देविका रानी भारतीय सिनेमा की पहली पहली दीवा, इंडियन ग्रेटा गार्बो जिन्हें फर्स्ट लेडी ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहा जाता है। जिनके ग्लैमर, ख़ूबसूरती और स्टाइल के चर्चे देश में ही नहीं विदेश में भी थे। मार्च के महीने में ही उनका जन्म हुआ और मार्च में ही देहांत। उनका जीवन बेहद उठापटक भरा रहा पर उन्होंने हर हालात का सामना बेहद मज़बूती और गरिमा के साथ किया। इस पोस्ट में उनके विषय में विस्तार से जान्ने की कोशिश करते हैं।
देविका रानी का सम्बन्ध रबीन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से था
शुरुआत में सिनेमा में जो भी हेरोइंस थीं उनका सम्बन्ध या तो तवायफों के ख़ानदान से था या वो इंग्लिश, ज्यूइश, पर्शियन थीं। सिनेमा में तब तक संभ्रांत परिवारों की शिक्षित महिलाओं का प्रवेश नहीं हुआ था। ऐसे माहौल में एक संपन्न और शिक्षित बंगाली ज़मींदार परिवार की बेटी फ़िल्मों से जुड़ीं जिनका नाम था देविका रानी। उनके पिता कर्नल मन्मथनाथ चौधरी मद्रास रेसीडेंसी के पहले भारतीय सर्जन जनरल थे। उनकी दादी गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की बहन थीं। और उनकी माँ का सम्बन्ध भी रबीन्द्रनाथ ठाकुर से था।
देविका रानी ख़ुद काफ़ी पढ़ी-लिखी और dignified लेडी थीं – बेहद ख़ूबसूरत और टैलंटेड। उनके आने से संभ्रांत परिवार की दूसरी महिलाओं के लिए सिनेमा के बंद दरवाज़े खुलने लगे। वो उन शुरूआती हस्तियों में से थीं जिन्होंने भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में पहचान दिलाने का काम किया इसीलिए उन्हें फर्स्ट लेडी ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहा जाता है। उन्होंने जिस तरह का स्टारडम पाया, और सिनेमा की दुनिया में जो मान सम्म्मान उन्हें हासिल हुआ उस की वजह से ही उन्हें फर्स्ट डीवा ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहा जाता है।
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देविका रानी और हिमांशु राय की मुलाक़ात इंग्लैंड में हुई थी
30 मार्च 1908 को भारत के विशाखापट्नम में देविका रानी का जन्म हुआ, मगर 9 साल की उम्र में ही उन्हें इंग्लैण्ड के एक बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया, वहीं उनकी परवरिश हुई। स्कूली पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने लंदन में ही एक्टिंग और म्यूजिक सीखना शुरु किया। उन्होंने आर्किटेक्चर और टेक्सटाइल डिजाइनिंग में डिग्री हासिल की। 20 साल की उम्र में जब उनकी मुलाक़ात भारतीय फ़िल्मकार हिमांशु राय से हुई उस वक़्त वो एक लीडिंग आर्ट स्टूडियो के साथ काम कर रही थीं।
हिमांशु राय उनकी प्रतिभा से काफ़ी प्रभावित हुए और क्योंकि उस वक़्त तक यूरोप में हिमांशु राय का भी काफ़ी नाम हो चुका था तो देविका रानी भी उनसे काफ़ी प्रभावित थीं। हिमांशु राय ने देविका रानी को अपने अगले प्रोजेक्ट में काम करने की पेशकश की और फिर 1929 की साइलेंट फ़िल्म “A Throw Of dice” में देविका रानी ने कॉस्टयूम डिजाइनिंग और आर्ट डायरेक्शन में हिमांशु राय को असिस्ट किया। पोस्ट प्रोडक्शन के लिए वो दोनों जर्मनी गए और देविका रानी ने बर्लिन के UFA स्टूडियोज़ से फिल्ममेकिंग की ट्रैंनिंग भी ली।
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उन्होंने पहला ऑन-स्क्रीन लॉन्ग किस दिया जो बेहद चर्चित रहा
हिमांशु राय देविका रानी से उम्र में उनसे काफ़ी बड़े थे और पहले से शादीशुदा भी थे, मगर ये प्यार इस क़दर परवान चढ़ा कि हिमांशु राय ने अपनी जर्मन पत्नी को छोड़ कर देविका रानी से शादी कर ली। 1933 की bilingual फ़िल्म “कर्मा” में हिमांशु राय ने देविका रानी को बतौर हेरोइन introduce किया हीरो थे ख़ुद हिमांशु राय।
“कर्मा” पहली भारतीय फ़िल्म थी जिसे इंग्लिश में बनाया गया था, इसमें एक इंग्लिश गाना भी था जिसे देविका रानी ने गाया था। ये पहली भारतीय फ़िल्म भी थी जिसका प्रीमियर लंदन में हुआ था। इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले देविका रानी ने ही लिखा था मगर इस फ़िल्म के चर्चित होने की एक बहुत बड़ी वजह थी – रियल लाइफ कपल का सबसे लम्बा ऑन-स्क्रीन किसिंग सीन। यूरोप में तो इस फ़िल्म को देखा गया और देविका रानी को सभी ने सराहा भी मगर भारत में ये बुरी तरह फ्लॉप रही।
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कर्मा की रिलीज़ के बाद देविका रानी को बीबीसी के लंदन ऑफिस बुलाया गया था। वो पहली भारतीय थीं जिन्होंने ब्रिटेन की पहले टेलीविज़न टेलीकास्ट में अभिनय किया था। “कर्मा” की रिलीज़ के बाद देविका रानी और हिमांशु राय भारत लौट आये और कुछ लोगों के साथ पार्टनरशिप में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ शुरु किया। ‘बॉम्बे टॉकीज़’ भारत का पहला कॉर्पोरेट सिनेमा स्टूडियो था, अपने समय का सबसे बड़ा और मॉडर्न स्टूडियो और देविका रानी थीं बॉम्बे टॉकीज़ का चेहरा।
अपना वजूद पाने को देविका रानी नजमुल हसन के साथ भाग गई थी
बॉम्बे टॉकीज़ की पहली फ़िल्म थी – “जवानी की हवा” उस में हेरोइन थीं – देविका रानी और हीरो थे नजमुल हसन। इसी जोड़ी को लेकर दूसरी फ़िल्म “जीवन नैया” शुरु की गई थी मगर साथ में काम करते हुए दोनों के दिलों के तार ऐसे जुड़े कि इस फ़िल्म की शूटिंग के बीच में ही दोनों चुपचाप बिना किसी को बताये मुंबई छोड़ कर कोलकाता चले गए। कहते हैं कि देविका रानी घरेलू हिंसा की शिकार हो रही थीं, उन्हें सबके सामने बेइज़्ज़त किया जाता था। जबकि हिमांशु राय को सपोर्ट करने के लिए उन्होंने अपने ज़ेवर, अपना पैसा सब कुछ बेच दिया था।
उनके जैसी प्रतिभाशाली, साहसी महिला के लिए ये सब सहना बहुत मुश्किल था मगर उन्होंने सहा लेकिन जैसे ही उन्हें मौक़ा मिला तो उन्होंने ज़रा भी देर नहीं की। पर हिमांशु राय ने आख़िर उनका पता लगा ही लिया और उन्हें वापस लाने की कोशिश की, एक तो समाज में उनकी इज़्ज़त का सवाल था दूसरा उनकी फ़िल्म अधूरी थी, और शूटिंग रुकने से काफ़ी नुकसान हो रहा था, मगर देविका रानी वापस नहीं आना चाहती थीं। पर उस समय का समाज बहुत अलग था, आमतौर पर तलाक़ नहीं हुआ करते थे, और पति को छोड़कर भागी हुई स्त्री की समाज में कोई इज़्ज़त नहीं होती थी।
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शशधर मुखर्जी जिन्हें देविका रानी बंगाली होने के नाते भाई मानती थीं उन्होंने देविका रानी को प्रैक्टिकली सोचने के लिए कहा तो देविका रानी वापस आने के लिए राज़ी हो गईं मगर अपनी शर्तों के साथ। उन्होंने कभी आलोचनाओं की परवाह नहीं की, हमेशा वो किया जो उन्हें सही लगा और फिर वापस आकर पूरे आत्मविश्वास के साथ दोबारा उन्होंने अपनी ज़िंदगी शुरु की। मगर इसके बाद पति-पत्नी होते हुए भी हिमांशु राय और देविका रानी के बीच सिर्फ़ कारोबारी रिश्ता ही रह गया था।
इस घटना के बाद “जीवन नैया” के लिए दूसरे हीरो की तलाश की गई और तब बॉम्बे टॉकीज़ में एंट्री हुई अशोक कुमार की। “जीवन नैया” रिलीज़ हुई 1936 में, लेकिन ये जोड़ी मशहूर हुई “अछूत कन्या” से। “अछूत कन्या” एक लैंडमार्क फ़िल्म थी और इसी से देविका रानी स्टार बन गईं। उनकी ख़ूबसूरती और ग्लैमर की चर्चा हर जगह हुआ करती थी। उनके एक्टिंग स्टाइल की तुलना ग्रेटा गार्बो से की जाती थी इसीलिए उन्हें इंडियन ग्रेटा गार्बो भी कहा जाता था। कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दें तो 1939 तक वो बॉम्बे टॉकीज़ की लगभग हर फ़िल्म में दिखाई दीं।
“इज़्ज़त”, “जीवन-प्रभात”, “सावित्री”, “निर्मला”, “वचन”, “दुर्गा”। देविका रानी सिर्फ फ़िल्मों में अभिनय तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि हिमांशु राय के साथ वो भी फ़िल्ममेकिंग के हर पक्ष पर नज़र रखती थी। डांस, म्यूजिक, मेकअप, स्टाइलिंग, कॉस्टयूम डिजाइनिंग, सेट डिजाइनिंग सब में उनका दख़ल था, दोनों पति पत्नी एक ट्रैंनिंग प्रोग्राम भी चलाते थे। देविका रानी हर साल अलग-अलग यूनिवर्सिटीज से टैलंटेड युवाओं का इंटरव्यू करतीं, और उन्हें स्टूडियो में नौकरी दी जाती, काम सिखाया जाता। ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार भी देविका रानी की ही खोज थे।
आख़िरकार देविका रानी ने बॉम्बे टॉकीज़ की कमान संभाली
जब वर्ल्ड वॉर शुरू हुआ तो बॉम्बे टॉकीज़ को काफी नुकसान पहुँचा और उस वजह से हिमांशु राय का नर्वस ब्रेक डाउन हो गया। जितना वक़्त वो बीमार रहे देविका रानी ने उनका पूरी तरह ध्यान रखा और इसी वजह से वो स्टूडियो को समय नहीं दे पाईं। 1940 में हिमांशु राय की मौत के बाद उन्होंने महसूस किया कि हालात बदल रहे हैं। उस वक़्त उन्हें अपनी उपस्थिति का एहसास दिलाना ज़रूरी था। स्टूडियो की सबसे बड़ी शेयर होल्डर होने के कारण कण्ट्रोल तो देविका रानी के हाथों में आ गया, मगर परेशानियाँ भी शुरू हो गईं। दरअस्ल हिमांशु राय के रहते उन्हें कभी अपनी प्रेजेंस दिखाने की ज़रुरत नहीं पड़ी।
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मगर जब उन्होंने स्टूडियो टेकओवर किया तो शायद एक स्त्री से आदेश लेना उस समय के पुरुषों के अहम् को स्वीकार न हुआ हो! उस समय देविका रानी एकदम अकेली थीं, विरोध को भाँप गई थीं, पर कमज़ोर नहीं पड़ सकती थीं, तो हो सकता है उन्होंने अपने वजूद को बचाने के लिए कुछ कड़े फ़ैसले भी लिए हों ! वजह कोई भी हो पर नतीजा ये निकला कि बॉम्बे टॉकीज़ में फूट पड़ने लगी। हाँलाकि इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज़ में कई सुपरहिट फिल्मों का निर्माण हुआ लेकिन अंदरुनी राजनीति की वजह से पहले तो स्टूडियो में अंदर ही अंदर दो गुट बने और फिर जल्दी ही दूसरे गुट के लोगों ने बॉम्बे टॉकीज़ छोड़ कर अपना अलग एक नया स्टूडियो बना लिया।
देविका रानी फ़िल्में छोड़ने के बाद भी हमेशा मेकअप में रहा करती थीं
देविका रानी ने भी बॉम्बे टॉकीज़ की कमान 1945 तक संभाली और फिर अपने हिस्से के सारे शेयर बेच कर उन्होंने रशियन पेंटर ‘स्येतोस्लाव रोरिक’ से शादी कर ली और सिनेमा की दुनिया को अलविदा कह दिया। जाते जाते वो बॉम्बे टॉकीज़ का सारा आर्काइव अपने साथ ले गईं, जिसे बाद में उन्होंने न्यूयोर्क के “निकोलस रोरिक म्यूजियम” में भेज दिया। शादी के बाद वो और उनके पेंटर पति ने बंगलुरु में अपना एक एस्टेट बनाया और दोनों पति पत्नी ताउम्र अकेले वहीं रहे।
देविका रानी के बारे में कहा जाता है कि फ़िल्मों को अलविदा कहने के बाद भी वो हर रोज़ फुल मेकअप किया करती थीं, कभी बिना मेकअप के घर से बाहर नहीं जाती थीं। उनके पास पैसे की कमी नहीं थी मगर उनकी कोई औलाद नहीं थी। कहते हैं कि इसका फ़ायदा कई लोगों ने उठाया, बढ़ती उम्र में उनका क़ीमती सामान ग़ायब होने लगा, केयरटेकर तक पर वो भरोसा नहीं कर सकती थीं। 1993 में उनके दूसरे पति स्वेतोस्लाव रोरिक की मौत हो गई और वो एकदम अकेली रह गई। क़रीब एक साल बाद 9 मार्च 1994 को देविका रानी भी इस दुनिया को छोड़ गईं। उनकी मौत के बात उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई।