S मोहिंदर

S मोहिंदर का नाम उन संगीतकारों में शामिल किया जा सकता है जो कभी A ग्रेड फ़िल्मों का हिस्सा नहीं बन पाए, बने भी तो अपनी उस जगह को क़ायम नहीं रख पाए। या तो फ़िल्मकारों ने उनकी क़द्र नहीं की या उन्हें अच्छे अवसर नहीं मिले। लेकिन हिंदी फ़िल्मों के इस संगीतकार ने जब पंजाबी फ़िल्मों का रुख़ किया तो एक मिसाल क़ायम कर दी।

हिंदी फिल्मों में सिख कलाकार और संगीतकार बहुत कम ही हुए हैं उन्हीं में से एक थे S मोहिंदर जिनकी इस साल सौंवी जयंती है। शायद बहुत लोग S मोहिंदर के नाम से परिचित न हों ख़ासकर युवा पीढ़ी लेकिन S मोहिंदर का बनाया एक गीत सालों साल लोगों की ज़बान पर रहा। जिन्हें पुराने गाने पसंद हैं वो आज भी शीरीं फ़रहाद फ़िल्म के गीत “गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा” को भूले नहीं होंगे।

S मोहिंदर ने गुरूद्वारे में शबद गाने से शुरुआत की

S मोहिंदर का पूरा नाम था “बख्शी मोहिंदर सिंह सरना” उनके पूर्वजों को महाराजा रणजीत सिंह के ज़माने में “बख्शी” की उपाधि दी गई थी और “सरना” उनका सरनेम था। फ़िल्मों के लिए “बख्शी मोहिंदर सिंह सरना” काफ़ी लम्बा नाम था इसीलिए इसे छोटा कर दिया गया और फ़िल्मी परदे पर वो S मोहिंदर के नाम से जाने गए। S मोहिंदर का जन्म हुआ 24 फ़रवरी 1925 को पंजाब के मोंटगोमरी के गाँव सिलवाला में। 10 भाई बहनों में दूसरे नंबर के थे S मोहिंदर, उन के पिता पुलिस अधिकारी थे और उनका ट्रांसफर अलग-अलग जगहों पर होता रहता था। इसीलिए S मोहिंदर का बचपन भी अलग अलग गाँव और क़स्बों में बीता।

S मोहिंदर

उनके पिता को बाँसुरी बजाने का बहुत शौक़ था और रोज़ रात को वो बाँसुरी बजाया करते थे, वही सुन सुन कर उनमें भी संगीत के प्रति एक रुझान पैदा हो गया। हाँलाकि स्कूल के दिनों में वो हॉकी भी बहुत अच्छा खेलते थे, पर संगीत एक ऐसी विधा है जो सीधे रूह से जुड़ जाती है, इसीलिए संगीत से नाता कभी नहीं टूटा। जब उनके पिता का ट्रांसफर ननकाना साहब हुआ तो वहाँ के गुरूद्वारे में शबद कीर्तन सुन सुन कर S मोहिंदर ने भी गाना शुरु कर दिया। एक दिन जब वो गा रहे थे तो गुरूद्वारे के रागी भाई समुंद सिंह ने उन्हें सुना और अपना शिष्य बना लिया।

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जब S मोहिंदर के पिता का ट्रांसफर लायलपुर हुआ तो वहाँ उन्होंने क़रीब 2 साल तक संत सुजान सिंह और पंडित श्रुति रतन सिन्हा से संगीत की शिक्षा ली। उनका इतना रुझान देख कर उनके पिता ने उन्हें बनारस भेज दिया जहाँ उन्होंने बड़े रामदास जी से दो बरस तक गायन की शिक्षा ली। इसी दौरान उन्हें लाहौर रेडियो पर भी गाना शुरु कर दिया। 1946 की बात है, अभिनेत्री सुरैया अपनी फ़िल्म “अनमोल घड़ी” की रिलीज़ के बाद लाहौर रेडियो आई थीं। सुरैया ने वहां उनका गाना सुना तो काफ़ी प्रभावित हुईं और उन्हें बम्बई आने का बुलावा दे दिया।

नियति S मोहिंदर को बम्बई ले गई

उस वक़्त पता नहीं उन्होंने बम्बई जाने की बात को गंभीरता से लिया था या नहीं पर क़िस्मत उन्हें बड़े अजीब तरीक़े से बम्बई ले गई। उस समय तक S मोहिंदर के पिता रिटायर हो चुके थे और उन्होंने दिल्ली में दूसरी नौकरी करना शुरू कर दिया था। वो दिल्ली आकर रहने लगे थे लेकिन बाक़ी परिवार लायलपुर में ही रह रहा था। देश के बंटवारे की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। S मोहिंदर रेडियो पर प्रोग्राम देने के लिए लाहौर गए हुए थे और बड़े भाई भाभी को छोड़कर बाक़ी परिवार भी पिता के पास दिल्ली आया हुआ था।

S मोहिंदर

जब S मोहिंदर लाहौर रेडियो पर प्रोग्राम करने के बाद लायलपुर जाने के लिए स्टेशन पहुँचे तो काफी देर होने पर भी ट्रैन आई ही नहीं। पता चला कि लायलपुर की तरफ से जो ट्रेन आई थी उसमें सिर्फ़ लाशें ही लाशें थीं। अफ़रातफ़री का माहौल था ऐसे में स्टेशन पर जो कुली था उस ने S मोहिंदर से कहा कि जान बचानी है तो लायलपुर न जाएँ बल्कि दूसरी तरफ़ जो ट्रैन बंबई जाने वाली है उस में बैठ जाएँ। हालात बहुत ख़राब थे, उनके पास टिकट था लायलपुर जाने वाली ट्रैन का मगर उस माहौल में कुछ समझते न समझते हुए वो बम्बई जाने वाली ट्रैन में बैठ गए।

वो 1947 का मई का महिना था जब S मोहिंदर बम्बई पहुँचे, स्टेशन से बाहर निकल कर उन्होंने किसी से गुरूद्वारे के बारे में पूछा और पूछते हुए दादर के गुरूद्वारे में पहुँच गए। वहां का नियम था कि कोई भी 7 दिन से ज़्यादा वहाँ नहीं ठहर सकता था लेकिन जब रविवार को उन्होंने गुरूद्वारे में शबद पढ़े तो उनके रहने का ठिकाना भी वहीं बन गया। वो हर संडे को कीर्तन करते वहीं सराय में रहते, लंगर में खाते-पीते, इसी तरह तीन-चार हफ़्ते गुज़र गए। इसी बीच उन्होंने काम की तलाश भी शुरु कर दी। सबसे पहले वो सुरैया से मिलने पहुँचे, सुरैया ने उन्हें पूरी तरह भरोसा दिलाया कि उनकी जो भी मदद चाहिए वो करेंगी।

फ़िल्मों में काम पाने में S मोहिंदर को ज़्यादा मुश्किल नहीं आई

S मोहिंदर ने ख़ुद माना है कि काम पाने में ज़्यादा मुश्किल नहीं आई, पर उन्होंने महसूस किया कि फ़िल्म इंडस्ट्री में गायक से ज़्यादा अहमियत संगीतकार की है इसीलिए उन्होंने इसी दिशा में प्रयास किये और उन्हें जल्दी ही एक मौक़ा मिल भी गया। निर्मला देवी और अरुण आहूजा एक फ़िल्म बनाने जा रहे थे तो S मोहिंदर उनके पास पहुँच गए और उनसे कहा कि वो उनकी फ़िल्म में संगीत देना चाहते हैं। अगर आपको ये नाम सुने-सुने लग रहे हैं मगर आप इन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं तो मैं आपको बता दूँ कि ये अभिनेता गोविंदा के माता-पिता हैं।

S मोहिंदर

निर्मला देवी को S मोहिंदर बनारस के दिनों से जानते थे, इसीलिए उनके पास पहुँच कर उनकी फ़िल्म में संगीत देने की गुज़ारिश की। उन लोगों ने S मोहिंदर से उनकी कुछ धुनें सुनी और फिर अरुण प्रोडक्शंस की फ़िल्म ‘सेहरा’ से बतौर संगीतकार उनके फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत हुई। “सेहरा” में S मोहिंदर ने एक गाना भी गाया, जिसके बोल हैं – ऐ दिल उड़ा के ले चल – सेहरा (1948) यह गाना असल में अरुण आहूजा गाने वाले थे। लेकिन जिस दिन रिकॉर्डिंग थी उनकी तबीयत इतनी ख़राब हो गई कि वो रिकॉर्डिंग नहीं कर सकते थे इसीलिए S मोहिंदर ने ख़ुद ये गाना गाया।

1948 में आई फ़िल्म सेहरा के लिए उन्हें 2000 रूपए मिले, फ़िल्म नहीं चली मगर इससे उन्हें आगे बढ़ने के मौक़े ज़रुर मिले। प्रकाश पिक्चर्स के भट्ट भाइयों ने “सेहरा” फ़िल्म देखी तो उन्हें इसका म्यूजिक बहुत पसंद आया। उन्होंने अरुण आहूजा से बात करके S मोहिंदर को मिलने के लिए बुलाया। भट्ट भाई एक फ़िल्म बना रहे थे “शादी की रात” जिसमें पं गोविंदराम संगीत दे रहे थे लेकिन किसी वजह से दोनों में अनबन हो गई और पं गोविंदराम ने वो फ़िल्म बीच में ही छोड़ दी। अब उस फ़िल्म के लिए उन्हें एक संगीतकार की तलाश थी।

S मोहिंदर
Prakash Pictures – Vijay Bhatt

लेकिन जब S मोहिंदर वहाँ पहुँचे तो दूर से उन्हें देखकर भट्ट भाइयों ने उन्हें कारपेंटर समझ  लिया। क्योंकि उन दिनों ज़्यादातर फ़िल्मों के सेट बनाने वाले सिख हुआ करते थे, तो एक सिख को स्टूडियो में देखकर उन्हें यही लगा कि वो कारपेंटर हैं। जब S मोहिंदर ने उन्हें बताया कि उन्हें अरुण आहुजा ने भेजा है तब वो लोग उन्हें म्यूजिक रूम में ले गए और उनसे कुछ धुनें सुनी, फिर उनकी तीन धुनों पर उस फ़िल्म में गाने रिकॉर्ड हुए। हाँलाकि फ़िल्म में बतौर संगीतकार “पं गोविंदराम” का नाम ही गया था लेकिन रिकॉर्ड्स पर S मोहिंदर का नाम देखने को मिलता है।

2 हज़ार रुपए से शुरुआत करने वाले S मोहिंदर ने चौथी ही फ़िल्म में 10 हज़ार रूपए मांगे थे

इसी दौरान S मोहिंदर को 1949 की फ़िल्म “जीवनसाथी” में भी संगीत देने का मौक़ा मिला। इस फ़िल्म में भी उन्होंने प्रेमलता के साथ एक डुएट गाया था, जिसके बोल हैं – “ओ डियर, माय डियर”। ये एक रेयर सांग है और इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है। उधर रणजीत स्टूडियो के मालिक चंदूलाल शाह को फ़िल्म “शादी की रात” के गाने बहुत पसंद आए वो चाहते थे कि S मोहिंदर उनकी फ़िल्म “नीली” का संगीत दें। इसीलिए उन्होंने S मोहिंदर को मिलने के लिए बुलाया। जब S मोहिंदर उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हें पहले कहीं देखा है बात सच ही थी।

S मोहिंदर

जब S मोहिंदर काम की तलाश कर रहे थे तो वो चंदूलाल शाह से भी मिले थे तब चंदूलाल शाह ने उन्हें आर्मी मैन कहकर रिजेक्ट कर दिया था। यही होता है कामयाबी का असर, आख़िर लोग उगते सूरज को सलाम करते हैं। अब चंदूलाल शाह ने उन्हें खुद बुलाया था, उनसे धुनें सुनने के बाद चंदूलाल शाह ने उनसे कहा कि अगर फ़िल्म की हिरोइन सुरैया को धुनें पसंद आईं तभी वो उस फ़िल्म का म्यूज़िक देंगे। S मोहिंदर अगले दिन का इंतज़ार किए बिना सुरैया से मिलने उनके घर चले गए और उन्हें सारी बात बता दी। उन्होंने सुरैया को वो धुनें भी सुनाईं, उन्हें भी ट्यून्स बहुत पसंद आईं।

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सुरैया ने उनसे कहा कि वो कल इत्मिनान से आएं मगर चंदूलाल शाह के सामने ये ज़ाहिर नहीं होना चाहिए कि वो दोनों एक दूसरे को जानते हैं, या मिल चुके हैं। फिर वैसा ही हुआ और “नीली” में संगीत देने की ज़िम्मेदारी S मोहिंदर को मिल गई। 1950 में आई फ़िल्म “नीली” के लिए उन्होंने 10,000 रुपए माँगे थे, एक नए संगीतकार के लिए उस ज़माने में ये फ़ीस बहुत ज़्यादा थी। चंदूलाल शाह ने उन्हें 7000 रुपए दिए और उनके असिस्टेंट को 3000। “नीली” ही वो फ़िल्म थी जिस से उनका नाम “बख्शी मोहिंदर सिंह सरना” से “S मोहिंदर” हो गया।

S मोहिंदर ने अनारकली में संगीत देने का अवसर खो दिया

1952 में S मोहिंदर ने फ़िल्मिस्तान ज्वाइन किया। फ़िल्मिस्तान की फ़िल्म “श्रीमतीजी” में एक गीत (दो नैना तुम्हारे प्यारे प्यारे गगन के तारे) की धुन उन्होंने बनाई थी। लेकिन फ़िल्मिस्तान में जैसे उनकी एंट्री हुई थी वैसे ही वो फिल्मिस्तान से बाहर भी हो गए। वो वाक़्या भी बड़ा अनोखा रहा। शशधर मुखर्जी फ़िल्म “अनारकली” बना रहे थे उसमें S मोहिंदर को संगीत देना था। लेकिन पहली ही धुन सुनकर शशधर मुखर्जी ने कहा “क्या बकवास धुन है कुछ और बना कर लाओ”, ये सुनकर S मोहिंदर उलटे पाँव वापस लौट आए।

S मोहिंदर

उन्हीं दिनों चंदूलाल शाह फ़िल्म “पापी” बना रहे थे उस के लिए भी संगीत S मोहिंदर ही दे रहे थे। S मोहिंदर ने शशधर मुखर्जी की रिजेक्ट की हुई धुन चंदूलाल शाह को सुनाई, जो उन्हें और फ़िल्म के हीरो राज कपूर को बहुत पसंद आई। उन्होंने उस पर गीत लिखवाकर गाना रिकॉर्ड भी करा लिया जिसके बोल थे – जज़्बा-ए-मोहब्बत इतना असर दिखा दे। उधर कुछ दिनों के बाद शशधर मुखर्जी ने S मोहिंदर को बुलाकर उसी धुन पर गाना रिकॉर्ड करने को कहा। मगर वो धुन तो अब उनके पास थी ही नहीं।

सारी बात सुनकर शशधर मुखर्जी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने कहा कि या तो उसी धुन पर गाना रिकॉर्ड करके लाओ वर्ना फिर कभी यहाँ मत आना। इस तरह फ़िल्मिस्तान से उनका नाता टूट गया। लेकिन जब शशधर मुखर्जी फ़िल्मिस्तान से अलग हो गए तब स्टूडियो के मालिक तोलाराम जालान ने उन्हें फिर से बुलाया और उस दौर में S मोहिंदर ने फ़िल्मिस्तान की “सुन तो ले हसीना”, “ख़ूबसूरत धोखा” और “पिकनिक” जैसी फ़िल्मों का संगीत दिया।

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चंदूलाल शाह के रणजीत मूवीटोन के लिए भी S मोहिंदर ने “पापी” के अलावा “बहादुर” और 1960 में आई “ज़मीन के तारे” में भी संगीत दिया। लेकिन उनके करियर की सफलतम फ़िल्म की बात की जाए तो वो थी “शीरीं फ़रहाद” जिसका गीत “गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा” आज तक सुनने वालों के दिल में समाया है। “शीरीं फ़रहाद” फ़िल्म में मधुबाला हीरोइन थीं, उनसे S मोहिंदर की बहुत अच्छी दोस्ती थी। मधुबाला ने “नाता” और “महलों के ख़्वाब” जैसी कुछ फ़िल्मों का निर्माण किया था। उन सभी में संगीत S मोहिंदर ने ही दिया था। मधुबाला की कम उम्र में हुई मौत का उन पर गहरा असर पड़ा।

पंजाबी फ़िल्मों में S मोहिंदर ने अपना सर्वश्रेष्ठ संगीत दिया

S मोहिंदर ने “अलादीन का बेटा”, “नाता”, “सौ का नोट”, “कारवाँ”, “सुल्तान-ए-आलम”, “पाताल परी”, “नया पैसा”, “भगवान और शैतान”, “महलों के ख़्वाब”, “एक लड़की सात लड़के”, “रिपोर्टर राजू”, “कैप्टन शेरू”, “बेख़बर”, “पिकनिक”, “प्रोफ़ेसर एक्स”, और “सुनहरे क़दम” जैसी क़रीब 30 हिंदी? फ़िल्मों में संगीत दिया। लेकिन ये सभी फ़िल्में बी ग्रेड की रहीं, बहुत अच्छी opportunities उन्हें नहीं मिल रही थीं। ऐसे में उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों का रुख़ किया।

1962 में आई “परदेसी ढोला” उनकी पहली पंजाबी फ़िल्म थी। ये फ़िल्म कामयाब रही इसके बाद उन्होंने “गीत बहारां दे”, “चम्बे दी कली”, “मन जीते जग जीते”, “तेरी मेरी एक जिंदड़ी”, “दुखभंजन तेरो नाम”, “मौला जट्ट” जैसी लगभग 20 पंजाबी फ़िल्मों में उन्होंने संगीत दिया। लेकिन उनकी सबसे मशहूर पंजाबी फ़िल्म है “नानक नाम जहाज़ है” जिसके लिए उन्हें 1969 का नेशनल अवॉर्ड भी दिया गया।

S मोहिंदर

“नानक नाम जहाज़ है” फिल्म की कहानी के कुछ दृश्यों को स्वर्ण मंदिर में फिल्माया जाना था, भक्ति के माहौल को और ज़्यादा असरदार बनाने के लिए S मोहिंदर ने भाई समुंद सिंह से शबद गाने का अनुरोध किया। वही भाई समुंद सिंह जिनसे S मोहिंदर ने शास्त्रीय संगीत का पहला सबक़ सीखा था जो उनके गुरु थे। बड़ी मुश्किल से वो फ़िल्म में गाने के लिए तैयार हुए लेकिन उनकी रूहानी गायकी ने उस फ़िल्म के गीत-संगीत को बहुत जानदार बना दिया।

“नानक नाम जहाज है” की अपार सफलता ने सिख धर्म की कहानियों पर आधारित अच्छी फिल्में बनाने के युग की शुरुआत की। एस मोहिंदर ने इनमें से ज़्यादातर फिल्मों के लिए सबसे यादगार संगीत तैयार किया। उन्होंने दो पंजाबी और एक हिंदी फ़िल्म का निर्माण भी किया। पंजाबी फ़िल्म ‘मन जीते जग जीते’, और ‘दुखभंजन तेरो नाम’, के अलावा 1977 में आई हिंदी फ़िल्म “चरणदास” का निर्माण भी उन्होंने अपने मौसेरे भाई कँवर महेंद्र सिंह बेदी के साथ भागीदारी में ‘बख्शी-बेदी प्रोडक्शंस’ के बेनर तले किया।

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S मोहिंदर के संगीत की मूल शैली पंजाबी स्टाइल की थी, लेकिन उसमें उत्तर प्रदेश की शास्त्रीय परंपरा और फ़िल्मी संगीत का मिला जुला रुप दिखता है। वो उन संगीतकारों में से थे जो गीत के बोलों को सुरों में ढालते थे। उनका मानना था कि धुन देने से गीतकार की क़लम बँध जाती है इसलिए वो सिचुएशन बताकर पहले गीत लिखवाते थे फिर उनकी धुन बनाते थे। सत्तर के दशक में एस मोहिंदर ने कुछ निजी एल्बम के लिए भी संगीत तैयार किया, जिनमें से कुछ पंजाबी भक्ति संगीत और कुछ पंजाबी लोक संगीत पर आधारित थीं।

S मोहिंदर एक समय में म्यूज़िक डायरेक्टर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी थे और एक ऐसे फ़नकार थे जिन्होंने दूसरों में छुपे फ़नकार को पहचाना और उन्हें मौक़े दिए। ट्रैन में गा-बजाकर भीख माँगने वाले कई लोगों को उन्होंने कोरस में गाने का मौक़ा दिया, इंट्रूमेंट्स बजाने का मौक़ा दिया, ताकि वो ख़ुद कमा-खाकर सम्मानजनक जीवन बिताएँ, इस तरह उन्होंने कई लोगों का जीवन सँवारा।

S मोहिंदर

S मोहिंदर की शादी 1953 में दविंदर सरना नाम की महिला से हुई, उनके चार बच्चे हुए। S मोहिंदर के सभी भाई बहन अमेरिका में ही रहते थे, वो सब चाहते थे कि S मोहिंदर भी वहीं अपने ख़ानदान के साथ आकर रहें और आख़िरकार अक्टूबर 1982 में S मोहिंदर भी भारत छोड़कर अमेरिका चले गए, लेकिन वहाँ भी उन्होंने संगीत का साथ नहीं छोड़ा। अमेरिका में रहते हुए S मोहिंदर म्यूज़िक कॉन्सर्ट तो करते ही रहे, साथ ही उन्होंने वहाँ एक म्यूज़िक स्कूल की नींव भी रखी।

उन्होंने रोशन पुखराज की ग़ज़लों, सुरिंदर कौर के गाये पंजाबी लोक गीतों और आशा भोसले के गाये शबद के एलबम्स का संगीत तैयार किया। आशा भोसले ने उनके साथ क़रीब 70 गाने गाये हैं, इनमें हिंदी के अलावा पंजाबी फ़िल्मों के गीत भी शामिल हैं। 6 सितम्बर 2020 को एक भरपूर जीवन जीने के बाद S मोहिंदर ने अपनी ज़िंदगी को अलविदा कहा। और उस दुनिया में चले गए जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता। उनके जैसे फ़नकार शायद आज गुमनाम हों पर जो संगीत वो रच गए उसके ज़रिए वो और उनका वो गुज़रा हुआ ज़माना हमेशा वापस आता रहेगा।