इफ़्तेख़ार (22 Feb 1920 – 4 Mar 1995) फ़िल्मों में अपने बेहतरीन अभिनय के लिए पहचाने जाते हैं, मगर वो असल में गायक बनना चाहते थे। वो एक बहुत अच्छे पेंटर भी थे मगर उनकी प्रभावशाली आवाज़ ने उन्हें बना दिया अभिनेता।
60-70 के दशक में हिंदी सिनेमा में एक कलाकार अक्सर पुलिस की वर्दी में नज़र आते थे, कभी-कभी तो लगता था कि वो सच में पुलिस ऑफ़िसर हैं। वो थे इफ़्तेख़ार, जो एक बार पुलिस ऑफ़िसर के किरदार में हिट क्या हुए उन्हें अक्सर वैसे ही किरदार मिलने लगे। हाँलाकि सबसे ज़्यादा पुलिस ऑफ़िसर की भूमिकाएं करने का रिकॉर्ड अभिनेता जगदीश राज के नाम रहा मगर पुलिस की वर्दी में सबसे ज़्यादा पसंद किये गए इफ़्तेख़ार।
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इफ़्तेख़ार गायकी के लिए गए मगर ऑफर मिल गया अभिनय का
इफ़्तेख़ार सहगल साब के मुरीद थे और उन्हीं की तरह गायक बनना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने लखनऊ के म्यूजिक कॉलेज से ट्रेंनिंग भी ली। इसके अलावा उन्होंने फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा भी किया था मगर क़िस्मत उन्हें ले आई अभिनय के मैदान में। 22 फ़रवरी 1922 में जन्मे इफ़्तेख़ार का पूरा नाम था सैयदाना इफ़्तेख़ार अहमद शरीफ़। उनका बचपन कानपुर में गुज़रा और पढाई लिखाई हुई लखनऊ से और फिर वो पहुँच गए कोलकाता गायक बनने के लिए। क्योंकि उन दिनों ज़्यादातर म्यूजिक कम्पनीयाँ कोलकाता में हुआ करती थी।
HMV ने उनके गानों का रिकॉर्ड निकाला मगर जो संगीतकार कमलदास गुप्ता उनका ऑडीशन ले रहे थे वो उनकी कड़क आवाज़, तलफ़्फ़ुज़ और पेर्सनेलिटी से बेहद मुतास्सिर हुए। उन्हें लगा कि इस लड़के को फ़िल्मों में काम करना चाहिए। फिर उनकी वो तारीफ़ एक फ़िल्म कंपनी तक पहुंची और फिर रास्ते बनते चले गए। वो कोलकाता तो गए थे M P प्रोडक्शंस की फ़िल्म में काम करने के लिए मगर वो फ़िल्म लम्बे समय तक शुरू ही नहीं हो सकी। लेकिन वहां उन्होंने “तक़रार”, “घर”, “राजलक्ष्मी”, “ऐसा क्यों”, “तुम और मैं” जैसी कुछ फिल्में कीं।
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लम्बे संघर्ष के बाद अशोक कुमार से मुलाक़ात ने रास्ते खोल दिए
देश के विभाजन के समय हर तरफ़ जो उथल-पुथल मची थी उससे सिनेमा की दुनिया भी अछूती नहीं रह सकी थी और फिर इफ़्तेख़ार का पूरा ख़ानदान पाकिस्तान चला गया। मगर वो भारत में ही रहे और अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने काफ़ी मुश्क़िल दिन गुज़ारे। घर ख़र्च चलाने के लिए उनकी पत्नी को नौकरी करनी पड़ी। कोलकाता में एक बार उनकी मुलाक़ात अशोक कुमार से हुई थी, मुंबई में वो फिर एक बार अशोक कुमार से मिलने गए और उस मुलाक़ात ने उनके लिए फ़िल्मी दुनिया के दरवाज़े खोल दिए।
अशोक कुमार ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्म “मुक़द्दर” में वो भूमिका दिलाई जो उनके भाई अनूप कुमार करने वाले थे। इसके बाद तो अशोक कुमार और इफ़्तेख़ार की दोस्ती वक़्त के साथ साथ गहराती ही गई। अशोक कुमार ने उनसे पेंटिंग और शतरंज खेलना सीखा और इफ़्तेख़ार ने उनसे होमियोपैथी और फ़्रेंच भाषा सीखी।
पुलिस ऑफ़िसर की भूमिका में वो सबसे ज़्यादा पसंद किये गए
50s 60s में इफ़्तिख़ार ने “मिर्ज़ा ग़ालिब”, “देवदास”, “श्री 420”, “अब दिल्ली दूर नहीं”, “बंदिनी”, “मेरी सूरत तेरी आँखें”, “दूर गगन की छाँव में”, “तीसरी मंज़िल”, “हमराज़”, “संघर्ष”, “आदमी और इंसान” जैसी कितनी ही फ़िल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएँ कीं। जिनमें कुछ पुलिस की भूमिकाएँ भी थीं मगर 1969 में बी आर चोपड़ा की एक मशहूर फ़िल्म आई थी “इत्तिफ़ाक़” उसमें उन्होंने जिस तरह एक पुलिस ऑफ़िसर का किरदार निभाया वो लोगों को इतना पसंद आया कि वो उन भूमिकाओं में टाइपकास्ट हो गए। उनका वही रौब और कड़क आवाज़ “डॉन” में भी दिखाई दिया।
70s 80s में इफ़्तेख़ार ख़ासे मसरुफ़ रहे, “गैम्बलर”, “हरे रामा हरे कृष्णा”, “ज़ंजीर”, “दीवार”, “दुल्हन वही जो पिया मन भाए”, “त्रिशूल”, “नूरी”, “दोस्ताना” और “राजपूत” जैसी बहुत सी फ़िल्मों में वो डॉक्टर, जज, वक़ील जैसे किरदार निभाते नज़र आये। उनकी आख़िरी फ़िल्म थी काला कोट। 1967 के अमेरिकन टीवी सीरियल “माया” में भी उन्होंने अभिनय किया और कुछेक इंग्लिश फ़िल्मों में भी वो नज़र आए।
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अपनी छोटी बेटी की मौत से उन्हें बहुत गहरा सदमा लगा और कुछ दिन बाद ही मार्च 1995 में इफ़्तेख़ार भी इस दुनिया को छोड़ गए। अदाकार मर जाते हैं मगर उनकी अदाकारी कभी नहीं मरती। इफ़्तिख़ार भी अपनी बेहतरीन अदाकारी, और साफ़ ज़बान के कारण हमेशा लोगों के दिलों में अपनी मख़सूस जगह बनाए रखेंगे।