A K हंगल हिंदी सिनेमा के उन कलाकारों में से थे जिन्होंने अपना आख़िरी वक़्त ग़ुरबत और गुमनामी में बिताया। हाँलाकि वो दूसरे कई कलाकारों से बेहतर रहे क्योंकि जैसे ही उनके हालात के बारे में इंडस्ट्री के लोगों को पता चला तो कई हाथ मदद के लिए आगे बढे। इस इंडस्ट्री ने उन्हें पहचान और इज़्ज़त दी मगर एक वक़्त वो भी आया था जब इसी इंडस्ट्री ने उनका बायकॉट भी कर दिया था।
A K हंगल अभिनय जीते थे
A K हंगल का पूरा नाम था अवतार किशन हंगल, उनका नाम आते ही आज भी “शोले” के रहीम चाचा याद आते हैं। उन्हें आपने हमेशा एक बुज़ुर्ग व्यक्ति के रोल में ही देखा होगा क्योंकि उन्होंने उम्र के पाँचवें पायदान पर सिनेमा की चमचमाती दुनिया में क़दम रखा और हर तरह के छोटे-बड़े किरदार को अपने अभिनय से ज़िंदा किया। 70-80 के दशक में हर दूसरी-तीसरी फ़िल्म में वो नज़र आ जाते थे, कभी स्कूल मास्टर या प्रोफ़ेसर बन कर, कभी घर के मुखिया या नौकर रामू काका के रूप में, कभी पिता, ससुर, डॉक्टर, वक़ील तो कभी, यूनियन लीडर और बिज़नेस मैन बनकर।
आमतौर पर A K हंगल ने पॉजिटिव किरदार ही निभाए मगर कुछेक फ़िल्मों में उन्होंने धोखेबाज़ और ऐयाश व्यक्ति के नेगेटिव रोल्स भी उतने ही कन्विक्शन से निभाए कि सच में लोग उन्हें वैसा ही समझ बैठते थे। 1982 में एक फिल्म आई थी “शौक़ीन” (जिस का रीमेक 2014 में बना था “The Shaukeens” के नाम से)।
1982 की फ़िल्म “शौक़ीन” के रिलीज़ होने के बाद की बात है, वो एक ऑफिशल डिनर पे गए थे, वहाँ से एक लड़की को उन्हें ड्राप करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, मगर उस लड़की ने “शौक़ीन” फ़िल्म देखी थी और उसे लगा कि A K हंगल असल ज़िंदगी में भी उसी क़िस्म के ऐयाश व्यक्ति हैं, इसलिए वो उनके साथ जाने में हिचकिचा रही थी। आख़िरकार उसकी जगह एक लड़के को भेजा गया, ये था उनकी एक्टिंग का रियलिस्म।
पकिस्तान की जेल से रिहा होकर मुंबई आये और दर्ज़ी का काम किया
सियालकोट में जन्में A K हंगल को अपनी जन्म तिथि का कोई आईडिया नहीं था। उनकी परवरिश पेशावर में हुई जहाँ उनके पिता हरि किशन हंगल ब्रिटिश सरकार में नौकरी करते थे। मगर A K हंगल ब्रिटिश सरकार के विरोधी थे और उन पर स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान का बहुत असर था। तभी वो आज़ादी के आंदोलन से जुड़ गए और फिर ट्रेड यूनियन से। पिता के रिटायर होने के बाद वो परिवार के साथ पेशावर से कराची आ गए। बचपन से ही उन्हें नाटकों का शौक़ था, 16 साल की उम्र से वो कराची रेडियो पर नाटकों में भाग लिया करते थे। फिर वो थिएटर करने लगे, साथ ही साथ वो ट्रेड यूनियन से जुड़ गए।
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जब देश आज़ाद हुआ तो भी A K हंगल कराची में ही रहे जो उस वक़्त तक पाकिस्तान में शामिल हो चुका था मगर उनकी साम्प्रदायिकता विरोधी विचारधारा के चलते उन्हें जेल में डाल दिया गया। क़रीब दो साल पाकिस्तान की जेल में गुज़ारने के बाद उनसे कहा गया कि जो लोग भारत जाना चाहते हैं उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। इस तरह जेब में तीस रुपए लिए वो मुंबई पहुँचे। उन्हें दर्ज़ी का काम आता था तो गुज़र बसर के लिए उन्होंने वही शुरु किया। इसी काम के दौरान उनकी मुलाक़ात इप्टा के कुछ सदस्यों से हुई जो उस वक़्त बिखरती हुई इप्टा को फिर से खड़ा करना चाहते थे और तब A K हंगल इप्टा से जुड़े और फिर कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर भी बने।
A K हंगल ने 50 साल की उम्र में फ़िल्मों में क़दम रखा
थिएटर से A K हंगल का लगाव यहाँ भी बना रहा। उसी दौरान एक दिन बासु भट्टाचार्य ने उन्हें अपनी फ़िल्म “तीसरी क़सम” में काम करने का प्रस्ताव दिया और उन्होंने तुरंत हाँ कह दी। क़रीब 50 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म साइन की। 1966 की “तीसरी क़सम” से उनके अभिनय का सफ़र शुरु हुआ और “शागिर्द” के बाद उन्हें कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखना पड़ा। यहाँ तक कि बीमारी के दौर में जब वो काम नहीं कर पा रहे थे तब भी लोग उनके पास फ़िल्मों के ऑफर लेकर आते थे।
A K हंगल की एक्टिंग में एक सरलता और सहजता थी। वो मानते थे कि अभिनय किया नहीं जाता उसे जिया जाता है शायद इसीलिए उनके किरदार ज़्यादा असल दिखते थे। वो इतने रियल होते थे कि “नमक हराम” में उनके यूनियन लीडर के किरदार से प्रभावित होने पर एक बार एक पुलिसमैन ने उन्हें रोक कर पूछा कि पुलिस की ट्रेड यूनियन कैसे बनाई जा सकती है।
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A K हंगल अपने किरदारों को असलियत के क़रीब ले जाने के लिए बहुत रिसर्च और मेहनत भी करते थे। “शोले” के इमाम साहब के किरदार के लिए उन्होंने हम्द सीखी और अपनी बॉडी लैंग्वेज में वो बदलाव लाए जिससे वो इमाम साहब के किरदार में उतर सके। इसी वजह से इंडस्ट्री के लोग उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। जिन दिनों “शोले” की शूटिंग हो रही थी, उन्हीं दिनों नेपाल में देवानंद की फ़िल्म “इश्क़-इश्क़-इश्क़” की शूटिंग भी चल रही थी। देवानंद ने उनके लिए एक हेलीकाप्टर की व्यवस्था की हुई थी। जैसे ही “शोले” की शूटिंग ख़त्म होती वो हेलीकाप्टर में बैठ कर नेपाल के लिए निकल जाते और वहाँ अपना सीन शूट करते।
जब इंडस्ट्री ने उनका बायकॉट कर दिया था
लेकिन इसी इंडस्ट्री ने उस वक़्त A K हंगल से किनारा कर लिया जब पाकिस्तान कॉन्सलेट द्वारा आयोजित एक समारोह में जाने पर उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी’ कहा गया और क़रीब दो साल तक फ़िल्मकारों ने राजनीतिक दबाव में आकर उनका बहिष्कार किया। हाँलाकि वक़्त के साथ हालात बदल गए मगर इस वाक़ये से वो बहुत आहत हुए। हाँलाकि उसी दौर में थिएटर के लोगों और मीडिया ने उनका काफ़ी सहयोग और समर्थन किया। किसी ने कुछ भी कहा हो या किया हो वो अपने विचारों को व्यक्त करने में कभी नहीं झिझके, कभी किसी के दबाव में नहीं आये।
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करियर की शुरुआत में ही एक बार जब राज कपूर सेट पर देर से पहुंचे तो उन्होंने खुलकर अपनी नाराज़गी जताई, बिना इस बात की चिंता किये कि इसका उनके करियर पर उल्टा असर भी पड़ सकता है। A K हंगल “अवतार”, “अर्जुन”, “तपस्या”, “कोरा काग़ज़”, “शोले”, “बावर्ची”, “चितचोर”, “बालिका वधु”, “नरम-गरम”, “नमक हराम”,”आंधी”, “शौक़ीन”, “आईना”, “मंज़िल”, “प्रेम बंधन”, “हीरा-पन्ना”, “अनुभव”, “अनामिका” जैसी बहुत सी कामयाब फ़िल्मों का फ़िल्मों का छोटा मगर अहम् हिस्सा रहे। उस समय के हर बड़े स्टार के साथ उन्होंने काम किया, राजेश खन्ना के साथ तो उन्होंने 16 फिल्में कीं।
उनके पास दवाई तक के पैसे नहीं होते थे
90 का दशक आते-आते शारीरिक परेशानियों के कारण A K हंगल ने काम करना काफ़ी कम कर दिया था। कुछेक फ़िल्मों और टीवी सीरियल्स में छोटे-छोटे रोल्स करते दिखाई दिए। उनकी आख़िरी बड़ी फ़िल्में थीं – “लगान”, “शरारत(2002)” और “पहेली”। 1999 में उनकी आत्मकथा “Life and time of A K Hangal” प्रकाशित हुई। 2006 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया। 50 सालों के अपने फ़िल्मी सफ़र में क़रीब 200 से ज़्यादा फिल्मों में अभिनय करने वाले A K हंगल ने अपने आख़िरी कुछ साल काफ़ी ग़ुरबत में गुज़ारे, वो बहुत सी शारीरिक परेशानियों से जूझ रहे थे, मगर उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वो अपने मेडिकल बिल्स भर सके।
A K हंगल के बेटे विजय की उम्र भी उस समय क़रीब 75 साल थी और वो बतौर कैमरामैन और फोटोग्राफर रिटायर हुए थे। आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी और वो कोई काम करने भी नहीं जा सकते थे क्योंकि पिता की देखभाल करने वाला उनके सिवा कोई नहीं था। उनकी पत्नी और माँ दोनों की ही मौत हो चुकी थी। 2007 के बाद से दिक्क़तें बढ़ती ही गईं 2011 में जब ये बात मीडिया के ज़रिए बाहर आई तब बहुत से राजनेता, फ़िल्मकार और कलाकार A K हंगल की मदद के लिए सामने आये।
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2011 में फैशन डिज़ाइनर रियाज़ गज़नी के ज़ोर देने पर A K हंगल उनके समर लाइन शो के लिए व्हील चेयर पर रैंप पर आये। कलर्स टीवी के सीरियल “मधुबाला – एक इश्क़ एक जूनूँ” में भी वो दिखे। और “कृष्ण और कंस” (2012) नाम की एनिमेशन फ़िल्म में उन्होंने राजा उग्रसेन की आवाज़ डब की। मौत से कुछ वक़्त पहले बाथरूम में फिसल जाने की वजह से उन्हें फ्रैक्चर हुआ, बाद में हालत और ख़राब हो गई और उन्हें लाइफ सपोर्ट सिस्टम पे रखना पड़ा वहीं 26 अगस्त 2012 में उन्होंने आख़िरी सांस ली। लेकिन उनके निभाए किरदार चाहे वो ‘रहीम चाचा’ हों या ‘भीष्म चंद’ या ‘इन्दरसेन’ उन्हें फिल्म इतिहास में हमेशा ज़िंदा रखेंगे।
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