सलिल चौधरी को हम यूँ तो एक संगीतकार के रुप में पहचानते हैं पर संगीत के अलावा भी कई क्षेत्रों में उनका दख़ल रहा है। वो कवि-गीतकार तो थे ही, उन्होंने फ़िल्मों की कहानी लिखने के साथ-साथ कुछ फ़िल्मों की पटकथा भी लिखी और फ़िल्म निर्देशन में भी हाथ आज़माया। उनकी पुण्यतिथि के मौक़े पर उनके जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर एक नज़र डालेंगे।
सलिल चौधरी को बचपन से ही संगीत से लगाव हो गया था
सलिल चौधरी का जन्म हुआ 19 नवम्बर 1922 में। उनके पिता असम में डॉक्टर थे इसलिए उनका ज़्यादातर समय असम के चाय बागग़ानों में गुज़रा। उनके पिता चाय बाग़ानों में काम करने वाले मज़दूरों और कुलियों के साथ स्टेज प्लेज़ किया करते थे, सो असमिया और बंगाली लोक संगीत सुनते हुए वो बड़े हुए। लेकिन उनके पिता को पश्चिमी संगीत का भी शौक़ था, उनके पास वेस्टर्न म्यूज़िक का एक बहुत अच्छा कलेक्शन था, तो पश्चिमी संगीत भी सलिल चौधरी ने बचपन से ही सुना। शायद इसीलिए उनकी धुनों में वेस्टर्न म्यूज़िक और लोक संगीत का बेहद सुन्दर मिश्रण मिलता है।
1944 में सलिल चौधरी स्नातक की पढ़ाई के लिए कोलकता चले गए। जहाँ वो इप्टा से जुड़ गए। यहीं से उन्होंने गीत लिखना और उनकी धुनें तैयार करना शुरु कर दिया था। इप्टा का थिएटर ग्रुप गाँव-गाँव, शहर-शहर जाता था और उसके साथ सलिल दा के गीत भी। इस तरह चेतना जगाने वाले उनके गीत आम आदमी तक पहुँचे और कुछ तो आम जनता में बेहद लोकप्रिय हुए।
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फ़िल्मी पारी की शुरुआत
सलिल चौधरी की पहली बंगाली फ़िल्म थी “पोरिबर्तन” जो 1949 में रिलीज़ हुई। हिंदी फ़िल्मों में उनका आगमन हुआ 1953 में। फ़िल्म थी बिमल रॉय की “दो बीघा ज़मीन” जो सलिल दा की ही लघुकथा रिक्शावाला पर आधारित थी। ये वो पहली फ़िल्म थी जिसे फ़िल्मफ़ेयर का बेस्ट मूवी अवार्ड दिया गया। “दो बीघा ज़मीन” ने कान फ़िल्म फेस्टिवल में भी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीता।
उनका संगीत पूरब और पश्चिम का अनोखा संगम है। रोज़ की ज़िंदगी में जंगल की आवाज़ें, चिड़ियों की चहचहाहट, बाँसुरी की आवाज़ और असम के लोक संगीत ने जहाँ उन पर गहरा प्रभाव डाला, वहीं मोज़ार्ट, बीथोवन और शोपेन(CHOPIN) जैसे संगीतकारों को भी उन्होंने काफ़ी सुना और इसका असर भी उनके संगीत में नज़र आता है। ख़ासकर अगर आप उनकी कम्पोज़ीशंस में ऑर्केस्ट्रा पर ग़ौर करें तो वो ज़्यादातर पश्चिमी रहा। पर वहीं लोक धुनें और भारतीय शास्त्रीय रागों पर आधारित धुनें भी उन्होंने दीं। कुल मिलाकर कहें तो उन्होंने अपना एक अलग ही स्टाइल बनाया।
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सलिल दा बैकग्राउंड म्यूज़िक देने में माहिर थे
कम ही लोग जानते हैं कि सलिल चौधरी को बैकग्राउंड म्यूज़िक देने में महारत हासिल थी। उन फ़िल्मों का बैकग्राउंड म्यूज़िक तो उन्होंने दिया ही जिनमें वो मुख्य संगीतकार थे। पर दूसरे संगीतकारों ने भी उनकी इस ख़ूबी का इस्तेमाल किया। और इसकी शुरुआत हुई बिमल रॉय की “देवदास” जिसके मुख्य संगीतकार थे- S D बर्मन, पर बैकग्राउंड म्यूज़िक के लिए उन्होंने विश्वास किया सलिल दा सलिल चौधरी पर।
बी आर चोपड़ा की “क़ानून” अपने आप में नई थी क्योंकि इसमें एक भी गाना नहीं था। और ये अपने बैकग्राउंड म्यूजिक की वजह से जानी जाती है। इनके अलावा “मौसम”, “अनोखी रात” जैसी क़रीब 20 हिंदी फ़िल्मों में उन्होंने पार्श्व संगीत दिया। हिंदी के साथ-साथ उन्होंने कई बांगला और मलयाली फ़िल्मों में भी पार्श्व संगीत दिया।
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सलिल चौधरी जब आठ साल के थे तभी से वो बहुत अच्छी बांसुरी बजा लेते थे, सुरीला गाने भी लगे थे। बाद में उन्होंने हर साज़ सीखा- तबला, सरोद, पियानो शायद ही कोई ऐसा वाद्य-यंत्र रहा हो जो वो न बजा सकते हों। उनके व्यक्तित्व के जितने शेड्स मिलते हैं उतने ही उनके संगीत में भी नज़र आते हैं। “मधुमती”, “माया”, “काबुलीवाला” जैसी फिल्मों के साथ-साथ बदलते दौर की “छोटी सी बात”, “रजनीगंधा”, मेरे अपने” और “आनंद” जैसी फ़िल्मों से उनके संगीत की गहराई और फैलाव का पता चलता है।
बहुआयामी व्यक्तित्व
1966 में सलिल चौधरी ने “पिंजरे के पंछी” नाम से एक फ़िल्म का निर्देशन किया। लेकिन इसके बाद फिर कभी उन्होंने किसी फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया। जैसा कि मैंने आपको पहले बताया था कि वो कहानियाँ लिखा करते थे और उनकी कुछ कहानियों पर फिल्में भी बनी। “दो बीघा ज़मीन”, “परख” और 1978 की फ़िल्म “नौकरी” की कहानी उन्हीं की लिखी हुई है। फ़िल्म “प्रेमपत्र” की पटकथा भी उन्होंने ही लिखी, लेकिन उनके संगीत की बात ही कुछ और है।
सलिल चौधरी ने 75 से ज़्यादा हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया। उन्होंने हिंदी के अलावा बांग्ला, मलयाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी,असमिया और उड़िया भाषा की फ़िल्मों में भी संगीत दिया। फ़िल्मों के अलावा कई टीवी धारावाहिकों और वृत्तचित्रों में भी उनका संगीत सुनाई दिया। उन्होंने बहुत से Commercial Jingles भी लिखे, जो अपने समय में बहुत मशहूर हुए। इस तरह देखें तो हर क्षेत्र में उन्होंने काम किया, उन्होंने ख़ुद को न तो भाषा की सीमा में बाँधा, न ही किसी ख़ास विधा में, बस काम करते रहे और हर काम लाजवाब रहा।
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सलिल चौधरी को 1958 में हिंदी फ़िल्म “मधुमती” के लिए फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवार्ड दिया गया और 1988 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया। निजी जीवन की बात करें तो उनकी शादी हुई सबिता चौधरी से, उनके दो बेटे और बेटियां हैं। 5 सितम्बर 1995 को वो इस दुनिया को अलविदा कह गए और पीछे छोड़ गए अपने सुमधुर संगीत का अनमोल ख़ज़ाना जो हमेशा हमारे दिलों में बसा रहेगा।
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