जीवन

जीवन ने कुटिल खलनायक के बहुत से यादगार रोल किये मगर उनकी नारद मुनि की छवि सबसे ऊपर है

जीवन की नारद लीला

ज़्यादातर लोगों के सपने पूरे नहीं होते क्योंकि क़िस्मत ने उनके लिए कोई दूसरा सपना पहले से चुन के रखा होता है। और जीवन के मामले में तो यूँ लगता है कि अच्छा है उनका अपना सपना पूरा नहीं हुआ, वर्ना कौन बनाता 61 फ़िल्मों में एक ही किरदार निभाने का रिकॉर्ड ? भले ही जगदीश राज की तरह उनका बनाया रिकॉर्ड कहीं दर्ज न हुआ हो मगर जीवन ने एक अमर पौराणिक किरदार को बार-बार परदे पर जिया तो है और सिर्फ़ जिया ही नहीं बल्कि इस तरह वो किरदार लोगों के ज़हन में बिठा दिया है कि “नारायण नारायण” के बिना हम आज भी नारद मुनि की कल्पना नहीं कर पाते।

उस समय के एक मराठी अख़बार “लोकसत्ता” ने तो यहाँ तक छाप दिया था कि अगर आकाश से असली नारद मुनि धरती पर आ आकर जीवन की तरह “नारायण-नारायण” न बोले तो लोग उन्हें नारद मुनि मानेंगे ही नहीं। वाक़ई जीवन के निभाए नारद मुनि ही यादों में बसे हैं, जो कभी किसी को भड़का देते थे कभी किसी को, और नारायण नारायण कहते हुए सारे काम भी बना देते थे। नारद मुनि के रूप में उनकी सबसे मशहूर फ़िल्म थी,  1950 में आई सुपरहिट फ़िल्म “हर हर महादेव” जिसमें त्रिलोक कपूर और निरूपा रॉय ने अभिनय किया था।

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जीवन ने पहली बार नारद मुनि की भूमिका निभाई 1947 में आई फ़िल्म “भक्त ध्रुव” में जिसमें शशि कपूर ने भक्त ध्रुव का किरदार निभाया था। 1979 में आई गोपाल कृष्ण वो फिल्म थी जिसमें उन्होंने आख़िरी बार नारद मुनि का रोल किया। उन्होंने इस पौराणिक चरित्र की गरिमा को भी बनाए रखा, जब वो ये किरदार निभाते थे तो उतने वक़्त तक माँसाहारी भोजन का त्याग कर देते थे। जब कोई अपने काम में इमोशंस भी शामिल कर लेता है न तो वो काम पूजा बन जाता है, शायद इसीलिए जीवन नारद मुनि के किरदार में अमर हो गए।

एक फ़ोटोग्राफर कैसे बन गया खलनायक

जीवन कश्मीर के रहने वाले थे, उन का जन्म 24 अक्टूबर 1915 को श्रीनगर में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। महाराज अमर सिंह के राज में उनके पिता वज़ीर-ए-वज़ारत के ओहदे पर काम करते थे जो कलक्टर के बराबर हुआ करता था। जीवन कॉलेज में पढाई कर रहे थे, फोटोग्राफी का शौक़ था और सोचा यही था कि ग्रेजुएशन के बाद कश्मीर में एक फ़ोटो स्टूडियो खोल लेंगे। मगर इंसान की सोच से कहीं बड़ी होती है यूनिवर्स की सोच इसीलिए रास्ते बनते चले गए। जीवन के बड़े भाई बम्बई में रहते थे, जब जीवन के कॉलेज की छुटियाँ हुईं तो उन्होंने सोचा बम्बई जाकर कुछ फ़ोटोग्राफिक ट्रिक्स सीख ली जाएँ, जब स्टूडियो खोलेंगे तो काम आएँगी।

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उनके भाई ने अपने दोस्त डी एन मधोक से कहकर एक फ़िल्म कंपनी के कैमरा डिपार्टमेंट में उन्हें काम दिला दिया। डी एन मधोक अपने समय के सबसे व्यस्त गीतकारों में से थे जिनकी बहुत अच्छी रेपुटेशन थी। जब जीवन फ़िल्म कंपनी के कैमरा डिपार्टमेंट में पहुंचे तो हैरत से उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं। कहाँ कश्मीर में एक छोटे से फ़िल्म स्टूडियो का सपना और कहाँ इतना बड़ा कैमरा डिपार्टमेंट जहाँ कितने ही लोग काम करते थे, पूरा माहौल ही एकदम अलग था। क़रीब डेढ़ महीना उन्होंने वहाँ बिताया मगर कैमरा को हाथ भी नहीं लगा पाए। आख़िरकार एक दिन उन्हें एक काम दिया गया रेफ्लेक्टर्स बनाने का।

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दो प्लाईवुड के टुकड़े, जिनपर सिल्वर पेपर लगाकर उन्हें छाया में सुखाना था। वो फ़िल्म कंपनी के कंपाउंड में आये और सिल्वर पेपर लगाकर वहीं खुले में धुप में उन्हें सूखने के लिए रख दिया। कुछ दूरी पर कुछ लोग इकट्ठा थे तो वो भी टाइम पास करने के लिए उसी तरफ़ चल पड़े। वहाँ जाकर देखा कि किसी फ़िल्म की रिहर्सल हो रही थी, सभी कलाकार नए थे यंग। वो भी खड़े हो गए रिहर्सल देखने के लिए। तभी डायरेक्टर साब को पता चला कि एक लड़का आया ही नहीं है, उसके बिना रिहर्सल कैसे हो, और उनकी खोजती नज़र पड़ी पास खड़े जीवन पर पड़ी, जो उस समय युवक ही थे।

उन्होंने कहा – बरखुरदार आप ही कुछ बोल दीजिए। इस पर जीवन थोड़ा सकपका गए। उन्होंने कॉलेज में थोड़ा बहुत थिएटर किया था मगर फिल्म में अभिनय करने का कोई इरादा नहीं था और अचानक कोई ऐसे पूछे तो इंसान तैयार भी नहीं होता। उन्होंने कहा मैं तो टेक्नीकल साइड से हूँ, फोटोग्राफी डिपार्टमेंट में फोटोग्राफी सीख रहा हूँ, मुझे एक्टिंग नहीं आती। मगर डायरेक्टर साहब को शायद उन में कोई बात दिख गई थी सो वो ज़िद पर अड़ गए। आख़िर जीवन ने कॉलेज के एक ड्रामा में दुर्योधन के बोले हुए कुछ संवाद दोहरा दिए और फिर आग़ा हश्र कश्मीरी का लिखा एक शेर बहुत ही इंटेंसिटी के साथ पढ़ दिया।

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जिस वक़्त वो शेर पढ़ रहे थे उसी समय दूर पड़े सिल्वर पेपर पर सूरज की तेज़ किरणे पड़ीं और उनका रिफ्लेक्शन जीवन की आँखों में पड़ा जिससे उनकी आँखें न सिर्फ़ चुँधिया गईं बल्कि उनसे आँसू भी निकल पड़े। सबने समझा कि ये उनकी एक्टिंग की इंटेंसिटी है। कुछ पलों के सन्नाटे के बाद सबने उन की एक्टिंग की तारीफ़ की और डायरेक्टर साहब ने उन्हें गले लगाते हुए कहा – तुम तो बॉर्न एक्टर हो, फ़िल्मों में एक्टिंग करो, मैं तुम्हारी लाइफ बना दुँगा। और इस तरह जीवन 1936 में रिलीज़ हुई फैशनेबल इंडिया फ़िल्म का हिस्सा बन गए। जिसके डायरेक्टर थे मोहन सिन्हा जिनकी पोती विद्या सिन्हा ने रजनीगंधा जैसी कई फ़िल्में और बाद में कई टीवी सीरियल में भी काम किया।

जीवन ने लगभग 50 सालों तक अपनी खलनायकी के जोहर दिखाए

आज की पीढ़ी के लोग शायद जीवन के नाम से वाक़िफ़ न हों मगर जीवन वो विलेन थे जिन्होंने 50 साल तक अपनी खलनायकी के जलवे दिखाए। हीरो की पीढ़ियाँ बदलती गईं मगर जीवन अपने रंग जमाते रहे चाहे सामने त्रिलोक कपूर रहे या अशोक कुमार, दिलीप कुमार या राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, यहाँ तक की अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों में भी आप उनके किरदार को इग्नोर नहीं कर सकते। और इसकी वजह यही थी कि उन्होंने अपने आप को लगातार फ्रेश बनाए रखा।

जीवन का असली नाम था ओमकार नाथ धर कहते हैं कि विजय भट्ट ने उन्हें उनका फ़िल्मी नाम दिया “जीवन”। भले ही वो फोटोग्राफी करना चाहते थे मगर जब एक बार अभिनय के मैदान में उतर गए तो उन्होंने इसे बहुत गंभीरता से लिया। दुबला- पतला, लम्बे क़द का व्यक्ति, बहुत सी प्रोमिनेन्ट फ़ीचर्स वाला बोनी चेहरा, उस पर काजल लगी आँखें, आँखों के नीचे एक तिल और तलवार कट मूँछें।

जीवन

ये थी जीवन की आम छवि, अपनी काजल लगी आँखों को टेढ़ा करके जब वो कुटिलता भरी मुस्कान के साथ हाथों की उँगलियाँ घुमाते हुए, अपने अंदाज़ में बोलते हुए एक्सप्रेशंस देते तो दर्शक समझ जाते थे कि वो अब कोई गन्दी चाल चलने वाले हैं। जीवन की डायलॉग डिलीवरी कमाल की थी, आपने अगर उनके बोलने के अंदाज़ पर ग़ौर किया हो तो अलग-अलग दौर में उन्होंने अलग-अलग एक्सप्रेशंस उसमें जोड़े, ताकि वो परदे पर लगातार फ्रेश बने रहें।

वैसे कोशिश तो उन्होंने डांस, म्यूजिक, वॉयलिन और पहलवानी सीखने की भी की थी मगर ये शौक़ ज़्यादा दिन क़ायम नहीं रह पाए। मगर अपनी एक्टिंग को वो लगातार निखारते रहे और खलनायकी में अलग-अलग रंग भरे। कहते हैं कि कॉमिक विलेन का चलन उन्होंने ही शुरु किया था। उनकी वो पहली फ़िल्म थी दिलीप कुमार के साथ आई मेला। दिलीप कुमार के साथ उनकी जोड़ी बहुत अच्छी रही थी, फिल्म कोहिनूर का एक दृश्य तो बहुत से लोगों का पसंदीदा है। जिसमें दिलीप कुमार एक बाबाजी बनकर जीवन के चंगुल में फँसी मीना कुमारी को छुड़ाने जाते हैं।

जीवन बहुत ही जीवंत होकर हर किरदार निभाते थे

हीरो-हेरोइन के बारे में तो हम बहुत बात करते हैं कि कोई हीरो किसी एक हीरोइन के साथ परदे पर बेटे, पति या लवर की भूमिका में दिखा लेकिन जीवन ने भी परदे पर एक हीरोइन के पति, बेटे, मामा, भाई सबका किरदार निभाया। वो हेरोइन थीं ललिता पवार जिनके साथ 1937 की फ़िल्म राजकुमारी में वो पहली बार दिखे और उनका रोल था कुटिल महामंत्री का। इसके बाद 1942 की फिल्म “मामाजी” में वो मामा के किरदार में थे। 1955 में (SM यूसुफ़) की एक फ़िल्म में उनके नालायक़ बेटे की भूमिका निभाई और 1965 की फूल और पत्थर में ललिता पवार के पति के किरदार में थे और 1967 की फ़िल्म “आबरू” में उनके छोटे भाई। किरदार भले ही अलग था मगर था नकारात्मक ही।

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जीवन अपने अंदाज़ से अपने नेगेटिव किरदारों को इतना असल बना देते थे कि लोग उन्हें सच में विलेन समझने लगे थे। इसी वजह से एक बार एक महिला ने उनकी काफ़ी बेइज़्ज़ती की। वो एक इवेंट के लिए बाहर गए थे, ट्रैन से नीचे उतरे तो एक महिला उन्हें मारने को झपटी। पुलिस ने रोक लिया मगर बाद में पता चला कि जीवन जिस तरह के किरदार परदे पर निभाते थे, मर्डरर के, रेपिस्ट के, उसकी वजह से महिला को लगा कि वो असल ज़िंदगी में भी बुरे इंसान हैं और वो उन पर बहुत ग़ुस्सा थी। मगर यही ग़ुस्सा तो उनकी कामयाबी की कहानी कहता है।

जीवन ने क़रीब 300 फ़िल्मों में काम किया

जीवन ने अपने पूरे फ़िल्मी सफ़र में लगभग 300 फ़िल्में कीं और हर फ़िल्म में उनका अभिनय लाजवाब रहा। इनमें  तराना, नागिन, नया दौर, फागुन, कोहिनूर, वक़्त, फूल और पत्थर, आँखें, जॉनी मेरा नाम, हीर-राँझा, बनारसी बाबू, रोटी, धर्मात्मा, अमर अकबर एंथोनी, धर्मवीर, चाचा भतीजा, दादा, नसीब, लावारिस, याराना, हथकड़ी, निशान जैसी बहुत सी और फिल्में शामिल हैं।

जीवन

जीवन हिंदी सिनेमा के बेहद प्रतिष्ठित खलनायकों में से एक थे, मगर परदे पर सिर्फ़ मेन विलेन बने हों ऐसा नहीं है। उन्होंने छोटे से बड़ा हर किरदार निभाया। कई बार तो उनका किरदार हीरो से ज़्यादा प्रभावशाली हो जाता था। अपना ये प्रभाव उन्होंने हिंदी के अलावा पंजाबी, गुजराती और भोजपुरी फ़िल्मों में भी दिखाया।

जीवन के बेटे भी उन्हीं की राह पर चले

जीवन के बेटे भी उन्हीं की राह पर चलकर फ़िल्मों का हिस्सा बने, एक का नाम तो आप जानते ही होंगे – किरण कुमार, जिन्होंने बतौर हीरो शुरुआत की थी फिर विलेन के रोल किये और इन दिनों फ़िल्मों और टीवी सीरियल्स में चरित्र कलाकार के रूप में दिखाई दे जाते हैं। उनके दूसरे बेटे भूषण कुमार भी फ़िल्मों में काम करते थे मगर अब वो इस दुनिया में नहीं हैं 1997 में लीवर की खराबी के कारण उनकी मौत हो गई।

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अब जीवन भी इस दुनिया में नहीं हैं, लंग इन्फेक्शन के कारण 10 जून 1987 को वो ये दुनिया छोड़कर जा चुके हैं। लेकिन जैसे हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक ही ललिता पवार हैं, एक ही शशिकला ऐसे ही जीवन भी एक ही थे, हैं और हमेशा रहेंगे। उनकी नक़्ल कोई भी कर ले पर उनकी जगह कोई नहीं ले सकता।