भगवान दादा Bhagwan Dada (1 अगस्त 1913 – 4 फ़रवरी 2002)
अमिताभ बच्चन जिन डांस स्टेप्स के लिए जाने जाते हैं असल में वो भगवान दादा के सिग्नेचर स्टेप्स हैं जिन्हें अपनाकर अमिताभ बच्चन मशहूर हुए। भगवान दादा के इन डांस स्टेप्स को गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती जैसे कई हीरोज़ ने अपने स्टाइल में फॉलो किया। ऋषि कपूर को उनके शुरूआती दौर में डांस मूव्स भगवान दादा ने ही सिखाए थे। ये वो भगवान दादा हैं जिन्होंने ज़मीन से शुरुआत की, आसमान की बुलंदी तक पहुँचे लेकिन वहाँ से ऐसे गिरे कि फिर कभी उठ नहीं सके।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि पुराने ज़माने के बहुत से कलाकारों के साथ ऐसा कैसे हुआ कि एक वक़्त में ज़माना उनकी ठोकरों में रहता था और फिर वो वक़्त भी आया कि वो ज़माने की ठोकरों का शिकार हुए। भगवान दादा के बारे में तो ये भी नहीं कहा जा सकता कि उनमें बिज़नेस सेन्स नहीं था। अगर ऐसा होता तो अपने ज़माने में वो इतनी कामयाब फिल्में नहीं दे पाते।
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तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि एक व्यक्ति जिसके पास हफ्ते के 7 दिनों के लिए 7 अलग-अलग लक्ज़री गाड़ियाँ हुआ करती थीं, और 25 कमरों वाला सी-फेसिंग बंगला था। उन्हें अपने आख़िरी दिन बेहद तंगहाली में एक दो कमरों की चॉल में गुज़ारने पड़े ? ये उनकी ग़लती थी या क़िस्मत की ? डील-डौल, चेहरे-मोहरे से आज के दौर में ऐसे किसी हीरो की कल्पना करना मुश्किल हो सकता है, मगर 50s में भगवान दादा का स्टार स्टेटस हुआ करता था। वो सिर्फ़ एक कलाकार नहीं बल्कि फ़िल्ममेकर भी थे।
भगवान दादा रेसलिंग में भी उस्ताद थे
अपने ज़माने के कॉमिक, डांसिंग और एक्शन स्टार भगवान दादा एक हम्बल बैकग्राउंड से थे। 1 अगस्त 1913 को अमरावती में जन्मे भगवान दादा का पूरा नाम था भगवान आभाजी पलव। वैसे तो वो एक मराठी परिवार से थे पर कहा जाता है कि उनके पूर्वज सिंध से काम की तलाश में महाराष्ट्र आ कर बस गए थे। उनके पिता भी अमरावती से काम की तलाश में मुंबई आये और वहाँ एक टेक्सटाइल मिल में काम करने लगे।
मुंबई के दादर और परेल इलाक़ों में भगवान दादा का बचपन गुज़रा और परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि वो अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाए बल्कि चौथी क्लास में ही उन्हें पढाई छोड़नी पड़ी और फिर वो भी अपने पिता के साथ मिल में काम करने लगे। लेकिन भगवान दादा बचपन से ही फ़िल्मों में अभिनय करने का सपना देखा करते थे। और नूर मोहम्मद चार्ली जैसे कलाकारों की हू-ब-हू नक़ल उतार लेते थे। उस दौर में मास्टर विट्ठल एक स्टंट स्टार के तौर पर मशहूर थे। भगवान दादा उन्हें पूजते थे और ख़ुद भी एक स्टंट स्टार बनने का सपना देखते थे।
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शायद इसीलिए उन्होंने एक लोकल जिम ज्वाइन कर लिया था, जहाँ रेसलिंग उनका दूसरा शौक़ बन गया। उनके फ़िल्मों में आने को लेकर कई अलग अलग बातें कही जाती हैं। एक के मुताबिक़ भगवान दादा रेसलिंग competitions में हिस्सा लेते थे, ऐसे ही एक कम्पटीशन में फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े एक शख़्स की नज़र उन पर पड़ी और इस तरह उन्हें फ़िल्मों में एंट्री मिली।
दूसरी कहानी के मुताबिक भगवान दादा छोटे-मोटे काम करते हुए स्टूडियो के चक्कर भी काटते रहते थे मगर उन्हें काम नहीं मिल रहा था। फिर एक दिन निर्माता सिराज अली हाक़िम ने उन्हें 1931 में रिलीज़ हुई “बेवफ़ा आशिक़” में एक हास्य भूमिका दी। ये फ़िल्म “The Hunchback of Notre Dame” पर आधारित थी जिसमें भगवान दादा की भूमिका एक कुबड़े व्यक्ति की थी, लोगों को लगा कि वो सच में कुबड़े हैं। इसीलिए फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद भी उन्हें काफ़ी समय तक कोई और काम नहीं मिला।
अभिनेता, निर्माता-निर्देशक बनने की कहानी
कई महीनों बाद भगवान दादा की मुलाक़ात चंद्रावरकर पवार से हुई जिन्होंने उन्हें तीन साइलेंट फ़िल्मों में काम दिया। 1934 की फ़िल्म “हिम्मत-ए-मर्दां” भगवान दादा की पहली टॉकी रही, इस फिल्म में उनके साथ ललिता पवार थीं। ललिता पवार के साथ ही उनकी एक और फ़िल्म भी आई “जंग-ए-आज़ादी” जिसकी शूटिंग के दौरान भगवान दादा ने ललिता पवार को ऐसा चाँटा मारा कि उनका चेहरा ही नहीं बल्कि क़िस्मत ही बदल गई। वैसे तो ये क़िस्सा बहुत मशहूर है पर विस्तार से जानना चाहें तो ललिता पवार की पोस्ट पढ़िए।
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भगवान दादा ने एक फ़िल्म कंपनी ज्वाइन की जहाँ उन्होंने फ़िल्ममेकिंग से जुडी बारीक़ियाँ सीखीं। 1938 में भगवान दादा ने चन्द्रराव कदम के साथ मिलकर ‘बहादुर किसान’ नाम की फ़िल्म का निर्देशन किया जो हिट रही। इसी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान एक युवक उनका असिस्टेंट था जो म्यूजिक डायरेक्टर बनना चाहता था, उसे भगवान दादा ने अपनी तीन फ़िल्मों में संगीत देने का मौक़ा दिया। ये थे चितलकर रामचंद्र जिन्हें हम संगीतकार सी रामचंद्र के नाम से जानते हैं। यहाँ से ऐसी दोस्ती शुरु हुई जो आख़िरी वक़्त तक क़ायम रही, भगवान दादा की ज़्यादातर फ़िल्मों के संगीतकार सी रामचंद्र ही रहे।
1940 की तमिल फ़िल्म ‘जयाकोड़ी’ और 1941 की तमिल फ़िल्म ‘वन मोहिनी’ का निर्देशन भगवान दादा ने ही किया और इनकी कहानी भी लिखी। ‘वन मोहिनी’ हॉलीवुड फ़िल्म ‘डोरोथी लैमोर’ का रीमेक थी, और कई मायनों में तमिल सिनेमा में ख़ास मानी जाती है। 40 के दशक की शुरुआत में ही भगवान दादा ने ‘जागृति पिक्चर्स’ के नाम से ख़ुद का प्रोडक्शन हाउस खोला और 1947 में उन्होंने चेम्बूर में अपना स्टूडियो भी बनाया। 1947 में जब देश विभाजन के दंगों से जूझ रहा था तो कहते हैं कि भगवान दादा ने कई मुस्लिम कलाकारों और टेक्निशंस को अपने घर में रहने की जगह दी थी।
भगवान दादा कम बजट की एक्शन फ़िल्मों के स्टार थे
40 के दशक में भगवान दादा ने कई low-budget एक्शन फ़िल्में बनाई जिनमें हीरो भी वही हुआ करते थे। उस दौर में दो एक्शन स्टार्स बहुत फेमस थे एक ‘फीयरलेस नाडिया‘ और दूसरे ‘भगवान दादा’ थे। बतौर हीरो भगवान दादा ने ‘बड़े साहिब’, ‘दामाद’, ‘ग़ज़ब’, ‘राम-भरोसे’, ‘भूले-भटके’ जैसे कई फ़िल्में कीं। माना जाता है भगवान दादा अमेरिकन एक्टर ‘डगलस फेयरबैंक्स’ से भी बहुत इंस्पायर थे और उन्हीं की तरह अपनी फ़िल्मों में एक्शन सीन बिना बॉडी डबल के ख़ुद किया करते थे। राजकपूर तो उन्हें ‘देसी डगलस’ कहकर ही पुकारते थे।
कम बजट की इन फ़िल्मों में ड्रेस डिजाइनिंग से लेकर कलाकारों के भोजन की व्यवस्था तक बहुत से काम भगवान दादा ख़ुद ही करते थे। उनके निभाए गए साधारण किरदार ख़ासतौर पर मज़दूर वर्ग में बहुत मशहूर हुए, जिनमें वो एक भोले-भाले व्यक्ति की भूमिका निभाते थे। अपने सिंपल से किरदारों में हँसी का पुट डालते हुए भगवान दादा की कॉमेडी पॉपुलर होने लगी और वो एक कॉमेडी स्टार के रूप में स्थापित हो गए। हाँलाकि उनकी शुरूआती दौर की फ़िल्में अब उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि गोरेगाँव में फ़िल्म निगेटिव्स के स्टूडियो में आग लग गई थी जिससे भगवान दादा की ज़्यादातर फ़िल्मों के नेगेटिव्स जलकर ख़ाक हो गए।
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इंडियन सिनेमा की पहली हॉरर फ़िल्म थी ‘भेदी बंगला(1949)’ जो भगवान दादा ने ही बनाई थी। उस समय तक ये जॉनर हिंदी सिनेमा में नया था, इसीलिए सबने उनका मज़ाक़ बनाया मगर भगवान दादा ने तीन महीने में फ़िल्म पूरी की, जो सबको बहुत पसंद आई। कहते हैं इसके इफ़ेक्ट देखने के लिए इंडस्ट्री के बड़े-बड़े टेक्नीशियन्स, कैमरामैन, और निर्देशक भी आए। उस समय इस फ़िल्म को पसंद करने वालों में वी. शांताराम और राज कपूर भी शामिल थे।
‘भेदी बंगला’ का एक डांस सीक्वेंस राज कपूर को बहुत पसंद आया और उसी को देखकर उन्होंने सलाह दे डाली कि भगवान दादा को अब सामाजिक फ़िल्में बनानी चाहिए। इस दौर तक आते आते भगवान दादा एक कॉमिक स्टार, एक्शन हीरो और डांसिंग हीरो के रूप में पहचाने जाने लगे थे। लेकिन राज कपूर उनके दोस्त थे तो दोस्त की सलाह पर ग़ौर करना तो बनता था, उधर उनके बेहद क़रीबी दोस्त सी रामचंद्र ने भी लगभग यही बात कही।
और फिर आई वो फ़िल्म जिस के लिए उन्हें आज तक याद किया जाता है और जिसका नाम आते ही थिरकते हुए भगवान दादा नज़र के सामने आ जाते हैं, और गाने बजते ही हमारे क़दम भी ख़ुद-ब-ख़ुद थिरकने लगते हैं – ‘अलबेला’
अलबेला ने खोले भगवन दादा की क़िस्मत के दरवाज़े
‘अलबेला’ का निर्माण-निर्देशन, कहानी स्क्रीनप्ले सब भगवन दादा का था। भगवान आर्ट प्रोडक्शंस के बैनर तले बनी अलबेला का संगीत, इसका ट्रीटमेंट सब में एक ताज़गी थी, जिसे ख़ासतौर पर युवाओं ने बहुत पसंद किया। अलबेला भारत के अलावा दक्षिण अफ्रीका में भी बहुत पसंद की गई। उस दौर में कोई भी फंक्शन ऐसा नहीं होता था जहाँ ‘अलबेला’ के गाने न बजें। ये फ़िल्म 1951 की तीसरी सबसे कामयाब फ़िल्म थी, जो क़रीब 50 हफ़्ते तक चली। इस फ़िल्म का कम्पटीशन था उस साल की नंबर वन फ़िल्म राज कपूर की ‘आवारा’ और गुरुदत्त की बाज़ी से जो दूसरी कामयाब फ़िल्म थी।
अलबेला के सुपरहिट होने के बाद भगवान दादा का स्टेटस और भी ऊँचा हो गया। साथ ही उन्हें वो सब कुछ मिल गया जिसकी कभी उन्होंने तमन्ना की थी, बंगला, गाड़ियाँ, शोहरत और कामयाबी। इसके बाद अगले एक दशक में बहुत सी फैंटसी, costume ड्रामा लो बजट फिल्में आईं। इनमें से कई में उन्होंने सिर्फ़ अभिनय किया और कुछ उन्होंने बनाई मगर कुछ को छोड़ दें तो न तो ज़्यादातर भूमिकाएँ यादगार थीं न ही उनकी बनाई वो फिल्में।
7 दिनों के लिए 7 कारें और 25 कमरों का बंगला सब एक झटके में चला गया
उन्होंने एक बार फिर अलबेला की कामयाबी को भुनाने की कोशिश में उसी की तर्ज़ पर बनाई ‘झमेला’ और ‘लाबेला’ जैसी फ़िल्में जो बुरी तरह फ़्लॉप रही। इन असफलताओं से उन्हें काफ़ी नुक्सान पहुंचाया और उसी की भरपाई करने के लिए उन्होंने किशोर कुमार को हीरो लेकर शुरू की “हँसते रहना” इस फ़िल्म पर उन्होंने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया था मगर इस फ़िल्म ने उन्हें सिर्फ़ रुलाया ही।
बहुत से फ़िल्मी एक्सपर्ट्स का मानना है कि किशोर कुमार के बर्ताव और नख़रों के चलते ये फ़िल्म नहीं बन पाई। हो सकता है ये सच हो पर किशोर कुमार के साथ भगवान दादा ने भागमभाग जैसी कुछ फ़िल्में की थीं, अगर किशोर दा का बर्ताव उनके साथ अच्छा नहीं होता तो भगवान दादा बार-बार उनके साथ काम क्यों करते ? ख़ैर ! वजह कोई भी हो पर ‘हँसते रहना’ फिल्म ने उन्हें पूरी तरह क़र्ज़ में डुबो दिया, और यहीं से भगवान दादा का बुरा वक़्त शुरू हो गया।
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क़र्ज़ चुकाने के लिए उन्हें अपना 25 कमरों वाला जुहू का बंगला बेच कर दादर की चॉल में रहने जाना पड़ा। स्टूडियो, गाड़ियाँ यहाँ तक की पत्नी के ज़ेवर भी बेचने पड़े। बुरा वक़्त आते ही आस-पास जो मौक़ापरस्त दोस्तों का मजमा लगा रहता था, जो उन्हीं के ख़र्च पर पलता था, वो भी छंट गया। वो भगवान दादा जिन्होंने अपनी फ़िल्म के एक सीन को शूट करने के लिए असली नोट उड़ाए थे, अब पाई-पाई के मोहताज हो गए। ज़िंदगी की हक़ीक़त उनके सामने थी, ऐसा लगा जैसे कोई सुन्दर सपना था जो आँख खुलते ही टूट गया।
वक़्त बदला तो भगवान दादा ने ख़ुद को शराब में झोंक दिया
इस बुरे दौर में कुछ फ़िल्ममेकर्स ने शायद उनकी मदद करने की नीयत से ही उन्हें छोटे-छोटे रोल्स दिए। कई फ़िल्मों में तो उनकी भूमिका इतनी छोटी है कि ज़ोर डालने पर भी याद नहीं आती। भीड़ में नाचने का एक सीन, या अपना सिग्नेचर स्टेप करने का सीन—- 1975 से 1989 के बीच वो बहुत सी फ़िल्मों में हवलदार पाण्डु के रोल में ही दिखाई दिए। भगवान दादा ने अपने जीवन में 48 फ़िल्में बनाई और क़रीब 300 फ़िल्मों में अभिनय किया। ‘जय विक्रांता’, ‘मेरा दामाद’, ‘माहिर’ उनकी कुछ आख़िर फ़िल्में हैं।
पांच दशकों के करियर में भगवान दादा ने जहाँ अर्श पर खड़े होकर दुनिया को देखा वहीं फर्श से दुनिया की कड़वी हक़ीक़त को पहचाना। और वो उस हक़ीक़त को बर्दाश्त नहीं कर पाए और ख़ुद को शराब के नशे में डुबो लिया। कहते हैं कि उस दौर में वो इतनी शराब पिया करते थे कि घर में शराब की हज़ारों ख़ाली बोतलें जमा हो गई थीं। एक दोस्त ने तो उन बोतलों को देखकर मज़ाक़ में ये भी कह दिया था कि इन बोतलों को बेच कर ही बांद्रा में एक बंगला ख़रीदा जा सकता है।
कभी-कभी ये बात समझ नहीं आती कि एक तरफ़ कोई इंसान पैसों की क़िल्लत से जूझ रहा है वहीं शराब में ढेर सा पैसा उड़ा रहा है। कम रक़म को अगर सही जगह पर ख़र्च किया जाता तो शायद भगवान दादा जैसे कइयों की कहानी थोड़ी अलग होती! ख़ैर ! उस बुरे दौर में भी भगवान दादा के कुछ दोस्त उनके साथ रहे इनमें ओम प्रकाश, सी रामचंद्र, और राजेंद्र कृष्ण थे जो अक्सर चॉल में उनसे मिलने जाया करते थे।
बुरे दौर में भी बरक़रार था उनका जलवा
उस दौर में भी उनकी शोहरत का आलम ये था कि गणपति उत्सव के दौरान निकलने वाला जुलूस हर साल उनकी चॉल के आगे रुकता था और जब तक भगवान दादा बाहर आकर अलबेला के गाने “भोली सूरत दिल के खोटे” पर अपना सिग्नेचर स्टेप नहीं करते थे वो जुलूस आगे नहीं बढ़ता था। बाद में सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन और इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन की तरफ़ से उन्हें आर्थिक मदद भी मिलने लगी थी।
उनके साथ उनकी एक अविवाहित बेटी और छोटे बेटे का परिवार रहा करता था। आख़िरी दिनों में वही उनकी देखभाल कर रहे थे। 4 फ़रवरी 2002 को हार्ट अटैक आने से भगवान दादा को अपनी उस अनचाही ज़िंदगी से निजात मिल गई। मौत से कुछ साल पहले, उन्हें सिनेमा में योगदान के लिए शांता हुबलीकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2016 में उन पर एक फ़िल्म भी आई “एक अलबेला” जिसमें उनकी भूमिका मंगेश देसाई ने निभाई और हेरोइन थीं विद्या बालन”।
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भगवान दादा बहुत ही दिलचस्प व्यक्ति थे लम्बे समय तक शूटिंग करते थे रौशनी के आगे खड़े रहते थे इसलिए वो खड़े-खड़े ही सो जाते थे। कहते हैं कि उन्हें शेवरले कार का बहुत शौक़ था उनके कारों के क़ाफ़िले में दो शेवरले भी थीं और उन्होंने शेवरले नाम की फ़िल्म में भी काम किया।
चाहे वक़्त कितना भी बदल गया हो, कितने ही लोगों ने ये स्टेप फॉलो किया हो मगर इंडस्ट्री में ये डांस मूव आज भी भगवान दादा मूव के नाम से जाना जाता है। और जब तक उनका ये सिग्नेचर स्टेप होता रहेगा तब तक भगवान दादा का नाम और उनकी कहानी भी ज़िंदा रहेगी।
1975 तक की फ़िल्मों की सूची
1931 – बेवफ़ा आशिक़
1935 – कातिल क़तर, हिम्मत-ए-मर्दां
1936 – भारत के लाल
1938 – बहादुर किसान
1939 – गुनहगार
1942 – ज़िंदगी
1943 – ज़बान
1944 – बहादुर
1945 – नग़मा-ए-सहरा, जी हाँ,
1946 – दोस्ती
1948 – तुम्हारी क़सम, मतलबी, माला द माइटी, लालच, जलन
1949 – शौक़ीन, रूपलेखा, प्यार की रात, ख़ुश रहो, जोकर, जिगर, जीते रहो, बिगड़े दिल, भोले पिया, भेदी बंगला, बचके रहना
1950 – भोले भाले, बख़्शीश, बाबूजी, एक्टर, अच्छाजी
1951 – दामाद, अलबेला, अफ़लातून,
1952 – सिंदबाद द सेलर, गूँज, भूले भटके, बग़दाद
1953 – शमशीर, रँगीला , चार चाँद
1954 – हल्ला गुल्ला,
1955 – दीवार, छबीला, झनक झनक पायल बाजे, ऊँची हवेली, फ्लाइंग मैन, बंदिश
1956 – शेख़ चिल्ली, भागमभाग, मक्खीचूस, पासिंग शो, मि लम्बू, कर भला – डायरेक्टर, चोरी-चोरी, चारमीनार
1957 – बेटी, आधी रोटी, उस्ताद, राजा विक्रम, मिस बॉम्बे, गेटवे ऑफ़ इंडिया, गर्मागर्म, भाभी, आगरा रोड
1958 – ट्राली ड्राइवर, सन ऑफ़ सिंदबाद, सच्चे का बोलबाला, नया क़दम, मि Q, दुल्हन, चालबाज़, भला आदमी
1959 – लाल निशान, ओ तेरा क्या कहना, मोहर, कंगन, forty days, दुनिया न माने, चाचा ज़िंदाबाद,
1960 – रंगीला राजा, नखरेवाली, दिलेर हसीना, भक्त राज, मासूम, जिम्बो शहर में, ज़मीन के तारे, रोड नंबर 303,
1961 – वज़ीर-ए-आज़म, लकी नंबर, तीन उस्ताद, स्त्री, शोला जो भड़के, सपने सुहाने, सलाम मेमसाब, रामलीला
1962 – मैडम zapatta, टॉवर हाउस, रॉकेट गर्ल, पठान, बग़दाद की रातें, आल्हा-उदल
1963 – रुस्तम-ए-बग़दाद, जब से तुम्हें देखा है, देखा प्यार तुम्हारा, बाग़ी शहज़ादा, आवारा अब्दुल्लाह,
1964 – टार्ज़न एंड delilab, कृष्णावतार, ख़ूनी ख़ज़ाना, हुकुम का इक्का, मैं भी लड़की हूँ, मैजिक कारपेट, आंधी और तूफ़ान
1965 – सिंदबाद अलीबाबा एंड अलादीन, चोर दरवाज़ा, चार चक्रम, टार्ज़न एंड किंग कॉंग, टार्ज़न comes to delhi, शेरदिल, ख़ाकान, बेख़बर,
1966 – दुनिया है दिलवालों की, नागिन और सपेरा, लड़का लड़की, लाबेला, डाकू मंगल सिंह, चले हैं ससुराल
1967 – संगदिल, चाँद पर chadaye, अलबेला मस्ताना, हम दो डाकू, गुनहगार, दुनिया नाचेगी, छैला बाबू, बग़दाद की रातें,
1969 – the किलर्स, गुंडा, बादशाह, रात के अँधेरे में, इंतक़ाम,
1970 – सुहाना सफ़र, सस्ता खून महंगा प्यार, मांगू दादा, नाईट इन कलकत्ता, गीत, चोरों का चोर, आग और दाग़
1971 शेर-ए-वतन, हंगामा, श्री कृष्णा लीला, साज़ और सनम, मेरा गाँव मेरा देश, कठपुतली, कभी धुप कभी छाँव
1972 – चोरी-चोरी, आगे बढ़ो, रास्ते का पत्थर, तांगेवाला, रानी मेरा नाम, गांव हमारा शहर तुम्हारा, दो चोर, आन-बान
1973 – बनारसी बाबू, कच्चे धागे, शरीफ़ बदमाश, छलिया
1974 – अपराधी, रेशम की डोरी, ईमान, हर हर महादेव, बालक ध्रुव, बढ़ती का नाम दाढ़ी
1975 – तूफ़ान और दिया, मज़े ले लो, रफूचक्कर, अँधेरा, काला सोना, ज़ोरो, फ़रार, ज़िन्दगी और तूफ़ान नाटक, मज़ाक़