लक्ष्मीकांत-प्यारेलाललक्ष्मीकांत-प्यारेलाल

क़रीब 500 फ़िल्मों में 3000 से ज़्यादा गानों का संगीत देने वाले लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जब एक जोड़ी के रूप में फ़िल्मों से जुड़े तो लोग उन दोनों का असली नाम भूल गए और वो बस लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के नाम से ही पहचाने जाने लगे जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में लक्ष्मी-प्यारे और LP के नाम से भी पुकारा जाता रहा।

यूँ तो फ़िल्मों में बहुत सी जोड़ियां बनती हैं, हीरो हेरोइन की, गीतकार संगीतकार की, हीरो और गायक की मगर कभी न कभी ये जोड़ियाँ टूट भी जाती हैं पर हैरत की बात है कि संगीतकारों की जोड़ियाँ हमेशा कामयाब रहीं, भले ही किसी वजह से उनमें दरार आई हो पर काम जोड़ी के रूप में ही करते रहे। हिंदी फ़िल्मों की पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल भगतराम से लेकर शंकर जयकिशन, या कल्याणजी आनंद जी हों या नए दौर के आनंद मिलिंद, साजिद वाजिद या  शंकर एहसान लॉय की तिकड़ी।

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ऐसी ही एक कामयाब जोड़ी रही लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की, जिनकी पहली ही फ़िल्म सुपर हिट रही। लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल दोनों का करियर एक साथ शुरु हुआ, उन्होंने शादी भी कुछ ही दिनों के अंतराल पे की, बच्चे भी लगभग साथ ही साथ हुए, पहली कार भी दोनों ने एक साथ ख़रीदी लेकिन एक वक़्त आया था जब ये जोड़ी लगभग टूटने ही वाली थी। उसके क़िस्से की बात करने से पहले दोनों के बारे में थोड़ा जान लेते हैं

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल दोनों की घरेलू परिस्थितियाँ लगभग एक जैसी थीं

लक्ष्मीकांत

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
लक्ष्मीकांत

लक्ष्मीकांत शांताराम पाटिल कुडलकर का जन्म 1937 में 3 नवंबर को हुआ था। उस दिन लक्ष्मी-पूजा थी इसीलिए उनका नाम लक्ष्मीकांत रखा गया। उन के पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी, इसीलिए उनका बचपन बहुत ग़रीबी में गुज़रा, यहाँ तक कि वो अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाए। उन्हीं दिनों उनके पिता के एक दोस्त जो खुद एक संगीतज्ञ थे, उनकी सलाह पर लक्ष्मीकांत और उनके भाई ने संगीत सीखना शुरू किया। उन्होंने पहले हुसैन अली साहब से फिर बाल मुकुंद जी से मेंडोलिन सीखा। और संगीतकार हुस्नलाल से वॉयलिन बजाना सीखा।

रोज़ी-रोटी चलाने के लिए उन्होंने संगीत समारोह में भाग लेना शुरू कर दिया। इसी दौर में उन्होंने कुछेक हिंदी (भक्त पुंडलिक-1949 और आँखें-1950) और गुजराती फिल्मों में बाल कलाकार के तौर पर अभिनय भी किया। वो बच्चे ही थे मगर अलग-अलग म्यूज़िक डायरेक्टर्स के साथ ऑर्केस्ट्रा में काम करना भी शुरु कर दिया था। उन्हें सबसे ऊँची कुर्सी पर बिठाया जाता था ताकि उनके इंस्ट्रूमेंट की आवाज़ माइक ठीक से कैच कर सके। उन्होंने OP नैयर, शंकर जयकिशन, हेमंत कुमार, रवि, S D बर्मन जैसे कई संगीतकारों के लिए मेंडोलिन बजाया। 

प्यारेलाल

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
प्यारेलाल

प्यारेलाल शर्मा का जन्म 3 सितम्बर 1940 में हुआ उन के पिता पंडित रामप्रसाद शर्मा अपने समय के प्रसिद्ध ट्रंपेट प्लेयर थे और म्यूजिक सिखाया भी करते थे तो संगीत का पहला सबक़ प्यारेलाल को अपने पिता से ही मिला। आठ साल की उम्र से ही उन्होंने वॉयलिन सीखना शुरू कर दिया था। लेकिन जब वो सिर्फ़ 12 साल के थे तब उनके परिवार के भी आर्थिक हालात ख़राब हो गए। उस समय उनके पिता ने उन्हें कई म्यूजिक डायरेक्टर से मिलवाया और फिर प्यारेलाल भी अलग-अलग संगीतकारों के लिए ऑर्केस्ट्रा में वॉयलिन बजाने लगे।

गोवा के म्यूजिशियन एंथोनी गोंसॉलविज़ जो वॉयलिन के मास्टर थे, उन्होंने प्यारेलाल की रिक्वेस्ट पर उन्हें वॉयलिन सिखाया। प्यारेलाल सुबह 7 बजे घर से निकल जाते थे और इवनिंग क्लास में पढ़ने के बाद देर रात घर पहुँचते थे। लक्ष्मीकांत की तरह प्यारेलाल ने भी ‘डोलती नैया’ और ‘मुन्ना’ जैसी कुछ फिल्मों में बतौर बाल कलाकार अभिनय किया था। 

अमर अकबर एंथनी का गाना “माई नेम इस एंथोनी गोंसाल्विस” प्यारेलाल ने अपने गुरु को डेडिकेट किया था। पहले फिल्म में किरदार का सरनेम एंथनी फ़र्नेंडिस था मगर जब ये गाना बना तो मनमोहन देसाई ने ख़ुद ही किरदार का सरनेम बदल कर एंथनी गोंसाल्विस कर दिया। जब ये गाना रिकॉर्ड हो रहा था तो गोंसाल्वेस ख़ुद भी इंस्ट्रूमेंट प्ले कर रहे थे और कहते हैं अमिताभ बच्चन ने रिकॉर्डिंग के समय उनके पाँव भी छुए। 

उन के बचपन का काफ़ी वक़्त लता मंगेशकर के घर में बीता

एक स्टेज प्रोग्राम में लता मंगेशकर ने टीनएज लक्ष्मीकांत को मेंडोलिन बजाते हुए देखा और बहुत इम्प्रेस हुईं उन्होंने सी रामचंद्र, नौशाद और शंकर जयकिशन से उस बच्चे की सिफारिश की। मंगेशकर परिवार भी टैलंटेड बच्चों के लिए एक अकादमी चलाता था “सुरील बाल कला केंद्र” जिससे उनके अपने परिवार के बच्चों के अलावा आस-पड़ोस के टैलंटेड बच्चे भी जुड़े थे। प्यारेलाल और उनके छोटे भाई भी उस अकादमी का हिस्सा थे। बाद में लक्ष्मीकांत और उनके भाईयों ने भी वो अकादमी ज्वाइन कर ली। वहीं से उन दोनों का लता मंगेशकर से एक अटूट रिश्ता बन गया था। 

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लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल की उम्र में कुछ ही सालों का अंतर था लेकिन लक्ष्मीकांत, प्यारेलाल को अपने छोटे भाई की तरह मानते थे। प्यारेलाल के कुछ फ़ैसले इसीलिए बदले क्योंकि लक्ष्मीकांत ने उन्हें बड़े भाई की तरह समझाया। प्यारेलाल ने शुरुआत में विदेश जाने का फैसला कर लिया था, मगर लक्ष्मीकांत ने कहा कि हम दोनों मिलकर काम करेंगे अगर कुछ नहीं होगा तब विदेश के बारे में सोचना। और उनकी सलाह मान कर प्यारेलाल रुक गए। दरअस्ल दोनों के घरेलू हालात एक जैसे थे। दोनों ही छोटी सी उम्र में घर परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे थे। और दोनों ही कुछ बड़ा करना चाहते थे।

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल

उन दोनों की पहली मुलाक़ात हुई एक स्टूडियो के पास के प्लेग्राउंड में, जहाँ कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। लक्ष्मीकांत भी उनके साथ खेलने लगे, वहीं से प्यारेलाल के साथ उनकी दोस्ती की शुरुआत हुई और दोनों ने एक साथ काम करने का फैसला ले लिया। कई ऑर्केस्ट्रा में साथ काम करते हुए उन्हें महसूस हुआ कि उनकी मेहनत के हिसाब से पैसा नहीं मिलता है, तो दोनों मुम्बई छोड़ कर चेन्नई चले गए पर वहां भी वैसा ही माहौल देखा तो वापस मुम्बई आ गये।

फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने ओ पी नय्यर और शंकर जयकिशन के साथ काम किया फिर कल्याणजी आनंद जी के सहायक बन गए और क़रीब 10 साल तक उनके साथ काम किया। RD बर्मन जैसे कई संगीतकारों के लिए उन्होंने म्यूजिक अर्रेंजर का काम भी किया। इस बीच उन्हें भोजपुरी फ़िल्मों के एक निर्माता ने चार फ़िल्मों में संगीत देने का प्रस्ताव दिया मगर एक भी फ़िल्म में उन्हें म्यूज़िक देने का मौक़ा नहीं मिला। फिर स्वतंत्र संगीतकार के तौर पर उन्हें मिली अपनी पहली फिल्म,जो छोटे बजट की फेंटेसी फिल्म थी। इंडस्ट्री में कई लोगों ने कहा कि शुरुआत करने के लिए ऐसी  फिल्म ठीक नहीं है पर उन्हें ख़ुद पर यक़ीन था इस लिए उन्होंने उस फिल्म का संगीत दिया।

वो फ़िल्म थी बाबूभाई मिस्त्री की – पारसमणि जिस के सारे गाने सुपरहिट रहे। इस फ़िल्म में गाना गाने के लिए उन्होंने लता मंगेशकर से गुज़ारिश की और उन्होंने गाया भी। कहते हैं कि लता जी की फ़ीस उन्होंने अपनी तरफ़ से दी थी।  लता मंगेशकर ने 1963 से 1998 तक जिस संगीतकार जोड़ी के लिए सबसे ज़्यादा गाने गाये वो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ही थे। 

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लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की सबसे बड़ी ख़ासियत ये थी कि उन्होंने पैसे की बजाए क्वालिटी पर ध्यान दिया। उन्हें चाहें जैसी फ़िल्में मिली बी ग्रेड, लो बजट पर उन्होंने अपने संगीत के स्तर को ऊँचा रखा। शायद इसीलिए पारसमणि के गीत आज भी भुलाये नहीं भूलते। उन्होंने पहली ही फिल्म से अपने स्टाइल में वैरायटी देना शुरु कर दिया था ताकि शंकर जयकिशन, नौशाद, मदन मोहन, SD बर्मन जैसे संगीतकारों के बीच अपनी अलग जगह बना सकें। 

पारसमणि के सुपरहिट म्यूज़िक के बावजूद लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल एकदम से बड़े बैनर्स की फिल्में नहीं मिलीं। उन्होंने कई छोटी-छोटी फिल्में कीं जिनमें हरिश्चंद्र तारामती, सती-सावित्री, संत ज्ञानेश्वर, मि. X इन बॉम्बे, श्रीमान फंटूश, लुटेरा, हम सब उस्ताद हैं जैसी कई फिल्में शामिल हैं। लेकिन इन सभी फ़िल्मों का संगीत लाजवाब है सबके गाने आज भी गुनगुनाये जाते हैं।

कामयाबी की उड़ान

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल

1964 में नए कलाकारों और बहुत ही अलग विषय पर बनी एक सादा सी फ़िल्म आई “दोस्ती” जो एक बड़ी हिट साबित हुई। दोस्ती के म्यूज़िक ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को उच्च श्रेणी के संगीतकारों में खड़ा कर दिया और इस फिल्म ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को दिलाया उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड। ये फ़िल्म राजश्री के बैनर तले बनी थी और उस समय राजश्री, फिल्म निर्माण में नया ही था। पहले ये फ़िल्म संगीतकार रोशन को ऑफर की गई थी, मगर उन्होंने फ़िल्म की कहानी सुनकर इंकार कर दिया क्योंकि वो ऐसे दो दोस्तों पर आधारित थी जिनमें से एक देख नहीं सकता था और दूसरा चल नहीं सकता था।

इसके बाद ये फ़िल्म इस यंग संगीतकार जोड़ी को मिली मगर तब गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी भी उनकी क़ाबिलियत पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर पा रहे थे। पर प्रोडूसर्स के कन्विंस करने पर तैयार हो गए और फिर उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ क़रीब 45 फ़िल्में कीं। वो पहला बड़ा बैनर जिसने LP पर विश्वास किया वो था फ़िल्मयुग और वो फ़िल्म थी 1966 में आई “आए दिन बहार के” जिसमें लता मंगेशकर के गाए गाने बहुत मशहूर हुए। इससे पहले फ़िल्मयुग की फ़िल्मों में शंकर जयकिशन संगीत दिया करते थे। पर कहते हैं कि उनकी बढ़ती फ़ीस के चलते लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को ये मौक़ा मिला।

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इसके बाद लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। 1967 में उन की एक से बढ़कर एक हिट म्यूजिकल फिल्में आईं – “फ़र्ज़”, “अनीता”, “शागिर्द”, “पत्थर के सनम”, “नाईट इन लन्दन” और फिर “मिलन” जिसने उन्हें दूसरा फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड दिलाया। इस शानदार सफलता से लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के सामने  फ़िल्मों की लाइन लग गई। इसके बाद के तीन सालों में उन्होंने लगभग 40 फिल्मों में संगीत दिया फिर भी अपने संगीत के स्तर को गिरने नहीं दिया।

उनके संगीत की विविधता ने बड़े-बड़े बैनरों को आकर्षित किया। उन्होंने हमेशा ये कोशिश की कि अपना स्टाइल क़ायम रखते हुए फ़िल्ममेकर्स के स्टाइल की धुनें तैयार करें। वी शांताराम की फ़िल्मों में (जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली, ) उन्हीं की तरह का शुद्ध क्लासिक म्यूज़िक, राज कपूर की फ़िल्मों (बॉबी,सत्यम शिवम् सुंदरम, प्रेम रोग) में राज कपूर के स्टाइल का सुनाई देता था। मनोज कुमार (शोर, रोटी कपड़ा और मकान, क्रांति ) की फ़िल्मों में पोएटिक टच लिए होता था तो मनमोहन देसाई(रोटी, परवरिश, धर्मवीर, अमर अकबर अन्थोनी, चाचा भतीजा,सुहाग,नसीब) की फ़िल्मों में एकदम अलग धाँसू स्टाइल का। फिर भी उस संगीत पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की छाप होती थी।

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने यूँ तो सभी बड़े फ़िल्मकारों के साथ कई-कई फिल्में कीं पर उन्होंने दक्षिण भारतीय निर्देशक टी. रामाराव के साथ, सबसे ज़्यादा क़रीब 17 (लोक परलोक, जुदाई, अँधा कानून, मुझे इन्साफ चाहिए, सदा सुहागन, नाचे मयूरी, इन्साफ की पुकार, खतरों के खिलाड़ी ) फिल्में कीं। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ वेस्टर्न संगीत भी दिया, पर ये जोड़ी ज़्यादा जानी जाती है अपनी लोकधुनों और सेमी-क्लासिकल धुनों के लिए, साथ ही ऑर्केस्ट्रा का कमाल भी उनके गानों में सुनाई देता है। 

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यूँ तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने कई गीतकारों के साथ हिट गाते दिए पर सबसे सफल टीम वर्क रहा आनंद बख्शी के साथ। “mr. x in Bombay” वो पहली फिल्म थी जिससे आनंद बख्शी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का साथ शुरू हुआ फिर तो उन्होंने क़रीब 300 फिल्में साथ में की। इसी तरह रफ़ी साहब, किशोर दा और लताजी, आशाजी मुख्य गायक-गायिकाओं में रहे। लता जी से कैबरे गवाने का काम भी इसी जोड़ी का था। 60-70 के दशक में तो उनकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गयी थी की फिल्म “मोम की गुड़िया” के पोस्टर्स पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तस्वीर भी छपी थी।

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल

“दोस्ती”, “मिलन” और “जीने की राह” के अलावा लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को “अमर अकबर एंथनी”, “सत्यम शिवम् सुंदरम”, “सरगम” और “क़र्ज़” के लिए लगातार 4 साल सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। “उत्सव’ जैसी क्लासिक फ़िल्म का संगीत लाइट क्लासिकल, फोक और क्लासिकल तीनों का मिश्रण था। इसमें उन्होंने वीणा, मृदंग, तुरही, नगाड़े जैसे विशुद्ध हिंदुस्तानी इंस्ट्रूमेंट्स का प्रयोग किया।

बाद के सालों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने “प्यार झुकता नहीं”, “नसीब अपना-अपना”, “तेरी मेहरबानियाँ”, “अमृत”, “नाम”, “कर्मा”, “mr. India”, “तेज़ाब”, “हम”, “त्रिमूर्ति” और “खलनायक” जैसी कई फिल्मों में लोकप्रिय संगीत दिया। नए संगीतकारों के आने और संगीत के बदलते स्वरूप के साथ उनका संगीत भी बदला इसीलिए लोकप्रिय भी रहा। हाँलाकि बाद की कई फ़िल्मों के संगीत पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की छाप दिखाई नहीं देती।

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल में ग़ज़ब का तालमेल था पर दोनों एक दूसरे के काम में दखल नहीं दिया करते थे। लक्ष्मीकांत धुन बनाने पर ध्यान देते थे और प्यारेलाल ऑर्केस्ट्रा पर। दोनों दो अलग-अलग इंसान थे मगर काम के वक़्त वो एक होते थे। कभी उनके बीच “मैं” नहीं आया। अगर कभी ऐसा होता कि किसी व्यक्ति से किसी एक को प्रॉब्लम होती जैसा की प्रोफेशन में होता है तो प्रोफेशनली वो दोनों की प्रॉब्लम बन जाती थी। दोनों ने अपने-अपने काम बाँटे हुए थे,जब ज़रुरत होती दोनों डिसकस करते और इसी तरह उनकी सुपरहिट धुनें तैयार होती थीं। इसी को टीम वर्क कहते हैं।

जब प्यारेलाल ने लक्ष्मीकांत के साथ काम न करने का फैसला किया

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल

1991 में जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल टॉप पर थे तो एक वक़्त आया था, जब प्यारेलाल ने ये फ़ैसला किया कि वो लक्ष्मीकांत के साथ काम नहीं करेंगे। उस समय इस जोड़ी के पास कोई 15 फिल्में थीं और काम तो करना ही था तो प्यारेलाल ने अकेले ही कुछ गाने रिकॉर्ड कर लिए। दोनों के बीच जो ग़लतफ़हमी थी उसे लेकर दोनों के शुभचिंतकों और रिश्तेदारों को भी चिंता होने लगी थी। लोगों ने उनके बीच की ग़लतफ़हमी दूर हो जाने और वापस साथ आने के लिए मन्नतें माँगना शुरू कर दिया था। लक्ष्मीकांत की साली अभिनेत्री बिंदु ने प्रण किया कि अगर दोनों में फिर से दोस्ती हुई तो वो 500 ग़रीबों को खाना खिलाएँगी।

लता मंगेशकर, नौशाद, जे ओमप्रकाश, सुभाष घई, मनोज कुमार, बोनी कपूर, सुभाष घई जैसे कई शुभचिंतकों की कोशिशों से लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के बीच ग़लतफ़हमी के बादल छंट गए। मगर सवाल ये है कि जिन दो लोगों ने अपने-अपने घर पर नेम प्लेट इसलिए नहीं लगवाई थी कि दोनों का नाम अलग नहीं करना चाहते थे उनके बीच ऐसी ग़लतफ़हमी हुई कैसे ? पर ये भी सच है कि जब आप बुलंदियों को छूने लगते हैं तो आपके कई दुश्मन भी बनने लगते हैं कुछ दोस्तों की शक़्ल में आते हैं। इस घटना से पहले भी लोगों ने उनके और लता मंगेशकर के बीच मनमुटाव कराने की कोशिश की थी। 

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उस समय मुंबई में दो रिटेलर हुआ करते थे, वो दोनों अपने आपको लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल कहकर पुकारते थे। सारा किया धरा उन्हीं का था। एक दिन वो दोनों पहले लक्ष्मीकांत के घर गए और फिर प्यारेलाल के घर जाकर उनसे झूठ बोला कि लक्ष्मीकांत और उनकी पत्नी ने आपके बारे में ग़लत बातें बोलीं। ज़ाहिर है उन दोनों ने कोई बहुत बड़ा झूठ बोला होगा वर्ना इतने सालों का भरोसा यूँ डगमगाया नहीं होता। पर अच्छी बात ये रही कि उस समय लक्ष्मीकांत के घर पर सुभाष घई भी मौजूद थे इसीलिए प्यारेलाल के सामने सारी बात साफ़ हो गई। 

हाँलाकि प्यारेलाल ने अपने आप को दोषी ठहराया क्योंकि उन दोनों ने पहले से ही ये फ़ैसला किया था कि कभी कोई ऐसा पल आता है तो दोनों पहले एक दूसरे से साफ़-साफ़ बात करेंगे। मगर कभी-कभी कुछ ऐसा घट जाता है जिसकी वजह से किसी और की बातें सच लगने लगती हैं। उनके साथ भी एक घटना घट चुकी थी, विदेश में एक शो हुआ था उस दौरान उन्हें पानी की ज़रुरत थी लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी सबका ध्यान सिर्फ़ लक्ष्मीकांत की तरफ़ था। जिसकी वजह से वो थोड़े नाराज़ थे इसीलिए उन्होंने उन दोनों की बातों पर यक़ीन कर लिया।

मगर शुक्र है ये सब सिर्फ़ 15 दिन तक चला फिर दोनों की दोस्ती पहले जैसी हो गई। लेकिन कुछ ही सालों में वो वक़्त आया जब ये दोनों दोस्त एक दूसरे से बिछड़ गए। 25 मई 1998 को लक्ष्मीकांत की मौत ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की इस अटूट जोड़ी को तोड़ दिया। इसके बाद प्यारेलाल ने जितने भी प्रोजेक्ट्स किए उनमें क्रेडिट लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के नाम से ही गया। फिर कुछ सालों बाद वो भी फ़िल्मी दुनिया के फ़लक से दूर हो गए। मगर इन दिनों कई टीवी शोज में वो नज़र आ जाते हैं।

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