मनोहारी सिंह (8 मार्च 1931 – 13 जुलाई 2010)- सक्सोफ़ोनिस्ट, म्यूज़िक अरेंजर, म्यूजिशियन और म्यूजिक डायरेक्टर।
कुछ लोग सच्चे कलाकार होते हैं उनमें आर्ट कूट-कूट कर भरी होती है। ऐसे ही म्यूजिशियन थे मनोहारी सिंह। यूँ तो उन्हें सैक्सोफोन के लिए जाना जाता है मगर उन्हें कई विंड इंस्ट्रूमेंट बजाने में महारत हासिल थी। बाँसुरी, शहनाई, मेंडोलिन, पिकोलो और फ़िल्म शोले में और कटी पतंग के गाने ‘ये शाम मस्तानी’ की शुरुआत में की गई विस्लिंग भी उन्हीं का कमाल है।
एक बार तो ऐसा हुआ कि 100 मुसिशन्स के ऑर्केस्ट्रा के साथ रिकॉर्डिंग हो रही थी और मनोहारी सिंह म्यूजिक कंडक्ट कर रहे थे। उनके गले में सैक्सोफ़ोन भी लटका हुआ था। सञ्चालन करते हुए वो एक माइक पर गए एक बाँसुरी उठाई, बांसुरी बजाकर फिर दूसरे माइक पर जाकर सेक्सोफोन बजाया। बिना किसी डिस्टर्बेंस के इस तरह आसानी से इंट्रूमेंट्स बदल लेना कोई आसान काम नहीं है। मगर वो थे ही इतने प्रतिभाशाली और ये प्रतिभा उन्हें अपने परिवार से ही मिली। तभी तो हर संगीतकार ने उनकी क़द्र की, नौशाद से लेकर प्यारेलाल और RD बर्मन तक ने।
मनोहारी सिंह के बचपन के खिलौने थे तरह-तरह के वाद्ययंत्र
मनोहारी सिंह मूल रूप से नेपाल के थे, उनके दादा 1941 में नेपाल से यहाँ आकर बस गए थे, और आर्मी बैंड में ट्रम्पेट बजाते थे। उनके पिता पुलिस बैंड में बाँसुरी, शहनाई और बैगपाइप बजाया करते थे। उनके मामा और चाचा भी एक ब्रास बैंड में वादक थे। ऐसे ही माहौल में 8 मार्च 1931 को मनोहारी सिंह का जन्म हुआ और घर में मौजूद सारे म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स ही उनके खिलोने बन गए। फिर उन सभी वाद्यों में उन्होंने इतनी महारत हासिल कर ली कि 14 साल की उम्र में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर अपने टैलेंट को दिखाने का मौक़ा मिला। इसी दौरान वो उस ब्रास बैंड से जुड़ गए जिससे उनके चाचा और मामा जुड़े हुए थे।
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उस ब्रास बैंड के संचालक थे जोसेफ़ न्यूमैन, उन्होंने युवा मनोहारी सिंह की प्रतिभा को निखारने में बहुत मदद की। जब जोसेफ़ HMV से जुड़े तो वो अपने साथ मनोहारी और उनके अंकल को भी ले गए। मनोहारी सिंह अपने फ्री टाइम में कलकत्ता सिम्फ़नी ऑर्केस्ट्रा के साथ बाँसुरी और पिकोलो बजाया करते थे, और यहीं से उनका परिचय उस समय के कलकत्ता के नाईट क्लब्स से हुआ। वो पहले से ही इंग्लिश ‘की फ्लूट’, ‘क्लैरिनेट’ और ‘मेंडोलिन’ बजाया करते थे। पर वहां उनका ध्यान खींचा सेक्सोफोन ने, फिर उन्हें क़रीब 6 महीने से एक साल तक का समय लगा सेक्सोफोन में महारत हासिल करने में। आगे चलकर यही वो वाद्य बना जिसने उन्हें सबसे ज़्यादा शोहरत दिलाई।
कलकत्ता में ही नौशाद और सलिल चौधरी की नज़र उन पर पड़ी फिर नौशाद की सलाह पर सलिल चौधरी ने मनोहारी सिंह को बम्बई बुलाया। वो दौर कलकत्ता के म्यूजिक इंडस्ट्री के लिए बहुत अच्छा नहीं था, आज़ादी के बाद कोलकाता के नाईट क्लब्स का परिदृश्य काफ़ी हद तक बदल गया था। वहाँ आने वाले लोगों का एक बड़ा सर्कल यूरोपियन और एंग्लो-इंडियंस का था, जिनमें से ज़्यादातर देश छोड़कर चले गए थे। जोसेफ़ न्यूमैन भी 1952 में ऑस्ट्रेलिया चले गए थे। कलकत्ता का सिनेमा भी काफ़ी हद तक प्रभावित हुआ और वहाँ से भी काफ़ी लोग बम्बई चले गए, इसीलिए मनोहारी सिंह बम्बई चले आये।
बम्बई में पाई असली शोहरत
उस समय सलिल चौधरी का वक़्त भी कोई ख़ास अच्छा नहीं चल रहा था। फिर उनकी मुलाक़ात SD बर्मन से हुई, उनके लिए मनोहारी सिंह ने ‘सितारों से आगे’ (58) फ़िल्म के बैकग्राउंड स्कोर में बाँसुरी बजाई। 1958 की ही फ़िल्म मधुमती के बैकग्राउंड म्यूजिक में भी उनकी बाँसुरी सुनाई दी, मगर कोई ख़ास पहचान या काम नहीं बना था। SD बर्मन के साथ काम करने के दौरान उनका परिचय हुआ RD बर्मन, बाँसुरी वादक सुमंतराज और लक्ष्मीकांत से जो उस समय SD बर्मन के साथ-साथ जयदेव के लिए भी मेंडोलिन बजाया करते थे। लक्ष्मीकांत से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई थी।
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एक बार SD बर्मन के घर पर एक गाने को लेकर डिस्कशन पर उन दोनों की मुलाक़ात हुई तो उन्होंने लक्ष्मीकांत से काम दिलाने को कहा। फिर अगले दिन उसी गाने की सिटिंग के लिए लक्ष्मीकांत ने उन्हें मेंडोलिन के साथ नवकेतन आने को कहा। और फिर उसी गाने में पहली बार उन्होंने लक्ष्मीकांत के साथ मेंडोलिन बजाया। वो गाना था काला पानी फ़िल्म का – “अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न”। फ़िल्म ‘काला बाज़ार’ के गाने “सच हुए सपने तेरे” में उन्होंने सैक्सोफोन बजाया मगर वो उतना उभर कर नहीं आया क्योंकि उसमें सैक्सोफ़ोन के साथ साथ शहनाई और दूसरे वाद्यों का मिश्रण था। लेकिन इस दौर में उन्होंने ‘की फ्लूट’ बजाना जारी रखा।
उनका बजाया पहला सोलो सैक्सोफोन पीस सुनाई दिया फ़िल्म ‘लाजवंती’ के इस गाने में – “गा मेरे मन गा”। लेकिन उन्हें असल पहचान मिली फ़िल्म “सट्टा बाज़ार” के गाने से। ये गाना कई लोगों के लिए महत्वपूर्ण रहा। उस गाने में पहली बाद प्यारेलाल ने म्यूजिक अरैंजमेंट किया था, उस समय वो और लक्ष्मीकांत, कल्याणजी आनंद जी के अस्सिस्टेंट हुआ करते थे, ये गुलशन बावरा की भी पहली कामयाब फ़िल्म थी। ये गाना था “याद किया दिल ने कहाँ हो तुम झूमती बहार है कहाँ हो तुम”
इस गाने की रिकॉर्डिंग से पहले रिहर्सल होनी थी दादर के श्री साईं स्टूडियो में। मनोहारी के अलावा तीन और सैक्सोफोन प्लेयर वहाँ मौजूद थे। रिहर्सल हुई तो कल्याणजी ने कहा कि कुछ मज़ा नहीं आ रहा। फिर अकेले मनोहारी सिंह को सैक्सोफोन बजाने के लिए कहा गया। फिर तो ऐसा हुआ कि ख़ुद हेमंत कुमार जिन्होने ये गाना गाया उन्होंने भी इस गाने में बजाये गए सैक्सोफोन पीस के लिए मनोहारी सिंह की तारीफ़ की। बाद में उन्होंने हेमंत कुमार के लिए 1966 की फ़िल्म अनुपमा और बीवी और मकान में म्यूजिक अरैंजमेंट किया। अनुपमा के गाने ‘क्यों मुझे इतनी ख़ुशी दे दी” में भी मनोहारी ने सैक्सोफोन बजाया।
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मनोहारी सिंह के सैक्सोफ़ोन ने फ़िल्म संगीत का परिदृश्य ही बदल दिया
सट्टा बाज़ार के सुपरहिट गाने के बाद सभी संगीतकारों की नज़र में मनोहारी सिंह और उनका सैक्सोफोन समा गया। जिस समय मनोहारी सिंह बम्बई पहुंचे उस समय सबसे मशहूर सक्सोफोनिस्ट थे रामसिंह। जिन्होंने अनिल बिस्वास के साथ काम करते हुए शुद्ध हिंदुस्तानी गीतों में सैक्सोफोन बजाने की एक शैली विकसित की थी। कहा जाता है कि उनके निधन के बाद फ़िल्मों में आल्टो सैक्सोफोन का इस्तेमाल लगभग बंद हो गया था। क्योंकि कोई भी उनके जैसा वादक इंडस्ट्री में नहीं था, उस गैप को भरा मनोहारी सिंह ने। कहते हैं कि उनसे पहले ट्रम्पेट और सैक्सोफोन का इस्तेमाल बहुत ही शांत तरीक़े से किया जाता था। मगर उन्होंने वो परिदृश्य भी बदल कर रख दिया।
जब मनोहारी सिंह सलिल चौधरी के लिए काम कर रहे थे तो उनके असिस्टेंट और अरैंजर थे सेबेस्टियन, तो उन्होंने मनोहारी सिंह को सेबेस्टियन से मिलवाया। सेबेस्टियन शंकर जयकिशन और OP नैयर के साथ भी काम कर रहे थे। सेबेस्टियन ने मनोहारी सिंह को जयकिशन से मिलवाया और जयकिशन उनके फैन हो गए इसके बाद तो शंकर जयकिशन की कितनी ही फ़िल्मों में मनोहारी सिंह ने बाँसुरी और सैक्सोफोन बजाया। शंकर जयकिशन की नॉन-फ़िल्मी एल्बम ‘रागा जैज़ स्टाइल’ में उन्होंने हिंदुस्तानी राग भी प्ले किये।
ओ पी नैय्यर के साथ उन्होंने पहली बार “कश्मीर की कली” में काम किया। “कश्मीर की कली” का एक गाना है “है दुनिया उसी की ज़माना उसी का” जिसमें मनोहारी सिंह ने सैक्सोफ़ोन बजाया था। जब इस गाने की रिकॉर्डिंग हो रही थी तो वो इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने मनोहारी सिंह को 100 रुपए का नोट देकर कहा “हैव विह्स्की”। एक समारोह में उन्होंने एक हाथ मनोहारी सिंह के कंधे पर रखा और दूसरा केर्सी लार्ड के और सबके सामने कहा “These are my ornaments”
मनोहारी सिंह ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि उस दौर में मुसिशन्स को कभी साथ के साथ पेमेंट नहीं होती थी। वैसे आज भी कहाँ होती है साथ के साथ पेमेंट? सिर्फ़ मुसिशन्स ही नहीं फ्रीलांसर के लिए तो साथ के साथ पेमेंट मिलना हमेशा ही सपना होता है! ख़ैर ! एक बार फ़िल्मिस्तान की रिकॉर्डिंग के बाद OP नैयर ने एक वादक को अपनी पेमेंट के लिए उदास होकर रिक्वेस्ट करते सुना। और उन्होंने तभी शशधर मुखर्जी को फ़ोन करके पेमेंट करने को कहा। एस मुखर्जी ने कहा – जल्दी क्या है हो जाएगी पेमेंट लेकिन वो अड़े रहे और सिर्फ़ उसी दिन नहीं बल्कि वहाँ का पेमेंट सिस्टम हमेशा के लिए बदल गया।
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मनोहारी सिंह और पंचम का एसोसिएशन
मनोहारी सिंह एक बहुत ही कमाल के संगीतकार थे, प्यारेलाल उन्हें ऑल राउंडर कहते थे। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जब धुनें बनाते थे तो उनकी क्षमता को ध्यान में रखकर मुश्किल धुनें बनाते थे। वो अपना सबसे मुश्किल गाना मानते थे ‘अमीर-ग़रीब’ का “मैं आया हूँ” प्यारेलाल की इस कम्पोजीशन ने उन्हें थका दिया था। उन्होंने बहुत से संगीतकारों के लिए म्यूजिक अरैंजमेंट किया, इंस्ट्रूमेंट्स बजाए, उन्हें असिस्ट किया, इनमें नौशाद, सलिल चौधरी, रोशन, चित्रगुप्त, मदन मोहन, एस डी बर्मन, शंकर जयकिशन, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है। मगर सबसे यादगार साथ रहा RD बर्मन के साथ, कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि वो दोनों एक दूसरे के साथ काम करने के लिए ही बने थे।
मनोहारी सिंह ने अपने कमरे की एक दीवार पर ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें लगाई हुई थीं, जिनमें वो जयकिशन, हरिप्रसाद चौरसिया, सुमंतराज, रईस खान, केर्सी लॉर्ड जैसे लोगों के साथ स्टूडियो में काम कर रहे थे। एक दीवार पर आर.डी. बर्मन की एक बड़ी रंगीन तस्वीर लगाई हुई थी। पंचम के गाने वेस्टर्न टच लिए होते थे जिनके लिए सैक्सोफोन जैसा साज़ लाज़मी था। छोटे नवाब से जहाँ पंचम का सफ़र बतौर संगीतकार शुरू हुआ था मनोहारी सिंह उनके साथ थे और जब पंचम ने अपनी आख़िरी फिल्म की 1942 A Love story तब भी वो उनके साथ थे।
मनोहारी सिंह ने मशहूर वायलिन वादक और आर.डी.बर्मन के लिए एक और अरेंजर बासुदेव चक्रवर्ती के साथ मिलकर बासु-मनोहारी के नाम से कुछ फ़िल्मों में संगीत भी दिया। इनमें सबसे बड़ा रुपैया (1976), कन्हैया (1980), जीना है प्यार में (1983) और चटपटी (83) जैसी हिंदी फिल्म शामिल हैं। इनमें संगीत की दृष्टि से सबसे मशहूर रही “सबसे बड़ा रुपैया” जिसके कई गाने (“वादा करो जानम” और “सबसे बड़ा रुपैया”) लोकप्रिय हुए। लेकिन म्यूजिक अरेंजमेंट और सैक्सोफोन बजाना कभी नहीं रुका।
आखिरी वक़्त तक सैक्सोफ़ोन से प्यार करते रहे
मनोहारी सिंह ने शुरुआत में तीनों तरह के सैक्सोफोन के साथ एक्सपेरिमेंट किये। लेकिन आल्टो, टेनर और सोप्रानो में आल्टो सैक्सोफोन उनके फुर्तीले स्टाइल के साथ एकदम मैच करता था, और ज़्यादातर उन्होंने आल्टो सैक्सोफोन का ही इस्तेमाल किया। 1969 में, मुंबई के संगीतकारों का एक ग्रुप, म्यूजिक कंसर्ट्स के लिए वेस्ट इंडीज, अमेरिका और नीदरलैंड के दौरे पर गया था। जब ग्रुप न्यूयॉर्क पहुँचा तो वहाँ से मनोहारी सिंह ने अपना पसंदीदा सैक्सोफोन “सेल्मर आल्टो सैक्सोफ़ोन” ख़रीदा जोकि सोने से मढ़ा हुआ था। उस सैक्सोफ़ोन से उन्हें इतना प्यार था कि वो कभी किसी को भी उसे हाथ नहीं लगाने देते थे।
मनोहारी सिंह का एक सोलो सैक्सोफोन इंस्ट्रुमेंटल एल्बम भी आया “सैक्स अपील” इसमें पुरानी हिंदी फ़िल्मों के गीत शामिल थे। बाद के दौर में भी उन्होंने काम करना जारी रखा। “चलते चलते” और “वीर ज़ारा” जैसी फ़िल्म में भी उनके सैक्सोफोन का कमाल था। साढ़े चार दशक लम्बे अपने करियर में वो हमेशा सक्रिय रहे, स्टेज शोज करते रहे। पंचम की याद में होने वाले प्रोग्राम्स में भी अक्सर उन्हें देखा गया। वो अपनी सुबह की सैर कभी नहीं छोड़ते थे। कम ही लोग जानते हैं कि वो बहुत अच्छे कुक भी थे। दुबई में आशा भोंसले के रेस्तरां मेन्यू में उनकी मटन रेसिपी/डिश शामिल है।
अपने जीवन के आख़िरी तीन सालों तक वो डायलिसिस पर थे, पर कमाल ये था कि डायलिसिस से गुज़रने के बाद घंटों सैक्सोफोन बजाते थे, संगीत उनके लिए दवा का काम करता था। फ़िल्म संगीत में योगदान के लिए उन्हें रेडियो मिर्ची ने अवॉर्ड दिया था और वो ये अवॉर्ड पाने वाले पहले म्यूजिशियन थे। उस दिन उन्हें डॉक्टर को भी दिखाना था तो वो घर से सूट पहन कर निकले, पहले अस्पताल गए फिर अवॉर्ड फ़ंक्शन में, ये था उनका जज़्बा।
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मनोहारी सिंह को लोग प्यार से ‘मनोहारी दा’ या ‘दादा’ कहते रहे हैं। 13 जुलाई 2010 को उनकी मौत हो गई मगर 1960 से लेकर अगले 4 दशकों तक के उनके फ़िल्मी सफ़र में हज़ारों गाने ऐसे मिलेंगे जिनमें मनोहारी सिंह का योगदान होगा। क्योंकि किसी में उन्होंने बाँसुरी बजाई है तो किसी में मेंडोलिन, किसी में शहनाई तो किसी में ट्रम्पेट और सैक्सोफ़ोन के तो अनगिनत गीत हैं। मगर कितने लोग हैं जो मनोहारी सिंह के बारे में जानते हैं ?
चुनिंदा गीत जिनमें मनोहारी सिंह ने कोई न कोई वाद्ययंत्र बजाया
- मैं आया हूँ – अमीर ग़रीब – सैक्सोफोन
- है दुनिया उसी की – कश्मीर की कली – सैक्सोफोन
- जा रे जा रे उड़ जा रे पंछी – माया – बाँसुरी, सैक्सोफ़ोन
- तुम्हें याद होगा कभी हम – सट्टा बाज़ार – सैक्सोफ़ोन
- ये शाम मस्तानी – कटी पतंग – व्हिस्लिंग
- एक हसीन शाम को – दुल्हन एक रात की – की फ्लूट
- बचना ऐ हसीनों – हम किसी से काम नहीं – प्रील्यूड
- महबूबा-महबूबा – शोले – इंटरल्यूड
- हुज़ूरेवाला – ये रात फिर न आएगी
- जाग दिले दीवाना – ऊँचे लोग
- ये पर्बतों के दायरे – वासना
- काँची रे, काँची रे – हरे रामा हरे कृष्णा
- तुम बिन जाऊँ कहाँ – प्यार का मौसम
- आजा-आजा मैं हूँ प्यार तेरा – तीसरी मंजिल
- ये जवानी है दीवानी – जवानी दीवानी
- गाता रहे मेरा दिल – गाइड
- अजी रूठकर अब कहां जाएगा – आरज़ू
- जनम-जनम का साथ है निभाने को – तुमसे अच्छा कौन है
- जिसका मुझे था इंतजार – डॉन