राजकुमार (8 अक्टूबर 1926 – 3 जुलाई 1996 ) हिंदी फ़िल्मों के जानदार-शानदार अभिनेता की पुण्यतिथि पर एक श्रद्धांजलि।
राजकुमार स्टाइलिश होने के साथ-साथ एक संवेदनशील अभिनेता भी थे। लेकिन उनकी वो ख़ासियत जिसके लिए उन्हें खासतौर पर याद किया जाता है वो थी उनकी संवाद-अदायगी। उनके कुछ संवाद तो ऐसे हैं जो आज भी बेहद मशहूर हैं।
- “चिनाय सेठ, छुरी बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं होती, हाथ काट जाए तो ख़ून निकल आता है” – वक़्त (1965)
- “न तलवार की धार से, न गोलियों की बौछार से, बंदा डरता है तो सिर्फ़ परवरदिगार से” – तिरंगा (1993)
- “जानी, हम तुम्हें मारेंगे …….. पर वो बंदूक भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी और वक़्त भी हमारा होगा” – सौदागर (1991)
राजकुमार की संवाद अदायगी ने उन्हें अपने वक़्त के दूसरे कलाकारों से अलग पहचान दी। ये ठीक है कि उनका चेहरा हीरो वाला नहीं था मगर उनका व्यक्तित्व इतना ज़बरदस्त था कि स्क्रीन पर उनके आते ही आपका ध्यान ख़ुद-ब-ख़ुद उनकी तरफ़ चला जाता है। उस पर उनकी बुलंद और गहरी आवाज़ और संवाद बोलने का अलग ही अंदाज़। उनके फ़िल्मी डायलॉग्स की मिमिक्री आज तक की जाती है।
राजकुमार – मुंबई के सब इंस्पेक्टर से हीरो बनने तक
8 अक्टूबर 1926 को बलूचिस्तान में जन्मे कुलभूषण पंडित 1940 में मुंबई आए और सब इंस्पेक्टर की नौकरी पर लग गए। अपनी इसी नौकरी के दौरान जब वो एक सिनेमा हॉल में एक फ़िल्म देखने गए तो अभिनेता-निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की नज़र उन पर पड़ी। उन्होंने राजकुमार को एक फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया लेकिन ये प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
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1952 में प्रदर्शित फ़िल्म “रंगीली” से वो फ़िल्मी परदे पर नज़र आये और उनका फ़िल्मी नाम हो गया-राजकुमार। शाही आन-बान और शान-ओ-शौकत रखने वाले कुलभूषण ने शायद इसीलिए राजकुमार नाम रखा होगा क्योंकि उनके अंदाज़ में ही राजकुमारों वाला ठाट-बाट था। वो स्टाइल और बेबाक़ी थी कि वो किसी से भी बेखटके कुछ भी कह देते थे, बिना अंजाम की परवाह किए। रंगीली के बाद राजकुमार की “आबशार”, “घमंड” और “लाखों में एक” जैसी कुछ फिल्में आईं लेकिन शोहरत उन्हें मिली सोहराब मोदी की फिल्म “नौशेरवान-ए-आदिल” से। इस फ़िल्म में वो एक राजकुमार की भूमिका में थे जिसमें उन्हें बहुत पसंद किया गया।
फिर 1957 में आई “मदर इंडिया” की छोटी सी भूमिका में भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी और इसके बाद उन्हें फिल्मों के ढेरों ऑफर मिलने लगे। “पैग़ाम”, “उजाला”, “अर्धांगिनी”, “शरारत”, उसी दौर की फिल्में हैं। “अर्धांगिनी” और “शरारत” में उनकी नायिका थी मीना कुमारी। आगे जाकर इस जोड़ी की “दिल एक मंदिर”, “दिल अपना और प्रीत पराई”, “काजल” और “पाकीज़ा” जैसी कई फिल्में आईं और सभी फ़िल्मों में इस जोड़ी को पसंद किया गया। पर पाकीज़ा में बोला गया उनका ये डायलॉग तो जैसे अमर हो गया।
-आपके पाँव देखे, बहुत हसीन हैं इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएँगे – पाकीज़ा
1965 में आई “वक़्त” में उनके सभी डायलॉग्स बहुत मशहूर हुए – “चिनाय सेठ ! जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते” उनके बोले गए ऐसे कुछ संवाद तो जैसे मुहावरों में बदल गए। और बाद के दौर में तो ज़्यादातर फ़िल्मकार उनकी संवाद अदायगी पर ही ज़्यादा ज़ोर देने लगे थे।
60 के दशक की कई फिल्मों में उनका किरदार भले ही सहायक अभिनेता का रहा, पर फ़िल्म देखने के बाद लोगों के ज़हन में बस वही रह जाते थे। फिर चाहें “हमराज़” में नायिका के पूर्व पति की भूमिका हो या “नीलकमल”में अधूरे प्रेम को पाने के लिए भटकती रुह की। या फिर “मेरे हुज़ूर” में एक तरफ़ा प्रेम में तड़पते प्रेमी की, हर भूमिका में वो जान डाल देते थे।
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“पाकीज़ा”, “लाल पत्थर” और “हीर-राँझा” जैसी फिल्मों से राजकुमार ने अपना एक ख़ास मक़ाम बनाया था। और शायद इसीलिए 70 के दशक में वो फ़िल्मों के चुनाव में बहुत सावधानी बरतने लगे थे, काफ़ी हद तक चूज़ी हो गए थे। इसी दौर में लोगों ने उनके मुंह से सुना उनका पसंदीदा शब्द “जानी” । वो लोगों को “जानी” कह कर पुकारने लगे थे। उस समय के उनके व्यवहार को लेकर बहुत से क़िस्से बने, अख़बारों पत्रिकाओं में छपे और जनता के बीच मशहूर भी हुए।
पैग़ाम वो पहली फिल्म थी जिसमें दिलीप कुमार और राजकुमार ने साथ में काम किया था। जब-जब दोनों एक दूसरे के साथ स्क्रीन पर नज़र आए कहीं कोई एक दूसरे से कम नहीं लगा। दरअस्ल दोनों ही टक्कर के अभिनेता थे शायद इसीलिये 32 साल का समय लगा, फिर से दोनों को सिनेमा की स्क्रीन पर एक साथ लाने में। दोनों का एक रुतबा था, बड़े कलाकार थे तो ईगो भी बहुत बड़ा था, कम से कम सब लोगों को तो यही लगता था और ऐसा लगने में कुछ ग़लत भी नहीं है। आमतौर पर जब इंसान का नाम हो जाता है वो किसी मक़ाम पर पहुँच जाता है तो ईगो आना कोई बड़ी बात नहीं है।
इसीलिए जब निर्माता-निर्देशक सुभाष घई ने ये हिम्मत की, फ़िल्म सौदागर बनाने की तो सबने उन्हें आगाह किया था, डराया भी था। पर सुभाष घई के दिमाग़ में शुरु से दिलीप कुमार और राजकुमार यही दो नाम थे। हाँलाकि दोनों को एक साथ लेने में बहुत बड़ा रिस्क था, बहुत से लोगों ने कहा कि ये फ़िल्म नहीं बन पाएगी। पर फ़िल्म बनी और दोनों ही कलाकारों ने अपनी अलग छाप छोड़ी। हाँलाकि उस समय गले की बीमारी ने राजकुमार की आवाज़ को थोड़ा कम ज़रूर कर दिया था पर उनका रुतबा, उनका अंदाज़ और उनका किरदार कहीं से भी कम नहीं रहा।
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क़रीब 43 साल के अपने फ़िल्मी सफर में राजकुमार ने प्रिन्स का रोल किया, शायर-मूर्तिकार की भूमिका निभाई, ज़मींदार, आर्मी अफसर, पुलिस चीफ़ बने और गैंगस्टर भी और जितनी शिद्दत से उन्होंने ये भूमिकाएं निभाईं उतनी ही गहराई से रोमेंटिक किरदार भी किए। उनके उम्दा अभिनय के लिए उन्हें दो बार फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाज़ा गया। वो फिल्में थीं “दिल एक मंदिर” और “वक़्त”। उनकी आख़िरी फ़िल्म थी “GOD & GUN”।
3 जुलाई 1996 को गले के कैंसर के कारण दमदार आवाज़ का ये मालिक हमारा साथ छोड़ गया। और पीछे छोड़ गए अपने अभिनय और संवाद-अदायगी की सौग़ात जिसे आज भी लोग कॉपी करते हैं।
निजी जीवन
राजकुमार की पत्नी जेनिफर जो शादी के बाद गायत्री कहलाई एक एंग्लो-इंडियन थी और एयर-होस्टेस थीं, दोनों की मुलाक़ात हवाई-जहाज़ में ही हुई थी। उनके तीन बच्चे हैं-पुरु, पाणिनि और वास्तविकता। उनके बेटे ने एक इंटरव्यू में कहा थाकि असल ज़िंदगी में राजकुमार जहाँ एक कड़क पिता तो थे पर लविंग और केयरिंग इंसान थे और रोमेंटिक पति भी। उन्हें घुड़सवारी का शौक़ था, गोल्फ़ भी खेला करते थे। उनकी उर्दू बहुत साफ़ थी वो उर्दू सिर्फ बोलते ही नहीं थे बल्कि लिख भी लिया करते थे। उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर ज़रा अलग क़िस्म का था शायद इसीलिए लोग उन्हें समझ नहीं पाते थे।
यही बात एक बार नाना पाटेकर ने भी कही थी। नाना पाटेकर ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया था कि तिरंगा फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्होंने राजकुमार के साथ काफी समय बिताया था। जिससे उन्हें मालूम हुआ कि वे दिल के बहुत अच्छे थे। बस लोग उन्हें समझ नहीं पाए। बात-बात पर जानी कहने वाले बेहद कामयाब कलाकार राजकुमार के सनकी मिज़ाज के बहुत से ऐसे क़िस्से मशहूर हैं जिन पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
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कहते हैं उन्होंने प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फ़िल्म “ज़ंजीर” ये कहकर ठुकरा दी थी कि “जानी, हमें तुम्हारा चेहरा पसंद नहीं है, तुम्हारे सर से तेल की बदबू आती है।”
पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा कहा होता, और उसी अंदाज़ में कहा होता जैसा हम सब सुनते आये हैं। तो क्या प्रकाश मेहरा उनके बेटे पुरु राजकुमार को लांच करने के लिए “बाल-ब्रह्मचारी” फ़िल्म बनाते? कभी कभी बातों को इस हद तक बढ़ा-चढ़कर पेश किया जाता है कि बात कुछ और होती है और दिखाई कुछ और देती है। फिर भी उनकी बेबाक़ी, स्पष्टवादिता या कहें अक्खड़पन के बहुत से क़िस्से बने, कुछ का ज़िक्र यहाँ कर रही हूँ, इनमें से कितने सच हैं और कितने सिर्फ़ अफ़वाह ये कहना मुश्किल है।
राजकुमार के अजीब व्यवहार के क़िस्से
1 – एक पार्टी में बप्पी लहरी को देखकर राजकुमार ने उनके ज़ेवरों की तारीफ़ करते हुए कहा – वाह-वाह शानदार , एक से एक गहने पहने हो। बस मंगलसूत्र की कमी है।
2 – हरे रामा हरे कृष्णा फिल्म से ज़ीनत अमान बहुत मशहूर हो चुकी थीं। जब राजकुमार ने उन्हें एक पार्टी में देखा तो उनसे मुखातिब होते हुए बोले – तुम इतनी सुन्दर हो फ़िल्मों में कोशिश क्यों नहीं करतीं ?
3 – एक पार्टी में राजकुमार को बिग बी का सूट पसंद आया। उन्होंने अमिताभ बच्चन से कहा – ज़रा उस दर्ज़ी का पता बतलाना , हमें अपने घर के परदे सिलवाने हैं।
4 – 1968 में आई फिल्म “आंखें” रामानंद सागर की फिल्म थी जिसमें धर्मेंद्र हीरो थे। पर धर्मेंद्र से पहले ये फ़िल्म राजकुमार को ऑफर हुई थी। रामानंद सागर जब राजकुमार के घर पहुँचे तो कहानी सुनने के बाद राजकुमार ने अपने कुत्ते से पूछा कि क्या उसे कहानी पसंद आई। कुत्ते का कोई रिएक्शन न मिलने पर राजकुमार ने रामानंद सागर से कहा – ये रोल तो मेरा कुत्ता भी नहीं करना चाहता।
राजकुमार भले ही अपने इस तरह के अजीब व्यवहार के लिए भी मशहूर हुए हों पर ये भी उतना ही बड़ा सच है कि एक रोमेंटिक हीरो के तौर पर उनकी एक मज़बूत इमेज बनी थी। इसीलिए उन पर एक से बढ़कर एक गाने फिल्माए गए। यहाँ तक कि सौदागर में भी वो स्क्रीन पर गाते हुए नज़र आए।
राजकुमार पर फिल्माए गए कुछ यादगार गाने
- चाँद आहें भरेगा फूल दिल थाम लेंगे – फूल बने अंगारे
- हर तरफ़ अब यही अफ़साने हैं – हिंदुस्तान की क़सम
- ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं – हीर-राँझा
- तुझको पुकारे मेरा प्यार – नीलकमल
- ये ज़ुल्फ़ अगर खुलके बिखर जाए – काजल
- छू लेने दो नाज़ुक होंठों को – काजल
- झनक झनक तोरी बाजे पायलिया – मेरे हुज़ूर
- चलो दिलदार चलो – पाकीज़ा
- उनके ख़याल आए तो आते चले गए – लाल पत्थर
- इमली का बूटा बेरी का पेड़ – सौदागर
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