मनोरमा एक्सप्रेशंस क्वीन थीं, उनकी एंट्री यूँ तो हँसी की गारंटी थी लेकिन अपने नकारात्मक किरदारों से उन्होंने बुरी तरह डराया भी।
आजकल बॉडी शेमिंग को लेकर काफ़ी चर्चा हो रही है मगर वहीं दूसरी तरफ़ फ़िल्मों में हम लोगों के अपियरेन्स पर हँसते हैं। ख़ासकर महिला हास्य कलाकारों को लेकर तो इंडस्ट्री काफ़ी बायस्ड नज़र आती हैं, अगर आप सहमत न हों तो इन कुछ नामों पर ग़ौर फ़रमाएं – गुड्डी मारुति, प्रीति गाँगुली, टुनटुन या मनोरमा। देखा जाए तो हमारी इंडस्ट्री ने महिला हास्य कलाकारों के टैलेंट को सही तरह से परखा नहीं। आज का दौर इस लिहाज़ से काफी बेहतर है कि आज सभी के लिए अभिनय का काफ़ी स्कोप है। वर्ना एक समय वो आया था जब हास्य का मतलब होता था डबल मीनिंग डायलॉग्स या फूहड़पन।
“सीता और गीता” की चाची मनोरमा पंजाबी फ़िल्मों की हाईएस्ट पेड एक्ट्रेस थीं
अगर इस दौर से थोड़ा पीछे जाएँ तो एक अभिनेत्री ऐसी दिखती हैं जो अपने एक्सप्रेशंस से हँसाती थीं, हाँलाकि लोगों ने उन्हें खलनायिका की श्रेणी में डाल रखा है पर मुझे लगता है वो एक ऐसी खलनायिका थीं जिनके परदे पर आते ही ऑडियंस के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है। उन्होंने हीरो-हेरोइनंस को चाहे जितना सताया हो ऑडियंस को तो गुदगुदाया ही है। ये थीं मनोरमा जिनके एक्सप्रेशंस ने लोगों को मीम बनाने के लिए प्रेरित किया और 21 वीं सदी में उन्हें इमोजी का अविष्कारक बना दिया। लेकिन इसका फ़ायदा ये हुआ कि नई पीढ़ी भी उनके नाम और चेहरे से वाक़िफ़ हो गई।
उनका चेहरा उनका सबसे बड़ा एसेट था, इतने भाव तो शायद किसी नर्तकी के चेहरे पर भी नहीं आते होंगे जितने वो कुछ ही पलों में ले आती थीं उस पर उनकी बड़ी-बड़ी मटकती आँखें। उनके उस रूप को देखकर ये मानना थोड़ा मुश्किल होता है कि कभी उन्होंने हेरोइन के रोल्स भी किये होंगे। मगर ये सच है, और वो कोई मामूली हेरोइन नहीं थीं बल्कि उन अभिनेत्रियों में से थीं जो लक्स के विज्ञापन में भी नज़र आईं। और लक्स सिर्फ़ उन स्टार अभिनेत्रियों को ही अपने विज्ञापनों में मौक़ा देता है जो न सिर्फ़ शोहरत की बुलंदी पर हों बल्कि बेहद ख़ूबसूरत भी हों।
16 अगस्त 1926 को पंजाब के लाहौर में जन्मी मनोरमा का असली नाम था एरिन इस्साक डेनियल। उनकी माँ आयरिश थीं और पिता भारतीय क्रिश्चन। उनके पेरेंट्स को नृत्य और संगीत में काफ़ी रूचि थी इसीलिए एरिन को भी क्लासिकल म्यूजिक और डांस की बाक़ायदा ट्रेनिंग दिलाई गई। एक बार जब वो अपने स्कूल फंक्शन में परफॉर्म कर रही थीं तब लाहौर फ़िल्म इंडस्ट्री के मशहूर फ़िल्ममेकर रुप के शोरी ने उन्हें देखा और अपनी फ़िल्म ख़ज़ांची में हीरो की छोटी बहन का रोल दे दिया, और नया स्क्रीन नेम भी।
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मनोरमा ने 40 के दशक की बहुत सी हिट पंजाबी फ़िल्मों में अभिनय किया, कहते हैं कि वो अपने वक़्त में पंजाबी फ़िल्मों की हाईएस्ट पेड एक्ट्रेस हुआ करती थीं। जब वो अपने टॉप पर थीं उन्होंने अभिनेता राजन हसकर से शादी कर ली। उन्हीं दिनों देश का विभाजन हुआ और वो दोनों मुंबई आ गए, जहाँ उनके पति राजन हसकर फ़िल्मों में निर्माता बन गए और वो बतौर हेरोइन अपनी जगह बनाने में जुट गईं। मगर मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री लाहौर फ़िल्म इंडस्ट्री से काफ़ी अलग थी। यहाँ पहला संघर्ष तो फ़िल्मों में काम पाना ही था, इसमें उनकी मदद की उस समय के मशहूर अभिनेता चंद्रमोहन ने।
उस समय उन्हें अभिनेता गोप के साथ हिंदी फ़िल्म “घर की इज़्ज़त” में काम मिला जिसमें हीरो थे दिलीप कुमार, कहा तो ये जाता है कि मनोरमा ने दिलीप कुमार की बहन की ये भूमिका पहले ठुकरा दी थी। मनोरमा ने 1949 की पंजाबी फ़िल्म “लच्छी” में बतौर हेरोइन काम किया मगर जो बात लाहौर में थी वो यहाँ नहीं बन पाई और वो उन्हें साइड रोल्स ही ऑफर होते रहे, और वो उसी तरह की भूमिकाओं में नज़र आने लगीं।
हिंदी फ़िल्मों में वो चरित्र किरदारों तक सिमट कर रह गईं
फिर धीरे-धीरे माँ, चाची की नकारात्मक भूमिकाओं में दिखाई दीं, तब तक उनका वज़न भी काफ़ी बढ़ गया था शायद ये भी एक वजह रही हो ! पर इन छोटी-छोटी भूमिकाओं ने उन्हें हिंदी फ़िल्मों में एक पहचान दिलाई। खासकर 60 के दशक में उनकी ऐसी कई फिल्में आईं। उस दौर में ‘हाफ टिकट’, ‘आपकी परछाइयाँ’, ‘दस लाख’, ‘दो कलियाँ’, ‘एक फूल दो माली’, ‘मेरे हुज़ूर’ जैसी कई फ़िल्मों में मनोरमा अपने नेगेटिव शेड्स में भी हँसाती-गुदगुदाती रहीं। लेकिन जिस फ़िल्म ने उन्हें अमर कर दिया वो आई 1972 में सीता और गीता।
सीता और गीता के इस रोल में आप किसी और की कल्पना ही नहीं कर सकते। जहाँ चाची का आतंक देखने वालों के दिल में घर कर जाता है वहीं गीता के हाथों चाची को सबक़ सीखते हुए देखना दर्शकों को एक अलग सी संतुष्टि देता है। ये वो रोल था जहाँ आप तय नहीं कर पाते कि उन्होंने खलनायिका के साथ ज़्यादा इंसाफ़ किया या कॉमेडियन के रोल में ज़्यादा हँसाया। आज भी जब मनोरमा का नाम आता है तो एकदम से “सीता और गीता” फ़िल्म की चाची ही याद आती है।
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कहते हैं कि इस फ़िल्म को देखने के बाद लोग उनसे नफ़रत करने लगे थे। ख़ुद हेमा मालिनी ने एक एक्सपीरियंस शेयर किया था कि जब वो एक दृश्य में उनकी साड़ी खींचती हैं तो उनके हाव-भाव देख कर हेमा मालिनी ही बुरी डर गई थीं और सीन शूट होने के बाद भी बुरी तरह काँप रही थीं। यही थी मनोरमा की अनूठी, लाजवाब अदाकारी, जिसमें वो एक ही समय पर शातिर, चालाक और हास्यास्पद लग सकती हैं। यही रिएक्शन था वेस्टर्न क्रिटिक्स और दर्शकों का जब उन्होंने ‘वॉटर’ फ़िल्म में उन्हें देखा। मनोरमा इतनी नेचुरल थीं कि उन्हें लगा कि वो सचमुच ऐसी महिला हैं जैसी उस किरदार में नज़र आ रही हैं।
मनोरमा के पास खाने तक के पैसे नहीं थे
80 का दशक मनोरमा की ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव लेकर आया, जब उनकी शादी टूट गई। हाँलाकि 80s में भी उन्होंने “लावारिस”, “क़ातिलों का क़ातिल”, “धर्मकांटा”, “हादसा” जैसी फिल्में कीं, मगर इस दौर तक आते आते हिंदी फ़िल्मों में मनोरमा के लिए जगह नहीं रही। फिर कुछ सालों के लिए वो दिल्ली आ गईं, छोटे परदे पर काम किया मगर वो काम भी जल्दी ही ख़त्म हो गया और फिर से रोज़ी-रोटी की क़िल्लत होने लगी थी। एक वक़्त आया जब उनके पास खाने तक के पैसे नहीं थे।
जब उनके हालात का पता महेश भट्ट को लगा तो उन्होंने मनोरमा को 1996 की फ़िल्म “जूनून” में काम दिया, ताकि उनकी कुछ आर्थिक मदद हो सके। वो मदद तो हुई पर फ़िल्म में उनका रोल एडिटिंग टेबल पर कट गया। 2001 में भी वो कुछ टीवी धारावाहिकों में दिखाई दीं मगर एक परमानेंट इनकम नहीं थी, इसीलिए वो अपने आख़िरी कुछ सालों में आर्थिक संकट से घिरी रहीं।
दीपा मेहता की “वॉटर” में रहा आख़िरी यादगार रोल
उनकी आख़िरी फ़िल्म थी 2005 में आई दीपा मेहता की “वॉटर” जो काफ़ी विवादों में रही और इसी वजह से कई साल उसकी शूटिंग रुकी रही। अगर ये फ़िल्म पहले बन कर रिलीज़ हो जाती तो शायद दर्शक उन्हें और भी फ़िल्मों में देख पाते क्योंकि इस फ़िल्म में उनके किरदार “मधुमती’ को न सिर्फ़ देश में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत प्रशंसा मिली थी। विधवा आश्रम की कुटिल मुखिया के इस रोल के लिए दीपा मेहता की पहली और आख़िरी चॉइस मनोरमा ही थीं।
दीपा मेहता उनकी बहुत बड़ी प्रशंसक हैं न सिर्फ़ इसलिए कि वो एक अच्छी अभिनेत्री थीं बल्कि इसलिए भी कि वो एक अच्छी इंसान भी थीं। जब फिल्म में काम करने के बाद मनोरमा के पास कुछ पैसे आ गए तो उन्होंने एक सेकंड हैंड गाड़ी ख़रीद ली थी। और दीपा मेहता को कहा था कि “जब भी मुंबई आओ तो ऑटो से मत घूमना मेरी गाड़ी ले जाना”। दीपा मेहता उनके इस जेस्चर को कभी नहीं भूलतीं। उनके मुताबिक़ मनोरमा एक स्कॉलर और इंटेलीजेंट महिला थीं।
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2007 में मनोरमा को स्ट्रोक आया था, कई महीनों के इलाज के बाद वो ठीक हो रही थीं, थोड़ा बहुत बोलने भी लगी थीं मगर 15 फ़रवरी 2008 को उन्होंने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। अपने पूरे फ़िल्मी सफ़र में मनोरमा ने क़रीब 150 फ़िल्मों में काम किया। इस दौरान कुछ लोगों से तो अच्छे सम्बन्ध बने ही होंगे मगर कहते हैं कि उनकी मौत के वक़्त फ़िल्म इंडस्ट्री से कोई भी नहीं पहुंचा।
पता नहीं इसे क्या कहना चाहिए क़िस्मत, नियति या फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगों की कठोरता जो एक वक़्त पर बहुत चाव से सर पर बिठाते हैं तो वक़्त गुज़रने के बाद एक पल नहीं लगाते नीचे गिराने में और भुलाने में। या फिर कहें कि बिज़नेस में भावनाओं की कोई जगह नहीं होती और फ़िल्ममेकिंग बिज़नेस ही तो है। मनोरमा का पल-पल भाव बदलता चेहरा, उनकी फेक, कुटिल हँसी, मटकती हुई बड़ी-बड़ी आँखें और उनका पूरा स्क्रीन-प्रेजेंस उन्हें फ़िल्मों में एक अलग मक़ाम देता है जो सिर्फ़ उन्हीं के नाम था है और रहेगा।