असित सेन एक ऐसा नाम है जिसे लेकर पिछले कुछ सालों में काफ़ी उलझन रही है। जानकार तो असलियत पहचानते हैं मगर इंटरनेट पर बहुत से ऐसे जानकार मौजूद हैं जिनकी जानकारी पर कितना भरोसा किया जा सकता है ये अपने आप में जानने का विषय है। ऐसे ही जानकारों ने कई कलाकारों के विषय में अलग-अलग भ्रम फैला रखे हैं।
असित सेन निर्देशक या हास्य कलाकार
असित सेन का नाम आते ही दो बिलकुल अलग व्यक्तित्व उभर कर आते हैं। एक परदे पर अपने अंदाज़ से हँसता-हँसाता हास्य कलाकार और दूसरा एक ऐसा निर्देशक जिसने कई संवेदनशील फ़िल्मों का निर्देशन किया। अक्सर लोग इन दोनों को एक समझ लेते हैं, कुछ साल पहले तक तो निर्देशक असित सेन की फ़ोटो भी आसानी से उपलब्ध नहीं थी इसलिए ये गड़बड़झाला और ज़्यादा होता था। ये confusion इसलिए भी बढ़ा क्योंकि हास्य-कलाकार असित सेन ने भी दो फ़िल्मों का निर्देशन किया है।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय – शरारती चेहरे के पीछे छुपा एक संजीदा साहित्यकार
शायद इसीलिए अनोखी रात, सफ़र, अन्नदाता जैसी फ़िल्मों के निर्देशक असित सेन और इन असित सेन को काफ़ी समय तक एक ही व्यक्ति माना जाता रहा। लेकिन ये दो अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिनकी पहचान उनके काम और डील डौल से की जा सकती हैं। क्योंकि संवेदनशील फ़िल्मों के निर्देशक के रूप में विख्यात असित सेन दुबले पतले व्यक्ति थे और हास्य कलाकार असित सेन दिखने में मोटे थे। पर उनकी पर्सनालिटी के भी कई और रंग हैं, जिनसे शायद आप अनजान हों।
कॉमेडी ऑफ़ एरर पर कई फिल्में बनी हैं, जिनमें सबसे मशहूर है गुलज़ार की अँगूर। उसी पर बनी थी 1966 की फ़िल्म दो दूनी चार जिसमें जिसमें संजीव कुमार वाली भूमिका किशोर कुमार ने निभाई थी और देवेन वर्मा वाला रोल किया था असित सेन ने। इस फ़िल्म के संवाद भी गुलज़ार ने ही लिखे थे और इंट्रोडक्शन भी उन्हीं की आवाज़ में है।
गोरखपुर के बंगाली थे असित सेन जो फुल टाइम फ़ोटोग्राफ़र बनते बनते रह गए
असित सेन का जन्म हुआ 13 मई 1917 को गोरखपुर में। वैसे तो वो बंगाली थे मगर उनका परिवार रोज़ी रोटी की तलाश में पश्चिम बंगाल से गोरखपुर आ कर बस गया था। असित सेन के पिता की एक दुकान थी जिसमें रेडियो, ग्रामोफ़ोन और बिजली का सामान वग़ैरह मिलता था। असित सेन को शौक़ था फोटोग्राफ़ी का और वो कोलकाता जाकर नितिन बोस के साथ काम करना चाहते थे, फ़िल्ममेकिंग की बारीक़ियाँ सीखना चाहते थे, और मेट्रिक के बाद उन्हें एक दिन ये मौक़ा भी मिल गया।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – देवेन वर्मा – जिनकी बेचारगी पर लोगों को हँसी आती थी
कोलकाता से एक शादी में शामिल होने का निमंत्रण आया और वो पहुँच गए कोलकाता, फिर आगे की पढ़ाई का बहाना बना कर वहीं ठहर गए। कोलकाता में रहते हुए उन्होंने थिएटर करना शुरु किया और जल्दी ही उन्हें मक़बूलियत हासिल होने लगी। लेकिन तभी उन्हें गोरखपुर जाना पड़ा, वहाँ के कमिश्नर साहब का ट्रांसफर हो गया था और उनके विदाई समारोह में फ़ोटो खींचने की ज़िम्मेदारी मिली असित सेन को। फ़ोटोग्राफ़ी से उन्हें लगाव था ही तो जो भी तसवीरें खींचीं बेहद उम्दा थीं, इसके बाद उनकी तारीफ़ पूरे गोरखपुर में होने लगी। उस वक़्त उन्हें ऐसा लगा कि उन्हें उनकी मंज़िल मिल गई और उन्होंने गोरखपुर में फ़ोटोग्राफ़ी स्टूडियो खोल लिया।
ज़िन्दगी की गाड़ी चल निकली, काम भी पसंद का था और आमदनी भी अच्छी हो रही थी। सब कुछ ठीक चल रहा था कि तभी विश्व युद्ध शुरु हो गया, जिसका असर हर चीज़ पर पड़ रहा था। उस समय फ़ोटोग्राफ़ी का हर सामान विदेशों से आता था जो आना बंद हो गया,इन हालात में स्टूडियो भी ठप हो गया। अब मसला था रोज़ी-रोटी का, ऐसे में असित सेन के दिमाग़ में फिर से फ़िल्म इंडस्ट्री का ख़याल आया। और इस बार वो पहुँच गए मुंबई, जहाँ उन्हें स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी का काम मिला मगर उन्हीं दिनों उनकी माँ और दादी गुज़र गईं और उन्हें वापस गोरखपुर जाना पड़ा। अपनों को खोने के बाद उनका दिल गोरखपुर से उठ गया था, अब गोरखपुर में ठहरना उनके लिए मुश्किल होने लगा और उन्होंने एक बार फिर कोलकाता का रुख़ किया।
कोलकाता से मुंबई तक के सफ़र में बिमल रॉय का लम्बा साथ रहा
कोलकाता में उनकी मुलाक़ात अपने एक दोस्त कृष्णकांत से हुई जो उस वक़्त “बनफूल” फ़िल्म में काम कर रहे थे। उनसे मिलना जुलना हुआ तो न्यू थिएटर्स में कुछ और लोगों से भी मेलजोल बढ़ा। उन्हीं दिनों उन्हें पता चला कि बिमल रॉय “उदयेर पाथे” को हिंदी में बनाने की तैयारी कर रहे थे, और उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो हिंदी का जानकार हो। गोरखपुर में पले-बढ़े होने के कारण असित सेन की हिंदी बहुत अच्छी थी तो वो बिमल रॉय से मिले और बिमल रॉय ने उन्हें अपना तीसरा सहायक बना लिया। “हमराही” नाम से बनी इस फ़िल्म में असित सेन ने छोटा सा रोल भी किया था। असित सेन मेहनती थे इसलिए जल्दी ही वो तीसरे से दूसरे और फिर पहले असिस्टेंट बन गए।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – पेंटल की गिनती हिंदुस्तान के बेहतरीन माइम आर्टिस्ट में होती थी
50 के दशक की शुरुआत में जब बिमल रॉय बॉम्बे टॉकीज़ के बुलावे पर मुंबई आये तो अपने साथ अपनी टीम के ख़ास लोगों को भी ले गए। इनमें असित सेन के अलावा सिनेमैटोग्राफ़र कमल बोस, एडिटर हृषिकेश मुखर्जी, और लेखक नबेंदु घोष भी शामिल थे। बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्म ‘माँ’ का निर्देशन करने के बाद जब बिमल रॉय ने अपनी प्रोडक्शन कंपनी खोली तो वहाँ भी असित सेन उनके साथ बतौर सहायक जुड़े रहे। क़रीब 13 सालों तक वो बिमल रॉय के असिस्टेंट रहे।
वो सेट पर सबसे पहले पहुँचते और सबसे आख़िर में निकलते। हर तरह के काम उन्होंने किया और अपना वो मक़ाम बनाया कि बिमल रॉय ने उन्हें फ़िल्म के निर्देशन का मौक़ा दिया। वो फ़िल्म थी 1956 में आई सामाजिक-पारिवारिक ‘परिवार’, इसके बाद असित सेन ने बिलकुल अलग जॉनर की एक मर्डर मिस्ट्री का निर्देशन किया, 1957 में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म थी – “अपराधी कौन” ।
आख़िरकार अभिनय की दुनिया बनी उनकी आख़िरी मंज़िल
जब तक बिमल रॉय ने उन्हें मौक़ा नहीं दिया था तब तक असित सेन ने कभी निर्देशक बनने का सपना नहीं देखा था। लेकिन इन दो फ़िल्मों के बाद उन्होंने भी सोच लिया कि अब वो निर्देशन के क्षेत्र में ही आगे बढ़ेंगे। उन्होंने चार फ़िल्में साइन कीं, दो की शूटिंग शुरु हुई पर पूरी नहीं हो सकीं और दो फिल्में शुरु ही नहीं हुईं। इसके बाद वो क़रीब 11 महीने ख़ाली बैठे रहे। क्योंकि उन्हें डायरेक्शन के नहीं अभिनय के ऑफर्स आ रहे थे। आख़िरकार उन्होंने अभिनय को ही अपना लिया और बन गए हास्य अभिनेता।
दरअस्ल उनकी एक फ़िल्म आई थी ‘छोटा भाई’ जिसमें उन्होंने एक बुद्धू नौकर की भूमिका निभाई थी, इस भूमिका को करते वक़्त उन्हें अपने बचपन का एक नौकर याद आया जो किसी भी वाक्य को लंबा खींच कर बोलता था। बस नौकर की अपनी इस भूमिका को थोड़ा इंटरेस्टिंग बनाने के लिए उन्होंने वही स्टाइल अपनाया, जो इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि फिर उनसे उसी तरह की संवाद अदायगी की डिमांड होने लगी। उनका यही स्टाइल ‘सौतेला भाई’ फ़िल्म में भी था।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – जॉनी वॉकर – मैं बम्बई का बाबू…
उनके इसी अंदाज़ को ध्यान में रखते हुए रचा गया था फ़िल्म ’20 साल बाद’ के जासूस का किरदार। लेकिन शूटिंग के दौरान जब कुछ लोगों को जासूस का इस तरह बोलना पसंद नहीं आया तो निर्देशक बीरेन नाग ने घबराकर असित सेन के ढेर सारे सीन एडिटिंग टेबल पर काट दिए। जब फ़िल्म पूरी हुई और रिलीज़ से पहले ट्रायल शो रखा गया तो सभी को लगा कि गोपीचंद जासूस के उस इंटरेस्टिंग किरदार को और ज़्यादा फुटेज मिलनी चाहिए थी। उसके बाद फ़िल्म में असित सेन के काटे गए सभी सीन फिर से जोड़े गए। और जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो गोपीचंद जासूस लोगों को ऐसा भाया कि हर तरफ़ उन्हीं की चर्चा होने लगी। इतनी कि स्कूल में बच्चे उनके बेटे को जासूस का बच्चा कहकर चिढ़ाने लगे थे।
परदे पर सबको हँसाने वाले असित सेन असल में बेहद गंभीर व्यक्ति थे
’20 साल बाद’ के बाद तो असित सेन और उनका ऊँचाई से शुरू होकर नीचे आता स्वर और वाक्य को लम्बा खींचने वाला अंदाज़ अमर हो गया। हाँलाकि उन्होंने फ़िल्मों में कई तरह के किरदार निभाए पर असित सेन की पहचान बना यही अंदाज़। जबकि असल ज़िन्दगी में असित सेन बेहद गंभीर और sincere क़िस्म के व्यक्ति थे। यहाँ तक की स्टूडियो और फ़िल्म gatherings में भी लोग उन्हें बहुत गंभीरता से लेते थे। उस वक़्त वो कोई कॉमेडियन नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति थे जिससे बात करते हुए एक सम्मानजनक व्यवहार ज़रुरी होता था। हल्की चीप बातें उन्हें पसंद नहीं थीं और शायद परदे पर भी उन्होने कभी कोई हल्की बात नहीं की। सेट पर भी वो अपना काम करके एक कोने में शांति से बैठ जाते थे।
सुजाता, परख, काबुलीवाला, जँगली, बंदिनी, मेरे सनम, भूत बंगला, ब्रह्मचारी, यक़ीन, आराधना, तीसरी क़सम, बुड्ढा मिल गया, आनंद, पूरब और पश्चिम, अमानुष, अनुरोध जैसे कई फ़िल्मों में उन्हें छोटे-बड़े किरदार निभाते देखा जा सकता है। चाहे वो गंभीर बीमारी का वहम पाले हुए मरीज़ हो या जमींदार, ख़ुद को विद्वान पंडित मानने वाला ब्राह्मण हो, पुलिस इंस्पेक्टर या अपने मालिक के प्रति वफ़ादार नौकर। वैसे ज़्यादातर फ़िल्मों में उन्होंने नौकर की भूमिका ही निभाई थी।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – महमूद – बॉलीवुड का पहला “भाईजान”
18 सितम्बर 1993 को हार्ट अटैक से असित सेन की मौत हुई। शायद आने वाली पीढ़ी असित सेन को सिर्फ़ एक हास्य कलाकार के रूप में जानेगी, लेकिन किसी भी इंसान कलाकार या फ़नकार के बारे में बात करते हुए हमें ये ज़रुर याद रखना चाहिए कि हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो कई बार देखना। ख़ासकर एक कलाकार को उसकी हरेक कला के आधार पर आँकना और जो उनका क्रेडिट है वो उन्हें मिलना ही चाहिए।