ज्ञानदत्त

ज्ञानदत्त 40 के दशक के मशहूर संगीतकार थे जिनके संगीत ने कई फ़िल्मों को कामयाबी का सेहरा पहनाया। मगर फिर वक़्त का पहिया घूमा और फ़िल्मी दुनिया में नए संगीतकारों का आगमन हुआ और लोगों ने उन्हें भुला दिया।

के एल सहगल जब कलकत्ते से बम्बई आए तो वहाँ उनकी पहली फ़िल्म थी 1942 में रिलीज़ हुई ‘भक्त सूरदास’। जिसमें एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत थे। ‘निसदिन बरसत नैन हमारे’ ‘नैनहीन को राह दिखा प्रभु’ ‘चाँदनी रात और तारे खिले हैं’ इन गीतों में बेशक़ सहगल साब की आवाज़ का जादू तो था ही मगर आवाज़ को अगर साज़ और संगीत का साथ न मिले तो वो बेअसर रह जाती है। खासकर फ़िल्मी गीतों में तो संगीत बहुत अहमियत रखता है। ‘भक्त सूरदास’ में संगीत दिया था संगीतकार ज्ञानदत्त ने जो 40 के दशक में बम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रमुख संगीतकारों में से एक थे।

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ज्ञानदत्त ने अपने करियर की शुरुआत रणजीत स्टूडियो से की

यूँ तो ज्ञानदत्त बंगाली थे मगर उनका जन्म बेंगलुरु में हुआ था। और उनके जन्म का नाम था जनन दत्त ये नाम यूनिक तो है मगर ज़ुबान पर आसानी से नहीं चढ़ता है। शायद इसीलिए उनके दोस्तों ने उन्हें  सलाह दी कि जनन की जगह ज्ञान रखना हर लिहाज़ से बेहतर होगा। उन्होंने बात मान ली और कहलाने लगे ज्ञान दत्त। ज्ञान दत्त के शुरूआती जीवन के विषय में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर ये तय है कि उन्होंने बतौर संगीतकार रणजीत मूवीटोन से अपने करियर की शुरुआत की और फिर एक से बढ़कर एक मधुर गीतों की रचना की।
ज्ञानदत्त
संगीतकार ज्ञानदत्त की डेब्यू फ़िल्म आई 1937 में  जिसका नाम था तूफ़ानी टोली। इस फ़िल्म का संगीत काफ़ी पसंद किया गया और फिर अगले दो सालों में उन्होंने रणजीत के लिए बाज़ीगर(1938), बिल्ली(1938), पृथ्वी-पुत्र (1938), प्रोफ़ेसर वामन MMC(1938), रिक्शावाला(1938), सेक्रेटरी(1938), अधूरी कहानी(1939), नदी किनारे (1939), ठोकर(1939), संत तुलसीदास(1939) जैसी कई फ़िल्मों में संगीत दिया। इनमें हर जॉनर की फ़िल्म शामिल है। स्टंट से लेकर ऐतिहासिक-पौराणिक कॉस्ट्यूम ड्रामा है तो साइंस फ़िक्शन भी है और सामाजिक फ़िल्में भी और लगभग सभी फ़िल्मों का संगीत लोकप्रिय हुआ। इनमें 1939 में आई ‘संत तुलसीदास’ का नाम ख़ासतौर पर लिया जा सकता है।

ज्ञानदत्त का संगीत अपने आप में नयापन लिए था

ज्ञानदत्त का म्यूजिक हिट होने की एक बड़ी वजह थी उसका नयापन, एक तरह की उन्मुक्तता जो उस समय तक फ़िल्मी संगीत से लगभग ग़ायब थी। अगर हम 30s के शुरूआती फ़िल्म संगीत पर नज़र डालें तो उस में एक तरह की मोनोटनी थी जो कभी-कभी बोर कर देती थी मगर ज्ञानदत्त ने इस मोनोटोनी को तोड़ा और रवायत से अलग हटकर मधुर संगीत की रचना की। ऐसे गीत जो न सिर्फ़ उस वक़्त लोगों की ज़बान पर चढ़े बल्कि उस दौर के संगीत के चाहने वाले आज भी उन गीतों को गुनगुनाते हैं।

वैसे तो ज्ञानदत्त रणजीत स्टूडियो से जुड़े थे मगर उन्होंने सुदामा प्रोडक्शंस की भी कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया। ये कैसे संभव हुआ होगा, कहना मुश्किल है। क्योंकि उस ज़माने में एक स्टूडियो के साथ काम करते हुए आप किसी दूसरे के साथ काम नहीं कर सकते थे। जिन कुछ लोगों ने ऐसा किया भी, वो या तो छुपकर किया या यारी दोस्ती में किया या दूसरा बेनर उसी स्टूडियो का सबडिविशन होता था तो एक स्टूडियो का स्टाफ दूसरे स्टूडियो में शिफ्ट होता रहता था। ख़ैर ! जैसे भी संभव हुआ हो पर ज्ञान दत्त ने सुदामा प्रोडक्शंस की कई फ़िल्मों में संगीत दिया।

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उन्होंने सुदामा प्रोडक्शंस की 1939 में आई फ़िल्म “आपकी मर्ज़ी” में संगीत तो दिया ही अपने कंपोज़ किये 3 सोलो सांग्स और दो डुएट्स भी गाए। इसके अलावा भी उन्होंने सचिव, अधूरी कहानी, नदी किनारे, अछूत और धीरज जैसी कुछ फ़िल्मों में अपनी रचनाओं को आवाज़ दी। इनमें सेक्रेटरी का ‘अरे बेरहम कैंची क्यों चलाता है’, अधूरी कहानी का ‘छल बल करके चितवन भरके’, नदी किनारे का ‘नदी किनारे आओ साजन’, अछूत का ‘दीन दुखी को दान दिया’ जैसे गीत शामिल हैं।

1940 की “अछूत” एक हिट फ़िल्म थी इसमें मोतीलाल और गोहर ने अभिनय किया था, और ख़ुद चंदूलाल शाह ने इसका निर्देशन किया था। कहा जाता है कि इसे गाँधी जी के आशीर्वाद से उनके सिद्धान्तों पर बनाया गया था और इसमें उनके पसंदीदा भजन “रघुपति राघव राजा राम” को शामिल किया गया था। इस फ़िल्म के भी लगभग सभी गीत बहुत लोकप्रिय हए।

ज्ञानदत्त की सभी फ़िल्मों का संगीत सुपरहिट था, इसीलिए उनका नाम 40 के दशक में फ़िल्म की सफलता की गारंटी माना जाने लगा था। और फिर आई उन के करियर की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म – 1942 की भक्त सूरदास  जिसका ज़िक्र मैंने शुरुआत में किया था। इस फिल्म के लिए उन्होंने लगभग 15 गाने बनाए थे और उनमें से ज़्यादातर हिट थे। के एल सहगल और ख़ुर्शीद की जोड़ी ने उन गीतों को अपनी आवाज़ में गाकर अमर कर दिया।

जब ज्ञानदत्त के एल सहगल के कारण घबरा गए

भक्त सूरदास का एक गाना है – ‘मधुकर श्याम हमारे चोर’  इस गाने की जब रिकॉर्डिंग होने वाली थी उस समय के एल सहगल नशे में धुत थे। जैसा कि उनके विषय में मशहूर है कि बाद के दौर में वो अक्सर शराब पीकर ही रिकॉर्डिंग किया करते थे। लेकिन ज्ञानदत्त को बहुत घबराहट होने लगी थी कहीं गाना सही से रिकॉर्ड नहीं हो पाया तो क्या होगा, क्योंकि वो पहली बार सहगल साब के साथ काम कर रहे थे। के एल सहगल उनकी घबराहट को भाँप गए और उन्होंने ज्ञानदत्त को भरोसा दिलाया और रिकॉर्डिंग शुरु कर दी। ये उसी हालत में की गई रिकॉर्डिंग है जिसे सुनकर आज भी आत्मा तृप्त हो जाती है।
ज्ञानदत्त

इसी फ़िल्म का एक और गीत है – नैनहीन को राह दिखा प्रभु। इस गाने के 14 रिटेक हुए सब संतुष्ट थे मगर सहगल साब ने एक बार और रिकॉर्डिंग की और फाइनल गाना रिकॉर्ड होने के बाद वो फूट-फूट कर रोने लगे। कभी कभी हमारे मन की स्थिति से किसी गीत के बोल या धुन इस तरह मेल खाती है कि इंसान उसमें बह जाता है। और यही उस गीत और संगीत की कामयाबी कही जा सकती है। जिससे आत्मा न जुड़े भला वो कैसा संगीत!

उस दौर में ज्ञानदत्त का संगीत यही ख़ासियत लिए होता था। अछूत(1940), चिंगारी(1940), मुसाफ़िर(1940) और नर्स (1942) जैसी कई फ़िल्मों में उनके संगीत का ये जादू लोगों के सर चढ़ कर बोला। लेकिन ये वो दौर भी था जब फ़िल्मी फ़लक पर भी बदलाव हो रहे थे। सी रामचंद्र, नौशाद, S D बर्मन, जैसे कई नए संगीतकारों के आगमन हो गया था, ऐसे में ज्ञानदत्त को मिलने वाली फ़िल्में कम होती गईं। फिर रंजीत मूवीटोन भी अपने बुरे वक़्त से गुज़र रहा था। उसका असर उसमें काम करने वालों पर पड़ना ही था।

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40 के दशक की उनकी कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्मों में 1942 की अरमान, रिटर्न ऑफ़ तूफ़ान मेल, 1943 की आदाब अर्ज़, ग़ज़ल, 1946 की दूल्हा, कमला, 1947 की गीत-गोविन्द और 1948 की सवेरा, चंदा की चांदनी के नाम लिए जा सकते हैं। 1949 की सुनहरे दिन, 1950 की दिलबरुबा और 1951 की घायल के गीत भी काफ़ी पसंद किए गए।

“सुनहरे दिन” के संगीत को “भक्त सूरदास” के बाद उनका सबसे लोकप्रिय संगीत माना जाता है जिसमें उन्होंने ऑर्केस्ट्रा का भी अच्छा प्रयोग किया था। इस फ़िल्म में राज कपूर, रेहाना और निगार जैसे कलाकार थे। इसके कुछ गाने तो कमाल के थे जो लोकप्रियता में भी अव्वल रहे। ‘वो साज़-ए-जवानी है’, ‘दिल दो नैनो में खो गया’ और ‘मैंने देखी जग की रीत मिल कर सब झूठे पड़ गये’।

ज्ञानदत्त की आख़िरी फ़िल्म आई थी 1965 में “जनम जनम के साथी” उसके बाद किसी को उनकी कोई ख़बर नहीं रही। 3 दिसंबर 1974 को उन्होंने आख़िरी साँस ली और इस दुनिया से विदा ले ली। शायद इसमें किसी का दोष नहीं है बस ज़िंदगी का चक्र है जो घूमता रहता है, घूमते हुए कभी शोहरत के आसमान पर पहुंचा देता है तो कभी गुमनामी की चादर उढ़ा देता है।

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