केश्टो मुखर्जी (Keshto Mukherjee) का चेहरा जब भी स्क्रीन पर दिखाई देता था तो दर्शक अपने आप समझ जाते थे कि अब फ़िल्म में एक शराबी की एंट्री हो गई है। क्योंकि कई विभिन्न भूमिकाएँ निभाने के बावजूद शराबी की इमेज हमेशा उनके साथ जुड़ी रही।
ये वो दौर था जब कलाकारों पर आसानी से लेबल लगा दिया जाता था। अगर कोई अच्छा डांसर है तो फ़िल्ममेकर उन्हें बतौर डाँसर ही कास्ट करते थे, कोई विलेन है तो विलेन के ही रोल्स में दिखेगा। कहीं न कहीं दर्शक भी इसके लिए ज़िम्मेदार थे जो उस कलाकार को किसी और किरदार में देख नहीं पाते थे। यही ट्रेजेडी रही केश्टो मुखर्जी के साथ जिन्होंने ज़्यादातर फ़िल्मों में शराबी की भूमिका निभाई मगर उस भूमिका को जानदार बनाने के लिए उन्होंने कभी शराब का सहारा नहीं लिया।
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वो केश्टो मुखर्जी की शराबी की नेचुरल एक्टिंग थी ,जॉनी वॉकर की तरह। जॉनी वॉकर भाग्यशाली रहे कि उन्हें गुरुदत्त जैसे कई फ़िल्ममेकर्स का साथ मिला जिन्होंने उन्हें हास्य के ही अलग-अलग शेड्स दिए और उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया। केश्टो मुखर्जी को भी बिमल रॉय, बासु चटर्जी, हृषिकेश मुखर्जी जैसे कुछ फ़िल्ममेकर्स का साथ तो मिला, मगर वो भूमिकाएँ इतनी छोटी थीं कि उनकी शराबी की इमेज हमेशा उन किरदारों पर हावी रही।
केश्टो मुखर्जी जब बिमल रॉय से काम मांगने गए तो उन्होंने “कुत्ते” की आवाज़ निकालने को कहा
7 अगस्त 1925 को कोलकाता में जन्मे केश्टो मुखर्जी को बचपन से ही अभिनय का शौक़ था। बड़े होते होते नुक्कड़ नाटकों में भाग लेने लगे जहाँ ढेरों तारीफ़ें भी मिलीं, फिर बांग्ला फ़िल्मों में भी काम मिल गया। शुरुआत हुई ऋत्विक घटक जैसे फ़िल्ममेकर की पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ से। ये फ़िल्म बनी तो थी 1952 में, पर रिलीज़ हुई ऋत्विक घटक की मौत के कई सालों बाद, अगस्त 1977 में। नागरिक के अलावा केश्टो मुखर्जी ने “बारी ठेके पलिए”, “अजांत्रिक”, “जुक्ति तक्को और गप्पो” जैसी कई बांग्ला फिल्मों में काम किया।
इसी बीच केश्टो मुखर्जी मुंबई चले आए हीरो बनने, फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने, उनका एक मक़ाम बना भी मगर एक “on-screen” शराबी के रूप में। जब ज़िंदगी हर रास्ता बंद कर देती है तो हम उस रास्ते पर नज़र डालते हैं जो खुला हो फिर इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो रास्ता कहाँ ले जा रहा है। मुंबई में संघर्ष करने के दौरान वो कई फिल्ममेकर्स से मिले थे मगर कहीं भी काम नहीं बना इसी दौरान उनकी मुलाक़ात हुई बिमल रॉय से जो उस समय ‘मुसाफ़िर’ फ़िल्म बना रहे थे।
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केश्टो मुखर्जी ने बिमल रॉय से फ़िल्म में काम माँगा तो बिमल रॉय ने बाद में आने को कहा। मगर तब तक केश्टो मुखर्जी थक चुके थे, न रहने का कोई ढंग का ठिकाना था न ही खाने पीने का। उस समय वो रेलवे क्वार्टर के एक गंदे से कमरे में सोते थे जहाँ आस-पास चूहे दौड़ लगाते थे, कुत्ता उनके पास सोता था। उस समय वो बहुत परेशान थे और उस ज़िंदगी से किसी भी तरह निकलना चाहते थे, इसलिए बिमल रॉय की बात सुनकर भी वो अपनी जगह पर खड़े रहे।
उन्हें वहीं खड़े देखकर बिमल रॉय को गुस्सा आ गया और उन्होंने भड़क कर कहा “फ़िलहाल एक कुत्ते की ज़रुरत है, क्या तुम भौंक सकते हो” केश्टो मुखर्जी को ये सुनकर बुरा तो ज़रुर लगा होगा मगर शायद इसी को मजबूरी कहते हैं कि उन्होंने तुरंत कुत्ते के भौंकने की आवाज़ निकालनी शुरु कर दी। पर फ़ायदा ये हुआ कि उन्हें फ़िल्म में स्ट्रीट डांसर का रोल मिल गया।
एक फ़िल्म में जब शराबी की भूमिका निभाई तो उसी में टाइपकास्ट हो गए
मुसाफ़िर के बाद सिलसिला चल निकला, केश्टो मुखर्जी बहुत सी फ़िल्मों में छोटे-छोटे किरदारों में नज़र आते रहे। कभी कम्पाउंडर बन कर, किसी में रिसेप्शनिस्ट, डॉक्टर, टैक्सी ड्राइवर, इनसे ज़िन्दगी की गाड़ी तो चल रही होगी पर जो किरदार आज लोगों को याद भी नहीं हैं उनसे तब उन्हें कितना फ़ायदा पहुँचा होगा कहना मुश्किल है। हाँ, उनका आँखे मटकाकर, अपने शब्दों में गड़बड़ा जाना उनके किरदारों में हल्का सा हास्य का पुट ज़रुर डाल देता था।
इसीलिए ‘पड़ोसन’ जैसी हास्य फ़िल्म में वो नाटक मंडली के क़िरदारों में से एक ‘कलकतिया’ के रूप में दिखे। फ़िल्मों में काम शुरु करने के क़रीब 18-19 साल बाद 1970 में एक फ़िल्म आई “माँ और ममता” जिसमें केश्टो मुखर्जी शराबी के रोल में दिखे और बस यहीं से फ़िल्मकारों ने उन्हें हिंदी फ़िल्मों का पर्मानेंट “हार्मलेस शराबी” बना दिया। इसके बाद वो लगभग हर फ़िल्म में शराबी या नशे में लड़खड़ाते व्यक्ति की भूमिका में दिखाई दिए, और इस किरदार की प्रेरणा बना एक पापड़ वाला।
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जहाँ केश्टो मुखर्जी रहते थे वहाँ एक पापड़ वाला आकर अलग अंदाज़ से पापड़ बेचा करता था। जिसे केश्टो मुखर्जी रोज़ाना ऑब्ज़र्व करते थे। जब उन्हें असित सेन से अपनी फ़िल्म “माँ और ममता” में शराबी की भूमिका ऑफर की तो उन्होंने उसी पापड़ वाले के अंदाज़ को अपनाया और उसी तरह बोले, जो बाद में उनका सिग्नेचर स्टाइल बन गया। और इतना हिट रहा कि डिस्ट्रीब्यूटर्स फ़िल्म में उनके शराबी के रोल की डिमांड करने लगे और स्क्रिप्ट में उनके रोल के लिए जगह बनने लगी।
मगर बेस्ट कॉमिक एक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड उन्हें किसी शराबी की भूमिका के लिए नहीं मिला। ये अवार्ड उन्हें मिला ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म “ख़ूबसूरत” के लिए, काफ़िया मिलाते हुए घर के बावर्ची का छोटा सा रोल। कई और फ़िल्मों में भी वो छोटी मगर बेहतरीन हास्य भूमिकाओं में दिखे इनमें ‘परिचय’, ‘गोलमाल’, ‘शोले’, ‘बॉम्बे टू गोवा’, ‘मेरे अपने’, ‘साधु और शैतान’ जैसी फ़िल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।
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उनके कई नॉन-शराबी किरदार भी हैं, जो छोटे हैं पर अच्छे हैं, मगर उनकी ON-Screen शराबी की इमेज इस क़दर हावी है कि आज जब तक दिमाग़ पर ज़ोर डालकर याद न करें या फ़िल्म न देखें तब तक उनके ऐसे रोल याद ही नहीं आते। महमूद, राजेंद्र नाथ, जॉनी वॉकर जैसे हास्य कलाकारों पर कई गाने फिल्माए गए हैं, जॉनी वॉकर के नाम पर तो फ़िल्म भी बनी है।
केश्टो मुखर्जी ने परदे पर शायद ही कोई गाना गाया हो मगर उनका नाम एक गाने में ज़रुर आया। ये फ़िल्म थी “चाचा भतीजा” और गाने के बोल थे – “हे रे ला ला, हे रे ला ला, झूमो ज़रा”। इसमें गाना गा रहे हीरो धर्मेंद्र हैं, जिनके साथ केश्टो मुखर्जी ने ‘आकाशदीप’, ‘गुड्डी’, ‘ललकार’, ‘लोफ़र’, ‘चुपके-चुपके’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘चरस’, ‘द बर्निंग ट्रैन’, ‘गज़ब’ जैसी क़रीब 15 फ़िल्मों में काम किया।
केश्टो मुखर्जी को दुबई में रेड कारपेट वेलकम मिला था
30 साल के अपने फ़िल्मी सफ़र में केश्टो मुखर्जी ने क़रीब 90 फ़िल्मों में काम किया। हाँलाकि उनकी भूमिकाएँ बहुत ज़्यादा लम्बी नहीं होती थीं मगर उनका कॉमिक टाइमिंग और चेहरे के हाव-भाव ऐसे होते हैं कि आप ठहाका लगा कर भले न हँसे मगर एक मुस्कान ज़रुर आपके चेहरे पर आ जाएगी, उनका हास्य खुलकर हँसाने से ज़्यादा गुदगुदी पैदा करता है।
केश्टो मुखर्जी के इसी गुदगुदाने वाले अंदाज़ पर एक स्टेज परफॉरमेंस के दौरान दुबई के शेख़ इस क़दर फ़िदा हो गए थे कि उन्हें गले तक सोने की चेन से लाद दिया था। मगर केश्टो मुख़र्जी ने सबसे गुज़ारिश की कि जिसने भी जो चेन पहनाई है, वो कृपया अपना तोहफ़ा वापस ले लें। वो पहले ऐसे कलाकार थे जिन्हें दुबई में रेड कारपेट वेलकम मिला था। उनकी आख़िरी फ़िल्म 1996 में रिलीज़ हुई आतंक थी, उसमें भी उन्होंने शराबी की ही भूमिका निभाई थी।
केश्टो मुखर्जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बहुत कम मौक़ों पर शराब को हाथ लगाया। एक तरह से ये बात सच हो सकती है क्योंकि उनके बेटे के मुताबिक वो सिर्फ़ ख़ास मौक़ों पर ही शराब पीते थे। लेकिन जिस दौर में वो संघर्ष कर रहे थे उस समय वो बहुत शराब पिया करते थे। ये बात उन्होंने ख़ुद अपने एक प्रिंट इंटरव्यू में कही थी कि जिन हालात से वो उस समय गुज़र रहे थे, न खाना था, न काम, ऐसे में फ़्रस्ट्रेटेड होकर टेंशन भुलाने के लिए, सोने के लिए वो पिया करते थे।
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यही वजह थी कि जब जैसी भूमिकाएँ उन्हें मिलीं उन्होंने स्वीकार कीं। यही वो वजह भी थी कि उन्होंने ख़ुद को शराबी के रोल में टाइपकास्ट होने दिया। क्योंकि उनका एक परिवार था जिसका ख़र्च उन्हें उठाना था और जो ग़रीबी भुखमरी वो देख चुके थे, फिर से उसी दलदल में नहीं जाना चाहते थे। इसीलिए कामयाब होते ही उन्होंने अपना एक घर बनाया। वैसे घर ख़रीदने के पीछे एक छोटा सा वाक़या भी है।
ये बात उन दिनों की है जब वो एक 1 BHK के फ्लैट में रहा करते थे। उनकी पत्नी शोभा मुखर्जी पड़ोस के घर में टीवी देखने जाया करती थी, एक दिन पड़ोसी ने मना कर दिया और जब ये बात केश्टो मुखर्जी को पता चली तो उन्होंने एक महीने के अंदर-अंदर जुहू में अपना 2bhk का घर ख़रीदा, और टीवी भी ताकि उनके परिवार को फिर से बेइज़्ज़त न होना पड़े। वो अपने पत्नी और बच्चों का बहुत ख़याल रखते थे और सबसे बड़ी बात घर में वो एक आम इंसान की तरह रहते थे।
बच्चों के लिए एक प्यार करने वाला लेकिन सख़्त पिता जो अपने बच्चों को होमवर्क भी कराता था, पत्नी की हर इच्छा का सम्मान करने वाला पति और एक साधारण इंसान जिसे कुकिंग का बहुत शौक़ था। उनके घर में फ़िल्मी माहौल था ही नहीं, न ही वो कभी अपने बच्चों को सेट पर लेकर गए। जब कभी विदेश भी जाते थे तो जिस एक ब्रीफ़केस के साथ जाते थे उसी के साथ लौट आते थे।
केश्टो मुखर्जी की मौत बहुत भयानक थी
ये सभी बातें उनके बेटे और हास्य कलाकार बबलू मुखर्जी ने अपने एक इंटरव्यू में बताईं। उनके एक और बेटे हैं अशोक मुखर्जी। बबलू मुखर्जी ने पिता के निधन के बाद फिल्मी दुनिया में कदम रखा। हालांकि, उन्होंने कभी एक्टर बनने के बारे में नहीं सोचा था। केश्टो मुखर्जी उन्हें पायलट बनाना चाहते थे इसलिए उन्होंने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी एविएशन इंडस्ट्री के मुताबिक ही करवाने की कोशिश की। लेकिन केश्टो मुखर्जी के निधन के बाद बबलू मुखर्जी ने सिनेमा में एंट्री ली।
फ़रवरी 1982 में केश्टो मुखर्जी की कार को एक तेज़ी से आते ट्रक ने टक्कर मार दी। ये एक्सीडेंट बाउट ही भयानक था, इलाज कराया गया मगर ज़्यादा ख़ून बाह जाने की वजह से 2 मार्च 1982 को उनकी मौत हो गई। वजह जो भी रही हो मगर ये सच है कि जब भी ऑन-स्क्रीन शराबी का ज़िक्र होगा तो केश्टो मुखर्जी का नाम और उनकी हँसी जहन में उभरेगी।