न तीन में न तेरह में कहावत का मतलब
न तीन में न तेरह में – शायद ये कहावत सबने न सुनी हो लेकिन इस दुनिया में आधी से ज़्यादा आबादी के साथ ऐसा ही होता है। उम्र भर एड़ियाँ रगड़ने के बाद भी वो कभी किसी गिनती में नहीं आते, न अपनों की न परायों की, मतलब ज़ीरो से शुरु होकर कितना भी गिन लें वो किसी नंबर पर exist नहीं करते। यही मतलब है इस कहावत का – न तीन में न तेरह में। ये कहावत बनी एक सेठजी, उनका पैसा सँभालने वाले मुनीमजी और उस नगर की नगर वधु की वजह से।
न तीन में न तेरह में – कहावतों की कहानियाँ
न तीन में न तेरह में कहावत की कहानी एक बहुत बड़े सेठ जी की है, जो पैसों में खेलते थे यानी पैसा उनके हाथ का मैल था और वो उसे पानी की तरह बहाने में कभी नहीं झिझकते थे। उनके कोई पिताजी तो थे नहीं जो उन पर लगाम कसते लेकिन एक बड़े ही वफ़ादार मुनीम थे। उस दौर में वफ़ादार बनना नहीं पड़ता था वफ़ादारी ख़ून में होती थी – In-Built, Default, Essential Quality—-
तो मुनीमजी जो हर हिसाब-किताब रखते थे, वो उन पैसों पर भी नज़र रखते थे जो सेठ जी पानी की तरह बहाते थे। अब सेठ जी रईस थे तो शौक़ भी रईसों वाले थे, आये दिन बड़े-बड़े समारोहों में जाते रहते थे। ऐसे ही एक समारोह में एक दिन उनकी मुलाक़ात हुई उस समय की नगर वधु से। नगर वधु थी तो ज़ाहिर है ख़ूबसूरत थी और सेठ जी उसकी ख़ूबसूरती और त्रिया चरित्र में बह गए।
न तीन में न तेरह में
अब आए दिन सेठ जी नगरवधु के यहाँ पाए जाते और हर बार कोई न कोई महँगा गिफ़्ट साथ लेकर जाते। मुनीमजी ये सब देख रहे थे, मगर थे तो नौकर ही कुछ कह नहीं सकते थे। बस नज़र रख रहे थे और मौक़ा ढूंढ रहे थे कि किसी तरह अपने मालिक को लुटने से बचा सकें। लेकिन सेठ जी तो नगरवधू के इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुके थे और उन्हें पूरा यक़ीन था कि नगरवधू भी उनसे बेहद मोहब्बत करती है।
लेकिन मुनीमजी इस सच को जानते थे कि नगरवधु के यहाँ जाने वाले हर शख़्स को यही लगता है कि वो उससे मोहब्बत करती है जबकि उसे इंसान से नहीं बल्कि उससे मिलने वाली दौलत से प्यार है। पर वो ये सच अपने मालिक से कैसे कहते और कह भी देते तो भला सेठ जी कौन सा मान जाते ! मोह में डूबा इंसान जानबूझ कर आँखों को बंद कर लेता है, ताकि उसका भ्रम कभी न टूटे और अगर उसे नहीं पता कि वो भ्रम में जी रहा है तब तो मामला वैसे ही समझने-समझाने से परे होता है।
सेठ जी अपने इसी भ्रम में ख़ुशी से जी रहे थे कि अचानक उनकी तबीयत नासाज़ हो गई, इतनी ख़राब हो गई कि वो बिस्तर से उठ नहीं पा रहे थे, बेचैनी में नगर वधु को याद करते और रोज़ एक पैग़ाम भिजवा देते। इसी तरह एक हफ़्ता गुज़रा फिर दो पर हालत ठीक नहीं हो रही थी।
नगरवधु का जन्मदिन और सच का सामने आना
इसी बीच आ गया नगरवधु का जन्मदिन। सेठ जी ने इस दिन के लिए क्या-क्या सपने नहीं संजोए थे लेकिन इस हालत में क्या करते ? फिर कुछ सोचकर उन्होंने अपने जूलर को बुलाकर एक नौलखा हार ख़रीदा और मुनीम जी को सख़्त हिदायत दी कि वो ख़ुद जाकर ये हार नगरवधू को देकर आएँ और उसका पैग़ाम साथ लेकर आए।
मरता क्या न करता— अगले दिन मुनीम जी वो हार लेकर पहुँच गए नगरवधु के यहाँ। हार का डिब्बा निकालकर नगरवधु के सामने रखा और सीधे-सीधे ये न बताकर कि वो हार नगर सेठ ने भेजा है, ये कहा कि ये तोहफ़ा आपके सबसे बड़े आशिक़ ने भेजा है। नगरवधु ने हँसकर कहा यहाँ तो सभी हमारे बड़े आशिक़ हैं आप किसकी बात कर रहे हैं ? मुनीम ने कहा कुछ नहीं बस डिब्बा खोलकर वो हार दिखाया। हार देखकर नगरवधु की आँखें चौंधिया गईं और वो सोच में पड़ गई कि किसने भेजा होगा उसने तीन अंदाज़े लगाए लेकिन उन तीनों नामों में नगर सेठ का नाम नहीं था।
मुनीम ने थोड़ा और सोचने को कहा – नगरवधु उस नौलखा हार को किसी भी क़ीमत पर छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिए बहुत सोच समझ कर कुछ और नाम लिए लेकिन उनमें भी नगर सेठ का नाम नहीं था। नगरवधू नाम लिए जा रही थी इसी तरह 10 नाम हो गए अब मुनीम को ग़ुस्सा आने लगा।
मुनीम का चेहरा देखकर नगरवधु ने कहा अच्छा मैं तीन नाम और लेती हूँ इनमें तो ज़रुर उनका नाम होगा। पर उनमें भी सेठजी का नाम नहीं था तब मुनीम जी को बहुत गुस्सा आया और वो समझ गए कि नगरवधू के लिए सेठ जी किसी गिनती में नहीं आते न तीन में न तरह में और ये सच अब उन्हें सेठ जी को बताना ही होगा और उन्होंने हार का डिब्बा उठाया और वापस लौट आए।
सेठजी ने मुनीम से पूछा कि नगरवधु को वो हार कैसा लगा उसने सेठ जी के बारे में कुछ पूछा या नहीं। ये सुनकर मुनीम ने सारा क़िस्सा कह डाला और कहा नगरवधु के लिए आप न तीन में न तेरह में हैं। मुनीमजी की बातें सुनकर सेठ जी को बहुत बुरा लगा उनका दिल बुरी तरह टूट गया था। लेकिन अब किया ही क्या जा सकता था !
तभी से ये कहावत चल पड़ी – न तीन में न तेरह में। दरअसल एक भ्रम होता है जो हम पाल लेते हैं या कहें कि सभी को इस झूठ के साथ जीना अच्छा लगता है कि लोगों की ज़िंदगी में उनकी बहुत महत्वपूर्ण जगह है। लेकिन जब असल में उनकी कोई वैल्यू न हो तब कहा जाता है – न तीन में न तेरह में।
वैसे बहुत आसान होता है किसी की ज़िंदगी में अपनी जगह पहचानना बस आँखों के साथ-साथ दिल और दिमाग़ खुले रखने की ज़रुरत होती है। मगर जब कोई सच जानते हुए भी आँखें मूँद लें, न समझना चाहे तो फिर कोई कुछ नहीं कर सकता। मगर ऐसे ही भ्रम, ऐसे ही वाक़यात कभी-कभी दूसरों के लिए सबक़ बन जाते हैं जैसे ये कहावत बनी – न तीन में न तरह में।
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