पं सुदर्शन

पं सुदर्शन का नाम शायद बहुत लोग न जानते हों मगर बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह की कहानी शायद सब ने पढ़ी सुनी होगी ! जिन्होंने ये कहानी लिखी वो थे पं सुदर्शन। 

ये तो शायद सभी जानते हैं कि भारतीय सिनेमा में प्लेबैक कब आया, किसकी कोशिशों से आया, प्लेबैक से सजी पहली फ़िल्म कौन सी थी, किस स्टूडियो ने वो फ़िल्म बनाई, उस में संगीत किसने दिया और सिंगर्स कौन थे। मगर उस फ़िल्म के जो गाने बहुत पॉपुलर हुए उन्हें लिखा किसने था ये शायद ही कोई जानता होगा!

कृपया इन्हें भी पढ़ें – पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे स्वागत गीत को आज भी गाया जाता है

स्कूल में पढ़ी बाबा भारती और खड़ग सिंह की कहानी ‘हार की जीत’ और प्लेबैक से सजी पहली भारतीय फ़िल्म… इन दोनों scenario में एक ही बात कॉमन है इनके लेखक पंडित सुदर्शन जिन्होंने क़रीब २० सालों तक फ़िल्मों में लेखन किया, जिसमें गीत लिखने के अलावा उन्होंने फ़िल्मों की कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स भी लिखे, साथ ही कई फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। सिनेमा में आने से पहले ही साहित्य जगत में वो अपना सिक्का जमा चुके थे। 

पं सुदर्शन
पं सुदर्शन और उनकी पत्नी

पं सुदर्शन मजबूरी में साहित्य से सिनेमा में आए

पं सुदर्शन का जन्म 1896 में स्यालकोट में हुआ था। उनका असली नाम था बद्रीनाथ भट्ट पर साहित्य और सिनेमा दोनों में वो अपने उपनाम सुदर्शन से ही जाने गए।  जब वो छोटे थे तभी उनके माता पिता की मृत्यु हो गई थी। पढ़ने लिखने का शौक़ बचपन से ही था, शुरुआत में वो उर्दू में लिखा करते थे, उर्दू में उनकी पहली कहानी तब छपी थी जब वो छठी  क्लास में पढ़ते थे। लाहौर की उर्दू पत्रिका “हज़ार दास्ताँ” में उनकी कई कहानियाँ छपीं। ग्रेजुएशन के बाद जब वो काम की तलाश में लाहौर गए तो वहां से प्रकाशित होने वाले कई उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग में काम किया।

उनकी पहली प्रकाशित हिंदी कहानी थी “हार की जीत” जो हिंदी की पत्रिका सरस्वती में छपी थी ये आज भी उनकी सबसे मशहूर कहानी है। लाहौर में उन्होंने उर्दू में अपना एक अख़बार भी निकाला जो शुरुआत में काफ़ी चला मगर फिर हालात कुछ ऐसे बिगड़े कि उन्हें अख़बार बंद करना पड़ा और फिर वो लाहौर छोड़ कर कोलकाता चले गए। उन दिनों सिनेमा में अच्छे लेखकों की बहुत डिमांड थी तो पं सुदर्शन के लिए भी काफ़ी मौक़े थे।

कृपया इन्हें भी पढ़ें – आरज़ू लखनवी थिएटर से मशहूर होने के बाद फ़िल्मों से जुड़े

पं सुदर्शन की पहली फ़िल्म थी “रामायण” जो 1934 में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म के गीत, संवाद, स्टोरी स्क्रीनप्ले सब पंडित सुदर्शन ने लिखा साथ ही प्रफुल्ल राय के साथ फ़िल्म का निर्देशन भी किया। लेकिन उन्हें असल शोहरत तब मिली जब उन्होंने न्यू थिएटर्स ज्वाइन किया। न्यू थिएटर्स की फ़िल्म “धूप-छाँव” से प्लेबैक की शुरुआत हुई इस फ़िल्म के सभी दस गाने पं सुदर्शन ने लिखे जिनमें से के सी डे के गाए ये दो गीत बहुत मशहूर हुए- “बाबा मन की आँखें खोल” “तेरी गठरी में लागा चोर”। फिर न्यू थिएटर्स की फ़िल्म “धरतीमाता” के गीत लिखे वो भी बहुत मशहूर हुए।

पं सुदर्शन

पं सुदर्शन की उपलब्धियाँ अनगिनत हैं

अक्सर लोग दूसरों की कामयाबी देख नहीं पाते, कहते हैं कि जैसे लाहौर में पं सुदर्शन के ख़िलाफ़ साज़िशें रची गई थीं वैसा ही न्यू थिएटर्स में भी हुआ। फिर वो कोलकाता छोड़कर मुंबई आ गए और सागर मूवीटोन के साथ काम करने लगे। वहां पहली फ़िल्म रही 1938 में आई “ग्रामोफ़ोन सिंगर ” जिसकी कहानी और स्क्रीनप्ले उन्होंने लिखा। उसके बाद “कुमकुम द डांसर’ के गीत लिखे और फिर उन्होंने रणजीत मूवीटोन की फ़िल्म ‘दिवाली” के गीत लिखे लेकिन मुंबई में उनकी सबसे कामयाब फ़िल्म थी सोहराब मोदी की “सिकंदर’ जिसकी रिसर्च से लेकर स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग और गीत सब पं सुदर्शन ने लिखे।

कृपया इन्हें भी पढ़ें – P L संतोषी – सब कुछ पाने और खोने की दास्तान

व्ही शांताराम की महत्वपूर्ण फ़िल्म पड़ोसी के गीत पं सुदर्शन की क़लम से निकले। यानी उस समय के लगभग सभी बड़े बेनर्स और सिनेमा के दिग्गजों के साथ उन्होंने काम किया और सिनेमा में अपनी क़लम की धाक जमाई।  क़रीब दो साल उन्होंने मद्रास की एक फ़िल्म कंपनी के साथ काम किया और उसी कंपनी की 1952 की फ़िल्म “रानी” उनकी आख़िरी फ़िल्म रही। इसके बाद जब वो मुंबई लौटे तो सिनेमा की दुनिया को अलविदा कह दिया और पूरी तरह साहित्य सृजन में जुट गए।

पं सुदर्शन के कई नाटक और कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। कुछ कहानियां तो सालों तक स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल रहीं। 1945 में महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तावित “अखिल भारतीय हिंदुस्तानी प्रचार सभा ” के सदस्य थे। और वो 1950 में बने फ़िल्म लेखक संघ के पहले उपाध्यक्ष भी थे। 16 दिसम्बर 1967 वो दिन था जब पं सुदर्शन ने अंतिम साँस ली। लेकिन शायद दुनिया ने उन्हें उससे पहले ही भुला दिया था। वो कहते हैं न out of sight out of mind . पुराने दौर की बहुत सी हस्तियों के साथ ऐसा ही हुआ है जब जीते जी उन्हें भुला दिया गया। ख़ासकर writers और lyricist के योगदान को तो सालों तक अनदेखा ही किया गया है। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *