हंसराज बहल उन संगीतकारों में से थे जिन्होंने 50s में काफ़ी शोहरत मगर उनकी लोकप्रियता बुलंदी के उस शिखर को नहीं छू सकी कि आज की पीढ़ी भी उनके नाम से वाक़िफ़ हो पाती। हाँलाकि उनके मधुर गीतों की लिस्ट काफी लम्बी है पर एक गाना तो ऐसा है जिसे 15 अगस्त 26 जनवरी पर स्कूल के बच्चे भी दोहराते हैं पर शायद ही कोई जानता होगा कि उस गीत को किसने कंपोज़ किया। वो है सिकंदर-ए-आज़म फिल्म का आइकोनिक सांग “जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा वो भारत देश है मेरा”
हंसराज बहल के पिता ज़मींदार थे जिनका संगीत से कोई वास्ता नहीं था
इस अमर गीत की धुन बनाने वाले हंसराज बहल का जन्म 19 नवंबर 1916 को अम्बाला में हुआ। उनके पिता निहालचंद जमींदार थे और पूरे ख़ानदान में कहीं कोई संगीत का बैकग्राउंड नहीं था। मगर हंसराज बहल में संगीत की एक समझ बचपन से ही थी। वो कम उम्र से ही धुनें बनाने लगे थे, कहते हैं कि शेखुपुरा की रामलीला में वो बैकग्राउंड म्यूज़िक दिया करते थे। फिर उन्होंने बाक़ायदा संगीत की शिक्षा ली और अपना संगीत विद्यालय खोल लिया। उसी दौर में वो स्टेज प्रोग्राम भी किया करते थे और उनके कुछ गानों का HMV ने रिकॉर्ड भी निकाला था, पर ये फ़िल्मों में आने से पहले की बात है।
1944 में हंसराज बहल फ़िल्मों में क़िस्मत आज़माने के लिए मुंबई चले आए, साथ में उनके छोटे भाई गुलशन बहल भी आए। थोड़ी-बहुत कोशिश के बाद उन्हें प्रकाश पिक्चर्स में पंडित गोविंदराम के सहायक के तौर पर काम मिल गया। उनके एक अंकल थे चुन्नीलाल बहल उन्होंने हंसराज बहल की मुलाक़ात पृथ्वीराज कपूर से कराई। और पृथ्वीराज कपूर की सिफ़ारिश पर उन्हें अर्देशिर ईरानी की फ़िल्म ‘पुजारी (46)’ में स्वतंत्र रूप से संगीत देने का मौक़ा मिल गया। ‘पुजारी’ फ़िल्म में मधुबाला ने बेबी मुमताज़ के नाम से एक गाना गाया था – भगवान मेरे ज्ञान के दीपक को जला दे
रणजीत मूवीटोन से जुड़ने के बाद हंसराज बहल ने कामयाबी पाई
1946 में आई ‘ग्वालन’ अपने गानों के लिए ही जानी जाती है इसमें जयपुर घराने की मशहूर क्लासिकल सिंगर सुशीला रानी ने उनके लिए गीत गाए थे, जिन्होंने बाद में बाबूराव पटेल से शादी की। 1947 में हंसराज बहल ने रणजीत मूवीटोन के साथ चार फ़िल्मों का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया और यहीं से उन्होंने कामयाबी की तरफ़ पहला क़दम बढ़ाया। वो चार फ़िल्में थीं ‘छीन ले आज़ादी’, ‘फुलवारी’, ‘लाखों में एक’ जिसमें उन्होंने बुलो सी रानी के साथ मिलकर संगीत दिया था और ‘दुनिया एक सराय’। उस वक़्त “छीन ले आज़ादी” का गाना ‘मोती चुगने गई रे हंसी’ बहुत ही मशहूर हुआ था।
आशा भोसले को पहली बार प्लेबैक का मौक़ा दिया
1948 में आई फ़िल्म “चुनरिया” से हंसराज बहल का नाम उच्च श्रेणी के संगीतकारों में लिया जाने लगा था। इस फ़िल्म के गानों ने बहुत लोकप्रियता पाई। ‘चुनरिया’ ही वो फिल्म थी जिसमें आशा भोसले ने पहली बार किसी हिंदी फ़िल्म के लिए गाना गाया था। उन्होंने गीता रॉय और ज़ोहराबाई अम्बालेवाली के साथ प्लेबैक दिया था। और उन्हें सोलो सांग गाने का मौक़ा भी हंसराज बहल ने ही दिया, वो फिल्म थी 1949 में आई “रात की रानी” और गाना था “है मौज में अपने बेगाने दो चार इधर दो चार उधर”
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रात की रानी वो फ़िल्म थी जिस से मशहूर अभिनेता जगदीश सेठी निर्माता निर्देशक बने। इस फिल्म में मोहम्मद रफ़ी की गाई ग़ज़ल “जिन रातों में नींद उड़ जाती है क्या क़हर की रातें होती हैं” बहुत मशहूर हुई। बी आर चोपड़ा ने जब बतौर निर्माता अपनी पहली फ़िल्म “करवट” बनाई तो उसमें भी हंसराज बहल ने संगीत दिया और उस फ़िल्म के गाने भी हिट हुए। 1949 में ही आई फ़िल्म “चकोरी” इसमें लता मंगेशकर के गाया एक गाना “हाय चंदा गए चकोरी यहाँ रो रो मरे” बहुत पॉपुलर हुआ। इसे हंसराज बहल के संगीतबद्ध किए गीतों के सागर का एक अनमोल नगीना कहा जाता है।
“चकोरी” और “रात की रानी” की कामयाबी ने हंसराज बहल को पूरी तरह स्थापित कर दिया। और फिर अगले दो सालों में उनके कंपोज़ किये कई गाने हिट रहे। ज़ेवरात(49), गुलनार(50), ख़ामोश सिपाही(50), खिलाड़ी(50), शान(50), कश्मीर(51), नख़रे(51) मोतीमहल(52), रेशम(52), जैसी फ़िल्मों के गाने उस वक़्त बहुत मशहूर हुए। शुरुआती दौर में मुकेश हंसराज बहल के पसंदीदा गायक रहे उनके अलावा लता मंगेशकर, गीता रॉय, मोहम्मद रफ़ी से भी उन्होंने गीत गवाए।
हिंदी फ़िल्मों को वर्मा मलिक जैसा गीतकार दिया
“राजपूत”, “अपनी इज़्ज़त” और “जग्गू” जैसी फ़िल्मों में उन्होंने एक नई गायिका को पेश किया जिनका नाम था मधुबाला ज़वेरी। उन्हें आगे बढ़ाने और अलग पहचान दिलाने में हंसराज बहल का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। गीतकार वर्मा मलिक को भी हंसराज बहल ने ही जग्गू फिल्म से मौक़ा दिया था। दोनों गहरे दोस्त थे और कहते हैं कि हंसराज बहल के कहने पर वर्मा मलिक मुंबई आये थे। अपने शुरूआती दिनों में वो हंसराज बहल के घर पर ही ठहरे थे। इस तरह फ़िल्म इंडस्ट्री को एक अच्छा गीतकार भी उनकी बदौलत मिला।
50s में यूँ तो हंसराज बहल के कई मशहूर गाने आए पर उनका सबसे लोकप्रिय और यादगार संगीत जिस फ़िल्म का रहा वो थी – चंगेज़ ख़ान (57) इसका ये गाना आज भी लोग नहीं भूले हैं “मोहब्बत ज़िंदा रहती है मोहब्बत मर नहीं सकती” इस फ़िल्म का म्यूज़िक उनकी अब तक की बाक़ी फ़िल्मों के संगीत से एकदम अलग हटकर था। इसके बाद आई मिस बॉम्बे(57), मिलन(58) – हाय जिया रोए पिया नहीं आए ) मिस गुड नाईट (60), और मुड़-मुड़ के न देख(60) के गाने भी मशहूर हुए। लेकिन हंसराज बहल कभी भी मेनस्ट्रीम सिनेमा में अपने क़दम नहीं जमा सके।
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इसकी वजह यही थी कि बड़े बैनर्स और फिल्म मेकर्स उनसे दूर ही रहे। आज भी न जाने कितनी प्रतिभाएं इस एक वजह से गुमनामी के अंधेरों में खो कर रह जाती हैं कि उन्हें किसी बड़े नाम ने प्रोमोट नहीं किया। उन्हीं में से एक थे हंसराज बहल।हंसराज बहल पंजाब से थे उनकी धुनों में पंजाबी शैली का गहरा असर होना एक स्वाभाविक बात थी उनके उस दौर के गाने सुने तो पंजाब के लोकसंगीत की झलक के बावजूद वो ज़्यादातर शास्त्रीय धुनों पर आधारित होते थे। फिर भी उसमें वो मधुरता कोमलता और ईस होती थी कि सुनने वाला गुनगुनाये बगैर नहीं रह पाता था।
हंसराज बहल फिल्म निर्माता बनकर घाटे में ही रहे
50 के दशक तक उनकी धुनों में ऑर्केस्ट्रा का प्रभाव कम होता था पर 50s के बाद के दौर के हंसराज बहल के गानों में ऑर्केस्ट्रा का प्रभाव बढ़ने लगा। उन्होंनेअपने भाई के साथ मिलकर एक फ़िल्म निर्माण कंपनी खोली थी N C फ़िल्म्स। इस बैनर तले उन्होंने लाल परी(54), दरबार (55), मस्त कलंदर(55), सावन (59) दारा सिंह(64) जैसी कुछ फ़िल्में भी बनाईं जिनमें म्यूज़िक भी उन्हीं का था। लेकिन उनकी सभी फ़िल्में लो बजट या बी ग्रेड की रहीं जिनका फिल्म इतिहास में बहुत बड़ा नाम नहीं है।
इन फ़िल्मों से हंसराज बहल को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ बल्कि निर्माता बनने के चक्कर में म्यूज़िक की अनदेखी हुई जिसका असर उनके करियर पर भी पड़ा। हाँलाकि सावन जैसी कुछ फ़िल्मों के गाने काफी लोकप्रिय हुए। 60s में गुल-ए-बकावली, एक दिन का बादशाह(64), रुस्तम-ए-हिन्द(65), सुनहरा जाल(66) जैसी बी ग्रेड स्टंट और फैंटसी फिल्में ही उनके हिस्से में आईं मगर एक फ़िल्म ऐसी रही जिसकी वजह से हंसराज बहल को एक सुनहरा मौक़ा मिला और उन्होंने उस मौके का सही इस्तेमाल किया और वो गीत दिया जिसकी बात मैंने शुरुआत में की थी।
“सिकंदर-ए-आज़म” हंसराज बहल की आख़िरी चर्चित फ़िल्म थी इसके बाद आई फ़िल्मों का कोई ख़ास रोल उनके करियर में नहीं रहा हाँलाकि जब तक सेहत साथ देती रही वो तब तक संगीत देते रहे। उन्हें कैंसर हुआ था और इसी बीमारी की वजह से 20 मई 1984 में वो इस दुनिया से रुख़सत हो गए।
हंसराज बहल एक प्रतिभाशाली संगीतकार थे जिनकी प्रतिभा का लोहा सब मानते थे उनके अलावा सिर्फ़ ग़ुलाम हैदर एक ऐसे संगीतकार थे जिन्हें सब मास्टरजी कहकर पुकारते थे। उन्हें अपने साथी कलाकारों गायक-गायिकाओं से सम्मान तो बहुत मिला मगर वो मौक़े नहीं मिले जिनके वो हक़दार थे। हंसराज बहल जैसे कई ऐसे संगीतकार हुए जिनका नाम और काम गुमनामी के अंधेरों में खो गया उनकी रचनाएँ तो अमर हैं मगर उन रचनाओं के पीछे किस फ़नकार का हाथ है उससे लोग अनजान हैं।