा जाता है, एक बार उन पर नज़र डालकर देखें तो पाएंगे कि अगर उन फ़िल्मों में से संवाद निकाल दिए जाएँ तो यूँ लगेगा जैसे फ़िल्म की आत्मा ही निकल गई।

वजाहत मिर्ज़ा की लेखनी का बेहतरीन नमूना है मुग़ल-ए-आज़म

क्या मुग़ल-ए-आज़म सिर्फ़ अपने संगीत, उम्दा अभिनय, सिनेमैटोग्राफ़ी और बेहतर ट्रीटमेंट के लिए याद की जाती है ? नहीं…. फिल्म का एक-एक संवाद याद रखने लायक़ है, सीन को प्रभावशाली बनाता है और हरेक कैरेक्टर को पूरी तरह स्थापित करता है। इस फ़िल्म के डायलॉग चार-पाँच लोगों की एक टीम ने लिखे थे, और ये कहना बहुत मुश्किल है कि किसने कौन से संवाद लिखे या संवाद लेखन को उन्होंने किस तरह आपस में बाँटा होगा!

क्योंकि कोई एक सीन ऐसा नहीं है जहाँ ये फ़र्क़ महसूस किया जा सकता हो कि फलाँ डायलॉग पर फ़लाँ राइटर की छाप है। इन मायनों में इस टीम ने बेहतरीन काम किया जिसमें अमान ख़ान, कमाल अमरोही, एहसान रिज़वी और  वजाहत मिर्ज़ा शामिल थे। अपने बेहतरीन काम के लिए उन्हें बेस्ट डायलॉग राइटर का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया।

वजाहत मिर्ज़ा

 

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एक जर्नलिस्ट का लिखा पढ़ रही थी जिन्होंने कहा कि लेखकों के लिए मुग़ले आज़म बाइबिल की तरह है और लेखकों को इसे बार-बार देखना चाहिए, ये समझने के लिए कि कम से कम शब्दों में कैसे मज़बूती से अपनी बात कही जा सकती है। आपको ये जानकार ख़ुशी होगी कि मुग़ल-ए-आज़म के स्क्रीनप्ले की कॉपी अब ऑस्कर की लाइब्रेरी में मौजूद है। के. आसिफ़ के बेटे अकबर आसिफ़ ने मुग़ल-ए-आज़म की 60 वीं सालगिरह पर उस के हिंदी, रोमन टेक्स्ट और इंग्लिश ट्रांसलेशन की कॉपी ऑस्कर में दी थी। जो अब मार्गरेट हेरिक लाइब्रेरी में उपलब्ध है जो दुनिया का जाना माना रेफरेन्स एंड रिसर्च कलेक्शन है।

सिर्फ़ मुग़ल-ए-आज़म ही नहीं रोटी, यहूदी, मदर इंडिया जैसी फिल्में अपने संवादों के लिए भी जानी जाती हैं। जिन्हें लिखा था, डायलॉग राइटर, स्क्रीन राइटर डायरेक्टर वजाहत हुसैन मिर्ज़ा चंगेज़ी ने। तिग्मांशु धूलिया जैसे कई फ़िल्मी जानकारों का मानना है कि अगर वजाहत मिर्ज़ा न होते तो फ़िल्मी लेखन इतना फ्रेश, शार्प और एंगेजिंग नहीं होता। वजाहत मिर्ज़ा के लेखन ने ही ‘सलीम-जावेद’ को भी इंस्पायर किया था।

वजाहत मिर्ज़ा सिनेमेटोग्राफर बनना चाहते थे

UP के एक छोटे से गाँव सीतापुर में 20 अप्रैल 1908 को वजाहत मिर्ज़ा का जन्म  हुआ, उनके पिता लखनऊ के एक प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। लखनऊ के इंटर कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद वजाहत मिर्ज़ा आगे की पढाई के लिए कोलकाता चले गए। लखनऊ में ही उनकी मुलाक़ात कृष्ण गोपाल से हुई थी जो कोलकाता में सिनेमेटोग्राफर थे। और क्योंकि वजाहत मिर्ज़ा की रूचि भी फ़ोटोग्राफ़ी में थी तो उन्होंने उस दौरान फिल्म इंडस्ट्री ज्वाइन कर ली और कृष्ण गोपाल के सहायक बन गए।

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बाद में उन्होंने न्यू थिएटर्स में मशहूर निर्देशक देबकी बोस के साथ भी काम किया और न्यू थिएटर्स की फ़िल्म “यहूदी की लड़की” से ही उनके लेखन की शुरुआत भी ही हो गई थी। हाँलाकि उनके परिवार को भनक भी नहीं थी कि उन्होंने सिनेमा इंडस्ट्री में काम करना शुरू कर दिया है क्योंकि एक तो ज़मींदार परिवार उस पर सिनेमा की बुरी छवि। पर जब एक बार वो एक आउटडोर शूट के लिए लखनऊ गए तो उनके परिवार को उसके बारे में पता चला।

वजाहत मिर्ज़ा

तीस के दशक के मध्य में वजाहत मिर्ज़ा मुंबई चले गए और बतौर लेखक फ़िल्मों से जुड़ गए, उन्होंने फ़िल्मों के स्क्रीनप्ले, डायलॉग और गीत लिखना शुरु कर दिया। महबूब ख़ान के राइट हैंड कहे जाने वाले वजाहत मिर्ज़ा ने उनकी कई फ़िल्में लिखीं। इनमें “हम तुम और वो(1938)”, “वतन(1938)”, “एक ही रास्ता(1939)”, “औरत(1940)”, “बहन(1941)”, “रोटी(1942)”, “मदर इंडिया(1957)” मुख्य हैं। जिस दौर में बतौर लेखक उन्होंने अपनी पहचान बनानी शुरू की, साथ ही साथ उन्होंने कुछ फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। इनमें 1942 की “जवानी”, 1944 की “शहंशाह बाबर”, 1945 की “प्रभु का घर”, और 1950 में आई “निशाना” शामिल हैं।

तुम्हारा ख़ून ख़ून और हमारा ख़ून पानी है – यहूदी

अलग-अलग भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें अलग मक़ाम दिलाया

माना जाता है कि वजाहत मिर्ज़ा ने फ़िल्मों में व्यंग्यात्मक अंदाज़ से संवाद लिखने की नई परंपरा शुरु की। उस समय फ़िल्मों में पारसी थिएट्रिकल स्टाइल का चलन था जैसा बिमल रॉय के निर्देशन में बनी फ़िल्म “यहूदी” में भी दीखता है, जिसमें सोहराब मोदी ने भी दमदार भूमिका निभाई थी। इसके अलावा भाषा भी सजी-सँवरी अलंकारिक हुआ करती थी। मगर इस चलन को तोड़ने का श्रेय भी वजाहत मिर्ज़ा को दिया जाता है। जब-जब उन्हें मौक़ा मिला उन्होंने उस परिपाटी को बदल कर फ़िल्मी संवादों में आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करना शुरु किया।

अलग-अलग भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़, उनका एक बेहद मज़बूत पक्ष था। “गंगा-जमुना” में उन्होंने अवधी भाषा में ज़मीन से जुड़े संवाद लिखे, “मदर इंडिया” में ब्रज भाषा का उपयोग किया वहीं “मुग़ल-ए-आज़म” में गाढ़ी उर्दू, हिंदी और उस दौर में प्रचलित हिंदुस्तानी का प्रयोग किया, जिससे दर्शक फ़िल्म के दौर और बैकग्राउंड को समझ सके। किरदार की डिटेलिंग में तो वो माहिर थे। महबूब ख़ान की “औरत” और “मदर इंडिया” में ‘सुखीलाला’ का ही एक ऐसा किरदार था जो दोनों फ़िल्मों में एक ही कलाकार यानी कन्हैयालाल ने निभाया था। वो वजाहत मिर्ज़ा ही थे जिन के सुझाव पर महबूब ख़ान ने कन्हैयालाल को इस भूमिका के लिए चुना था।

वजाहत मिर्ज़ा

 

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बाद के दौर में वजाहत मिर्ज़ा ने “कोहिनूर”, “लीडर”, “पालकी”, “चंदा और बिजली”, “शतरंज”, “ये गुलिस्ताँ हमारा”, “हीरा”, “गंगा की सौगंध” जैसी कई फ़िल्मों में अपनी क़लम का जादू बिखेरा। “लव एंड गॉड” में भी उन्हीं के संवाद थे मगर 1964 में बननी शुरु हुई ये फ़िल्म पहले गुरुदत्त की मौत की वजह से रुकी रही जो फ़िल्म के हीरो थे। जब उनकी जगह संजीव कुमार को कास्ट किया गया तो के. आसिफ़ ख़ुदा को प्यारे हो गए। उसके बाद ये आधी-अधूरी फ़िल्म 1986 में रिलीज़ हुई और ज़ाहिर है इसे जैसा बनना था वैसी नहीं बन पाई।

70 के दशक के आख़िर तक आते-आते वजाहत मिर्ज़ा ने फ़िल्मों से संन्यास ले लिया। उसके बाद उनके विषय में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती। दरअस्ल ये दुखद है कि उनके बारे में उस दौर की भी ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है जब वो फ़िल्मों में एक्टिव थे। वजाहत मिर्ज़ा एक बहुत अच्छे शायर भी थे उनकी रिलीजियस पोएट्री के कलेक्शंस उनकी मौत के बाद पब्लिश हुए। अपने आख़िरी दिनों में वो पाकिस्तान में थे और वहीं कराची में 4 अगस्त 1990 को उनकी मौत हो गई।

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लोग इस दुनिया से चुपचाप चले जाते हैं, कलाकार-फ़नकार कहीं नहीं जाते। अपने फ़न के ज़रिए हमेशा हमारे आस-पास रहते हैं, हम उन्हें चाहें कितना भी भुला दें उनका काम उनके जाने के बाद भी हमें उनकी याद दिलाता है। और शायद हर फ़नकार का यही मक़सद होता है, कि लोग उसके न रहने पर भी उसे सराहें, उसे याद करें!