हुस्नलाल भगतराम हिंदी सिनेमा की पहली कामयाब संगीतकार जोड़ी (हुस्नलाल की पुण्यतिथि पर विशेष)
सिनेमा के इतिहास पर ग़ौर करें तो 30s 40s की बहुत सी फ़िल्मों में बतौर म्यूज़िक डायरेक्टर दो या कभी-कभी दो से ज़्यादा संगीतकारों के नाम मिलते हैं। मगर उन्होंने जोड़ियों में काम नहीं किया, बल्कि अलग-अलग गाने कंपोज़ किए और दोनों का नाम फ़िल्म में दिया गया। उनमें से बहुतों ने बतौर सोलो संगीतकार भी काम किया। मगर 40 के दशक में एक संगीतकार जोड़ी उभरी जो हिंदी सिनेमा की पहली कामयाब संगीतकार जोड़ी थी, और अपने ज़माने की सुपरस्टार जोड़ी भी, वो थे हुस्नलाल भगतराम।
लता मंगेशकर की आवाज़ और गायकी को निखारने में जिन संगीतकारों का योगदान रहा उनमें एक महत्वपूर्ण नाम हुस्नलाल भगतराम का भी है। हृदयनाथ मंगेशकर ने भी बचपन में उनसे वॉयलिन सीखा था। संगीतकार शंकर और ख़ैय्याम ने भी अपने शुरूआती दिनों में उनसे संगीत सीखा। और वो गाना जिसने मोहम्मद रफ़ी को रातों रात मशहूर कर दिया, उसकी कम्पोज़ीशन भी हुस्नलाल भगतराम ने ही बनाई थी।
हुस्नलाल भगतराम दोनों भाई थे
हुस्नलाल-भगतराम दोनों भाई थे, दोनों ने ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा पं० दिलीपचंद्र बेदी से ली थी, पर दोनों की अपनी-अपनी ख़ासियत थी। इस जोड़ी का नाम सुनकर ऐसा लगता है जैसे हुस्नलाल बड़े होंगे पर 1914 में जन्मे भगतराम शर्मा बड़े भाई थे और हारमोनियम के उस्ताद थे। उनसे छोटे थे हुस्नलाल जिनका जन्म 8 अप्रैल 1920 को हुआ वो एक क्लासिकल सिंगर होने के साथ साथ वॉयलिन के उस्ताद थे। वो ख़याल, ठुमरी, दादरा, भजन और ग़ज़ल गायकी में माहिर थे।
इन दोनों भाइयों का जन्म पंजाब के एक गाँव में हुआ। उन के एक और बड़े भाई थे पंडिट अमरनाथ जो 40 के दशक के मशहूर संगीतकार भी थे और उनसे इन दोनों ने संगीत की कई बारीक़ियाँ भी सीखीं। 1947 की फ़िल्म “मिर्ज़ा साहिबाँ” में इन दोनों ने अपने बड़े भाई के साथ मिलकर संगीत दिया था।
भगतराम ने शुरू में भगतराम बातिश के नाम से “बहादुर रमेश”, “भेदी कुमार”, “चश्मावली”, “मिडनाइट मेल”, “दीपक महल”, “हमारा देश”, “सन्देश”, “तातार का चोर” जैसी कई फिल्मों में संगीत दिया। पर बात बन नहीं पा रही थी। लेकिन जब भगतराम ने हुस्नलाल के साथ जोड़ी बनाई तो जैसे करिश्मा होने लगा।
जोड़ी के रूप में पहली फ़िल्म थी “चाँद”
प्रभात फ़िल्म कंपनी की 1944 में आई फिल्म “चाँद” जोड़ी के रूप में हुस्नलाल भगतराम की पहली फ़िल्म रही (दो दिलों को ये दुनिया) “चाँद” प्रभात की फ़िल्मों का संगीत ज़्यादातर नाट्य या शास्त्रीयता से भरपूर होता था। पर इसमें पहली बार प्रभात की फ़िल्मों में पंजाबी स्टाइल का संगीत सुनाई दिया। पूरी फ़िल्म के संगीत में हुस्नलाल के वॉयलिन की छाप थी। उस समय इस जोड़ी का संगीत एक नई शैली का संगीत था। जिसमें क्लासिकल और फोक का मिश्रण था। और ये ख़ासियत उनके संगीत में हमेशा क़ायम रही।
देवानंद की पहली फ़िल्म “हम एक हैं” (1946) के संगीतकार भी हुस्नलाल भगतराम ही थे। फिर “नरगिस”, “हीरा”, “मोहन”, “रोमियो एंड जूलियट” जैसी कुछेक फ़िल्में आईं पर इनका संगीत कुछ ख़ास नहीं रहा। लेकिन 1948 में वो फ़िल्म आई जिससे ये संगीतकार जोड़ी फ़िल्मी दुनिया में छा गई। वो फ़िल्म थी “प्यार की जीत” इसमें सुरैया के गाये “तेरे नैनों ने चोरी किया” और “ओ दूर जाने वाले” जैसे गीतों ने हर तरफ धूम मचा दी थी।
इन्हें भी पढ़ें – गोविंदराव टेम्बे – मराठी फिल्मों के पहले संगीतकार
“प्यार की जीत” फ़िल्म में रफ़ी साहब की आवाज़ में एक सैड सांग था – “एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए” जिसके बारे में कहा जाता है कि इस गीत ने सैड सांग्स को नए आयाम दिए। ये गाना गीतकार क़मर जलालाबादी ने शशधर मुखर्जी की फिल्म सिंदूर(41) के लिए लिखा था। पर उन्होंने इसे Useless कह कर रिजेक्ट कर दिया। बाद में जब “प्यार की जीत” के निर्देशक OP दत्ता ने इसे सुना तो उन्होंने इसे शामिल करने के लिए PICTURISATION में भी बदलाव किया।
“प्यार की जीत” पहली फ़िल्म थी जिस में पंजाबी लोक गायिका सुरिंदर कौर की आवाज़ सुनाई दी। इससे पहले वो पंजाबी नॉन-फ़िल्मी गीत गाया करती थीं, उनके हुनर को पहचानकर हुस्नलाल भगतराम ने उन्हें फ़िल्मों में ब्रेक दिया।
हुस्नलाल भगतराम की पहली सुपरहिट फ़िल्म
हुस्नलाल भगतराम के करियर की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म थी 1949 में आई “बड़ी बहन” इसमें लता मंगेशकर और सुरैया के गाये गाने तो लोग आज भी लोग नहीं भूले हैं। “चुप चुप खड़े हो ज़रुर कोई बात है”, “वो पास रहे या दूर रहे नज़रों में समाये रहते हैं” जैसे गाने लोगों की जुबां पर सालों तक रहे हैं, आज भी लोग पसंद करते हैं। इस फिल्म के गानों में जो पंजाबी स्टाइल की ढोलक सुनाई देती है उसे संगीतकार शंकर ने बजाया था। वो उस समय हुस्नलाल भगतराम के असिस्टेंट थे उन्होंने ढोलक के अलावा तबला वादन भी किया।
इसी फ़िल्म के बाद शंकर जयकिशन की जोड़ी बनी जिसने राजकपूर की फ़िल्म “बरसात” में म्यूज़िक दिया। हुस्नलाल ने लता मंगेशकर को 6 सालों तक गायकी की बारीक़ियाँ सिखाईं। कहते हैं कि जब मोहम्मद रफ़ी के पास रियाज़ की जगह नहीं थी तो वो अक्सर उनके गानों का रियाज़ करने उनके घर जाया करते थे। बी आर चोपड़ा की पहली फ़िल्म “अफ़साना” 1951 में आई थी, इसका संगीत भी हुस्नलाल भगतराम ने ही दिया था। इसमें लता मंगेशकर की गाई ग़ज़ल “अभी तो मैं जवान हूँ” बहुत मशहूर हुई थी।
50 के दशक के संगीत की बात हो रही है तो उनकी उस अमर रचना को कैसे भूल सकते हैं जिसे मोहम्मद रफ़ी ने आवाज़ दी थी- “सुनो सुनो ए दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी”। 30 जनवरी को महात्मा गाँधी की हत्या के बाद सिर्फ़ 24 घंटे में उन्होंने इस गाने की धुन तैयार की थी। राजेंद्र कृष्ण के लिखे इस गाने को गाकर 23 साल के मोहम्मद रफ़ी पूरे देश में मशहूर हो गए थे। सिर्फ़ एक महीने में इस डिस्क की लाखों कॉपीज़ बिक गई थीं।
इन्हें भी पढ़ें – नौशाद – ज़मीन से आसमान तक का सफ़र
हुस्नलाल भगतराम के संगीत में तबला, ढोलक, बाँसुरी, सारंगी, हवाईयन गिटार, वॉयलिन और हारमोनियम यही उनके मुख्य साज़ थे। मगर उनकी कम्पोज़िशंज़ में एक तरह की सहजता होती थी और एक ख़ास अंदाज़ जिसमें वॉयलिन के सुरों के उतार चढ़ाव, और अचानक एक ठहराव आता था। उन्होंने फ़िल्मों में उस रिदमिक म्यूजिक की शुरुआत की, जिसे सुनकर किसी के भी क़दम थिरकने लगते हैं उन्हीं के नक़्शेक़दम पर ओ पी नैयर जैसे संगीतकार चले।
बदलते दौर के साथ बदला वक़्त
हुस्नलाल भगतराम ने हिंदी के अलावा कई पंजाबी फिल्मों (शाह जी -54, मैं जट्टी पंजाब दी- 64, सपनी -65) में भी म्यूज़िक दिया। उनका म्यूजिक कैची होता था मगर एक ही तरह यानी पंजाबी स्टाइल का संगीत ही उनकी ख़ासियत बन गया था, इसी वजह से बाद में वो रेपेटेटिव लगने लगा था। धीरे-धीरे उन्हें मिलने वाली फ़िल्में कम होने लगीं, “शमाँ-परवाना(54)”, “अदल-ए-जहाँगीर(55)” उनकी उनकी अंतिम उल्लेखनीय फिल्में थीं।
“शमाँ-परवाना” का म्यूज़िक अरेबियन स्टाइल का था जो उनके स्टाइल से एकदम अलग था और उसे काफ़ी पसंद भी किया गया। मगर तब तक संगीत का अंदाज़ बदलने लगा था नए-नए म्यूज़िक डायरेक्टर्स आने लगे थे। इसके बाद उन्हें बी और सी ग्रेड की फ़िल्में ही ऑफर हुई। “कंचन”, “आन बान”, “मि० चक्रम”, “जन्नत”, “अप्सरा” जैसी कई फिल्मों में हुस्नलाल भगतराम का संगीत सुनाई दिया पर वो धूम नहीं मचा सका। उनकी आख़िरी फ़िल्म थी 1966 में आई “शेर अफ़ग़ान” जिसमें उन्होंने वक़्त की माँग को देखते हुए अपने अंदाज़ में बदलाव भी किया पर उनकी ये कोशिश कामयाब नहीं हुई।
इन्हें भी पढ़ें – विनोद 1-Song-Wonder नहीं थे
बदलते हालात को देखकर हुस्नलाल ने फिल्म जगत छोड़ दिया और अपने ससुर की मदद से दिल्ली के पहाड़ गंज में आकर रहने लगे, जहाँ वो संगीत की शिक्षा दिया करते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो और दूसरे संगीत समारोहों में बतौर वॉयलिनिस्ट परफॉर्म भी करते थे। उनकी योजना थी शास्त्रीय संगीत में कुछ नए प्रयोग करने की पर 28 दिसम्बर 1968 को उनका निधन हो गया। उनके बेटे दिनेश कुमार प्रभाकर भी वॉयलिनिस्ट हैं और US में रहते हैं, और संगीत सिखाते हैं।
भगतराम ने फ़िल्मनगरी नहीं छोड़ी पर एक वक़्त आया जब उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई कि गुज़र बसर के लिए उन्हें लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और दूसरे संगीतकारों के ऑर्केस्ट्रा में काम करने को मजबूर होना पड़ा। 28 नवंबर 1973 में भगतराम भी इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। उन के बेटे अशोक दूरदर्शन में सितारवादक हैं और मुंबई में अपने परिवार के साथ रहते हैं। एक समय में सुपरहिट संगीत देने वाले दोनों भाई अपने आख़िरी दिनों में गुमनाम रहे पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पहली सफल संगीतकार जोड़ी के रूप में वो हमेशा अमर रहेंगे।
[…] […]
[…] […]