15 अगस्त15 अगस्त

15 अगस्त एक ऐसा दिन है जब पूरा भारत देशभक्ति के रस में डूब जाता है। इस रस को और ज़्यादा बढ़ाते हैं देशभक्ति में रचे बसे गीत। इस पोस्ट में कुछ देशभक्ति गीतों से जुड़े कुछ फैक्ट्स आप जानेंगे जिनके बारे में शायद आप नहीं जानते हों।

( 15 अगस्त विशेष )

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

ये गाना हम सभी ने अक्सर शहीद भगत सिंह की फ़िल्मों में देखा सुना है। ये गीत अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लड़ाई में सभी क्रांतिकारियों के लिए ये एक तरह से प्रेरणादायक एंथम बन गया था। एक आम धारणा बल्कि कहना चाहिए कि लगभग सभी ऐसा मानते हैं कि इसे राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा। लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि असल में ये रचना बिस्मिल अज़ीमाबादी की है जो उनके संकलन हिकायत-ए-हस्ती में शामिल है।

15 अगस्त

माना जाता है कि जब रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी पर चढ़ाया गया तो इस ग़ज़ल के कुछ शेर उनकी ज़ुबाँ पर थे इसीलिए लोग ये मानने लगे कि ये उन्हीं की ग़ज़ल है। हो सकता है ये कन्फ्यूज़न बिस्मिल नाम की वजह से हुआ हो। सच जो भी हो पर ये सभी जानते और मानते हैं कि इस गीत ने राष्ट्रीय चेतना जगाने का काम ज़रुर किया। और 15 अगस्त,  26 जनवरी जैसे मौक़ों पर तो इन गानों की एहमियत और बढ़ जाती है।

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मेरा रंग दे बसंती चोला ( 15 अगस्त विशेष )

ये एक और गीत है जो शहीद भगत सिंह से ऐसा जुड़ा कि उन पर बनी लगभग हर फ़िल्म में शामिल किया गया। फ़िल्मों की बात करें तो ये गाना सबसे पहले सुनाई दिया 1963 की फिल्म शहीद भगत सिंह में, जिसमें शम्मी कपूर भगत सिंह के किरदार में थे, उस फिल्म में इस गीत को लिखा क़मर जलालाबादी ने। फिर 1965 में आई मनोज कुमार की शहीद में इसे लिखा प्रेम धवन ने। 1974 की फ़िल्म अमर शहीद भगत सिंह में भी ये गीत सुनने को मिलता है जिसमें भगत सिंह के रोल में थे सुनील दत्त के भाई सोम दत्त।

इसके बाद एक लम्बा गैप आया और फिर 2002 में भगत सिंह पर तीन फिल्में आई जिनमें हीरो थे सोनू सूद, बॉबी देओल और अजय देवगन। “द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह” जिस में अजय देवगन ने भगत सिंह की भूमिका निभाई थी, इस में “रंग दे बसंती चोला” लिखा समीर ने। बॉबी देओल की फ़िल्म “23 मार्च 1931 शहीद” में इस गीत के गीतकार थे देव कोहली। यानी हर फ़िल्म में इस गीत के गीतकार का नाम अलग है और मुखड़े को छोड़कर अंतरे भी हर गीत में अलग हैं।

15 अगस्त

तो 15 अगस्त के अवसर पर ये जानना दिलचस्प होगा कि असल में ये गाना किसने लिखा और क्यों ये भगत सिंह की फ़िल्मों में शामिल होता रहा?

इस ओरिजिनल गीत की रचना रामप्रसाद बिस्मिल ने 1927 में की थी और इस विषय में कोई मतभेद नहीं है। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान और उनके साथी काकोरी कांड में जेल में बंद थे, उन दिनों बसंत का मौसम था। क्रान्तिकारी साथियों ने रामप्रसाद बिस्मिल से बसंत पर कुछ लिखने को कहा। और तब उन्होंने “रंग दे बसंती चोला” की रचना की जिसकी तुकबंदी में उनके साथियों ने भी मदद की, उस गीत के बोल कुछ यूँ थे ।

मेरा रंग दे बसंती चोला

इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में वीर शिवा ने, मां का बंधन खोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में भगत दत्त ने, छोड़ा बम को गोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में बिस्मिल अशफाक ने, सरकारी खजाना खोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में वीर मदन ने, गवर्नमेंट पर धावा बोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।
इसी रंग में पद्मकांत ने, मार्डन पर धावा बोला, मेरा रंग दे बसंती चोला।

पूरी सम्भावना है कि इसमें भी कुछ बोल बाद में जोड़े गए होंगे क्योंकि अगर ये गीत 1927 में लिखा गया था तो उसमें भगत सिंह के असेम्बली में बम फोड़ने की घटना का ज़िक्र नहीं हो सकता था क्योंकि वो घटना तो 1929 की है। पर इस गीत ने फ़िल्म वालों को एक ऐसा मुखड़ा ज़रुर दे दिया जिस पर अलग-अलग गीतकार गीत रचते रहे। जो 15 अगस्त और राष्ट्रीय अवसर पर लोगों में जोश भरने का काम आज भी कर रहे हैं।

15 अगस्त

शहीद भगत सिंह को ये गाना “मेरा रंग दे बसंती चोला” बहुत पसंद था, जेल में रहते हुए अक्सर वो इसे गुनगुनाते रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि इसी गीत को गाते हुए वो फाँसी के तख़्ते पर चढ़  गए थे। इसीलिए उन पर आधारित फ़िल्मों में उन्हें ये गाना  गाते हुए दिखाया जाता है। और गाना ही क्यों इसी मुखड़े पर फिल्म तक बन गई “रंग दे बसंती” और इसमें इसी मुखड़े पर एक धमाकेदार गीत है जिसे प्रसून जोशी ने लिखा है।

क़दम क़दम बढ़ाए जा ( 15 अगस्त विशेष )

क़दम क़दम बढ़ाए जा ख़ुशी के गीत गाए जा

ये ज़िंदगी है क़ौम की तू क़ौम पर लुटाए जा

जयहिंद का नारा देने वाले सुभाष चंद्र बोस ने एक बहुत ही सुव्यवस्थित पूर्ण अनुशासन वाली सेना का गठन किया था जिसे हम सब आज़ाद हिन्द फ़ौज के नाम से जानते हैं। इसी फ़ौज का एक मार्चिंग सांग है जो आज भी दिलों में जोश भर देता है। पर इस गीत के बारे में कितना जानते हैं आप ? तो आइए 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर जानने की कोशिश करते हैं।

इस गीत को लिखा था पंडित वंशीधर शुक्ल ने, जिन्हें अवधी बोली को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय दिया जाता है। कहते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ये गीत इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे मार्चिंग सांग के रूप में अपनाने का फ़ैसला किया और फिर इस गीत की धुन बनाई आज़ाद हिन्द फौज में कैप्टन राम सिंह ठाकुरी ने, जो एक कवि-गायक-संगीतकार थे।

फौज में सभी उनकी प्रतिभा के क़ायल थे और जब इस की ख़बर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को हुई तो उन्होंने कैप्टन राम सिंह ठाकुरी से कौमी तराना (राष्ट्रगीत) तैयार करने को कहा और ये भी कहा कि उस की धुन ऐसी होनी चाहिए कि जब आईएनए के सैनिक इसे प्रस्तुत करें, तो न सिर्फ़ सैनिकों बल्कि लाखों भारतीयों की आत्मा भी हिल उठे। 31 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में कैप्टन राम सिंह ठाकुरी ने अपने आकेस्ट्रा के साथ कौमी तराना बजाया। जिसके लिए 1944 में सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया।

इन्हीं रामसिंह ठाकुरी ने 15 अगस्त 1947 को आजादी के मौक़े पर लाल किले में अपने ऑर्केस्ट्रा के साथ “सुख चैन की बरखा बरसे…” गीत की धुन बजाई जो हमारे राष्ट्रगान “जन-गण-मन” का उर्दू-हिन्दी अनुवाद था। बाद में इसी गीत की धुन को राष्ट्रगान की मूल धुन के रूप में इस्तेमाल किया गया। इन्हीं कैप्टन रामसिंह ने “कदम-कदम बढ़ाये जा” की धुन बनाई और इस मूल गीत को कैप्टन रामसिंह की आवाज़ में ही रिकॉर्ड किया गया था, शायद 1942 या 43 में।

15 अगस्त

इस वर्ज़न के बोल भी शायद कैप्टन राम सिंह ने लिखे हों क्योंकि मुखड़े के अलावा बाक़ी बोल पंडित वंशीधर शुक्ल की रचना से मेल नहीं खाते। इस वर्ज़न में जो बोल हैं वही 2005 में आई “बोस – द फॉरगॉटन हीरो” में भी सुनाई देते हैं। लेकिन ये गीत अलग-अलग फ़िल्मों में अलग-अलग गीतकारों के नाम से भी मिलता है। क्योंकि उन गीतों में मुखड़ा एक है मगर अंतरे अलग हैं।

जैसे कि “समाधि” फ़िल्म में इसे लिखा राजेंद्र कृष्ण ने और संगीत दिया सी रामचंद्र ने। 1989 की फ़िल्म क्लर्क में भी ये गीत सुनने को मिलता है। 15 अगस्त 1945 को देश ने तो आज़ादी का सूरज देखा, मगर इस आज़ादी को पाने के लिए किस-किस ने क्या-क्या जतन किए ये भी याद रखना ज़रुरी है। सालों बाद आज शायद इसे रचने वालों को भुला दिया गया है मगर ये रचना अमर है और रहेगी।

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आवाज़ दो हम एक हैं ( 15 अगस्त विशेष )

इस गाने में परदे पर हैं कमलजीत, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार और राजकुमार। राजकुमार और दिलीप कुमार अपने वक़्त के दो ऐसे स्टार्स थे जो अपने स्टारडम के अलावा स्टार ईगो के लिए भी जाने जाते हैं। इसीलिए दोनों को एक साथ स्क्रीन शेयर करते हुए सिर्फ़ दो दफ़ा देखा गया। पहली बार फ़िल्म पैग़ाम में दोनों ने साथ में काम किया था उसके बाद सालों गुज़र गए मगर कोई दोनों को एक साथ लाने की हिम्मत नहीं कर पाया।

आख़िरकार सुभाष घई ने ये मुश्किल काम किया और ‘सौदागर’ फ़िल्म में दोनों फिर एक साथ दिखे। मगर इन दोनों ने एक दफ़ा और स्क्रीन शेयर की थी, और वजह थी देशप्रेम, जो आज़ादी 15 अगस्त 1945 को मिली उसे बरक़रार रखने में सहयोग देना।

1962 में जब चीन ने धोखा दिया और देश को एक लड़ाई लड़नी पड़ी। उस वक़्त पंडित जवाहरलाल नेहरूकी अपील पर सभी आम-ओ-ख़ास ज़्यादा से ज़्यादा योगदान देने के लिए आगे आये। उस समय सुनील दत्त ने भी एक पहल की और अपने अजंता आर्ट ग्रुप के साथ सैनिकों का हौसला बढ़ाने और उनका मनोरंजन करने के लिए सीमाओं पर पहुंचे। फ़िल्मी सितारों ने अपने फैंस से ‘नेशनल डिफ़ेंस फ़ण्ड’ में ज़्यादा से ज़्यादा योगदान देने की अपील की।

15 अगस्त

सी समय गीतकार और शायर जाँनिसार अख़्तर और साहिर लुधियानवी ने दो गीत लिखे जिन्हें संगीत से सजाया संगीतकार ख़ैयाम ने, आवाज़ दी मोहम्मद रफ़ी ने। उन दोनों गीतों को फ़िल्म इण्डस्ट्री की ‘नेशनल डिफ़ेंस कमेटी’ ने फ़िल्माने का फ़ैसला किया। इनमें से एक गीत था जाँनिसार अख़्तर का लिखा “आवाज़ दो हम एक हैं” जिसमें मदर इंडिया के तीनों हीरो के अलावा अभिनेता कमलजीत भी परदे पर दिखाई देते हैं। 

दूसरा गाना था साहिर लुधियानवी का लिखा “वतन की आबरू ख़तरे में है” इसमें दिलीप कुमार के साथ राजकुमार ने स्क्रीन शेयर की थी। इन दोनों के अलावा राजेंद्र कुमार और कमलजीत इस गाने में भी दिखाई दिए। वैसे तो ये दोनों गीत नॉन-फ़िल्मी हैं पर फ़िल्म्स डिवीज़न ने न्यूज़ रील के साथ इनका प्रदर्शन देश भर के सिनेमा घरों में लम्बे समय तक किया। इन गीतों के रिकार्ड भी निकाले गए

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चुन चुन के फूल ले लो ( 15 अगस्त विशेष )

कुछ समय पहले संजय लीला भंसाली की सीरीज़ “हीरामंडी” आई थी, जिसमें दिखाया गया कि कैसे तवायफ़ों ने आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया। ऐसी ही एक तवायफ़ थीं विद्याधरी बाई, जो अपने घर पर छोटी छोटी बैठकें किया करती थीं और दूसरी तवायफ़ों को आज़ादी (15 अगस्त ) की लड़ाई में भागीदार बनने और असहयोग आंदोलन को सफल बनाने के लिए प्रेरित किया करती थीं।

विद्याधरी बाई एक संगीतकार घराने से थीं, उन्होंने सारंगी वादक पंडित राम सुमेरु मिश्र और उस्ताद नसीर खां से संगीत सीखा। छोटी उम्र से ही उन्होंने जयदेव की कविताओं को सुरों में पिरोना और उन्हें गाना शुरु कर दिया था। अपनी गायकी से वो इतनी प्रसिद्ध हो गई थीं कि उन्हें देश भर के राजघरानों से संगीत समारोहों के लिए निमंत्रण आने लगे थे। बाद में वो बनारस के राजदरबार में दरबारी गायिका बन गईं।

15 अगस्त

ख्याल, ठुमरी, दादरा, टप्पा, ग़ज़ल और भजन में पारंगत विद्याधरी बाई जब संगीत समारोहों में गाती थीं तो सभी मंत्रमुग्ध होकर उनका गायन सुनते थे। और जहाँ वो गाती थीं वो हॉल ठसाठस भरा होता था। ऐसा कहा जाता है कि बनारस में महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात हुई थी और उन्हीं से प्रभावित होकर, उन्हीं के आह्वान पर विद्याधरी बाई ने विदेशी वस्तुओं का त्याग कर दिया था और सबसे ख़ास बात ये कि अपने सभी कार्यक्रमों में, वो कम से कम एक देशभक्ति गीत ज़रुर गाती थीं।

ऐसा कहा जाता है कि देशभक्ति गीत गाकर मुजरा करने वाली शायद वो पहली तवायफ़ थीं। 15 अगस्त 1945 को जो आज़ादी मिली उसमें विद्याधरी बाई और उन जैसी बहुत सी गुमनाम गायिकाओं / तवायफ़ों का योगदान भी शामिल है। उनकी आवाज़ में कुछेक रिकॉर्डिंग्स उपलब्ध हैं मगर उनकी क्वालिटी बहुत ख़राब है। मगर उनका लिखा ये गीत “चुन चुन के फूल ले लो” शुभा मुद्गल ने भी गाया है।

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वंदे मातरम् ( 15 अगस्त विशेष )

वंदे मातरम् हमारा राष्ट्रीय गीत है मगर ये सिर्फ़ आज के दौर में ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जब से रचा गया है तभी से इसका महत्त्व बढ़ गया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान “वंदे मातरम्” एक बहुत प्रसिद्ध नारा था, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता पाने के लिए राष्ट्रीय नारे के रूप में इस्तेमाल किया था। मगर इस पूरे गीत की बात करें तो इसकी रचना की मशहूर बांग्ला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने।

1882 में उनका एक उपन्यास आया “आनंद मठ”, उस उपन्यास में पहली बार “वन्दे मातरम्” लोगों ने पढ़ा। उपन्यास की कहानी सन्यासी विद्रोह पर आधारित थी, और उपन्यास में इस गीत को सन्यासी क्रांतिकारियों को गाते हुए बताया गया। मगर ये गीत इतना मशहूर हो गया कि स्वतंत्रता संग्राम में इसने लोगों में चेतना जगाने का काम किया।

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अंग्रेज तो इससे इतना डर गए थे कि उन्होंने “आनंद मठ” उपन्यास पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया, हाँलाकि इस गीत का इस्तेमाल लगातार होता रहा। इस गीत को पहली बार रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में कलकत्ता में कांग्रेस की बैठक में गाया था। उसके बाद तो अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग लोगों ने इसका इस्तेमाल किया।

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बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इसे संस्कृत और बांग्ला भाषा दोनों मिलाकर रचा था। मगर शुरूआती कुछ लाइनें जो संस्कृत में हैं उन्हीं को स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बनाया गया। और 15 अगस्त 1945 को मिली आज़ादी के बाद जब वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ तो उसमें भी संस्कृत की उन्हीं लाइनों को शामिल किया गया। मगर जब “आनंद मठ” नाम से फ़िल्म बनाई गई तो उसमें हेमंत कुमार ने बांग्ला लाइन्स भी गाई हैं।

वन्दे मातरम्

सुजलम् सुफलम्, मलयज शीतलम्, शस्याश्यामलम्, मातरम्

शुभ्र-ज्योत्स्ना पुलकित-यामिनीम्, फुल्लकुसुमिता द्रुमदाल शोभिनीम्,

सुहासिनीम्, सुमधुरा भाषिणीम्, सुखदाम्, वरदाम्, मातरम्

सप्तकोटिकंठ, कलकला निनादा कराले, द्विसप्तकोटि भुजैर धृत-खरा करावले।

अबला केना मा एता बाले बहुबल धारिणीम्, नमामि तारिणीम्, रिपुदलवारिणीम् मातरम्

‘तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म, त्वम् हि प्राणः शरीरे,

बहुते तुमि मां शक्ति, हृदये तुमि मां भक्ति, तोमरयी प्रतिमा गारी मंदिरे मंदिरे

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणी, कमला कमलादलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वम्, नमामि कमलम्, अमलम् अतुलम्, सुजलाम्, सुफलम्, मातरम्

वन्दे मातरम्!

श्यामलम्, सरलम्, सुस्मितम्, भूषितम्, धरणीम्, भरणीम्, मातरम्