आर सी बोराल भारतीय फ़िल्म संगीत के पितामह कहे जाते हैं, उन्होंने फ़िल्म संगीत को बहुत कुछ दिया। 19 अक्टूबर, उनके जन्मदिवस पर उनकी फ़िल्मों और जीवन को थोड़ा और क़रीब से जानते हैं।
फ़िल्म संगीत हो या क्लासिकल पूरब और पश्चिम के संगीत का फ्यूज़न हर दौर में लोकप्रिय रहा है साथ ही विवादित भी। पर फ़िल्मों में इस फ्यूज़न की शुरुआत तभी हो गई थी जब से फ़िल्मों में संगीत आया और जिस संगीतकार ने इसकी शुरुआत की वो थे आर सी बोराल, उनका नाम फ़िल्म इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके प्रयासों से ही भारतीय फ़िल्मों को प्लेबैक की सौग़ात मिली।
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के एल सहगल और कानन देवी भारतीय सिनेमा के दो मशहूर स्टार सिंगर्स रहे इन दोनों की प्रतिभा को पहचानकर उन्हें आगे बढ़ाने का श्रेय आर सी बोराल को दिया जाता है। हिंदी फिल्म संगीत में बंगाली स्कूल का जो प्रभाव मिलता है उसे स्थापित करने में उनका एक बड़ा योगदान है। उन्होंने ही फ़िल्मों में ग़ज़ल और गीत को हलके-फुल्के अंदाज़ में लाकर इस विधा को लोकप्रिय बनाया।
आर सी बोराल तबलावादन के उस्ताद थे
आर सी बोराल का पूरा नाम था – रायचंद बोराल जिनका जन्म एक ऊँचे, ख़ानदानी परिवार में 19 अक्टूबर 1903 को हुआ। तीन भाइयों में वो सबसे छोटे थे, और संगीत की तरफ उनका रुझान भी सबसे ज़्यादा था। कहते हैं ख़ून का असर आता ही है शायद इसलिए, क्योंकि उनके पिता लालचंद बोराल अपने ज़माने के मशहूर ध्रुपद गायक और पखावज वादक थे। उनके घर पर अक्सर ही संगीत की महफिलें जमा करती थीं, और आर सी बोराल बचपन से ही उनका भरपूर आनंद लेते थे। उनके पिता ने जब उनकी रूचि देखी तो उन्हें संगीत सीखने के लिए उस्तादों का इंतज़ाम किया।
आर सी बोराल ने उस्ताद मुश्ताक़ हुसैन ख़ाँ, उस्ताद हाफ़िज़ अली ख़ाँ और उस्ताद मसित ख़ाँ से संगीत की तालीम ली। पियानो और तबला में एक्सपर्ट होने के बाद उन्होंने लखनऊ, अलाहबाद और वाराणसी में कई प्रोग्राम्स किये। तबला वादन में वो ऐसा मक़ाम हासिल कर चुके थे कि लखनऊ के एक प्रोग्राम में उन्हें “सारस्वत महामण्डल सम्मान” से नवाज़ा गया। इस दौरान उन की ख्याति इतनी फैल चुकी थी कि जब कोलकाता में “इंडियन ब्राडकास्टिंग कंपनी” यानी आकाशवाणी का दूसरा स्टेशन शुरु किया गया तो उन्हें वहाँ के संगीत विभाग का अध्यक्ष बनने का न्योता मिला और 24 साल की कम उम्र में उन्होंने वो पद संभाला।
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ये वो दौर था जब सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी और बहुत से लोग इसे एक सक्सेसफुल बिज़नेस के तौर पर देख रहे थे, कुछ लोग क्रिएटिव नज़र से कुछ नया कर पाने के लिए उत्सुक थे। न्यू थिएटर्स के संस्थापक बी एन सरकार भी इस नई विधा में कुछ नई सम्भावनाएँ ढूँढ रहे थे। उन्होंने जब दो मूक फिल्मों (चाशेर मेय और चोर कांटा) का निर्माण किया तो उनमें आर सी बोराल ने स्टेज पर लाइव ऑर्केस्ट्रा कंपोज़ करके एक तरह की सनसनी क्रिएट कर दी थी।
आर सी बोराल न्यू थिएटर्स का एक अभिन्न हिस्सा बने
जब बी एन सरकार पूरी तरह से फ़िल्म निर्माण में उतरे और उन्होंने न्यू थिएटर्स स्टूडियो की स्थापना की तो अपनी टीम में एक से बढ़कर एक क्रिएटिव लोगों को शामिल किया। उस स्टूडियो के संगीत विभाग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई आर सी बोराल को। उनके साथ-साथ न्यू थिएटर्स में पंकज मलिक और तिमिर बरन भी बतौर संगीतकार शामिल हुए।
न्यू थिएटर्स में “मोहब्बत के आँसू” उनकी और के एल सहगल दोनों की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म तो नहीं चली मगर के एल सहगल को काफ़ी प्रशंसा मिली। न्यू थिएटर्स की शुरूआती तीन फ़िल्मों की असफलता के बाद आई “पूरन भगत” 1933 में आई इस फ़िल्म के गाने इतने मशहूर हुए कि घर-घर में गाये गए। उसके बाद आई “चंडीदास” के गानों ने अपार लोकप्रियता पाई। इस फ़िल्म में बैकग्राउंड म्यूज़िक का प्रभावशाली प्रयोग उन्हीं की देन कही जाती है।
प्लेबैक लाने वाले पहले संगीतकार
लेकिन आर सी बोराल को जिस फ़िल्म के लिए उनका नाम आज भी याद किया जाता है वो है 1935 की बांग्ला फ़िल्म “भाग्य-चक्र” जिसके एक डांस सीक्वेंस को प्लेबैक के साथ फिल्माया गया। इसी का हिंदी वर्ज़न थी- धूप-छाँव, जो पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसमें प्लेबेक सुनाई दिया। प्लेबैक की प्रेरणा जिस घटना से मिली उसके विषय में गायक-संगीतकार पकंज मलिक ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में जो लिखा है उनके अनुसार-
नितिन बोस रोज़ाना पंकज मलिक को पिक करते हुए स्टूडियो जाते थे क्योंकि पंकज मलिक का घर स्टूडियो के रास्ते में पड़ता था। एक दिन जब नितिन बोस उनके घर पहुंचे तो रिकॉर्ड पर एक गाना बज रहा था और पंकज मालिक नहाते हुए उस पर लिपसिंक कर रहे थे। बस इसी से नितिन बोस की आईडिया आया कि क्यों न हम भी गानों को पहले रिकॉर्ड कर लें और फिर कलाकार उस पर लिपसिंक करें? इससे एक मुश्किल और हल हो जाएगी कि यदि किसी कलाकार की आवाज़ अच्छी नहीं है या वो गाने में माहिर नहीं है तो भी उसे फ़िल्म में लिया जा सकेगा।
ये भी कहा जाता है कि नितिन बोस कोई रिकॉर्ड सुन रहे थे जिसे सुनकर उन्हें प्लेबैक का आईडिया आया। प्रेरणा किसी भी घटना से मिली हो पर दो बातें तय हैं कि प्लेबैक का आईडिया नितिन बोस को आया जो फ़िल्म निर्देशक होने के साथ-साथ न्यू थिएटर्स में टेक्नीकल चीफ़ भी थे। फिर उन्होंने ये बात आर सी बोराल को बताई और उन सब की कोशिशों का परिणाम रहा- भारतीय फ़िल्मों में प्लेबैक।
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और वो पहला गाना जो रिकॉर्ड किया गया वो था “मैं ख़ुश होना चाहूँ ख़ुश हो न सकूँ” जिसे पारुल घोष, हीरामती, सुप्रवा सरकार की आवाज़ों में रिकॉर्ड किया गया था। फिल्म “धूप-छाँव” के इस गीत को लिखा था “पं सुदर्शन” ने जिन्होंने बाबा भारती और खड़गसिंह की कहानी “हार की जीत” लिखी थी।
भारतीय फ़िल्मों में प्लेबैक की शुरुआत करने के बाद आर सी बोराल की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई। न्यू थिएटर्स के लिए आर सी बोराल ने जिन फ़िल्मों का संगीत दिया सभी एक के बाद एक कामयाब रहीं और उनका संगीत लोगों के सर चढ़ कर बोला। मंज़िल, करोड़पति, प्रेजिडेंट में उन्होंने पंकज मलिक के साथ मिलकर संगीत दिया। प्रेजिडेंट में एक गाना है “एक बांग्ला बने न्यारा” इस गाने की धुन आर सी बोराल ने बनाई थी। नई थिएटर्स में एक तालाब हुआ करता था। वहीं बैठे-बैठे इस गाने की धुन उनके दिमाग में आई और वहीं बैठकर के एल सहगल ने इस गाने को तैयार कर लिया।
सोलो संगीतकार के तौर पर तब तक की उनकी सबसे कामयाब फिल्म रही “विद्यापति” उसके संगीत में उन्होंने ऑर्गन और पियानो के प्रयोग से इंडियन-वेस्टर्न फ्यूज़न डाला। इसी फ़िल्म से कानन देवी और आर सी बोराल का साथ शुरु हुआ जो “साथी (1938)”, “स्ट्रीट सिंगर(1938)”, “सपेरा(1939)”, “जवानी की रीत(1939)”, “लगन(1941)” जैसी फ़िल्मों तक चला। और इन्हीं फिल्मों ने कानन देवी को कोलकाता फ़िल्म इंडस्ट्री का सुपरस्टार बनाया। और इस कामयाबी में कानन देवी के अभिनय के साथ-साथ आर सी बोराल के संगीत का भी उतना ही योगदान रहा।
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1938 में आई “स्ट्रीट सिंगर” हाँलाकि तब तक प्लेबैक आ चुका था मगर इस फिल्म के एक गाने “बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए” को लाइव रिकॉर्ड किया गया। इस गाने को शूट करने में काफ़ी मुश्किल आई, क्योंकि इस में के एल सहगल गाते हुए चल रहे थे और कुछ साज़िंदे उनके साथ-साथ ट्रक में, कुछ पैदल थे साथ में कुछ टेक्निशन्स भी थे। जो एक मुश्किल काम था मगर जब ये गाना रिकॉर्ड हुआ और पब्लिक ने देखा और सारी मेहनत वसूल हो गई क्योंकि सबने इसे बहुत पसंद किया। के एल सहगल और आर सी बोराल ने मिलकर न्यू थिएटर्स के लिए इतिहास रचा। लगन उन दोनों के मैजिक का एक और कामयाब नमूना थी।
के एल सहगल के करियर को एक दिशा देने में आर सी बोराल का काफी बड़ा रोल रहा है और उन्हें कानन देवी का गुरु भी कहा जाता है। इन दोनों स्टार्स के करियर को ऊँचाई तक पहुँचाने में आर सी बोराल का बहुत बड़ा योगदान है। क़रीब 20 सालों तक आर सी बोराल न्यू थिएटर्स से जुड़े रहे, और फ़िल्म संगीत में नए-नए प्रयोग करते रहे। उन्होंने ठुमरी, कीर्तन, ग़ज़ल और कबिगान जैसी विधाओं को एक साथ मिलाया और फ़िल्म संगीत के मुताबिक़ ढाला। न्यू थिएटर्स के साथ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी अन्जनगढ़ जो 1948 में आई थी।
1952 में आर सी बोराल मुंबई आए जहाँ उन्होंने “दर्द-ए-दिल” (1953) जैसी कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया। 1960 में उनके संगीत से सजी आख़िरी फ़िल्म आई, इसके बाद वो आकाशवाणी से जुड़े रहे। आर सी बोराल को 1959 की बांग्ला फिल्म “सागर संगमय” के लिए प्रेजिडेंट अवार्ड से नवाज़ा गया। 1978 में क्रिएटिव एंड एक्सपेरिमेंटल म्यूज़िक केटेगरी में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया और 1978 में ही उन्हें दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाज़ा गया। 25 नवम्बर 1981 को 78 साल की उम्र में वो इस दुनिया से कूच कर गए। मगर आर सी बोराल का नाम भारतीय फ़िल्म संगीत में अमिट है और जब-जब भारतीय फ़िल्मों प्लेबैक टेक्नीक का ज़िक्र होगा उनका नाम लिया जाएगा।
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