ज़ोहराबाई अम्बालेवाली उस दौर की गायिकाओं में से थीं जब प्लेबैक नया-नया आया था। तब कई गायक-गायिकाओं के नाम उभर कर सामने आए कुछ बिना किसी ट्रैंनिंग के प्लेबैक सिंगिंग में कमाल कर रहे थे, और कुछ के पास शास्त्रीय संगीत का मज़बूत आधार था। ज़ोहराबाई अम्बालेवाली भी उन गायिकाओं में से थीं जो प्लेबैक से पहले क्लासिकल सिंगिंग में अपना स्थान बना चुकी थीं।
ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का शुरूआती जीवन
शुरुआती दौर में फ़िल्म संगीत में शुद्ध शास्त्रीय गायन का चलन था और उस दौर में हस्की भारी नेज़ल टच लिए आवाज़ें सुनाई देती हैं। इन्हीं आवाज़ों में एकदम अलग हटकर आवाज़ थीं ज़ोहराबाई खातून की जिनका जन्म 1918 में अम्बाला में हुआ। वो छोटी सी थी तभी उनके दादाजी ने उनकी गायन प्रतिभा को पहचाना और उसे आगे बढ़ने में पूरा पूरा सहयोग दिया। उस ज़माने के नामी उस्ताद उस्ताद ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ और उस्ताद नासिर हुसैन ख़ाँ से ज़ोहराबाई अम्बालेवाली को तालीम दिलाई गई। बाद में ज़ोहराबाई ने आगरा घराना से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी ली।
मात्र 13 साल की उम्र में ज़ोहराबाई ने HMV के लिए अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया जो की एक ठुमरी थी। और उनका पहला हिट गाना आया 14 साल की उम्र में, उस गाने के बोल थे – छोटे से बलमा मोरे अंगना में गिल्ली खेले। उनका ये गाना रातों रात हिट हो गया और उसके साथ ही ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का नाम भी मशहूर हो गया। तब तक ज़ोहराबाई ने रेडियो पर भी गाना शुरु कर दिया था और वो ज़्यादातर पक्के राग, ठुमरी-दादरा या सेमी क्लासिकल गीत ही गाया करती थीं।
ज़ोहराबाई अम्बालेवाली का फ़िल्मी सफ़र
रतन (1944) – संगीतकार-नौशाद / गीतकार – डी एन मधोक
- अँखियाँ मिलाके जिया भरमा के – रतन – ज़ोहराबाई
- रुमझुम बरसे बादरवा – रतन – ज़ोहराबाई
- परदेसी बालमा बादल आया – ज़ोहराबाई
- सावन के बादलो – रतन – ज़ोहराबाई
आपको ये जानकार शायद अचरज हो कि जब रतन फ़िल्म बनकर तैयार हुई थी तो पूरे देश में कोई भी डिस्ट्रीब्यूटर इसे ख़रीदने के लिए तैयार नहीं था। बहुत कोशिशों के बाद दिल्ली-UP के एक प्रमुख वितरक, सेठ जगत ने हिम्मत दिखाई और इस फ़िल्म को कमीशन के आदर पर रिलीज़ किया गया। और फ़िल्म रिलीज़ होते ही सुपरहिट हो गई।
ऐसी ही फ़िल्म थी अनमोल घड़ी उसमें भी संगीतकार नौशाद थे। नौशाद साहब ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की गायकी और आवाज़ से बहुत प्रभावित थे। इसीलिए नौशाद के संगीत से सजी कई फिल्मों में ज़ोहराबाई की आवाज़ का जादू सुनाई देता है। ज़ोहराबाई अम्बालेवाली और शमशाद बेगम ने अनमोल घड़ी में एक बहुत मशहूर डुएट गाया था – उड़न खटोले पे उड़ जाऊँ तेरे हाथ न आऊँ।
“आहें ना भरी शिकवे न किये कुछ भी न ज़ुबाँ से काम लिया” ये हिंदी सिनेमा की पहली मशहूर क़व्वाली मानी जाती है जिस में एक स्वर ज़ोहराबाई का भी था। जब परदे पर युवा शशिकला होंठ हिलाती हैं तो आप ज़ोहराबाई की आवाज़ का लुत्फ़ उठा सकते हैं। ज़ोहराबाई अम्बालेवाली की आवाज़ को उनके समय की दूसरी गायिकाओं से अलग इस तरह कहा जा सकता हैं कि वो गानों को lowest और हाई रेंज में गाने में माहिर थीं और उनके इसी अंदाज़ को लोगों ने चाहा पसंद किया।
ज़ोहराबाई अम्बालेवाली कई मायनों में भाग्यशाली रहीं। उन्हें ब्रेक के लिए बहुत ज़्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। उनकी गायन प्रतिभा की हमेशा ही प्रोत्साहित किया गया। पहले उनके दादा ने और फिर उनके पति ने। हाँलाकि उन की शादी बहुत ही कम उम्र में उस समय के मशहूर तबला वादक फ़क़ीर मोहम्मद से हो गई थी। पर उनके पति ने कभी उन्हें गाने से नहीं रोका और ये हिंदी सिनेमा के लिए और उनकी गायकी को चाहने वालों के लिए सुखद रहा वर्ना इतने ख़ूबसूरत गानों से हम सब महरूम रह जाते।
ज़ोहराबाई अम्बालेवाली के कुछ मशहूर गीत
- चले गए चले गए – पहले आप (1944)
- दुनिया चढ़ाये फूल मैं आँखों को चढा दूं – सन्यासी (1945)
- सामने गली मेरा घर है पता मेरा भूल ना जाना – मिर्जा साहिबा (1947)
- शायद वो जा रहे हैं छुपकर मेरी नज़र से – मेला (1948 )
- समझ लो नज़र से नज़ारा किसी का – कश्मीर (1951)
40 के दशक के अंत तक आते-आते शमशाद बेगम, लता मंगेशकर और गीता रॉय जैसी गायिकाओं का पदार्पण हुआ। फिल्म इंडस्ट्री के रंग-ढंग के साथ साथ गायिकाओं के लिए आवाज़ के मापदंड बदल गए। ऐसे में ज़ोहराबाई अम्बालेवाली को मिलने वाले ऑफर कम होने लगे और उन्होंने ख़ुद ही फ़िल्मों से दूरी बना ली। उन्होंने जो आख़िरी गाना गाया वो था फ़िल्म नौशेरवान-ए-आदिल का ।
इसके बाद ज़ोहराबाई अम्बालेवाली ने सिर्फ़ सत्यजीत रे की फ़िल्म “जलसाघर” के लिए परफॉर्म किया। फिल्में छोड़ने के बाद वो अपनी बेटी मशहूर कत्थक डांसर रोशन कुमारी के कंसर्ट्स के लिए लगातार गाती रहीं। 21 फ़रवरी 1990 को लोगों की रूह को छूने वाली ये आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई। लेकिन उनके गाए गाने आज भी सिनेमा के उस दौर की याद दिलाते हैं जब एक-एक गाना अनमोल नगीने जैसा हुआ करता था और गायक गायिका उसे तराशकर उसकी अहमियत को दुगुना कर देते थे।
सिनेमा के बदलते दौर हमें बहुत कुछ सिखाते भी हैं अगर हम सीखना चाहें तो – जैसे कि वक़्त का पहिया हमेशा घूमता रहता है। जो आज है वो कल नहीं होगा जो ऊचाँइयाँ छुएगा उसे भी एक दिन ज़मीन का रुख करना पड़ेगा और जैसा कि साहिर लुधियानवी ने कहा है – कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले कल कोई मुझको याद करे क्यों कोई मुझको याद करे मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे ?
मैं बस कोशिश कर रही हूँ उस भूले हुए दौर और भुलाए हुए फ़नकारों को याद करने की और उनकी बातें आप तक पहुँचाने की।
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