V K मूर्ति (V K Murthy) दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले पहले सिनेमेटोग्राफर (पहले तकनीशियन) जिन्होंने कई मास्टरपीस बनाए।
आज फ़िल्मों में कार चैसिंग सीन्स आम हैं मगर जब “आर पार” में इस तरह का सीन शूट करना था तो कार पुल के ऊपर से जा रही है इसमें पुल के ऊपर कैमरा रखा गया और टॉप से पैन शॉट लिया। उस समय ये ख़तरनाक़ था पर कैमरामैन ने किया। ज़मीन में गड्ढा खोदकर कैमरा फिट करके चलती कार का शॉट नीचे से लिया। और पाकीज़ा का वो सीन शायद ही कोई भूला होगा जिसमें मीना कुमारी नाचते-नाचते अचानक ट्रैन की आवाज़ सुनती हैं और हॉल छोड़कर ट्रैन देखने चली जाती हैं।
इन दृश्यों की शूटिंग V K मूर्ति ने की थी, जो अपने लाइट एंड शेड के इफ़ेक्ट के लिए जाने जाते हैं ख़ासतौर पर गुरुदत्त की फ़िल्मों में उनके कैमरा ने जो कमाल किया वो तो एकदम स्पेशल है। 50s से लेकर 90s तक कैमरा के साथ उसी उत्साह से काम करने वाले, हर एरा के साथ तालमेल बिठाते हुए शानदार शॉट देने वाले सिनेमेटोग्राफर थे V K मूर्ति। दादा साहब फालके अवार्ड पाने वाले वो पहले सिनेमेटोग्राफर या कहिए पहले तकनीशियन थे। उनकी सिनेमेटोग्राफी टेकनीक से कहीं बढ़कर थी।
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उनका ये मानना था कि सिनेमाटोग्राफी साइंस और आर्ट का कॉम्बिनेशन है। साइंस यानी टेक्नीक जिसे कोई भी सीख सकता है, मगर उसमें आर्ट का एंगल कैसे डाला जाए ये हर इंसान के टेस्ट पर निर्भर करता है। इसीलिए हर कैमरामैन का फ्रेम, लाइटिंग, आर्टिस्ट को कैप्चर करने का स्टाइल अलग होता है और वही उन्हें ख़ास बनाता है।
V K मूर्ति और गुरुदत्त ने मिलकर बनाए कई शाहकार
V K मूर्ति के साथ गुरुदत्त का नाम अपने आप शामिल हो जाता है, दोनों ने एक से बढ़कर एक फ़िल्में दीं। दोनों की मुलाक़ात भी एक संयोग ही थी। उन दिनों V K मूर्ति फेमस स्टूडियो में असिस्टेंट कैमरामैन के तौर पर काम करते थे, गुरुदत्त वहाँ बाज़ी फ़िल्म का एक गाना शूट कर रहे थे। ‘सुनो गजर क्या गाए” इस गाने में उस वक़्त जो एंगल, मूवमेंट और इफ़ेक्ट गुरुदत्त को चाहिए थे वो फिल्म के कैमरामैन वी. रात्रा दे नहीं पा रहे थे। तब V K मूर्ति ने उस शॉट को शूट करने की परमिशन माँगी।
सीन मुश्किल था इसलिए गुरुदत्त ने कहा कि तुम्हारे पास तीन मौके है, और V K मूर्ति ने एक ही टेक में वो शॉट ठीक उसी तरह शूट कर दिया जैसा गुरुदत्त चाहते थे। शॉट ख़त्म होने के बाद गुरुदत्त ने उन्हें बुलाया और कहा कि अब से तुम ये फ़िल्म करो मगर V K मूर्ति नहीं चाहते थे कि फ़िल्म के कैमरामैन को हटा कर उन्हें लिया जाए, इसलिए उन्होंने कहा कि मैं आपकी अगली फ़िल्म करूँगा।
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इस तरह 1952 की फ़िल्म “जाल’ एक तो इंडिपेंडेंट सिनेमेटोग्राफर के तौर पर V K मूर्ति की पहली फ़िल्म बन गई, और इसी के साथ उनका और गुरुदत्त का ऐसा साथ हुआ कि जिसमें क्रिएटिव लिबर्टी भी थी, criticism की जगह भी और सीखने की गुंजाइश भी, जिसके लिए V K मूर्ति हमेशा गुरुदत्त के शुक्रगुज़ार रहे। गुरुदत्त और उनका रिश्ता एक डायरेक्टर और कैमरामैन का ऐसा रिश्ता था जिसमें जो गुरुदत्त सोचते थे, V K मूर्ति तुरंत समझ जाते थे और ठीक वही प्रभाव परदे पर उतार देते थे।
इसीलिए उन दोनों की जोड़ी ने फ़िल्मों में ऐसे यादगार दृश्य दिए, जिन्हें फिर से परदे पर उतारना आज शायद संभव हो, मगर वो सिर्फ़ नक़्ल होंगी ओरिजिनल काम तो वो कर गए। और ऐसा कर गए कि फ़िल्म इंस्टीटूट्स में स्टूडेंट्स उनके किये काम की बारीक़ियाँ सीखते हैं। V K मूर्ति ने एक नई तरह की फोटोग्राफी ईजाद की जो उनसे पहले भारतीय सिनेमा में नहीं देखी गई थी। वो पहले कैमरामैन थे जो भारत में मॉडर्न सिनेमेटिक एस्थेटिक्स लेकर आये। इसीलिए उनकी फ़िल्मों के सीन किसी पेंटिंग की तरह दिखते हैं।
V K मूर्ति बचपन में हीरो बनना चाहते थे
V K मूर्ति का पूरा नाम था वेंकटरामा पंडित कृष्णमूर्ति, उन का जन्म 26 नवंबर 1923 को मैसूर में हुआ। संगीत से उन्हें बेहद प्यार था वो 8-9 साल के थे जब उन्होंने वायलिन बजाना सीखा। वो रोज़ाना ७-८ घंटे रियाज़ भी किया करते थे। और वॉयलिन से ये प्यार ताउम्र रहा। वॉयलिन ही नहीं वो वीणा और सितार भी बहुत अच्छा बजा लेते थे। गणपति समारोह में वॉयलिन बजाकर और बच्चों को वॉयलिन सिखाकर उन्होंने रोज़ी-रोटी कमाना शुरू किया, उनका मानना था कि अगर वो बतौर सिनेमेटोग्राफर कामयाब नहीं होते तो शायद म्यूजिक डायरेक्टर बन जाते।
लेकिन बचपन में वो हीरो बनना चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि फिल्म देखने के बाद लोग सिर्फ़ कलाकारों को ही याद रखते हैं। लेकिन थोड़ा बड़े हुए तो एहसास हुआ कि उनका चेहरा हीरो वाला नहीं है इसलिए एक्टिंग का ख़्याल छोड़ दिया। V K मूर्ति जब हाई स्कूल में थे तब भारत छोडो आंदोलन के दौरान वो जेल भी गए थे। और उन्हीं दिनों कैमरा का दामन थामने का फ़ैसला लिया। फिर बेंगलुरु से सिनेमेटोग्राफी में डिप्लोमा करने के बाद बम्बई आ गए।
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उस समय फ़िल्मों में बतौर कैमरामैन फ़ली मिस्त्री का बहुत नाम था, 1945 की फ़िल्म ‘आम्रपाली’ देखने के बाद वीके मूर्ति उनसे इतने प्रभावित हुए कि उनके साथ काम करना चाहते थे। फिर क़िस्मत ने रास्ता बनाया और ख़ुद फली मिस्त्री ने उन्हें बुला लिया, उनकी तो मनचाही मुराद पूरी हो गई, और वो पहुँच गए फ़ली मिस्त्री से मिलने। फली मिस्त्री उन्हें सीधे शूटिंग पर ले गए और शूटिंग ख़त्म होने के बाद उनसे कहा कि उनके पास 23 अस्सिस्टेंट पहले से थे मगर V K मूर्ति बेस्ट थे।
और ये सच ही था क्योंकि फली मिस्त्री की तरह ही V K मूर्ति को भी मास्टर ऑफ़ क्लोज-अप्स माना जाता है, और उन्हीं की तरह V K मूर्ति भी diffuser का इस्तेमाल करते थे मगर वो एक क़दम आगे इसलिए थे क्योंकि डिफ्यूजर के इस्तेमाल के साथ कंट्रास्ट को इस तरह बैलेंस करते थे कि कलाकारों की खूबसूरती नैचुरली enhance हो जाती थी।
V K मूर्ति पहले भारतीय सिनेमेटोग्राफर थे जिन्होंने सिनेमास्कोप में शूट किया
सिनेमास्कोप एक ऐसा फॉर्मेट था जिसमें वाइड स्क्रीन वाली फ़िल्मों को शूट करने के लिए एनामॉर्फिक लेंस का यूज़ किया जाता है। उन दिनों एक फॉरन फिल्म यूनिट इंडिया आई थी उनके पास ख़ास तरह के लेंसेस थे, उन्हीं से प्रेरणा पाकर गुरुदत्त और वीके मूर्ति ने पहली भारतीय सिनेमास्कोप फ़िल्म काग़ज़ के फूल फ़िल्म बनाई। ‘काग़ज़ के फूल’ यूँ तो उस समय बुरी तरह फ़्लॉप हो गई थी मगर हाँलाकि इसका कांसेप्ट, कहानी, डायरेक्शन सब कुछ लाजवाब था। और सबसे बढ़कर सिनेमेटोग्राफी, अपने लाइट एंड शेड के इफ़ेक्ट के कारण आज भी इस फ़िल्म की मिसाल दी जाती है।
ख़ासकर सनबीम वाला ये सीन तो आइकोनिक है। जब गुरुदत्त ने उन्हें इस तरह का इफ़ेक्ट देने को कहा तो उन्हें काफ़ी वक़्त लगा सोचने में फिर आइने में किसी को देखकर उन्हें आईडिया आया और फिरV K मूर्ति ने दो बड़े-बड़े आईनो की मदद से ये लाजवाब इफ़ेक्ट क्रिएट किया। जिसमें वाक़ई ऐसा लगता है कि रुह से रुह का मिलन हो रहा है। और फिर ये सीन इस फ़िल्म का सबसे पॉपुलर सीन बन गया था जिस पर लोगों ने पेंटिंग्स भी बनाई। और इसके लिए उन्हें बेस्ट सिनेमेटोग्राफर के अवार्ड से नवाज़ा गया यही अवार्ड उन्हें दिया गया साहब बीबी और ग़ुलाम के लिए।
जब कैमरा हीरो या हेरोइन के बहुत नज़दीक जाता है तो वहाँ लाइट देना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि लाइट मैन जाएगा तो उसकी या कैमरा की या लाइट की शैडो कलाकारों पर पड़ेगी। उसके लिए V K मूर्ति ने एक तरीक़ा खोजा, उस समय वो मिचेल कैमरा का इस्तेमाल करते थे जिसके लैंस के नीचे दो रॉड हुआ करती थीं। उन्होंने उन रॉड्स पर पट्टी लगाकर क्लिप लाइट का इस्तेमाल डिमर के साथ किया इससे हुआ ये कि किस सीन में कितनी तेज़ लाइट चाहिए उसका कण्ट्रोल भी उन्हें मिल गया और शैडो की समस्या भी हल हो गई।
इसी तरह के एक्सपेरिमेंट्स की वजह से उनकी फ़िल्मों के क्लोज अप्स इतने असरदार होते थे। V K मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि वो निर्देशक की नज़र से सोचते थे और उसी हिसाब से उनका कैमरा और लाइटिंग कमाल करती थीं। लेकिन डायरेक्टर के कहने से पहले वो ख़ुद ये सोच लेते थे कि कोई ख़ास शॉट किस तरह ज़्यादा इफेक्टिव लगेगा।
V K मूर्ति कभी एक्सपेरिमेंट्स से नहीं घबराए
प्यासा में भी V K मूर्ति ने बहुत एक्सपेरिमेंट्स किये। प्यासा फिल्म के आखिर में जो गाना है “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” इसमें हॉल में ऊपर बैठे सिर्फ़ आधे लोग असली हैं बाक़ी सब कटआउट्स हैं, वीके मूर्ति ने इस तरह से backlight दी कि उस सीन के इमोशंस भी लोगों तक पहुँचे और सामने कैमरा होते हुए भी किसी को पता नहीं चलता कि वहाँ कटआउट्स रखे हैं।
क्या कोई मान सकता है कि प्यासा का गाना “जाने क्या तूने कही” सिर्फ़ तीन लाइट्स में शूट किया गया। इस गाने को कोलकाता के एक स्टूडियो में फ़िल्माया गया था, जहाँ रिसोर्सेज लिमिटेड थे, और जो थे उन्हीं से काम चलाना था इसलिए वीके मूर्ति ने गुरुदत्त से कहा कि कैमरा मूवमेंट बहुत ज़्यादा नही की जा सकती और फिर सिर्फ़ तीन लाइट्स को उन्होंने इतनी ख़ूबसूरती से सेट किया कि हेरोइन पर से भी नज़र नहीं हटती और मूवमेंट भी बना रहता है।
सिर्फ़ ब्लैक एंड वाइट ही नहीं कलर फ़िल्मों में भी उनके लेंस का कमाल देखने को मिला। जिन दिनों भारत में कलर फिल्म्स बनने की शुरुआत हो रही थी उन दिनों गुरुदत्त ने उन्हें हॉलीवुड भेजा था। V K मूर्ति वहाँ वॉर फिल्म Guns of Navarone के सेट पर रहे ताकि वो टेक्नीक सीख लें और क़रीब 6 महीने बाद वापस लौटे। “चौदहवीं का चाँद” में जो टाइटल सांग है वो इसके बाद ही कलर में फिल्माया गया था।
V K मूर्ति की कलर फ़िल्मों में कलर्स हाई कंट्रास्ट में नज़र नहीं आते थे बल्कि वो अपने नेचुरल शेड में दीखते थे क्योंकि वो ये बहुत अच्छी तरह समझते थे ब्लैक एंड वाइट् और कलर फ़िल्मों की लाइटिंग की अपनी-अपनी requirements हैं अगर उन्हें ठीक से समझ लिया जाए तो हर कलर स्क्रीन पर बेस्ट दिखेगा। ज़िद्दी(64), सूरज(66), लव इन टोक्यो(66), शिकार(68), जुगनू(73), नास्तिक(83), के अलावा श्याम बेनेगल के भारत एक खोज और गोविन्द निहलानी के तमस में भी उनके कैमरा का कमाल दिखाई देता है।
गोविंद निहलानी ने अपने करियर की शुरुआत उनके असिस्टेंट के रुप में की
दरअस्ल गोविन्द निहलानी ने भी उसी इंस्टीटूट से सिनेमेटोग्राफी की पढाई की थी जहाँ से V K मूर्ति ने डिप्लोमा किया था। और जिस तरह V K मूर्ति फली मिस्त्री के साथ काम करना चाहते थे गोविन्द निहलानी उनके साथ काम करने को आतुर थे। इसीलिए मुंबई आते ही वो V K मूर्ति से मिले और उन्हें अपनी इच्छा बताई और वीके मूर्ति ने तुरंत हां कह दी पर बता दिया कि वो उन्हें कोई सैलरी नहीं दे पाएंगे क्योंकि उनके पास पहले से ही तीन असिस्टेंट थे। उस वाक़ए का ज़िक्र ख़ुद गोविन्द निहलानी ने अपने एकआर्टिकल में किया है –
संस्थान में प्रशिक्षण के बाद मैं मुंबई गया और सबसे पहले मैं V K मूर्ति से मिलना चाहता था और उनके साथ काम करना चाहता था। मुझे पता चला कि वह किसी खास दिन कहां होंगे, मैं आवेश में आकर उनसे मिलने का समय लिए बिना पहुँच गया। जिस क्षण वह मुझसे मिले, एक गर्मजोशी थी, और ये जानकर रोमांचित हो गए कि मैं उनके संस्थान का छात्र रह चुका हूँ। मैंने उनसे कहा कि मैं उनके साथ काम करना चाहता हूं। उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, ‘ठीक है’! फिर, उन्होंने मुझे एक स्टूडियो का नाम दिया और मुझे वहां मिलने के लिए कहा। मुझे नहीं पता था कि स्टूडियो कहां है क्योंकि मैं तब मुंबई में नया था। मैंने हाँ कहा और चला गया। मैं इतना उत्साहित था कि उनसे पूछ भी नहीं पाया कि स्टूडियो कहाँ है। मैं जल्दी निकला और घंटों की खोज के बाद, मुझे स्टूडियो मिला। जब मैं स्टूडियो पहुंचा, रात हो चुकी थी। वे उस समय एक हिंदी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे और महमूद फिल्म के मुख्य अभिनेताओं में से एक थे। मुझे दल में शामिल होने के लिए कहा गया था और मुझे नहीं पता था कि मुझे क्या करना चाहिए था। मैं निरुद्देश्य इधर-उधर घूमता रहा। मूर्तिजी ने मेरी उलझन देखी और मुझे बुलाया और कहा: ‘पहली चीज जो तुम्हें सीखने की जरूरत है वह यह है कि फिल्म के सेट पर कैसे चलना है।’ तभी मैंने देखा कि मैं केबलों से घिरा हुआ था, और देखा कि सब कुछ कृत्रिम था।
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इस तरह गोविन्द निहलानी ने उनके असिस्टेंट के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की थी, फिल्ममेकर बाद में बने। और जब उन्हें तमस बनाने का ऑफर आया तो उनकी दिली इच्छा थी कि उसमें कैमरा की कमान V K मूर्ति संभालें लेकिन एक तरह से वो उनके गुरु थे इसलिए सीधे-सीधे कहने से झिझक रहे थे तो उन्होंने V K मूर्ति की पत्नी से बात की, लेकिन जब V K मूर्ति ने सुना तो पहले तो वो राज़ी नहीं हुए। उन्होंने कहा कि लोग क्या कहेंगे कि वीके मूर्ति के पास कोई काम नहीं है जो वो अपने असिस्टेंट के लिए काम कर रहा है पर आख़िरकार अपनी पत्नी के समझाने पर वो तैयार हो गए।
अपने काम के प्रति उनका पैशन और ऊर्जा कमाल की थी
V K मूर्ति की रेंज बहुत ज़्यादा थी जहाँ उन्होंने उस दौर में काम किया जहाँ कलाकारों को स्क्रीन पर ख़ूबसूरत ही लगना चाहिए था वहीं उन्होंने भारत एक खोज जैसे सीरियल में भी सिनेमेटोग्राफी की जहाँ कलाकारों की खूबसूरती को हाईलाइट न करके रॉ या कहें ओरिजिनल रूप में दिखाना था। ‘भारत एक खोज’ श्याम बेनेगल के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण असाइनमेंट था उसके एक घंटे के 53 एपिसोड्स बनाए गए थे, जिनकी शूटिंग एक ही बार में 19 महीनों में पूरी हो गई थी।
V K मूर्ति अपने काम में इतने खो जाते थे कि बढ़ती उम्र में भी उनकी एनर्जी और enthusiasm को मैच करना आसान नहीं होता था। ये सब शायद इसीलिए था क्योंकि उन्हें अपने काम से प्यार था। वैसे प्यार उन्हें थिएटर से भी था, और थिएटर की दुनिया में वो सबके लिए कुट्टी मामा थे। मुंबई की मैसूर एसोसिएशन के बहुत से प्ले उन्होंने डायरेक्ट किए शायद इसीलिए एक डायरेक्टर का विज़न वो इतनी अच्छे तरीक़े से समझते थे।
V K मूर्ति जब सिंगल थे तो एक रिश्तेदार के यहाँ रहते थे, उनके घर पर अक्सर एक लड़की आती थी मधुरा, धीरे-धीरे मधुरा से उनकी दोस्ती हो गई और उन्होंने शादी के लिए प्रपोज़ कर दिया, मगर मधुरा के घर वाले मान नहीं रहे थे क्योंकि V K मूर्ति फ़िल्मों में काम करते थे। मगर जब V K मूर्ति मधुरा की माँ से मिले, बातचीत की तो वो राज़ी हो गईं और दोनों की शादी हो गई। उनकी एक बेटी हुई जिसका नाम उन्होंने रखा छाया।
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गुरुदत्त की मौत के बाद V K मूर्ति को लगा था कि अब उनके लिए कुछ नहीं बचा। मगर उन्होंने 90s तक काम किया उनकी आखिरी फ़िल्म थी प्रमोद चक्रबर्ती की दीदार। फिर 2001 में वो फ़िल्मों और फिल्म नगरी को छोड़कर बेंगलुरु जाकर बस गए । 2005 में IIFA अवार्ड्स में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया और 2008 में उन्हें दादा साहब फालके अवार्ड से सम्मानित किया गया। 2014 बेंगलुरु में उनकी मौत हुई। उनकी तीसरी पुण्यतिथि पर FTII पुणे ने तीन दिन के फ़ेस्टिवल का आयोजन किया था।
V K मूर्ति एक ऐसे सिनेमेटोग्राफर थे जो लाइटिंग से मूड क्रिएट करते थे और कैमरा से कैप्चर करके उस मूड को दर्शकों के दिलो-दिमाग़ में उतार देते थे। मंत्रमुग्ध करने वाली ब्लैक एंड वाइट फोटोग्राफी, लाइट एंड शेड का ऐसा अद्भुत संतुलन जो ऐसा इफ़ेक्ट क्रिएट करता था कि सभी इमोशंस बिना बोले उस दृश्य के ज़रिए दर्शकों तक पहुँच जाते थे। जहाँ लाइटिंग उनका प्लस पॉइंट थी वहीं उनका कैमरा एक रिदम के साथ स्मूदली मूव करता था। अपनी इन्हीं खासियतों की वजह से उन्होंने वो मक़ाम पाया जहाँ आज भी लोग उनके काम की मिसाल देते हैं उनके काम से सीखने की कोशिश करते हैं।