सेबेस्टियन डिसूज़ा (29 जनवरी 1906 – 9 मार्च 1998 ) गोवा के ऐसे म्यूजिक अरेंजर जो काउंटर मेलोडी बनाने में माहिर थे और उनके इसी गुण ने फ़िल्म संगीत का रुप रंग ही बदल दिया।
फ़िल्म संगीत को लेकर एक आम आदमी की समझ काफ़ी बेसिक होती हैं, हम सब गाने एन्जॉय करते हैं, म्यूजिक पर थिरकते हैं, कुछ लोग लिरिक्स भी ध्यान से सुनते हैं और जो गाना पसंद आ जाए बस वो पसंदीदा गानों की लिस्ट में शामिल हो जाता है। पर एक गाना बनाने के पीछे कितने प्रतिभाशाली लोगों का योगदान होता है कितनों की मेहनत जुड़ी होती है ये हम कभी जान ही नहीं पाते। इनमें म्यूजिक डायरेक्टर के अलावा, इंस्ट्रूमेंटलिस्ट, म्यूजिक कंडक्टर और म्यूजिक अर्रेंजर भी शामिल हैं। क्योंकि धुन कितनी भी अच्छी क्यों न हो अगर उस धुन को वाद्य यंत्रों के सही तालमेल से एक आकार न दिया जाए तो वो गाना नहीं सिर्फ़ एक धुन ही बन कर रह जाएगी।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – विनोद 1-Song-Wonder नहीं थे
इस पोस्ट को बाक़ायदा शुरू करें उससे पहले ये जान लेते हैं कि म्यूजिक अर्रेंजर असल में करता क्या है, क्यों उनका काम महत्वपूर्ण है ? संगीतकार ने धुन बनाई मगर उस धुन को सपोर्ट करने के लिए, प्रील्यूड, इंटरलूड और बाक़ी के म्यूज़िक पीसेस में कौन कौन से वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल उस गीत में होना चाहिए, इसे तय करते हैं म्यूजिक अरेंजर। गाने के टुकडों को डिज़ाइन करने के साथ साथ कौन सा इंस्ट्रूमेंट किस शैली में बजेगा और कौन उसे बजायेगा, माइक से कितनी दूरी होगी ये सब तय करते हैं म्यूज़िक अर्रेंजर।
एक ज़माने में जब फ़ाइनल रिकॉर्डिंग होती थी तो उससे पहले पूरे ऑर्केस्ट्रा को एक यूनिट की तरह तैयार करके रिहर्सल की जाती थी ताकि जो भी कमी हो उसे उसी स्तर पर दूर किया जा सके। इसी के बाद सिंगर्स के साथ फाइनल रिकॉर्डिंग की जाती थी। आजकल तकनीक के दख़ल से बहुत कुछ बदल गया है और इस बदलाव में अरेंजर्स का हस्तक्षेप और भूमिका भी लगभग न के बराबर रह गई है। मगर अब से कुछ साल पहले तक अरेंजर्स के बग़ैर फ़िल्मी गीतों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
सेबेस्टियन डिसूज़ा :एक अरेंजर
पुरानी फ़िल्मों के बहुत से गाने ऐसे हैं जिनके शुरूआती संगीत जिसे प्रील्यूड कहते हैं, उसे सुनते है गानों की पहचान हो जाती है। उन प्रील्यूड्स का इस्तेमाल अंताक्षरी जैसे क्विज में भी बहुत किया गया। जैसे – मधुमती का ‘आजा रे परदेसी’, ब्रह्मचारी का ‘दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’, दिल अपना और प्रीत पराई का ‘अजीब दास्ताँ है ये’, फिर वही दिल लाया हूँ का ‘बंदापरवर थाम लो जिगर’, कठपुतली का ‘बोल री कठपुतली डोरी’ या अनाड़ी का ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ ये सिर्फ़ कुछ उदहारण है असल में लिस्ट अंतहीन है। इन गानों को अमर बनाने में अहम् योगदान दिया था गोवा के म्यूजिशियन सेबेस्टियन डिसूज़ा ने।
आज़ादी के आस-पास गोवा से जो भी म्यूजिशियन बम्बई आए उनमें से ज़्यादातर ने संगीत का सबक़ चर्च में सीखा। चाहें वो एंथोनी गोंसाल्विस हों, चिक चॉकलेट हों या सेबेस्टियन डिसूज़ा, सभी की शुरुआत चर्च में म्यूजिक बजाने से हुई। चर्च स्कूल में जहाँ म्यूजिक एक अनिवार्य विषय था, वहीं सेबेस्टियन ने बचपन में वॉयलिन और पियानो बजाने के साथ साथ नोटेशन लिखना भी सीखा। 29 जनवरी 1906 को उत्तरी गोवा के एक छोटे से गाँव में जन्मे सेबेस्टियन डिसूज़ा का संगीत से अटूट रिश्ता तभी से जुड़ गया। मोज़ार्ट, बीथोवन, शुबर्ट, हेडन जैसे कई प्रसिद्ध वेस्टर्न कम्पोज़र्स की फेमस सिम्फ़नी सुनकर वो बड़े हुए और संगीत सीखते रहे।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – केशवराव भोले ने मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर संगीत की दुनिया को अपनाया
आज़ादी के बाद गोवा से जो मूसिशियन्स बॉम्बे फ़िल्म इंडस्ट्री में आए उनमें सेबेस्टियन काफ़ी मशहूर म्यूजिशियन थे। पर बॉम्बे आने से पहले उन्होंने इलाहबाद, मसूरी, दिल्ली जैसी कई जगहों पर होटल बैंड्स के साथ काम किया। फिर 1942 में वो लाहौर चले गए, लाहौर के स्टिफ़ल होटल में उन्होंने अपना बैंड बनाया, जो उन दिनों बहुत मशहूर रहा मगर जब देश का बँटवारा हुआ तो वो बम्बई चले आये। जब वो लाहौर में थे तो संगीतकार O P नैयर से उनकी दोस्ती हो गई थी और उनका पहला गाना भी OP नैयर के साथ ही रहा। ये वही नॉन-फ़िल्मी सांग था जो CH आत्मा का भी पहला सांग था, OP नैयर का भी और सेबेस्टियन का भी।
सेबेस्टियन और ओ पी नैयर
सेबेस्टियन ने O P नैयर के साथ ही पहली बार किसी फ़िल्म के लिए म्यूजिक अर्रेंज किया फ़िल्म थी आसमान और फिर उन्होंने OP नैयर के लिए ‘आर-पार’, ‘हावड़ा ब्रिज’, ‘मि एंड मिसेज़ 55’, ‘फिर वही दिल लाया हूँ’, ‘मेरे सनम’ से लेकर 1973 की फ़िल्म “प्राण जाए पर वचन न जाए” तक लगभग हर फ़िल्म में म्यूजिक अर्रेंज किया। और ओ पी नैयर ने भी खुलेआम ये स्वीकार किया कि उनके संगीत की कामयाबी में सेबेस्टियन डिसूजा का अहम योगदान रहा है। ओ.पी.नैय्यर को अपने गीतों में सारंगी का उपयोग करने का शौक था, सेबेस्टियन ने सारंगी की पतली ध्वनि को सेलो की बास ध्वनि के साथ मिलाया और उसका इस्तेमाल कई गीतों में किया।
एंथोनी गोंसाल्वेस ने जहाँ हिंदी फ़िल्मों में म्यूजिक अर्रेंजमेन्ट सिस्टम की शुरुआत की उसे डेवेलप किया वहीं उसे और आगे बढ़ाया सेबेस्टियन ने। वो जहाँ वेस्टर्न क्लासिकल की समझ रखते थे वहीं उन्होंने इंडियन क्लासिकल की भी सीखा जो बतौर अरेंजर उनके लिए काफ़ी माददगार साबित हुआ। बहुत से फ़िल्म म्यूजिक हिस्टोरियन मानते हैं कि उनमें वेस्टर्न ऑर्केस्ट्रा को भारतीय ऑर्केस्ट्रा के साथ संयोजित करने की अद्भुत क्षमता थी। रिच ऑर्केस्ट्रेशन के साथ सिंपल एंड एलिगेंट कम्पोज़िशन्स।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – सरस्वती देवी को फ़िल्मों से जुड़ने पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा
ये सही है कि संगीतकार नौशाद ने ऑरकेस्ट्रेशन की शुरुआत की थी मगर एक सगीतकार सब कुछ नहीं संभल सकता इसीलिए जब अरेंजर्स आये तो ऑरकेस्ट्रेशन का चलन भी बढ़ा। इसी तरह काउंटर मेलोडी का पहला प्रयोग भले ही पंकज मलिक ने किया था मगर हिंदी फ़िल्मों में उसका चलन शुरु किया सेबेस्टियन ने। उन्होंने काउंटर मेलोडी का प्रयोग इतने असरदार तरीक़े से किया कि सभी ने उस प्रयोग की न केवल सराहना की बल्कि हाथों हाथ लिया। और हिंदी फ़िल्म संगीत में यही उनका सबसे बड़ा योगदान माना जाता है काउंटर मेलोडी की रचना करना, हार्मोनी बनाना। इसके बाद तो वो बहुत से संगीतकारों के फ़ेवरेट हो गए।
शंकर-जयकिशन और सेबेस्टियन
1952 में जब OP नैयर के संगीत से सजी आसमान रिलीज़ हुई थी, उसी साल सेबेस्टियन के एक दोस्त सनी कैस्टेलिनो ने उन्हें शंकर-जयकिशन से मिलवाया और इस मिलाप ने भी अनगिनत अनमोल गीत दिए। उसी साल आई अमिया चक्रबर्ती की ‘दाग़’ से ही इस टीम का जादू दिखाई-सुनाई देने लगा था। क्योंकि ‘दाग़’ के इस मशहूर गाने “ए मेरे दिल कहीं और चल” में सेबेस्टियन ने काउंटर मेलोडी डिज़ाइन करने के लिए वॉयलिन और मेंडोलिन के साथ अकॉर्डियन का उपयोग किया था जो उस समय तक रेयर था।
ये गाना आज भी संगीतकारों के बीच बेंचमार्क माना जाता है। सेबस्टियन जैसे अरेंजर ने शंकर-जयकिशन के लिए 23 साल तक बिना ब्रेक के लगातार काम किया। ‘दाग़’ से शुरू हुआ ये सफर, ‘बसंत बहार’, ‘एन इवनिंग इन पेरिस’, ‘ब्रह्मचारी’, ‘कठपुतली’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘अराउंड द वर्ल्ड’, ‘लव इन टोक्यो’, हरियाली और रास्ता, राजकुमार, ‘आम्रपाली’ से लेकर ‘सन्यासी’ तक चला जो शंकर जयकिशन के साथ सेबेस्टियन की आख़िरी फ़िल्म थी। कई म्यूज़िक एक्सपर्ट्स तो ये भी कहते हैं कि “अगर सेबेस्टियन की प्रतिभा नहीं होती तो शायद शंकर जयकिशन की अपनी विशिष्ट शैली नहीं होती”
हाँलाकि सेबेस्टियन का मानना था कि कि ये शंकर, जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, सेबेस्टियन और दत्ताराम के बीच बेहतरीन टीम वर्क का कमाल था, जिसमें ऋदम सँभालते थे – सेबेस्टियन और ताल की ज़िम्मेदारी थी दत्ताराम पर। सभी अपने-अपने काम में माहिर थे,और जब ऐसी टीम होती है तो मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं। शायद इसीलिए “मेरा नाम जोकर” का बैकग्राउंड म्यूजिक सिर्फ़ हफ़्ते भर में बन गया था, क्योंकि जयकिशन बैकग्राउंड म्यूजिक में माहिर थे और उनके साथ सेबेस्टियन, दत्ताराम ने मिलकर ये कमाल कर दिखाया।
ऐसा कहा जाता है कि जयकिशन सेबस्टियन के काउंटर मेलोडिज़ और गानों से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने उन सभी को एक साथ मिलकर एक बिल्कुल नया गाना बना दिया था। ये भी कहा जाता है कि राजकपूर भी सेबेस्टियन को बहुत पसंद करते थे और RK की फ़िल्मों में राजकपूर के किरदार को म्यूज़िक के ज़रिए उभारने में सेबेस्टियन का योगदान मानते थे। फ़िल्मों में म्यूजिक अर्रेंज करने के अलावा सेबेस्टियन ने शंकर जयकिशन के साथ एक फ्यूज़न एल्बम “राग जैज़ स्टाइल”(1968) के 11 ट्रैक्स में भी म्यूजिक अर्रेंज किया था। इस एल्बम में भारतीय शास्त्रीय राग बेस्ड धुनों को जैज़ म्यूज़िक के साथ जोड़कर फ्यूज़न तैयार किया गया था।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – गोविंदराव टेम्बे – मराठी फिल्मों के पहले संगीतकार
सेबेस्टियन और सलिल चौधरी
सेबेस्टियन डिसूज़ा की आख़िरी फिल्म थी – आनंद (1971) जिसमें उन्होंने संगीतकार सलिल चौधरी के लिए म्यूज़िक अर्रेंजमेंट किया। सलिल चौधरी वेस्टर्न म्यूजिक के बहुत बड़े प्रशंसक थे और सेबेस्टियन की वेस्टर्न म्यूजिक पर गहरी पकड़ थी, इसीलिए दोनों ने ‘मधुमती’, ‘परख’, ‘काबुलीवाला’ जैसी कई फ़िल्मों में साथ में काम किया। ये सेबेस्टियन की विशेषता रही कि जैसा म्यूजिक डायरेक्टर का स्टाइल होता था, वो म्यूजिक अर्रेंजमेंट उसी के मुताबिक़ करते थे और यही गुण एक अर्रेंजर में होना भी चाहिए। लेकिन यही वो वजह भी है कि एक अर्रेंजर के काम को अलग पहचान कभी नहीं मिलती।
1966 में एक फिल्म आई थी “स्ट्रीट सिंगर” उस में म्यूजिक डायरेक्टर का नाम है सूरज, पर कहते हैं कि वो कोई एक म्यूजिक डायरेक्टर नहीं थे बल्कि दत्ताराम, सेबेस्टियन और हनोक डेनियल की टीम थी। सेबेस्टियन ने बतौर संगीतकार सिर्फ़ यही एक फिल्म की। कुछ लोगों का मानना ये भी है कि शंकर जयकिशन ने ही इनकम टैक्स बचाने के लिए ‘सूरज’ नाम से इस फ़िल्म में संगीत दिया था।
सेबेस्टियन ने क़रीब 23 साल तक मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में काम किया। इस दौरान उन्होंने OP नैयर, शंकर जयकिशन, सलिल चौधरी, वसंत देसाई, S D बर्मन, मदन मोहन, रोशन, दत्ताराम, एन दत्ता, इकबाल कुरेशी, प्रेम धवन, सरदार मलिक, एस. मोहिंदर, जैसे कई संगीतकारों के लिए १००० से भी ज़्यादा गानों का म्यूजिक अरेंज किया। और इसकी वजह ये है कि सेबेस्टियन को एक गाने का म्यूजिक अरेंज करने में सिर्फ़ एक दिन लगता था। कहा जाता है कि एक बार तो ऐसा भी हुआ कि उन्होंने अलग-अलग स्टूडियो में जाकर एक ही दिन में 5 गाने बनाए।
कृपया इन्हें भी पढ़ें – हसरत जयपुरी बस में किसी खूबसूरत लड़की का टिकट नहीं काटते थे
सेबेस्टियन को नोट्स लिखने के लिए कभी भी इंस्ट्रूमेंट्स की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। इस मामले में वो बहुत प्रतिभाशाली थे, सब कुछ उनके दिमाग़ में होता था। और उनके पास हमेशा पेपर और छोटी छोटी पेंसिल्स होती थीं, जिनसे वो खड़े-खड़े ओर्केस्ट्रशन के नोट्स लिख लिया करते थे। इस मामले में वो बेहद organized, consistent और disciplined थे, इसलिए रिहर्सल के टाइम पर पूरी क्लैरिटी होती थी कि किस आर्टिस्ट को कब कौन सा इंस्ट्रूमेंट प्ले करना है। 1975 में फिल्म नगरी छोड़ देने के बाद वो गोवा वापस चले गए और वहाँ उन्होंने अपना समय बच्चों को संगीत सिखाने में गुज़ारा।
मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री ने शायद एक समय के बाद उन्हें भुला दिया था क्योंकि कहीं किसी अवॉर्ड फंक्शन में उनकी कोई चर्चा नहीं हुई कहीं उन्हें सम्मानित नहीं किया गया पर कहते हैं कि बाद में गोवा सरकार ने उन्हें पुरस्कृत किया। 9 मार्च 1998 को सेबेस्टियन ने ये दुनिया छोड़ दी पर अपनी मौत से पहले ही उन्होंने ये कह दिया था कि उनके अंतिम संस्कार पर कोई पैसा ख़र्च न किया जाए, बल्कि जो कुछ भी बचा हो उसे दान कर दिया जाए।
एक आम म्यूजिक लवर शायद सेबेस्टियन जैसे अरेंजर्स के काम को न पहचाने, पर इससे न तो उनका योगदान ख़त्म होता है न ही उनकी अहमियत! आज के समय में तो ऑटो ट्यून ने सब कुछ बहुत आसान कर दिया है, एक छोटे से स्टूडियो में बल्कि कहा जाए तो घर बैठे पूरा गाना बन जाता है। सिंगर्स के लिए ही करने को कुछ ख़ास नहीं रहा है, सुर, लय, ताल, सब कंप्यूटर से एडजस्ट हो जाता है। लेकिन एक वक़्त था जब अरैंजर्स के बग़ैर गाना बनाना मुश्किल होता था, शायद इसीलिए वो गाने अमर हैं।