साहिर लुधियानवी का नाम उन फ़िल्मी गीतकारों में शामिल होता है जिनका नाम अदब की दुनिया और फ़िल्मी गलियारों दोनों में इज़्ज़त से लिया जाता है। क्योंकि उन्होंने फ़िल्मी गीतों की गुणवत्ता को बनाये रखा और गीतकारों को वो मक़ाम दिलाया जो अमूमन उन्हें नहीं मिलता था। “साहिर” का मतलब है जादूगर वो सचमुच शब्दों के वो जादूगर थे जिनके सहर से कोई नहीं बच पाया। 25 अक्टूबर को वो इस दुनिया से रुख़्सत हुए थे, उनकी पुण्यतिथि पर कुछ ऐसी बातें जो साहिर को इतना ख़ास बनाती हैं।
साहिर लुधियानवी के बचपन के तजुर्बात ने उन्हें बहुत हस्सास बना दिया था
कहते हैं कि जिन बच्चों का बचपन मुसीबतों या डर के साये में गुज़रता है या तो उनकी शख़्सियत बहुत कमज़ोर हो जाती है या वो ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों से रु-ब-रु होकर बेहद मज़बूत हो जाते हैं। साहिर लुधियानवी के बचपन ने भी बहुत सी मुश्क़िलों को देखा और भोगा। हाँलाकि लुधियाना के एक ज़मींदार परिवार में हुआ पर उनके पिता बेहद सख़्त-मिज़ाज और कहते हैं कुछ अजीब क़िस्म के व्यक्ति थे। जो इंसान अपने बेटे का नाम अपने सबसे बड़े दुश्मन के नाम पर रखे (साहिर का असल नाम था अब्दुल हई) वो इंसान कैसा हो सकता है आप समझ ही सकते हैं।
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जब साहिर की माँ के सब्र का बाँध टूट गया तो उन्होंने अलग होने का फ़ैसला कर लिया। अदालत में जब साहिर ने अपनी माँ के साथ रहने की इच्छा जताई तो उनके पिता ने उन्हें जान से मारने की धमकी तक दे डाली और फिर माँ ने अपने ज़ेवर बेचकर अपनी और अपने बेटे की सुरक्षा का इंतज़ाम किया। उस समय साहिर की उम्र कोई 13 साल की रही होगी। इतने छोटे बच्चे के नाज़ुक मन पर इन सब बातों का कितना गहरा असर पड़ा वो साहिर के गीतों और शायरी में झलकता है। साहिर लुधियानवी ने ऐसे बहुत से गीत लिखे हैं जो समाज में नारी की स्थिति को बताते हैं।
कॉलेज के दिनों में ही साहिर अपनी शायरी की वजह से मशहूर हो गए थे
साहिर लुधियानवी की शुरूआती पढ़ाई लुधियाना के खालसा स्कूल में हुई, फिर उन्होंने सरकारी कॉलेज में दाख़िला ले लिया। शायरी का जो शौक़ था वो इसी कॉलेज में परवान चढ़ा इस दौरान उन्होंने कई गीत और ग़ज़लें लिखीं। उनकी जो एक मशहूर नज़्म है “परछाइयाँ” कहते हैं वो उन्होंने इसी दौर में लिखी थी। इसी दौर में उनकी ज़िंदगी में मोहब्बत की आमद भी हुई, पर वो अंजाम तक नहीं पहुँच सकी और फिर साहिर का कॉलेज से नाता टूट गया। इसके बाद वो अपनी माँ के साथ लाहौर चले गए, साहिर के लिए ये बहुत मुश्क़िल दिन थे। लेकिन जब उनका पहला संग्रह आया “तल्खियाँ” तो लोग उनकी शायरी के दीवाने हो गए।
इसी दौर में उनकी नज़्म “परछाइयां” भी सामने आई जो एक तरह से साहिर लुधियानवी की पहचान बन गई। अब वो बाक़ायदा मुशायरों में जाने लगे और बहुत ही कम वक़्त में उन्होंने अपनी एक पहचान बना ली। लाहौर में अपनी पहचान बनाने के साथ-साथ वो प्रगतिशील लेखक संघ का भी एक जाना-माना नाम बन चुके थे। उन्हीं दिनों उन्हें उर्दू की चार बड़ी पत्रिकाओं के संपादन की ज़िम्मेदारी भी मिल गई। ये वो वक़्त था जब देश भर में आज़ादी की लहर चल पड़ी थी और फिर जल्दी ही देश का विभाजन हो गया और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। साहिर लुधियानवी लगातार उस वक़्त के बिगड़े हालत और पाकिस्तानी सरकार के ख़िलाफ़ लिखते रहे।
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साहिर लुधियानवी के क्रन्तिकारी लेखों का नतीजा ये हुआ कि उनकी गिरफ़्तारी का वारंट निकल गया , पर साहिर की लेखनी के तेवर नहीं बदले। लेकिन फिर 1949 में साहिर ने पाकिस्तान छोड़ दिया और अपनी माँ के साथ दिल्ली आ गए। पर जल्दी ही वो फ़िल्म नगरी की तरफ़ रवाना हो गए जहाँ उन्हें एक फ़िल्म में गीत लिखने का मौक़ा मिला जिसका नाम था “आज़ादी की राह पर” लेकिन इस फ़िल्म के गीतों को कोई ख़ास लोकप्रियता हासिल नहीं हुई। “नौजवान” वो फिल्म थी जिसके गीतों ने साहिर को पहचान दिलाई और उसके बाद आई “बाज़ी” ने साहिर को फ़िल्मी गीतकारों में पहले नंबर पर पहुंचा दिया।
फ़िल्मों में कामयाबी का दौर
“नौजवान” और “बाज़ी’ इन दोनों ही फिल्मों में संगीत S D बर्मन का था, बाद में कितनी ही फिल्में आईं जिनमें साहिर लुधियानवी के गीत और बर्मन दा के संगीत ने धूम मचा दी। पर इस जोड़ी की सबसे बेहतरीन फ़िल्म रही “प्यासा”। “प्यासा” के गीत साहिर की क़लम का बेजोड़ नमूना हैं जिनमें समाज के दोहरेपन पर कटाक्ष भी है, जीवन की कड़वी सच्चाइयाँ भी, रोमांस भी और दर्शन भी। कुछ लोग तो इन गीतों को साहिर का सबसे अच्छा काम मानते हैं।
SD बर्मन के अलावा जिन संगीतकारों के लिए साहिर लुधियानवी ने बेहतरीन गीत लिखे उनमें रवि, रोशन, ख़ैयाम, OP नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के नाम मुख्य रूप से हम ले सकते हैं, जिनके साथ उन्होंने वक़्त, हमराज़, गुमराह, नीलकमल, काजल, ताजमहल जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे। ताजमहल के गाने “जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा” के लिए उन्हें बेस्ट लिरिसिस्ट का पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिला। इसके अलावा चित्रलेखा, बहु बेगम, दिल ही तो है, बरसात की रात, फिर सुबह होगी, शगुन कभी-कभी, धूल का फूल, साधना, धर्मपुत्र, नया दौर, दाग़, इज़्ज़त जैसी कितनी ही सुपरहिट फिल्मों में उन्होंने सुपरहिट गीत लिखे।
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फिल्मकारों की बात करें तो मुख्य रूप से देवानंद, गुरुदत्त के अलावा चोपड़ा कैंप के साथ साहिर लुधियानवी का अच्छा एसोसिएशन रहा। बी आर चोपड़ा की फ़िल्म कभी-कभी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का दूसरा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। जब भी रोमेंटिक गीतों की बात होती है तो मुझे लगता है “कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है” सबसे पहले हमारे ज़हन में उभरता होगा। लेकिन साहिर को जहाँ रोमेंटिक शायर कहा जाता है वहीं उन्हें आम आदमी का शायर और क्रांतिकारी शायर भी कहा जाता है। फ़िल्मी गीतों में उन्होंने जितनी वैराइटी दी है वो भी क्वालिटी को बरक़रार रखते हुए, एक इंटेलेक्चुअल टच देते हुए, ये ख़ासियत बहुत कम गीतकारों में मिलती हैं।
साहिर लुधियानवी के फ़िल्मी गीतों में ज़ुल्म और शोषण के विरुद्ध विद्रोह के स्वर सुनाई देते है तो उम्मीद की किरण भी नज़र आती है। उन के रोमेंटिक गाने चाहे वो कितने ही सेंसुअल क्यों न हों, कभी वल्गर नहीं लगते। वो रोमांस को क़ुदरत के साथ इस तरह जोड़ देते थे कि उस गीत में प्रेम का स्तर और ऊंचा हो जाता था। कुछ लोगों का मानना है कि बाद के दौर में साहिर में एक तरह का घमंड आ गया था। वो ये शर्त रखने लगे थे कि संगीतकार उनके लिखे गीत की धुन बनाए। इसी वजह से S D बर्मन के साथ उनकी अनबन भी हो गई थी।
जब साहिर ने कहा कि जितनी फ़ीस लता मंगेशकर लेती हैं वो उससे एक रुपया ज़्यादा लेंगे
जिस दौर में साहिर लुधियानवी ने फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा उस वक़्त फ़िल्मी लेखकों गीतकारों को फ़िल्मी दुनिया में वो इज़्ज़त नहीं मिलती थी जो संगीतकारों, फिल्मकारों, गायक-गायिकाओं या कलाकारों की मिलती थी। ये बात साहिर लुधियानवी को बहुत कचोटती थी, इसीलिए उन्होंने हमेशा अपनी शर्तों पर काम किया। वो उन गीतकारों में से रहे जिनकी वजह से लेखकों, गीतकारों को उनका सही मेहनताना मिलना शुरू हुआ। उस समय बतौर गायिका लता मंगेशकर का एक ख़ास मक़ाम था और उनकी फ़ीस भी ज़्यादा होती थी तब साहिर ने ये फैसला किया कि वो लता मंगेशकर से एक रुपए ज़्यादा फ़ीस लेंगे।
उन्हीं वजह से फ़िल्म की कास्टिंग में गीतकार का नाम संगीतकार के नाम के साथ आपको दिखाई देता है। साहिर का मानना था कि किसी गीत को यादगार बनाने में जितना योगदान संगीतकार या गायक-गायिका का होता है उतना ही गीतकार का भी होता है। लेकिन तब तक गीतकार को ठीक से क्रेडिट भी नहीं दिया जाता था। जब उन्होंने फिल्म राइटर एसोसिएशन के वाईस प्रेजिडेंट की पोस्ट स्वीकार की तो उन्होंने शर्त रखी कि वो फ़िल्मी गीतकारों के सम्मान के लिए लड़ेंगे। उन्हीं की कोशिशों से रेडियो पर गायक गायिकाओं के नाम के साथ साथ गीतकारों के नाम की उद्घोषणा शुरु हुई।
साहिर और लता मंगेशकर से जुड़ा एक और वाक़या सुनने में आता है कि एक बार लता मंगेशकर साहिर के लिखे गीत को गा रही थीं उन्हें एक शब्द थोड़ा मुश्किल लग रहा था तो उन्होंने साहिर लुधयानवी से कहा कि वो शब्द बदल दें और फिर इतनी सी बात को लेकर दोनों में झगड़ा हुआ जो बाद में इतना बढ़ गया कि साहिर ने तय कर लिया कि वो उस फ़िल्म में गीत नहीं लिखेंगे जिसमें लता मंगेशकर गाने गाएँगी और लता मंगेशकर ने भी उनके लिखे गाने न गाने की शपथ ले ली। क़रीब दो साल तक दोनों ने एक दूसरे के साथ काम नहीं किया। कहते हैं बाद में बी आर चोपड़ा ने दोनों में सुलह कराई।
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बाद के दौर में साहिर लुधियानवी बहुत कम काम करने लगे थे, साल में दो या तीन फिल्में वो भी अपनी शर्तों पर। पहले फिल्म की कहानी और गीत की सिचुएशन के बारे में जानते थे, अगर अच्छा लगता था तो ही उस फ़िल्म को हाथ में लेते थे वर्ना साफ़ इंकार कर देते थे। और एक-एक शब्द पर बहुत मेहनत करते थे, गाना लिख लेते थे पर लगातार उसमें सुधार करते रहते थे और जब पूरा यक़ीन हो जाता था कि अब इससे बेहतर नहीं हो सकता तब गाना प्रोड्यूसर को देते थे। तभी तो उनका एक एक गीत अनमोल मोती की तरह है।
शायरी के सरताज प्रेम में कामयाब नहीं हो सके
साहिर लुधियानवी की निजी ज़िंदगी की बात करें तो कहते हैं उनकी ज़िंदगी में प्रेम ने कई दफ़ा दस्तक दी मगर उनकी गुज़री हुई ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बात ने उन्हें किसी भी रिश्ते में आगे बढ़ने नहीं दिया। मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत से पूरी दुनिया वाक़िफ़ थी। अमृता तो इस मोहब्बत में इतना आगे बढ़ गई थीं कि उन्होंने अपनी शादी भी तोड़ दी थी। मोहब्बत साहिर भी करते थे, कहते हैं कि जब अमृता उनके घर से जाती थीं तो साहिर उनके झूठे कप को किसी को हाथ भी नहीं लगाने देते थे। अगर इतनी मोहब्बत थी तो बात आगे क्यों नहीं बढ़ी जबकि प्यार दो तरफ़ा था।
इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि साहिर लुधियानवी की माँ इस रिश्ते के ख़िलाफ़ थीं और साहिर अपनी माँ के बहुत क़रीब थे। अमृता प्रीतम ने तो साहिर के प्रति अपने प्रेम को हमेशा ज़ाहिर किया पर साहिर बहुत ही अंतर्मुखी और कम बोलने वाले इंसान थे और शायद इन्हीं वजहों से ये प्रेम अंजाम को नहीं पहुँच पाया। इसके बाद गायिका सुधा मल्होत्रा के प्रति उनका झुकाव हुआ और उन्होंने सुधा मल्होत्रा को प्रोमोट करने में जी जान लगा दी मगर यहाँ भी बात आगे नहीं बढ़ पाई और साहिर लुधियानवी आजीवन अविवाहित रहे।
साहिर की दुनिया सिर्फ़ उनकी माँ तक सिमट कर रह गई थी, वो उनसे बहुत प्यार करते थे। 1978 में उनकी माँ की मौत के बाद वो और भी अकेले हो गए थे और फिर दिल का दौरा पड़ने से 25 अक्टूबर 1980 को साहिर लुधियानवी अपनी तन्हा ज़िंदगी को अलविदा कह गए। एक भावुक और संवेदनशील शायर, गीतकार अपने गीतों की निशानियां छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से दूर चला गया
पल दो पल के शायर साहिर लुधियानवी की ज़िंदगी और काम पर बहुत से लेखकों ने किताबें लिखीं हैं पर एक शायर के तौर पर “तल्खियां” ही उनकी एकमात्र किताब है। इसके अलावा परछाइयाँ नाम की एक लम्बी नज़्म है। बाक़ी जो भी किताबें छपीं उनमें तल्खियां से चुने हुए कलाम शामिल किये गए हैं। एक किताब है “गाता जाए बंजारा” जिसमें उनके फ़िल्मी गीतों को शामिल किया गया है।
1971 में साहिर लुधियानवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2013 में उनके जन्मदिन के अवसर पर उनके सम्मान में एक डाक-टिकट जारी किया गया। साहिर लुधियानवी बहुत ही कम वक़्त में एक बहुत बड़ा नाम बन चुके थे और बहुत ही कम वक़्त में इस दुनिया से चले गए लेकिन उन्होंने जो भी काम किया वो आज भी हम सब के दिलों में बसा हुआ है।
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