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महिला दिवस (Women’s Day Special) पर याद करते हैं भारतीय सिनेमा की कुछ अग्रणी महिलाओं की, वो महिलाएँ जिन्होंने भारतीय सिनेमा में पहला क़दम बढ़ाया

भारतीय सिनेमा में शुरूआती दौर बहुत ही उतार-चढाव भरा रहा। एक तरफ़ जहाँ लोग नए-नए प्रयोगों के माध्यम से दर्शकों को कुछ अलग देने की कोशिश कर रहे थे, नए आयाम तलाश रहे थे। वहीं दूसरी तरफ़ सिनेमा एक तरह का टैबू भी था। शुरुआत में न तो सिनेमा में काम करने वालों को सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था न ही सिनेमा देखने वालों को। बल्कि सिनेमा से जुड़े किसी भी व्यक्ति को लेकर आम जनमानस में कोई अच्छी छवि नहीं थी। 

भारत जैसे पुरुष सत्तात्मक देश में महिलाओं के लिए तो सिनेमा के बारे में सोचना भी पाप था। भले घर की महिला तो दूर की बात है दादा साहब फालके किसी तवायफ़ को भी अपनी फ़िल्म में काम करने को राज़ी नहीं कर पाए थे और थक हार कर उन्हें अपने रसोइए अन्ना सालुंके से वो भूमिका करानी पड़ी। 

पर जैसे-जैसे सिनेमा आगे बढ़ रहा था उसमें बहुत सी महिलाओं को अपना सुरक्षित भविष्य दिखने लगा था। इनमें वो एंग्लो इंडियनंस, तवायफ़ों के अलावा वो महिलाएँ भी थी जो थिएटर में अभिनय करती थीं और वो महिलाएँ भी जो पढ़ी-लिखी खुले दिमाग़ की थीं और घर-परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने या अपनों के प्रोत्साहित करने पर फ़िल्मों में आईं। और यही वो महिलाएँ थीं जिन्होंने हर प्रकार की पाबन्दी को तोड़कर न सिर्फ़ अपने लिए बल्कि दूसरी महिलाओं के लिए भी राह खोली। 

इस पोस्ट में आप उन कुछ शुरूआती महिलाओं के विषय में जानेंगे जो सिनेमा के क्षेत्र में अग्रणी रहीं।  

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1. First Heroine Of Indian Cinema

कमलाबाई गोखले (1900 – 1997)

कमलाबाई गोखले और उनकी माँ दुर्गा बाई कामत वो पहली महिलाएँ थीं जो किसी भारतीय फ़िल्म में नज़र आईं। दुर्गा बाई कामत का अपने पति से अलगाव हो चुका था और उस समय उनकी बेटी कमलाबाई बहुत छोटी थीं। ऐसे में अपनी और अपनी बेटी की परवरिश के लिए दुर्गाबाई ने एक घुमन्तु थिएटर कंपनी में काम करना शुरु किया। लेकिन ऐसा करने पर समाज ने उन्हें दरकिनार कर दिया। पर दुर्गा बाई ने समाज के आगे घुटने नहीं टेके और अपनी बेटी को भी सदा अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया।

कमलाबाई की शिक्षा-दीक्षा थिएटर कंपनी में काम करते हुए ही हुई, अभिनय, गायकी सब उन्होंने वहीं सीखा। जब दादा साहेब फालके अपनी दूसरी फ़िल्म “मोहिनी भस्मासुर” बनाने जा रहे थे, उन दिनों कमलाबाई की नाटक मंडली – “चित्ताकर्षक संगीत नाटक मंडल” आर्थिक कारणों से बंद पड़ी थी। मंडली के संचालक से दादा साहब फाल्के की जान-पहचान थी। उन्होंने जब कमलाबाई से फ़िल्म में हेरोइन बनने की बात की तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया।

उस दौर में तो थिएटर में भी ज़्यादातर लड़के ही महिलाओं के किरदार निभाया करते थे, वो तो फिर फ़िल्म थी। मगर नाटक कंपनी के मालिक ने उन्हें समझाया कि अभिनय ही तो करना है, चाहे स्टेज हो या फ़िल्म क्या फ़र्क़ पड़ता है ? उस समय उन दोनों के पास कोई काम नहीं था तो वो राज़ी हो गईं मगर इस शर्त पर कि फ़िल्म में माँ-बेटी दोनों काम करेंगी।

इस तरह दादा साहेब फालके की फ़िल्म “मोहिनी भस्मासुर” में कमलाबाई ने मोहिनी की और उनकी माँ दुर्गा बाई ने पार्वती की भूमिका निभाई। “मोहिनी भस्मासुर” हिट रही और 15 साल की उम्र में ही कमलाबाई एक सेलिब्रिटी बन गईं। इस तरह कमलाबाई कामत का नाम भारतीय फ़िल्मों की पहली हेरोइन के रुप में अमर हो गया।

2. First Women Who Played Double Role

पेशेंस कूपर (1902- 1983)

पेशेंस कूपर भारतीय सिनेमा की पहली एंग्लो इंडियन अभिनेत्री के तौर पर जानी जाती हैं, वो साइलेंट इरा में स्टार हुआ करती थीं। उनके वेस्टर्न लुक्स और एजुकेशन ने उन्हें एक मॉडर्न अभिनेत्री का दर्जा दिलाया और उनकी डिमांड इसलिए भी बढ़ी क्योंकि तब तक फ़िल्मों में महिलाओं का प्रवेश बहुत कम हो रहा था। इसलिए जब पेशेंस कूपर ने फ़िल्मों में क़दम रखा तो उनकी डिमांड बढ़ती ही गई। 30 जनवरी 1902 को वेस्ट बंगाल के हावड़ा में जन्मी पेशेंस कूपर वो अभिनेत्री भी रहीं जिन्होंने पहली बार परदे पर डबल रोल प्ले किया।

पत्नी प्रताप में उन्होंने जुड़वाँ बहनों का किरदार निभाया और कश्मीरी सुंदरी में माँ-बेटी का। उनके करियर की शुरुआत एक डांसर के रूप में हुई, फिर उन्होंने JF मादन की कोरंथियन स्टेज कंपनी ज्वाइन कर ली। और फिर  मादन की ही 920 में आई फ़िल्म नल-दमयंती में वो नज़र आईं, जोकि एक सुपरहिट फ़िल्म थी। उसके बाद ध्रुव चरित्र, पति भक्ति जैसी कई फ़िल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया। 1944 तक के अपने करियर में उन्होंने क़रीब 40 फ़िल्मों में अभिनय किया।

कहा जाता है कि उन्होंने 21 साल की उम्र में एक मशहूर बिज़नेस मैन मिर्ज़ा अहमद इस्पहानी से शादी की, मगर जल्दी ही ये शादी टूट गई फिर बाद में उन्होंने अभिनेता गुल हामिद से शादी की, जिनकी 6 साल बाद एक बीमारी से मौत हो गई, 1983 में पेशेंस कूपर की मौत हो गई। कुछ साल पहले तक उनकी कोई फ़िल्म अवेलेबल नहीं थी, मगर 2022 में उनकी फ़िल्म ‘बेहुला’ को पेरिस लैब में रिस्टोर किया गया, 5 रील की इस फ़िल्म का निर्माण JF मदन ने ही किया था।

3. First Women Who Kissed On-Screen

सीता देवी (1912 – 1983 )

सीता देवी भारतीय साइलेंट मूवीज की स्टार एक्ट्रेस थीं जिन्होंने सिर्फ़ 5-6 साल फ़िल्मों में काम किया लेकिन उनका नाम भारतीय फ़िल्म इतिहास में दर्ज हो गया। उनकी पहली फ़िल्म थी 1925 में आई इंडो-जर्मन प्रोडक्शन ‘प्रेम सन्यास’ जो लाइट ऑफ़ एशिया के नाम से मशहूर हैं। लाइट ऑफ़ एशिया में कास्टिंग के लिए advertisement निकाला गया था। सीता देवी ने अप्लाई किया और क़रीब 3000 अप्लीकेंट्स में से 13 साल की सीता देवी को चुना गया। ये फ़िल्म 6 महीने में बनकर तैयार हुई। 

अगले कुछ सालों में उनकी दो और इंडो-जर्मन प्रोडक्शंस आईं –  शीराज़ (1928) और प्रपंच पाश जो इंग्लिश टाइटल “ए थ्रो ऑफ़ डाइस” (1929) के नाम से मशहूर है और इसलिए भी कि ये पहली भारतीय फ़िल्म थी जिसमें एक लिप-लॉक किस दिखाया गया था। कमाल की बात है कि तीनों फ़िल्मों की कहानी भारत के इतिहास से जुड़ी हैं मगर इनमें मुख्य भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री और इन तीनों फ़िल्मों का निर्देशन करने वाले निर्देशक, दोनों ही विदेशी थे। इन फिल्मों का निर्देशन किया था फ्रेंज़ ऑस्टन ने, जिन्होंने बाद में अछूत कन्या का निर्देशन भी किया। 

लाइट ऑफ़ एशिया” भगवान बुद्ध के जीवन पर आधारित थी, शीराज़ ताजमहल और A Throw Of Dice की कहानी महाभारत पर आधारित थी। 1925 से 1930 के बीच सीता देवी ने कोलकाता के मादन थिएटर्स के लिए भी कई साइलेंट फ़िल्में कीं इनमें मुख्य रूप से ये – कृष्णकंटेर विल (1926),  दुर्गेशनंदिनी (1927), कपाल कुण्डला (1929) जैसी फ़िल्में शामिल हैं। हाँलाकि एक अजीब सी बात भी पढ़ने को मिली कि सीता देवी जिनका असली नाम रेने स्मिथ था उनकी एक बहन भी थीं पर्सी स्मिथ कहा जाता है कि दोनों की शक्ल इतनी मिलती थी कि सीता देवी के नाम से कभी रेने परदे पर आती और कभी उनकी बहन। इस बात में कितनी सच्चाई है ये रिसर्च का विषय है। 

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4. First Professional Female Music Director

सरस्वती देवी (1912 – 1980)

यूँ तो जद्दनबाई को हिंदी फ़िल्मों की पहली महिला संगीतकार माना जाता है, पर उन्होंने अपने बैनर की फ़िल्मों में ही संगीत दिया था। लेकिन सरस्वती देवी एक फ़ुल टाइम म्यूजिक डायरेक्टर थीं, जिन्होंने एक दशक से भी ज़्यादा समय तक हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया। वैसे भी जद्दनबाई के संगीत से सजी “तलाश-ए-हक़” और सरस्वती देवी के संगीत से सजी “जवानी की हवा” दोनों ही 1935 में रिलीज़ हुई थीं।

एक पारसी परिवार में जन्मीं  सरस्वती देवी का असली नाम था – ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी। जिनके म्यूज़िक के प्रति लगाव को देख कर उनके पिता ने उन्हें बाक़ायदा शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलाई। जब मुंबई में इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी की शुरुआत हुई तो वहां होमजी सिस्टर्स यानी सरस्वती देवी और उनकी बहनों की ऑर्केस्ट्रा पार्टी बहुत मशहूर हुई। वहीं से सरस्वती देवी ने बाक़ायदा गाने की शुरुआत की हाँलाकि वो कॉलेज के टाइम से ही स्टेज पर गाया करती थीं ।

बाद में भी उन्होंने बड़े बड़े समरोहों में अपने गाने से लोगों का दिल जीता। ऐसे ही एक फंशन में हिमांशू राय से उनकी मुलाक़ात हुई जो उस समय बॉम्बे टॉकीज़ शुरु करने जा रहे थे और उनके आग्रह पर सरस्वती देवी ने बॉम्बे टॉकीज़ में बतौर संगीतकार काम करना स्वीकार कर लिया, बल्कि कहना चाहिए कि पूरा म्यूज़िक डिपार्टमेंट उनकी देख-रेख और निर्देशों के अनुसार बना।

सरस्वती देवी के साथ उनकी एक बहन माणिक ने भी बॉम्बे टॉकीज़ ज्वाइन किया। लेकिन दोनों बहनों के फ़िल्म इंडस्ट्री जॉइन करने से पारसी समाज में हलचल मच गई। हर जगह उनका विरोध होने लगा। एक बार तो ऐसा हुआ कि वो हिमांशु राय के साथ कहीं जा रही थीं कि भीड़ ने उनकी गाड़ी को रोक लिया और सरस्वती देवी को बाहर खींच लिया। उस वक़्त हिमांशु राय ने ये कह कर जान बचाई कि वो देविका रानी हैं।

लेकिन इस विरोध को ख़त्म करने के लिए ये सोचा गया कि ख़ुर्शीद होमजी मिनोचर नाम को ही बदल दिया जाए। इसके बाद दोनों बहनों का नाम बदल दिया गया। बावजूद इसके सरस्वती देवी की पहली फ़िल्म “जवानी की हवा” थी जो बॉम्बे टॉकीज़ की भी पहली फ़िल्म थी। उसका पारसी फ़ेडरल कॉउन्सिल ने बहुत विरोध किया, जुलूस तक निकाले। मामला तब जाकर शांत हुआ जब बॉम्बे टॉकीज़ ट्रस्ट के कुछ पारसी सदस्यों ने बीच-बचाव किया और ख़ूब समझाया बुझाया।

उस दौर में भारी विरोध झेलकर भी सरस्वती देवी डरी नहीं, रुकी नहीं और मेल डोमिनेटिंग सोसाइटी में उन्होंने अपनी वो पहचान बनाई, जो आज के दौर में भी आसान नहीं है। “मैं बन की चिड़िया बन के बन बन डोलूँ रे” जैसे कई मशहूर गीतों का संगीत देने वाली सरस्वती देवी भारतीय सिनेमा की पहली प्रोफ़ेशनल महिला संगीतकार कहलाईं।

5. First Female Film Director

फ़ातमा बेगम (1892 – 1983)

फातमा बेगम का जन्म 1892 में एक मुस्लिम परिवार में हुआ और उनके करियर की शुरुआत हुई उर्दू स्टेज से, जहाँ उन्हें काफ़ी शोहरत मिली। उर्दू के साथ-साथ उन्होंने गुजराती थिएटर भी किया और फिर 1922 में अर्देशिर ईरानी की फ़िल्म “वीर अभिमन्यु” से क़रीब 30 साल की उम्र में फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा। उस समय तक वो तीन बेटियों की माँ बन चुकी थीं।

1926 में फातमा बेगम ने अपने बैनर “फ़ातमा फ़िल्म कॉरपोरेशन” की स्थापना की जो बाद में “विक्टोरिया-फ़ातमा फ़िल्म्स” में तब्दील हो गया। इस बैनर की पहली फ़िल्म काफ़ी बड़े बजट की एक फैंटसी फ़िल्म थी। नाम था – “बुलबुल-ए-परिस्तान” इस में इफेक्ट्स के लिए ट्रिक फोटोग्राफी का इस्तेमाल किया गया था। इस फ़िल्म का निर्माण-निर्देशन फ़ातमा बेगम ने किया और इसका स्क्रीनप्ले भी उन्होंने ही लिखा था।

इसी फ़िल्म के साथ वो फ़िल्म इतिहास में पहली महिला फ़िल्म-निर्देशक के रूप में अमर हो गईं। फिर 1929 में उन्होंने “Goddess of Luck” का निर्देशन किया। फ़ातमा बेगम अपने बैनर की फिल्मों का निर्देशन करने के अलावा उनमें अक्सर अभिनय भी किया करती थीं।

6. First Stunt Queen

नाडिया (1908 – 1996)

30 के दशक की बात है जब नीली आँखों और भूरे बालों वाली गोरी लड़की हिंदी सिनेमा के परदे पर दिखाई दी। ये लड़की किसी भी आम भारतीय महिला से बिलकुल अलग थी। ये चुपचाप कोई ज़ुल्म नहीं सहती थी बल्कि ईंट का जवाब पत्थर से देती थी। आप उन्हें भारतीय फ़िल्मों की लेडी रॉबिनहुड कह सकते हैं। पर सच यही है कि हिंदी फिल्मों की पहली स्टंट क्वीन कोई भारतीय स्त्री नहीं थी। एक ऑस्ट्रेलियन थी जो पांच साल की उम्र में भारत आई थी और फिर यहीं की हो गईं।

उनका असली नाम था “मेरी एन इवांस” पर एक भविष्यवक्ता के कहने पर उन्होंने अपना नाम इंग्लिश के N अक्षर से रखा – नाडिया। उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में थे। जब प्रथम विश्व युद्ध में उनकी मौत हो गई तो वो और उनकी माँ अपने रिश्तेदारों के पास पेशावर चले गए। वहीं मेरी ने हॉर्स राइडिंग, फ़िशिंग, हंटिंग और शूटिंग भी सीखी, फिर बेहतर भविष्य की तलाश में वो लोग वापस मुंबई आ गये।अच्छी जॉब पाने के लिए नाडिया ने शॉर्टहैंड और टाइपिंग भी सीखी।

वज़न कम करने के लिए उन्होंने एक रशियन डांस टीचर से डांस सीखना शुरु कर दिया और फिर उन्हीं के डांस ट्रूप का हिस्सा बन गईं जो हिंदुस्तान में घूम-घूम कर शोज किया करता था। उसके बाद उन्होंने एक रशियन सर्कस में भी काम किया, वहीं उन्हें टाइटल मिला “फीयरलेस”। लेकिन जल्दी ही वो स्टेज की नाचती-गाती दुनिया में वापस लौट आईं।

उस थिएटर के मैनेजर ने ही उन्हें वाडिया मूवीटोन के JBH वाडिया और उनके छोटे भाई होमी वाडिया से मिलवाया। वाडिया ब्रदर्स को नाडिया का कॉन्फिडेंस बहुत पसंद आया और उन्होंने सबसे पहले उन्हें “देश-दीपक” फ़िल्म में एक दासी का किरदार दिया, फिर अगली फिल्म “नूर-ए-यमन” में “शहज़ादी परीज़ाद” का रोल दिया। इस फ़िल्म में उन्हें परदे पर बहुत पसंद किया गया तो वाडिया ब्रदर्स ने तय किया कि उन्हें बतौर स्टार इंट्रोड्यूस किया जाए और संयोग से उन्हें एक बढ़िया स्क्रिप्ट भी मिल गई और फिर नाडिया एक नए अवतार में दिखाई दीं।

वो थी “हंटरवाली” हाथ में चाबुक, आँखों पर मास्क, टाइट पेन्ट और गज़ब का एटीट्यूड।  इसके बाद तो फिल्म्स, फैंस, एक्शन, स्टंट्स यही नाडिया की ज़िंदगी बन गए।नाडिया के स्टंट का सिलसिला हंटरवाली से शुरु हुआ और हर फ़िल्म के साथ उन के स्टंट और भी ज़्यादा ख़तरनाक़ होते गए। घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, शेंडेलेयर से लटककर जम्प करना, चलती ट्रेन पर मर्दों को उठाना, उनसे लड़ना, शेर के मुंह में हाथ डालना।

अपने सारे ख़तरनाक़ स्टंट्स वो ख़ुद करती थीं, जिसके लिए घंटों जिम में पसीना भी बहाती थीं। नाडिया ने ज़्यादातर वाडिया मूवीटोन की फ़िल्मों में ही काम किया और उन फ़िल्मों के कारण वो पहली ऐसी भारतीय महिला कलाकार बनी जिसने स्टंट क्वीन का ख़िताब पाया।

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7. First Female Comedian

उमा देवी उर्फ़ टुनटुन (1923 – 2003)

उमा देवी खत्री जो दिल्ली के पास एक गाँव में रहती थीं। माता पिता बचपन में ही गुज़र गए थे एक बड़ा भाई था वो भी तब गुज़र गया जब वो 4-5 साल की थीं। वो रिश्तेदारों के करम के सहारे ज़िंदगी गुज़ार रही थी। बचपन से गाने का शौक़ था मगर गाना गाने की इजाज़त नहीं थी। पढाई लिखाई हुई नहीं थी बस घर के कामों में जुटे रहना पड़ता था।  बचपन से गाने का शौक़ था मगर गाना गाने की इजाज़त नहीं थी।

एक दिन घर के हालात और रिश्तेदारों की मनमानी से तंग आकर उमा देवी चुपचाप घर छोड़कर मुंबई चली गई। और काम की तलाश एक दिन उन्हें A R कारदार के ऑफिस ले गई। जहाँ संगीतकार नौशाद के असिस्टेंट ने उनका टेस्ट लिया और टेस्ट में पास होने पर उन्हें कारदार प्रोडक्शंस में 500 रुपए महीने की नौकरी मिल गई। 1947 की फ़िल्म “दर्द” के लिए उन्होंने पहला गीत रिकॉर्ड किया जो रातों रात बहुत मशहूर हो गया।

वो गाना था – “अफ़साना लिख रही हूँ दिले बेक़रार का” गाना तो बेहद मक़बूल हुआ मगर नौशाद जानते थे कि सिंगिंग में उनका कोई भविष्य नहीं है इसलिए उनकी सलाह पर उमा देवी ने फ़िल्मों में हास्य भूमिका के लिए रज़ामंदी दे दी। मगर इस शर्त पर कि वो दिलीप कुमार के साथ काम करेंगी। इस तरह फ़िल्म “बाबुल” से उन्हें न सिर्फ़ नई पहचान मिली बल्कि नया नाम भी मिला ‘टुनटुन’ जिन्होंने बहुत सी फ़िल्मों में अपने अभिनय से लोगों को हँसा-हँसा कर लोटपोट किया,और पहली महिला हास्य कलाकार का दर्जा पाया।

8. First Iconic Vamp

नादिरा (1932 – 2006)

फ़रहत ख़ातून ऐज़िकल स्कूल में कहलाईं फ्लोरेंस ऐज़िकल पर जब अपने समय की मशहूर अभिनेत्री और फ़िल्मकार महबूब ख़ान की पत्नी सरदार अख़्तर की नज़र पड़ी तो उन्हें उनमें कुछ ख़ास दिखाई दिया। उन दिनों महबूब ख़ान फ़िल्म “आन” बनाने की प्लानिंग कर रहे थे, जिसमें उन्होंने फ़रहत को राजकुमारी का रोल दिया और सरदार अख़्तर ने एक नया – नादिरा।

फ़रहत को सरदार अख़्तर ने ही चलना-फिरना, मेकअप करना, ड्रेस कैरी करना सब उन्होंने सिखाया। ‘आन’ फ़िल्म रिलीज़ होते ही सिर्फ़ 18 साल की उम्र में नादिरा रातोंरात स्टार बन गईं। फ़िल्म में उनका किरदार नकारात्मक था और फिर जैसे ये नेगेटिविटी उनकी भूमिकाओं के साथ जुड़ गई। यूँ तो उनसे पहले भी कई अभिनेत्रियों ने नेगटिव शेड्स के रोल्स किये थे मगर नादिरा पहली ऐसी अभिनेत्री थीं जो इस तरह के रोल्स की वजह से लोकप्रिय हुईं, इसीलिए उन्हें भारतीय सिनेमा की “पहली आइकोनिक वैम्प” कहा जाता है।

नादिरा अपने समय की एक महंगी महिला स्टार थीं, अपने दौर की पहली अभिनेत्री थीं जिनके पास रॉल्स-रॉयस जैसी महंगे ब्रांड की LUXURY कार थी। फ़िल्म “श्री 420” का मशहूर गाना “मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के” तो जैसे उनकी पहचान ही है। सिगरेट के कश लगाती, हीरो को अपनी उँगलियों पर नाचती माया के इस किरदार के बाद वाक़ई उन्हें मुड़कर देखने की ज़रुरत नहीं पड़ी। उस समय के लिहाज़ से ये सब काफ़ी बोल्ड था लेकिन इस फ़िल्म के बाद उन्हें इसी तरह की भूमिकाओं के ऑफ़र आने लगे।

70 के दशक तक आते-आते वो चरित्र भूमिकाओं की तरफ़ मुड़ गईं। लेकिन वहाँ भी ज़्यादातर फ़िल्मों में उनकी नकारात्मक छवि बरक़रार रही। नादिरा ने कभी भी लाचार, कमज़ोर महिला, अबला नारी का किरदार नहीं निभाया। चार दशकों के अपने करियर में नादिरा ने लगभग 80 फ़िल्मों में काम किया। और जैसे मज़बूत किरदार उनकी फिल्मों में होते थे, वैसे ही पूरी शान और आत्म-सम्मान के साथ उन्होंने अपनी जिंदगी को भी जिया।

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9. First Diva and First Lady Of Indian Cinema

देविका रानी (1908 -1994)

जैसा कि मैंने पहले बताया कि शुरुआत में सिनेमा में जो भी हेरोइंस थीं उनका सम्बन्ध या तो तवायफों के ख़ानदान से था या वो इंग्लिश, ज्यूइश, पर्शियन थीं। सिनेमा में तब तक संभ्रांत परिवारों की शिक्षित महिलाओं का प्रवेश नहीं हुआ था। ऐसे माहौल में एक संपन्न और शिक्षित बंगाली ज़मींदार परिवार की बेटी फ़िल्मों से जुड़ी जिसका नाम था देविका रानी।

उनके पिता कर्नल मन्मथनाथ चौधरी मद्रास रेसीडेंसी के पहले भारतीय सर्जन जनरल थे। उनकी दादी गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की बहन थीं। और उनकी माँ का सम्बन्ध भी रबीन्द्रनाथ ठाकुर से था। देविका रानी ख़ुद काफ़ी पढ़ी-लिखी और dignified डिग्नीफाइड महिला थीं – बेहद ख़ूबसूरत और टैलंटेड। उनके आने से संभ्रांत परिवार की दूसरी महिलाओं के लिए सिनेमा के बंद दरवाज़े खुलने लगे।

वो उन शुरूआती महिला हस्तियों में से थीं जिन्होंने भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में पहचान दिलाने का काम किया इसीलिए उन्हें फर्स्ट लेडी ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहा जाता है। उन्होंने जिस तरह का स्टारडम पाया, और सिनेमा की दुनिया में जो मान सम्म्मान उन्हें हासिल हुआ उस की वजह से ही उन्हें फर्स्ट डीवा ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहा जाता है।

उनके विषय में ज़्यादा जानने के लिए ये वीडियो देखिए –

10. First Item Girl And Dancing Star

हिंदी सिनेमा के अतीत पर नजर डालें तो कई महिला डांसर्स के नाम सामने आते हैं, लेकिन पहली मशहूर महिला डांसर जो आइटम गर्ल के तौर पर पहचानी गईं वो थीं अज़ूरी, जिन्हें मैडम अज़ूरी के नाम से भी जाना जाता था। अज़ूरी ने अपना पूरा जीवन नृत्य को समर्पित कर दिया था।

जर्मन डॉक्टर और भारतीय हिन्दू नर्स की बेटी एना मेरी गुइज़लर फ़िल्मों में आने के बाद कहलाईं अज़ूरी। बंगलौर में जन्मी अज़ूरी की दिलचस्पी थी इंडियन क्लासिकल डांस और म्यूज़िक में, हाँलाकि उन्होंने बैले डांस और पियानो भी सीखा। बाद में जब उनके पिता बॉम्बे शिफ्ट हुए तो वहां वो टर्किश राइटर और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट ख़ालिदा अदीब ख़ानम के सम्पर्क में आईं, उन्होंने ही उनका नाम एना से अज़ूरी रखा। अपने पिता की मौत के बाद अज़ूरी ने डांस की बाक़ायदा ट्रैंनिंग ली।

1935 से 1947 तक वो भारतीय सिनेमा में बतौर डाँसर दिखाई दीं। शुरुआती फ़िल्मों के बाद अज़ूरी की हैसियत ये हो गई थी कि फिल्में उनके नाम से बिकती थीं। वी शांताराम की फ़िल्म “चन्द्रसेना” के मशहूर डांस सीक्वेंस में वो लीड डांसर थीं। वो अज़ूरी के बड़े प्रशंसक थे इसिलिये इस डांस सीक्वेंस में गाते हुए क्लोज़ अप तो एक्ट्रेस रजनी के थे लेकिन लॉन्ग शॉट में अज़ूरी चार और डांसर्स के साथ ड्रम के ऊपर डांस करती नज़र आती हैं। 1944 की फ़िल्म रतन में उनका ये डांस भी काफ़ी फेमस हुआ।

वो पहली भारतीय महिला फ़िल्म डांसर थीं जिन्हें बकिंघम पैलेस में परफॉर्म करने के लिए बुलाया गया था। कहते हैं जब उन्होंने राधा-कृष्ण डांस किया तो वहाँ बैठा हर व्यक्ति मंत्रमुग्ध हो गया था। वहां दर्शकों में जॉर्ज बर्नाड शॉ भी थे। अज़ूरी फ़िल्म मैगज़ीन्स में लगातार कॉलम लिखती थी, जिनका विषय इंडियन डांस और डांसर ही होता था।

अज़ूरी ने एक मुस्लिम नेवल ऑफ़िसर से शादी की और देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चली गईं। वहाँ रावलपिंडी में उन्होंने क्लासिकल डांस की पहली अकादमी खोली जिसका काफ़ी हिंसक विरोध हुआ। बाद में अज़ूरी काफ़ी सालों तक अपने घर और स्कूल में ही डांस सिखााया। 1998 में अज़ूरी की मौत हो गई।