उषा खन्ना ने बहुत छोटी सी उम्र में फ़िल्मों में क़दम रखा था वो गायिका बनना चाहती थीं मगर शुरुआत से ही उन्हें संगीत देने का मौक़ा मिला। उनके संगीत से सजे गीत बहुत मशहूर भी हुए मगर उनकी क़ाबिलियत को पहचान बहुत देर से मिली। उनके जन्मदिन पर उनके जीवन और फ़िल्मी सफ़र पर एक नज़र डालते हैं।
सिनेमा की अलग-अलग फ़ील्ड्स में अगर हम देखें तो महिलाएँ या तो एक्टिंग करती नज़र आती हैं या सिंगिंग। महिला फ़िल्म निर्देशकों के नाम भी सुनाई दे जाते हैं मगर महिला संगीतकार बहुत ही कम हैं। शुरूआती दौर में जद्दनबाई और सरस्वती देवी के बाद अगर किसी महिला संगीतकार का नाम सुनाई देता है तो वो हैं उषा खन्ना। 7 अक्टूबर 1941 में ग्वालियर में जन्मी उषा खन्ना के पिता मनोहर खन्ना यूँ तो सरकारी मुलाज़िम थे मगर उन्होंने संगीत विशारद किया था और तबियत से वो एक शायर थे। अक्सर जब वो घर में सगीत का रियाज़ करते तो नन्हीं उषा भी उनके साथ होती तो छोटी सी उम्र से ही संगीत जैसे ज़िंदगी का हिस्सा बन गया था।
उषा खन्ना के पिता अक्सर मुशायरों में शिरकत भी किया करते थे ऐसे ही किसी मुशायरे में जद्दनबाई ने उन्हें सुना और उन्हें मुंबई आकर गीत लिखने का प्रस्ताव दिया लेकिन अच्छी खासी नौकरी छोड़कर मुंबई जाकर एक नई शुरुआत करने में वो झिझक रहे थे। तब जद्दनबाई के विश्वास दिलाने पर वो मुंबई आये, और कहाँ उन्हें तनख्वाह के तौर पर 250 रूपए मिलते थे लेकिन मुंबई में जद्दनबाई ने उन्हें तीन ग़ज़ल लिखने के 800 रूपए दिए। इस तरह मनोहर खन्ना अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ मुंबई आकर बस गए।
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उषा खन्ना गायिका का ऑडीशन देने गई थीं लेकिन काम मिला संगीतकार का
उषा खन्ना गायिका बनना चाहती थीं, उनके पिता शायर और गीतकार थे तो वो उनके लिखे मुखड़ों को धुनों में पिरोकर गाया करती थीं। एक बार गीतकार इंदीवर ने उषा खन्ना को गाते हुए सुना और वो उन्हें शशधर मुखर्जी के पास ले गए, जो उस समय अपनी नई फ़िल्म कंपनी शुरु कर रहे थे और उसके लिए नए फ़नकारों की तलाश में थे। शशधर मुखर्जी ने उनसे कई गाने सुने और फिर पूछा कि इन गानों की धुन किसने बनाई, और जब पता चला कि धुन ख़ुद उषा खन्ना ने बनाई है तो उनसे कहा कि तुम स्टूडियो आना शुरू करो और धुनें बनाओ।
उषा खन्ना लगभग एक साल तक फिल्मालय में धुनें बनाती रहीं। एक साल के बाद बतौर संगीतकार उन्हें उनकी पहली फ़िल्म मिली “दिल देके देखो” जो फ़िल्मालय की भी पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म तो कामयाब हुई ही इसके गाने भी बहुत लोकप्रिय हुए। मगर इसके बाद भी उषा खन्ना को कई साल लगे अपनी क़ाबिलियत को साबित करने में। क्योंकि जब “दिल देके देखो” बन रही थी उन दिनों O P नैयर का म्यूज़िक लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ पर छाया हुआ था तो शशधर मुखर्जी ने उषा खन्ना से उसी तरह की धुनें बनाने को कहा, और फ़िल्म के गानों पर वो छाप दिखती भी है।
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इसी वजह से लोगों ने समझा कि या तो वो O P नैयर की सहायक हैं या वो संगीत ही ओ पी नैयर ने दिया है और नाम उषा खन्ना का दिया गया है। उस समय उनकी उम्र भी कम थी तो लोग काफ़ी वक़्त तक यही समझते रहे कि किसी और की धुनों को उनके नाम से इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन एक के बाद एक उम्दा गाने आये जो लोगों को भी बहुत पसंद आये तब जाकर उषा खन्ना के टैलेंट को पहचान मिली। “दिल देके देखो” के बाद उषा खन्ना ने फ़िल्मालय की “हम हिंदुस्तानी” और “आओ प्यार करें” में म्यूजिक दिया और फिर फ़िल्मालय छोड़ दिया।
सुपरहिट म्यूज़िक के बावजूद पहचान बनाने में सालों लग गए
फ़िल्मालय छोड़ते वक़्त शशधर मुखर्जी ने उनसे कहा था कि अच्छी फ़िल्मों में काम करना, मगर बड़े बैनर के साथ बड़े-बड़े संगीतकार जुड़े थे। ऐसे में जो ऑफर आता उषा खन्ना उसे स्वीकार नहीं करतीं ऐसे ही एक साल बीत गया तब उनके पिता ने उन्हें समझाया कि इस तरह तो वो कभी काम कर ही नहीं पाएँगी और अगर म्यूज़िक अच्छा होगा तो बैनर और फ़िल्म कैसी है इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। और आप ग़ौर करें तो बैनर कोई भी रहा हो, फिल्म कैसी भी रही हो उनका संगीत सर चढ़ कर बोला है।
“शबनम”, “एक सपेरा एक लुटेरा”, “लाल बंगला” इन फ़िल्मों के नाम शायद किसी ने न सुने हों मगर इनके गाने ज़रुर सुने होंगे। (मैंने रक्खा है मोहब्बत – शबनम, हम तुमसे जुड़ा होके- एक सपेरा एक लुटेरा, चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर – लाल बंगला) 70 के दशक में “हवस”, “होटल”, “सबक”, “साजन बिना सुहागन”, “बिन फेरे हम तेरे”, “दादा”, “साजन की सहेली”, “आप तो ऐसे न थे” जैसी बहुत सी फिल्में आई, इनमें से कई अपने गानों की वजह से आज भी लोगों को याद हैं।
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अमूमन हिंदी फ़िल्मों में पहले संगीतकार धुन तैयार करता है फिर गीतकार उन धुनों पर बोल लिखता है मगर उषा खन्ना का मानना है कि इस तरह गीतकार बाउंड हो जाता है इसीलिए वो ऐसा नहीं करती। सिचुएशन के मुताबिक़ जब गीतकार गीत लिख लाता है तब वो उन बोलों को धुनों में पिरोती हैं। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के अलावा कुछ मलयाली और तमिल फ़िल्मों में भी संगीत दिया। आशा पारेख के टीवी सीरियल कोरा-काग़ज़ में भी उन्होंने संगीत दिया।
उषा खन्ना की निजी ज़िंदगी की बात करें तो मशहूर फिल्मकार सावन कुमार से उनका विवाह हुआ जिनकी कितनी ही फ़िल्मों में उन्होंने संगीत दिया मगर उनकी शादी 7 साल तक चली फिर दोनों के रास्ते अलग हो गए। उषा खन्ना के मुताबिक़ दोस्त रहते हुए जो समझ उन दोनों में थी वो शादी के बाद नहीं रही। सावन कुमार के अफ़ेयर्स जब उनसे बर्दाश्त नहीं हुए तो उन्होंने तलाक़ ले लिया। मगर अलगाव के बाद भी उनके प्रोफ़ेशनल रिश्ते अच्छे बने रहे और वो उनकी फ़िल्मों में म्यूजिक देती रहीं।
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हवस, साजन बिन सुहागन, साजन की सहेली, सौतन, प्यार की जीत इस जोड़ी की मशहूर फ़िल्में है। आख़िरी बार जिस फिल्म में उनका संगीत सुनाई दिया था वो थी सावन कुमार की 2003 में आई “दिल परदेसी हो गया”। तीन दशक के अपने करियर में उषा खन्ना ने एक पुरुष प्रधान क्षेत्र में एकलौती महिला संगीतकार के रूप में ख़ुद को पूरी तरह स्थापित किया, अपनी अमिट पहचान बनाई और ऐसी यादगार धुनें दीं जिन्हें लोग सालों-साल गुनगुनाएँगे।
उषा खन्ना के कुछ मशहूर गीत
- बड़े हैं दिल के काले हाँ यही नीली सी आँखों वाले – दिल दे के देखो
- अपने लिए जिए तो क्या जिए – बादल
- तेरी गलियों में न रक्खेंगे क़दम आज के बाद – हवस
- बरखा रानी ज़रा जमके बरसो – सबक
- मधुबन ख़ुशबू देता हैं – साजन बिन सुहागन
- जीजाजी जीजाजी भोले भाले जीजाजी दोस्त बन के आये हो -बिन फेरे हम तेरे
- दिल के टुकड़े टुकड़े करके मुस्कुरा के चल दिए – दादा
- जिसके लिए सब कुछ छोड़ा – साजन की सहेली
- तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में – आप तो ऐसे न थे
- देखो प्यार में ऐसा नहीं करते – होटल
- चाँद अपना सफ़र ख़त्म करता – शमाँ
- अजनबी कौन हो तुम – स्वीकार किया मैंने
- ज़िंदगी प्यार का गीत है – सौतन