कावस लॉर्ड (Cawas Lord – 1911 – 24 Dec 2007 ) एक ऐसे इंस्ट्रूमेंटलिस्ट जो हिंदी फ़िल्म संगीत में कई नए विदेशी वाद्य लेकर आये।
कहा जाता है “Jack of all trades, master of none’ मगर कुछ लोग ऐसी प्रतिभा के साथ जन्म लेते हैं कि मास्टर ऑफ़ ऑल ट्रेड्स बन जाते हैं। फिल्म संगीत में ऐसे बहुत से वादक हुए हैं जो कई तरह के वाद्य बजाने में महारत रखते थे। मगर इस पोस्ट में जिनकी बात हो रही है उनके बारे में फ़िल्म एक्सपर्ट्स का मानना है कि शायद ही कोई ऐसा वाद्य होगा जिसे कावस लॉर्ड न बजा सकते हों। वैसे उन्हें हिंदी फिल्मों में पर्कशन इंस्ट्रूमेंट्स की शुरुआत करने वाला माना जाता है।
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परकशन को आम तौर पर संगीत समूह की “बैकबोन” या “हार्ट बीट” कहा जाता है। इनमें बोंगो, कांगो, कोबाचे, कास्टनेट, ट्रायंगल और रेसो-रेसो जैसे कई वाद्य शामिल हैं जिनका प्रयोग कवास लॉर्ड ने बहुत सी हिंदी फ़िल्मों में पूरी कुशलता और सफलता के साथ किया।
Percussion is commonly referred to as “the backbone” or “the heartbeat” of a musical ensemble, often working in close collaboration with bass instruments, when present. In jazz and other popular music ensembles, the pianist, bassist, drummer and sometimes the guitarist are referred to as the rhythm section. Most classical pieces written for full orchestra since the time of Haydn and Mozart are orchestrated to place emphasis on the strings, woodwinds, and brass.- Wikipedia
कावस लॉर्ड ने संगीत के शौक़ के पीछे छोड़ दिया परिवार
कावस लॉर्ड का जन्म 17 सितम्बर 1911 में पुणे के एक रुढ़िवादी पारसी परिवार में हुआ। जहाँ संगीत की बात करना भी गुनाह था। उनके घर में खिलौने भी संगीत वाले नहीं आते थे, तो म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स तो दूर की बात थी। वैसे भी वो समय था जब गाना बजाना अच्छे परिवारों का काम नहीं माना जाता था। कवास लॉर्ड को संगीत बहुत पसंद था और ये भी जानते थे कि पुणे में अपने घर में रहकर वो संगीत के अपने शौक़ को आगे नहीं बढ़ा पाएँगे। तो 12 साल की उम्र में वो अपनी माँ के साथ पुणे छोड़कर मुंबई आ गए।
मुंबई आकर उन्होंने पंजाब रेजिमेंट के गुन्डल ख़ान साहब से बैगपाइप सीखना शुरु किया और शौक़ ऐसा था जब कभी म्यूजिक के रास्ते में पढ़ाई आती तो वो स्कूल भी बंक कर देते। फिर संगीत से उनका यही प्यार उन्हें होटल्स तक ले गया जहाँ डांस बैंड्स परफॉर्म किया करते थे। शुरुआत में २-3 साल तक वो ताज होटल में बारमैन भी रहे। और वहाँ जाने का फ़ायदा ये हुआ कि उन्होंने वहां आकर परफॉर्म करने वाले अलग-अलग विदेशी बैंड्स से लेटिन अमेरिकी इंस्ट्रूमेंट्स बजाना सीख लिया। ख़ासतौर पर ड्रम उन्हें बहुत आकर्षित करता था। उन्होंने न सिर्फ़ उन विदेशी वादकों से ड्रम बजाना सीखा, बल्कि किताबें पढ़कर भी अपने बेसिक्स को मज़बूत किया।
कावस लॉर्ड ने ब्रिटिश आर्मी बैंड में भी काम किया
ताज में काम करने के दौरान उनकी मुलाक़ात हुई बेहरम ईरानी से जो उस समय संगीत के क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण नाम थे। बेहरम ईरानी उनकी ज़िंदगी में काफ़ी महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे क्योंकि बाद में उन की बहन बानुबाई से ही कावस लॉर्ड की शादी हुई। उस समय बेहरम ईरानी अपना एक बैंड बना रहे थे और उन्हें एक ट्रम्पेट प्लेयर की ज़रुरत थी। तब कावस लार्ड ने मि. वालिस से ट्रम्पेट सीखना शुरू किया और बाद में स्पेन के लुई मॉरेनो से भी ट्रम्पेट की ट्रैंनिंग ली।
मुंबई में वो अलग-अलग डांस बैंड्स के लिए और जैज़ डांस क्लासेज में ड्रम और ट्रम्पेट बजाया करते थे, शादियों में भी ड्रम बजाया करते थे। उन्हीं दिनों उन्होंने मिलिट्री ड्रम और पाइप बजाना भी सीखा, और वो कहते हैं न कि सीखा हुआ कुछ भी वेस्ट नहीं होता, कभी न कभी काम ज़रुर आता है। और कावस लार्ड ने तो इतने वाद्य बजाने में महारत हासिल कर ली थी कि जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने आर्मी में शामिल होने के लिए अप्लाई किया तो उन्हें ओवर क्वालिफाइड कह कर रिजेक्ट कर दिया गया। पर उन्हें साउथर्न आर्मी एंटरटेनमेंट और बाद में एंटरटेनमेंट नेशनल सर्विसेज एसोसिएशन्स में काम करने का प्रस्ताव दिया गया जो उन्होंने स्वीकार किया।
इस दौरान कावस लॉर्ड ने बतौर ट्रम्पेटर और ड्रमर, ब्रिटिश आर्मी के साथ पूरे भारत और बर्मा की यात्रा की और अपने साथी ब्रिटिशर्स से नया नाम पाया कार्ल लॉर्ड क्योंकि उन्हें कावस बोलने में दिक़्क़त होती थी। बाद में कावस लार्ड को कैप्टन बना दिया गया। उस दौरान उन्होंने अलग-अलग कंडक्टर्स और बैंड लीडर्स के अंडर अलग-अलग म्यूजिक परफॉर्म किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनके पास देश से बाहर कहीं भी बसने का विकल्प था मगर वो भारत वापस आ गए।
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कावस लॉर्ड वो नाम है जिनका फ़िल्मों से नाता तब से है जब पहली इंडियन टॉकी बनी थी। क्योंकि उसमें भी उन्होंने बतौर वादक काम किया। इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी के साथ उन्होंने 50 से 75 रुपए महीने की तनख़्वाह पर काम किया। जब कंपनी बंद हुई तो वो दूसरे कामों में व्यस्त हो गए। लेकिन फ़िल्मों से जुड़ना शायद उनकी नियति ही थी, और इस बार ज़रिया बना एक जैज़ बैंड। जब विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद वो वापस मुंबई आये तो चिक चॉकलेट बैंड ने उनका स्वागत किया।
कावस लॉर्ड चिक चॉकलेट, रुडी कॉटन, स्पॉटलाइट बैंड और गुडी सरवै बैंड के अलावा और भी कई बैंड्स के साथ होटल्स में परफॉर्म करने लगे। उस दौर में कावस लार्ड विदेशी बैंड्स में भी काफ़ी लोकप्रिय थे और वो एकमात्र ऐसे ड्रमर थे जो म्यूजिक पढ़ सकते थे। उन्होंने बहुत से लेटिन अमेरिकी म्यूज़िशियन्स से परकशन इंस्ट्रूमेंट्स बजाना सीखा और उनमें महारत हासिल की।
शायद बहुत लोगों को न पता हो पर उन्होंने संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद से तबला बजाना भी सीखा था। क्योंकि उनका मानना था कि भारतीय ताल और ऋदम को जानना बहुत ज़रुरी है, और वो सिर्फ़ लय ताल को ही नहीं समझते थे बल्कि इंस्ट्रूमेंट्स की नब्ज़ भी पहचानते थे। और कहते हैं कि इसी समझ ने बुरे वक़्त में घर-परिवार चलाने में उनकी मदद की। एक दौर था जब अच्छे डांस म्यूज़िशियन्स की डिमांड कम हो रही थी तब उन्होंने पियानो और अकॉर्डियन जैसे साज़ों की tuning और मरम्मत की। उन्हें बॉम्बे में सबसे अच्छे पियानो-अकॉर्डियन रिपेयरर्स में से एक माना जाता था।
एक बार ताज होटल में पेरिस से एक ग्रुप आया, परफॉरमेंस के बाद जब वो ग्रुप वापस जाने लगा तो कावस लॉर्ड ने उस बैंड से बोंगो और कांगो जैसे वाद्ययंत्र खरीदे। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने ही इन इंस्ट्रूमेंट्स को हिंदी फिल्मों में पेश किया,और हिंदी फ़िल्म म्यूजिक में एक तरह की क्रांति ला दी। और इसमें उनके सहायक बने संगीतकार सी. रामचंद्र जो अपने समय की रवायत से अलग संगीत देने की कोशिश कर रहे थे।
चार दशक के करियर में लगभग हरेक संगीतकार के साथ काम किया
ये वो समय था जब हिंदी फ़िल्मों में जैज़ अपनी जगह बना रहा था और कावस लार्ड भी जैज़ के दीवाने थे। जब चिक चॉकलेट अपने बैंड के साथ परफॉर्म कर रहे थे तो सी रामचंद्र की नज़र उन लोगों पर पड़ी और फिर वो सी रामचंद्र की फ़िल्मों में म्यूजिक प्ले करने लगे। कावस लार्ड अक्सर सी रामचंद्र की लेट नाईट रिकॉर्डिंग्स में जाने लगे, उन्होंने भी सी रामचंद्र की फ़िल्मों के लिए कई इंस्ट्रूमेंट्स बजाये। संगीतकार नौशाद जब जादू फ़िल्म का संगीत दे रहे थे तो उसमें कैस्टनेट प्ले करने के लिए कावस लॉर्ड को ही बुलाया गया था।
कावस लॉर्ड ने लगभग हर म्यूज़िक डायरेक्टर के साथ काम किया जिनमें एस डी बर्मन, श्याम सुंदर, अनिल बिस्वास, रोशन, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, जयदेव, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, और आर डी बर्मन जैसे बहुत से संगीतकार शामिल हैं। वो हर दौर में फिट रहे, 50s के जैज़ में भी, 60s में जब लेटिन म्यूजिक का असर हिंदी फ़िल्म म्यूजिक पर पड़ा तब भी और RD बर्मन के रेट्रो स्टाइल में भी। तो कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्होंने 25,000 से भी ज़्यादा फ़िल्मी गीतों में अपना योगदान दिया हो! और इसीलिए वो इज़्ज़त भी पाई कि सब उन्हें कावस काका कहकर बुलाते थे।
घोड़े की टाप के जैसी साउंड उन्होंने क्रिएट की कोकोनट शेल से। मुग़ल-ए-आज़म फिल्म के गीत “मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे” में जो घुँघरु की आवाज़ सुनाई देती है इसके लिए उन्होंने अलग पैटर्न बनाकर और बाक़ायदा अलग माइक पर इसकी रिकॉर्डिंग की। फ़िल्मी गीतों में बोंगो, सिंगल कांगो, कोबाचे, कास्टनेट और रेसो-रेसो जैसे वाद्ययंत्र वही लेकर आए।
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24 दिसंबर 2007 को कावस लॉर्ड का निधन हो गया। उन्होंने अपने जीवन में जो चाहा वो पाया, उनके साथ के लोगों के मुताबिक़ वो बहुत ही जॉली नेचर के इंसान थे, जहाँ जाते थे ख़ुशियाँ बिखेर देते थे। ख़ुद भी ख़ुश रहते थे और दूसरों में भी ख़ुशियाँ बाँटते थे।
लॉर्ड परिवार ने हिंदी फ़िल्मी गीतों को काफ़ी कुछ दिया
फ़िल्मी एक्सपर्ट्स के अनुसार कावस लॉर्ड जैसा कोई दूसरा बोंगो और परकशन वादक नहीं हो सकता। उनके बच्चों ने भी उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ाया और बहुत नाम कमाया। ख़ासकर उनके बेटे केर्सी लॉर्ड ने अपने पिता से भी ज़्यादा प्रतिष्ठा पाई। केर्सी के अलावा उनकी बेटी हिल्ला लॉर्ड एक पियानोवादक के रूप में मशहूर हुईं और दूसरा बेटा बुर्जोर लॉर्ड जिन्हें बुजी के नाम से जाना जाता है एक मशहूर ड्रमर हुए।
अगर ग़ौर किया जाए तो एक इंस्ट्रूमेंटलिस्ट किस तरह ख़ुद को बदलता रहता है, हर दौर के साथ वो भी नया हो जाता है, शायद इसीलिए संगीतकारों का वक़्त चला जाता है मगर उनका दौर कभी नहीं जाता। कमाल की बात ये है कि ज़्यादातर वादकों को ये भी नहीं पता होता कि वो किस फ़िल्म के लिए वाद्य बजा रहे हैं, और देखने वाले ज़्यादातर दर्शकों को ये नहीं पता होता कि कोई ख़ास धुन या आवाज़ जो इतनी ओरिजिनल लग रही है उसे असल में किसने क्रिएट किया है या उसे क्रिएट करने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा।
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हम हर तैयारी से अनजान होते हैं, बस फाइनल रिजल्ट देख कर ख़ुश हो जाते हैं। इंस्ट्रूमेंटलिस्ट को भी संगीतकारों और साथी म्यूज़िशियन्स की शाबासी तो मिल जाती है मगर दर्शकों की तालियों का उन्हें भी कोई अनुभव नहीं होता। देखा जाए तो कितना थैंकलेस जॉब है ये जिसे ज़्यादातर लोग दिल से करते हैं तो आप भी जब किसी गाने को सुने तो एक बार में अच्छा या बुरा कहकर उनकी मेहनत को न नकारे। भले ही आपको परदे के पीछे के इन फ़नकारों के बारे में न पता हो पर उनकी कोशिशों की प्रशंसा तो की सकती है।