पंडित मुखराम शर्मा (Pt. Mukhram Sharma) ऐसे पहले स्क्रीन राइटर थे जिन्होंने बहुत मान-सम्मान पाया और अपनी शर्तों पर इंडस्ट्री में अपना दबदबा क़ायम किया।
यूँ तो फ़िल्ममेकिंग एक टीम वर्क है, इसलिए हर डिपार्टमेंट की इम्पोर्टेंस होती है। लेकिन एक फ़िल्म बनाने के लिए सबसे ज़रुरी होती है कहानी। अगर कहानी अच्छी है, उसे जानदार संवादों के साथ ठीक से पटकथा में बुना गया है। तो फ़िल्म कामयाब हो या न हो, यादगार ज़रुर होगी। ऐसी ही फ़िल्मों के लेखक थे पंडित मुखराम शर्मा जिनके बारे में कहा जाता है कि वो पहले ऐसे लेखक थे जिन्हें अपने ज़माने में स्टार स्टेटस मिला हुआ था।
पंडित मुखराम शर्मा अपनी कहानी के लिए निर्माता-निर्देशक ख़ुद चुनते थे
कहते हैं कि डिस्ट्रीब्यूटर्स नज़र रखा करते थे कि वो किस निर्माता-निर्देशक की फ़िल्म लिख रहे हैं, उनसे पूछा करते थे कि वो अगली फ़िल्म किसकी कर रहे हैं, ताकि वो उस फ़िल्म को ख़रीद सकें क्योंकि उस दौर में उनकी फिल्में सफलता की गारंटी मानी जाती थीं। वो पहले ऐसे लेखक थे जिनका नाम किसी फ़िल्म के पोस्टर पर छापा गया था। लेखक और लेखन को बॉलीवुड में बहुत ज़्यादा मान-सम्मान मिलते नहीं देखा गया। गिनती के कुछेक नाम हैं जिनका ज़िक्र हर मौक़े पर किया जाता है बाक़ी सब अच्छा काम करने के बावजूद उपेक्षा का शिकार ही हुए हैं।
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ऐसे में पंडित मुखराम शर्मा को श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने फ़िल्म जगत में लेखक और उनके काम को इज़्ज़त दिलाई। वो अपनी शर्तों पर काम करते थे, अगर कोई फ़िल्ममेकर उनकी कहानी के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश करे तो वो कहानी में बदलाव की जगह उस फ़िल्मकार को बदल देते थे। ऐसा ही हुआ था साधना फ़िल्म की कहानी के साथ। पंडित मुखराम शर्मा ने कहानी लिखी और वो चाहते थे कि बिमल रॉय उनकी कहानी पर फ़िल्म बनाएँ। कहानी सुनाने के लिए कार का सफ़र तय हुआ, पंडित जी ने कहानी सुनाई जो बिमल रॉय को बहुत पसंद भी आई।
मगर बिमल रॉय की उलझन थी कि दर्शक एक तवायफ़ को घर की बहु के तौर पर स्वीकार कर पाएँगे या नहीं इसीलिए उन्होंने फ़िल्म का अंत बदलने की सलाह दी जिसमें रजनी की मौत दिखाई जाए। ये सुनना था कि पंडितजी ने गाड़ी रुकवाई और बिना कुछ कहे गाड़ी से उतर गए। बिमल रॉय को लगा कि किसी काम से उतरे होंगे या कुछ सोच रहे होंगे मगर वो वहाँ रुके नहीं और सीधे B R चोपड़ा के पास गए। उन्हें कहानी सुनाई और फिर ज्यों की त्यों वो कहानी परदे पर आई जिसके लिए पंडित मुखराम शर्मा को फ़िल्मफ़ेयर का बेस्ट स्टोरी अवॉर्ड भी मिला।
मेरठ की लगी बंधी नौकरी छोड़कर पकड़ी मुंबई की राह
पंडित मुखराम शर्मा का जन्म मई 1909 में मेरठ के एक गाँव पूठी में हुआ था। फिर मेरठ में ही वो हिंदी और संस्कृत के टीचर भी रहे। फ़िल्में देखना उन्हें पसंद था, शॉर्ट स्टोरीज़ और कविताएँ भी लिखते थे। उनका एक दोस्त था जिसका फ़िल्म जगत से कोई नाता था अक्सर मुंबई आना-जाना भी होता रहता था। उसने जब उनकी कहानियाँ सुनी तो उन्हें फ़िल्मों में क़िस्मत आज़माने की सलाह दी और फिर 1939 में वो अपनी नौकरी छोड़कर परिवार समेत मुंबई आ गए।
पर मुंबई में काम मिलना न आज आसाम है न उस वक़्त था बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। तो पंडित मुखराम शर्मा को भी निराश होना पड़ा और फिर वो पुणे चले गए जहाँ प्रभात फ़िल्म कंपनी में 40 रुपए महीने की तनख़्वाह पर उन्हें मराठी कलाकारों के हिंदी उच्चारण को ठीक करने का काम मिल गया। इस बीच वो कभी कभी वो मराठी-हिंदी फ़िल्मों में गीत के बोल सेट कर देते थे। कुछ साल ऐसे ही गुज़र गए फिर राजा नेने की फ़िल्म “दस बजे”(1942) में उन्हें गीत लिखने का मौक़ा मिला।
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फ़िल्म सुपरहिट रही तो राजा नेने ने उन्हें अपनी फ़िल्म “तारामती” (1945) लिखने का मौक़ा दिया इसके बाद उन्होंने उनकी कुछ और फिल्में भी लिखीं ( “श्री विष्णु भगवान(1951)” और “नल दमयंती” )। इसी बीच 1949 में आई “माया बाज़ार” की कहानी और गीत भी पं मुखराम शर्मा ने ही लिखे। फ़िल्म निर्देशक दत्ता धर्माधिकारी ने उनकी एक शॉर्ट स्टोरी पर मराठी में एक फ़िल्म बनाई “स्त्री जन्मा ही तुझी कहानी” 1952 में आई ये फ़िल्म इतनी कामयाब हुई कि 1954 में इसी कहानी पर हिंदी में फ़िल्म आई “औरत तेरी यही कहानी”।
पंडित मुखराम शर्मा फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड पाने वाले पहले लेखक थे
ये वो दौर था जब पुणे में पंडित मुखराम शर्मा की क़लम की धूम मच गई थी। पुणे में उनके घर में फ़िल्ममेकर्स का ताँता लग गया था मगर उसी समय उन्होंने तय किया कि अब वो मुंबई जाएँगे, और ये फ़ैसला बिलकुल सही रहा। मुंबई में उनकी पहली फ़िल्म आई 1954 में “औलाद” जो एक पारिवारिक-सामाजिक हिट फ़िल्म थी और इसके लिए उन्हें मिला उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड बेस्ट स्टोरी के लिए।
अगली फ़िल्म “वचन” के लिए फिर से उन्हें बेस्ट स्टोरी का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया। इसके बाद पंडित मुखराम शर्मा का सितारा हमेशा चमकता ही रहा। फिर तो उन्होंने बहुत सी सुपरहिट फ़िल्मों की कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। इनमें सिर्फ़ मुंबई के बड़े-बड़े बैनर ही शामिल नहीं हैं बल्कि दक्षिण भारतीय फ़िल्म कम्पनियाँ भी हैं। जैमिनी फ़िल्म्स, AVM, प्रसाद प्रोडक्शंस और दूसरे कई दक्षिण भारतीय निर्माताओं के लिए पंडित मुखराम शर्मा ने गृहस्थी, घराना, प्यार किया तो डरना क्या, हमजोली, दो कलियाँ, मैं सुन्दर हूँ, राजा और रंक, दादी माँ, जीने की राह जैसी फ़िल्में लिखीं।
पहले लेखक जिनका नाम फिल्म के पोस्टर पर दिया गया
बी आर चोपड़ा उन्हें “The Author Of Our Success” कहा करते थे। बी आर चोपड़ा के लिए सबसे पहले उन्होंने लिखी “एक ही रास्ता” इसके बाद “साधना”, इसके अलावा जब यश चोपड़ा अपना डायरेक्टोरियल डेब्यू कर रहे थे तो वो फ़िल्म “धूल का फूल” भी पंडित मुखराम शर्मा ने ही लिखी। “धूल का फूल” का टाइटल कवि प्रदीप ने सुझाया था, पर ये फिल्म आज भी अपनी कहानी, विषय और संवादों के लिए ज़्यादा जानी जाती है।
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“धूल का फूल” में पहले हीरो “राजकुमार” थे लेकिन जब उन्होंने कहानी सुनी तो उन्होंने कहा कि पंडित जी आपने तो मुझे विलेन बना दिया, ये एंगल बदल दीजिए। पंडित जी का जवाब था कि एंगल बदल दिया तो कहानी में क्या बचेगा और फिर राजकुमार ने फ़िल्म छोड़ दी, उनकी जगह आए राजेंद्र कुमार। हीरो बदल गया मगर लेखक नहीं बदला, ये दर्जा था पंडित मुखराम शर्मा का।
इस समय तक पंडित मुखराम शर्मा ने अपनी वो जगह बना ली थी कि जब इस फ़िल्म की पब्लिसिटी की गई तो पोस्टर्स पर छपवाया गया “Pt. Mukhram Sharma’s धूल का फूल”। इससे पहले किसी लेखक को ऐसा सम्मान प्राप्त नहीं हुआ था। उनके बाद सलीम जावेद का नाम मूवी पोस्टर्स पर ज़रुर दिखाई दिया मगर ज़्यादातर राइटर्स को तो क्रेडिट भी ठीक से नहीं मिला। लेकिन पंडित जी का नाम बतौर लेखक, स्क्रीनप्ले राइटर और संवाद लेखक क्रेडिट्स में दिया जाता था। कई फ़िल्मों में तो लिखा दिखता है “Pt. Mukhram Sharma Presents” और ये कोई छोटी बात नहीं है।
पंडित मुखराम शर्मा ने हमेशा अपनी शर्तों पर काम किया
पंडित मुखराम शर्मा का एक सेट पैटर्न था वो स्टोरीलाइन निर्देशक को सुनाते थे अगर पसंद आई तो पूरी कहानी लिखकर दे देते थे। इस बीच में अगर किसी और की दखलंदाज़ी महसूस होती तो फ़िल्म छोड़ देते थे। इसी वजह से उन्होंने “नया दौर” छोड़ दी थी क्योंकि जिस वक़्त वो स्क्रिप्ट पर काम कर ही रहे थे, दिलीप कुमार ने स्क्रिप्ट सुनने की डिमांड की। मगर पंडित जी ने मना कर दिया क्योंकि तब तक कहानी पूरी नहीं हुई थी।
50 के दशक में पंडित मुखराम शर्मा ने बहुत सी सुपरहिट सामाजिक फ़िल्मों की कहानी, स्क्रीनप्ले और संवाद लिखे। उनकी कामयाबी का रहस्य बस यही था कि वो विषय की गहराई में उतर जाते थे और कहानी में हर एंगल को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उतारते थे। स्क्रीनप्ले जहाँ फ़िल्मी मापदंडों पर खरा उतरता था वहीं विषय के साथ भी पूरा इंसाफ़ करता था, और संवाद भी बेहद प्रभावशाली होते थे।
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पंडित मुखराम शर्मा ने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज में पनप रही बुराइयों को न सिर्फ़ उजागर किया बल्कि उनका समाधान भी सुझाया और इस तरह कि दर्शक उससे रिलेट कर सकें। शायद वो दर्शकों की नब्ज़ पहचान गए थे इसीलिए इतने सक्सेसफुल थे। फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स के अलावा उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनमें जहाँ टीवी एंड सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन और IMMPA ने उन्हें सम्मानित किया वहीं ज़ी लाइफटाइम अवॉर्ड भी मिला। मेरठ रत्न पुरस्कार से सम्मानित पंडित मुखराम को 1961 में उस समय के रष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने संगीत-नाटक अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा।
वो सिर्फ एक लेखक नहीं थे बल्कि फ़िल्म निर्माता भी थे
1958 की फ़िल्म “तलाक़” से वो फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरे और “संतान” जैसी क़रीब 6 फ़िल्मों का निर्माण किया। हाँलाकि बतौर निर्माता उन्हें कोई ख़ास पहचान नहीं मिली न ही उन फ़िल्मों को उम्दा फ़िल्मों की श्रेणी में गिना जाता है। मगर एक लेखक के रूप में जो दर्जा उन्होंने पाया उसकी तमन्ना हर किसी को होती है। उन्होंने बहुत पहले ही ये तय कर लिया था कि 70 साल के बाद फ़िल्मों में काम नहीं करेंगे और उन्होंने वही किया।
हाँलाकि उनकी लिखी हुई आख़िरी दो फ़िल्में ‘नौकर’ और ‘सौ दिन सास के’ भी सुपरहिट थीं लेकिन 1980 में उन्होंने फ़िल्म नगरी को अलविदा कह दिया और मेरठ लौट गए। फिल्में छोड़ने के बाद भी उनका लेखन कार्य चलता रहा। उन्होंने बहुत सी कहानियाँ और उपन्यास लिखे। पंडित जी उसूलों के पक्के थे मगर ज़मीन से जुड़े व्यक्ति थे। फ़िल्मों में इतनी कामयाबी पाने स्टार-स्टेटस पाने के बावजूद कभी स्टार्स जैसे नखरे नहीं किए। अपना काम पूरी ईमानदारी और मेहनत से किया जिसका फल भी पाया।
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उनका एक सेट रूटीन था जिसका वो हमेशा पालन करते थे। पैसों का भी कोई लोभ उन्हें नहीं रहा बल्कि जब एक बार इनाम में 5000 रूपए की रक़म मिली तो पूठी में स्कूल बनाने के लिए दान कर दी। साल 2000 में 25 अप्रैल को पंडित मुखराम शर्मा का निधन हो गया। उनके बारे में ये कहा जा सकता है कि कोई तो था, जिसकी फ़िल्म इंडस्ट्री ने क़द्र की। आज ज़्यादा लोग उनके नाम को न जानते हों मगर अपने समय में तो उन्होंने पूरा मान सम्मान और प्रसिद्धि पाई, और ज़िंदगी ही नहीं मौत भी सम्मानजनक हुई। इतना भी मिल जाए तो काफ़ी है।