सरदार मलिक ने एक ऐसी म्यूज़िकल फिल्म दी जो सुपरहिट थी, फिर भी फ़िल्म इंडस्ट्री ने उनसे मुँह फेर लिया। उनके साथ जो हुआ वो फिल्म इंडस्ट्री में चलती आ रही गंदी पॉलिटिक्स का उदाहरण है।
एक फिल्म आई थी “सारंगा” जिसका एक-एक गाना सिर्फ़ क्वालिटी में नहीं बल्कि लोकप्रियता में भी अव्वल दर्जे का है। आमतौर पर पहला ख़याल यही आता है कि इतना अच्छा संगीत देने के बाद तो उस संगीतकार की क़िस्मत ही बदल गई होगी! पर आपको जानकर फिर से हैरत हो सकती है कि इस सुपरहिट म्यूज़िकल फ़िल्म के बाद इसके संगीतकार को काम मिलना लगभग बंद हो गया। वजह इंडस्ट्री के दो बेहद प्रतिष्ठित फ़नकारों के अहम् का टकराव—
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अगर आपको याद हो तो कुछ वक़्त पहले गायक अरिजीत सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ सुनने में आया था कि सलमान ख़ान की नाराज़गी के डर से उनसे गाना गवाने में फिल्ममेकर्स डर रहे थे। मगर यहाँ बात संभल गई लेकिन सरदार मालिक बिना किसी ग़लती के बलि का बकरा बन गए। इस घटना के बारे में बात करने से पहले सरदार मलिक के बारे में कुछ जान लेते हैं।
सरदार मलिक 7 साल की उम्र में ही बच्चों को हारमोनियम बजाना सिखाने लगे थे।
सरदार मलिक की रुचि बचपन से ही संगीत में थी मगर उन्होंने कभी भी संगीतकार बनने का सपना नहीं देखा था लेकिन उनकी नियति उन्हें मुंबई ले आई और फिर घटनाचक्र ऐसा घूमा कि आज उनका नाम हिंदी सिनेमा के उत्तम संगीतकारों में शामिल किया जाता है। ये अलग बात है कि उनकी ज़्यादातर फिल्में commercially सक्सेसफुल नहीं रहीं।
सरदार मलिक का जन्म 13 जनवरी 1930 को पंजाब के कपूरथला में हुआ था। उनके पिता एक कांट्रेक्टर थे और माँ एक ज़मींदार घराने की बेटी। मलिक सरनेम उनकी माँ की तरफ़ से ही आया। बचपन में उन्होंने अपने एक दोस्त से हारमोनियम सीखा और उसमें इतने पारंगत हो गए कि 7 साल की उम्र में ही वो कपूरथला के दरबारियों के बच्चों को हारमोनियम बजाना सिखाने लगे थे। उन्हें हर परिवार से पाँच रुपए मिलते थे जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रक़म हुआ करती थी।
संगीत सीखने के लिए झेलीं बहुत सी मुश्किलें
संगीत के साथ साथ वो अपने पिता के काम-काज में भी हाथ बँटाया करते थे। उन्हीं दिनों जब वो अपने पिता के साथ एक तवायफ़ के कोठे पर पहुंचे तो वहाँ उनका गाना सुनकर शास्त्रीय संगीत सीखने की धुन लग गई। उसी तवायफ के घर पर किसी ने उन्हें मदद का वादा किया था और उसी के सहारे वो घर में किसी को बताये बिना लाहौर के लिए निकल पड़े क्योंकि घर वालों को उनका ये शौक़ बिलकुल पसंद नहीं था। लेकिन तमाम मुश्किलें झेलते हुए जब वो लाहौर पहुंचे तो उन साहब ने सरदार मलिक को भगा दिया और वो उलटे पैरों मायूस होकर घर लौट आये।
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एक दिन सरदार मलिक की नज़र एक विज्ञापन पर पड़ी जो पं रविशंकर के भाई पं उदयशंकर के कल्चरल सेंटर का था जो अल्मोड़ा में था वहाँ उनकी संगीत सीखने की इच्छा पूरी हो सकती थी मगर उनके पास उतने पैसे नहीं थे और घरवालों से तो कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती थी। तो एक दिन वो सीधे कपूरथला महाराज के हाथी के सामने जा पहुँचे आख़िर वो महाराज थे उनकी सुरक्षा की बात थी मगर वो डरे नहीं और अपनी बात उनके सामने रख दी और फिर महाराज के पी ए ने भी उनकी मदद की क्योंकि उनकी बेटी सरदार मलिक से संगीत सीखती थी।
फिर महाराज ने उनके पूरे ख़र्च की ज़िम्मेदारी उठाई और वो पहुँच गए अल्मोड़ा पं उदय शंकर के कल्चरल सेंटर में। लेकिन उन्हें जो स्कॉलरशिप मिली थी वो संगीत सीखने की नहीं थी बल्कि डांस सीखने की थी और डांस में उन्होंने इतनी महारत हासिल की कि उनका सोलो डांस पंडित उदय शंकर भी पसंद करते थे।
सरदार मलिक ने फ़िल्मों में बतौर डांस डायरेक्टर के डेब्यू किया
अल्मोड़ा के सेंटर में उनके साथियों में गुरुदत्त, मोहन सहगल के अलावा भी कई जाने माने नाम थे। गुरुदत्त और सरदार मलिक एक ही कमरे में रहते थे। वहाँ सरदार मलिक ने पंडित उदयशंकर से बैले, गुरु शंकर नम्बूदरी से कथकली, पिल्लै गुरूजी से भरतनाट्यम और अमोबी सिंह से मणिपुरी नृत्य भी सीखा। संगीत सीखा विष्णु शिराली से और उनका मानना था कि उन्होंने अलाउद्दीन ख़ाँ साहब को सुन-सुन कर भी बहुत कुछ सीखा।
कवि सुमित्रानंदन पंत भी हफ़्ते में एक दिन सेंटर में आते थे और कविता का अर्थ समझाते थे। इस तरह कविता की समझ भी उनमें आई। ज़ोहरा सहगल से योग सीखने के साथ-साथ उन्हें बहुत से शहरों में घूमने का भी मौक़ा मिला क्योंकि सेंटर से ग्रुप पूरे देश में घूम-घूम कर कार्यक्रम करते भी करते थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम के लिए जब उनका ग्रुप मुंबई पहुंचा तो उनका गाना सुनकर कई फ़िल्मी हस्तियाँ प्रभावित हुई थीं। मगर उस वक़्त तक वो सेंटर के कार्यक्रमों में बहुत व्यस्त थे।
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जब सेंटर बंद हो गया तो सरदार मलिक और मोहन सहगल ने ये तय किया कि वो दोनों मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े डांस डायरेक्टर बनेंगे और नए प्रयोग करेंगे। उस वक़्त सरदार मलिक की उम्र थी कोई 15-16 साल इसलिए सपनों की उड़ान बहुत ऊंची थी, लेकिन एक घटना ने सब कुछ बदल दिया। मुंबई पहुँचे तो उन्हें महेश भट्ट के पिता नानाभाई भट्ट की फ़िल्म चालीस करोड़ मिली। उस फ़िल्म के लिए इन दोनों ने एक कम्पोजीशन बनाई कठपुतली डांस की, जो उस वक़्त बहुत चर्चा में रही।
उन दोनों के पास बहुत से ऑफर्स आने लगे और लगा कि अब तो आसमान छू ही लेंगे। लेकिन उन्हीं दिनों एक वाक़या हुआ जिसमें फिल्म क्रू के किसी मेंबर ने फ़िल्म में डांस करने वाली किसी लड़की से शरारत कर दी। वो लड़की किसी बड़े ख़ानदान से थी और फिर हुआ ये कि उसकी ज़िम्मेदारी बिना कुछ किए इन दोनों पर आ गई और दोनों ने डांस डायरेक्शन छोड़कर अपने अलग रास्ते चुन लिए। मोहन सहगल फिल्म निर्देशन में चले गए और सरदार मलिक संगीत की दुनिया में आ गए।
फ़िल्म संगीत में भी सरदार मलिक ने अपना हुनर दिखाया और सारंगा जैसी फ़िल्म दी
जिन दिनों सरदार मलिक ग्रुप के साथ मुंबई आये थे उन्हें रमेश सहगल ने अपनी फ़िल्म “रेणुका” में संगीत देने का प्रस्ताव दिया था मगर उस वक़्त कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण सरदार मालिक ने उस ऑफर को ठुकरा दिया था। मगर शायद रेणुका में संगीत उन्हें ही देना था तो जब उन्होंने संगीतकार बनने का निश्चय किया तो रमेश सहगल ने तुरंत उन्हें बतौर संगीतकार साइन कर लिया। रेणुका फ़िल्म 1947 में आई थी जिसमें उन्होंने अपने कम्पोज़ किए कुछ गाने गाए भी थे। उसके बाद भी उन्होंने एकाध फ़िल्म में गाने गाए मगर मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ सुनकर उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह संगीत में डुबो दिया।
शरुआती कुछ फ़िल्मों के बाद जिस फ़िल्म ने उन्हें बतौर संगीतकार सफलता दिलाई वो थी – ठोकर उसमें मजाज़ की लिखी नज़्म जिसे तलत महमूद ने आवाज़ दी थी बहुत मशहूर हुई। सरदार मलिक को शायर का संगीतकार कहा जाता था क्योंकि वो अच्छी शायरी को तवज्जोह देते थे और उन बोलों पर संगीत को बिठाते थे। पर उनकी साल भर में एक ही फिल्म आती थी। लेकिन जब सारंगा आई तो उसने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। उस फिल्म के लिए उन्होंने 14 गाने रिकॉर्ड किये थे और एकाध गाने को छोड़कर शायद सारे ही हिट थे। जो एक संगीतकार के उज्जवल भविष्य की ओर इशारा करते हैं।
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जब सरदार मलिक ने मुकेश को सारंगा में गाने के लिए बुलाया तो गायक मुकेश ने उनसे कहा था कि मैंने बहुत से अच्छे गाने गाए हैं मगर सभी ने ये कहा कि मैं कहीं न कहीं फीका पड़ जाता हूँ। तब सरदार मालिक ने उनसे कहा कि ऐसा बिलकुल नहीं होगा अगर तुम मेहनत करो तो, मुकेश ने कहा मैं मेहनत करूँगा। और उसके बाद रोज़ाना एक महीने तक मुकेश सरदार मलिक के घर जाकर रियाज़ करते। और क़रीब 25 वें टेक में इस गाने की रिकॉर्डिंग ओके हुई। इतने में कोई भी गायक झल्ला जाता मगर मुकेश ने तब भी सरदार मलिक से पूछा कि कोई कमी तो नहीं है ? अगर है तो फिर से कर लेते हैं।
एक घटना ने जिसने सरदार मलिक के सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल दिया
सारंगा के अलावा सरदार मलिक ने ठोकर, चोर बाजार, आब-ए-हयात, चमक चाँदनी, माँ के आँसू, मेरा घर मेरे बच्चे, सुपरमैन, मदन मंजरी, पिक पॉकेट, बचपन, महारानी पद्मिनी, रूप सुंदरी जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया। सारंगा के बाद उन्हें कुछ बड़ी फिल्में मिली भी मगर एक घटना ने उनकी उस ख़ुशी को भी दुःख में बदल दिया।
एक गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान गायिका लता मंगेशकर ने गीतकार साहिर लुधियानवी से एक शब्द बदलने को कहा और साहिर लुधियानवी ने शब्द बदलने की बजाय एक ताना मारा कि “ये पढ़े-लिखों का काम है” इस बात पर लता मंगेशकर रिकॉर्डिंग छोड़कर चली गईं। लता मंगेशकर और साहिर लुधियानवी दोनों का ही उस वक़्त तक फ़िल्म इंडस्ट्री में एक रुतबा था। लता मंगेशकर साहिर लुधियानवी से तो नाराज़ थी हीं पर उन्हें ज़्यादा नाराज़गी इस बात से थी कि सरदार मालिक ने साहिर से कुछ क्यों नहीं कहा?
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एक विवाद की वजह से सरदार मलिक को डांस डायरेक्शन छोड़ना पड़ा था और दूसरे विवाद की वजह से उनका फ्यूचर तबाह हो गया। और ये दोनों ही विवाद ऐसे थे जिनमें उनकी कोई ग़लती ही नहीं थी। इस पूरे झगडे में न तो रिकॉर्डिंग अधूरा छोड़कर गईं लता मंगेशकर का कुछ बिगड़ा और न ही ताना मारने वाले साहिर लुधियानवी का, पर इन दो पाटों के बीच में सरदार मलिक पिस कर रह गए। इंडस्ट्री के लोगों ने उनसे किनारा कर लिया क्योंकि कोई भी लता जी को नाराज़ करने का रिस्क नहीं लेना चाहता था।
सारंगा के बाद उनके पास फ़िल्मों की लाइन लग गई थी, मगर इस घटना के बाद उन्हें रिकॉर्डिंग rooms की बुकिंग नहीं मिलती थी इसीलिए वो सब फिल्में भी उनके हाथ से निकल गईं। काम था नहीं, घर ख़र्च वहीं का वहीं था। शादी भी हो चुकी थी और बच्चे भी थे उनकी परवरिश के लिए पहले पत्नी के ज़ेवर बिके फिर घर। कहते हैं एक वक़्त तो ऐसा आया कि हताश सरदार मालिक ने अपने सारे रेकॉर्ड्स समंदर में बहा दिए और निराशा ने उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने दिया।
एक फ़नकार शायद ऐसा ही होता है जिसका स्वाभिमान उसे किसी से मदद भी नहीं माँगने देता तो उन्होंने भी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। गुरुदत्त और वो रुममेट थे दोस्त भी थे मगर दोनों ने साथ में कभी काम नहीं किया। क्योंकि गुरुदत्त ने कभी उन्हें ऑफर नहीं किया और उन्होंने कभी गुरुदत्त से नहीं कहा कि उन्हें संगीत का मौक़ा दें। हसरत जयपुरी तो उनके क़रीबी रिश्तेदार थे मगर उन्होंने कभी उनसे भी मदद नहीं मांगी।
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हाँ, जो काम उन्हें मिला उसे उन्होंने ज़रुर किया मगर उनका ख़ुद का मानना था कि मौक़ा मिलता तो वो संगीत के क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते थे और इसी बात का असंतोष उन्हें ताउम्र रहा। बाद के दौर में संतोष था तो इस बात का कि उनके बेटों ने फ़िल्म जगत में अपनी जगह बनाई ख़ासकर अनु मलिक ने उनके जीवन में ही बुलंदियों को छू लिया था। 27 जनवरी 2006 में सरदार मलिक ने आख़िरी साँस ली। एक प्रतिभाशाली, योग्य संगीतकार जो जानता था कि संगीत में कितनी शक्ति है उसे इस इंडस्ट्री ने हमेशा के लिए खो दिया। मगर हम से क्या कोई ऐसा है जो उनके संगीत खासकर सारंगा के गानों को कभी भूल पायगा ?
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