सायरा बानो जिन्होंने 16 साल की उम्र में फिल्मों में प्रवेश किया और सालों तक अपनी ख़ूबसूरती और अभिनय के बल पर अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज किया। उनके जन्मदिन के मौक़े पर उनके सफ़र पर एक नज़र।
ऐसे बहुत कम कलाकार होते हैं जो अपनी पहली ही फ़िल्म से कामयाबी की उड़ान भर लेते हैं और फिर उस कामयाबी और शोहरत को क़ायम भी रख पाते हैं। ऐसी ही अभिनेत्री रहीं सायरा बानो जो कई मायनों में भाग्यशाली हैं क्योंकि जो-जो उन्होंने चाहा वो वो उन्होंने पाया भी।
अपने ज़माने की मशहूर हीरोइन थीं सायरा बानो की माँ
अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री नसीम बानो और फ़िल्म निर्माता मिलन अहसान उल हक़ की बेटी सायरा बानो का जन्म 23 अगस्त 1944 को मसूरी में हुआ। लेकिन बाद में जब उनके माता-पिता का अलगाव हुआ तो उनकी माँ उन्हें और उनके बड़े भाई सुल्तान को लेकर लन्दन चली गईं। लंदन में ही सायरा बानो का बचपन बीता, पढाई-लिखाई हुई। पर जब भी लम्बी छुट्टियाँ पड़तीं उनकी माँ उन्हें यूरोप घुमाते हुए भारत ले आती क्योंकि वो ये नहीं चाहती थीं कि उनके बच्चे अपनी संस्कृति को भूल जाएँ अपनी जड़ों से एकदम अलग हो जाएँ। इसीलिए हर साल बिना नागा ये सिलसिला चलता रहा।
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स्कूल के दिनों से ही सायरा बानो की दिलचस्पी अभिनय में थी, वो स्कूल के ड्रामा में हिस्सा लिया करती थीं। जब भी भारत आती तो ज़ाहिर है फ़िल्मी हस्तियों से मुलाक़ात भी होती। ऐसे ही एक बार जब वो एक शूटिंग के सेट पर गईं, तो वो था मुग़ल-ए-आज़म का शीशमहल का सेट। दिलीप कुमार की शूटिंग तो ख़त्म हो चुकी थी पर उनसे मुलाक़ात ज़रूर हुई। सायरा जी उनकी फैन तो पहले से ही थीं फिर ये ख़्वाहिश भी जागी कि ज़िंदगी अगर किसी के साथ बितानी है तो वो दिलीप कुमार ही हों। और उनका ये ख़्वाब हक़ीक़त में तब्दील भी हुआ। उस बारे में बात करने से पहले उनके फ़िल्मी करियर की बात कर लेते हैं।
फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत
सायरा बानो मेट्रिकुलेशन के बाद जब छुट्टियों में भारत आईं तो उन्हें 5-6 फ़िल्मों के ऑफर मिल गए और उन्होंने उनमें से एक के लिए हाँ कर दी। वो थी फ़िल्म -‘जँगली’ जो बेहद कामयाब रही इस फिल्म ने डाइमंड जुबली मनाई। लेकिन जंगली की शूटिंग के दौरान उन्हें ये एहसास भी हो गया कि उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। क्योंकि उस समय तक उन्हें उर्दू ज़बान भी अच्छी तरह नहीं आती थी न ही वो कोई प्रोफेशनल डांसर थीं। इसीलिए उन्होंने कथक और भरतनाट्यम की ट्रेनिंग ली। और जी तोड़ मेहनत करके अपना एक मुक़ाम बनाया।
“जंगली” फ़िल्म में कश्मीर के ख़ूबसूरत नज़ारे देखने को मिले और इसके बाद से ही हिंदी फ़िल्मों में कश्मीर अक्सर नज़र आने लगा। “जंगली” के बाद सायरा बानो की 7 फिल्में आईं “शादी”, “ब्लफ़ मास्टर”, “दूर की आवाज़”, “आओ प्यार करें”, “अप्रैल फ़ूल”, “साज़ और आवाज़”। इन्ही में से एक थी “आई मिलन की बेला” जिसने कॉस्ट्यूम का एक नया ट्रेंड सेट किया। सायरा बानो का फैशन स्टेटमेंट उनके कॉस्ट्यूम अपने वक़्त में काफ़ी सराहे गए। पर इसका श्रेय वो अपनी माँ को देती हैं क्योंकि फिल्मों में और निजी तौर पर भी वही उनकी ज्वेलरी और कपड़े डिज़ाइन किया करती थीं।
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60 के दशक के मध्य तक आते आते सायरा बानो की एक पहचान बन गई थी और दिलीप कुमार को लेकर उनकी पसंद जूनून बन चुकी थी पर कहते हैं कि दिलीप साहब उनके साथ फ़िल्म करने से क़तराते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि सायरा बानो उनके सामने काफी छोटी लगेंगी और इसीलिए फ़िल्म राम और श्याम में सायरा जी का रोल मुमताज़ को दे दिया गया था। पर कहते हैं न जो होना होता है उसके लिए बहाने भी बन जाते हैं।
दिलीप कुमार से शादी
एक बार सायरा बानो के जन्मदिन की पार्टी पर दिलीप कुमार पहुँचे तो बस उन्हें देखते ही रह गए। जिसे वो एक छोटी बच्ची समझ रहे थे वो एक बेहद हसीन लड़की में बदल गई थी जिसे पाने की ख़्वाहिश कोई भी कर सकता था। तो उस दिन उस पल ये ख़्वाहिश दिलीप कुमार के दिल ने भी की। मन ही मन उन्होंने शादी का फैसला ले लिया। और फिर कुछ दिनों बाद वो सायरा बानो को डिनर पर ले गए और उन्हें शादी का प्रस्ताव दे दिया। जिस लड़की के साथ वो फ़िल्म में जोड़ी नहीं बनाना चाह रहे थे उसके साथ उन्होंने ज़िन्दगी भर की जोड़ी बना ली।
11 अक्टूबर 1966 को सायरा बानो की शादी अपने से 22 साल बड़े दिलीप कुमार से हो गई। उस समय लोगों ने काफ़ी बातें कहीं कि ये शादी ज़्यादा दिन नहीं टिकेगी। पर इस जोड़ी ने सभी अफ़वाहों को झूठा साबित किया और दोनों दिलीप कुमार की मौत तक साथ रहे। हाँलाकि 1980 में सायरा बानो की शादी में कुछ उतार-चढाव ज़रूर आए जिससे उनकी निजी ज़िंदगी में थोड़ी हलचल हुई पर उन्होंने सब परिशानियों से निजात पाई और फिर 1984 में सायरा बानो दिलीप कुमार एक साथ “दुनिया” फ़िल्म में नज़र आए।
शादी के बाद सायरा बानो का करियर
सायरा बानो ने शादी के बाद भी फ़िल्मों में काम करना जारी रखा और फिर उनकी रोमेंटिक, गंभीर, सस्पेंसफुल और कॉमेडी यानी अलग अलग जॉनर की कामयाब फिल्में आईं। झुक गया आसमान, आदमी और इंसान, पूरब और पश्चिम, शागिर्द और हँसी की फुहार बिखेरती पड़ोसन में तो उन्हें बेहद पसंद किया गया। पड़ोसन को उनके करियर का टर्निंग पॉइंट कहा जा सकता है। इसमें उनकी कॉमिक टाइमिंग की बहुत तारीफ़ हुई। शादी के बाद उन्होंने दिलीप कुमार के साथ भी तीन फ़िल्में कीं – गोपी, सगीना और बैराग। पर गोपी को छोड़कर बाक़ी फिल्में कामयाब नहीं हुईं।
यूँ तो उन्होंने अपने ज़माने के हर बड़े हीरो के साथ काम किया पर धर्मेंद्र के साथ उनकी सबसे ज़्यादा फ़िल्में आईं। जिनमे शामिल हैं आदमी और इंसान, रेशम की डोरी, ज्वार भाटा,पॉकेटमार, इंटरनेशनल क्रूक और चैताली। 70 के दशक में भी ज़मीर जैसी कुछ फ़िल्में आईं पर ज़्यादातर कामयाब नहीं हुईं और कुछ ऐसी रहीं जो काफ़ी लम्बे समय बाद प्रदर्शित हुईं, फिर उन्होंने फिल्मों को अलविदा कह दिया।
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इसके बाद सायरा बानो ने अपना प्रोडक्शन यूनिट खोला जिसके तहत उन्होंने टी वी सीरियल्स का निर्माण किया, एक भोजपुरी फिल्म भी बनाई। साथ ही साथ वो अपने परिवार और दोस्तों की मदद से बीमार-लाचार लोगों और औरतों के वेलफेयर के लिए एक आर्गेनाइजेशन भी चलाती हैं। हाँलाकि उनके इन कामों का ज़्यादा चर्चा नहीं होता। उनकी कोई संतान नहीं है पर वो अपनी ईश्वर की शुक्रगुज़ार हैं और ज़िंदगी से पूरी तरह संतुष्ट भी। क्योंकि वो ज़िंदगी को वैसे की स्वीकार करने में यक़ीन रखती हैं जैसे वो सामने आ जाए।
एक ख़ूबसूरत अदाकारा, एक कामयाब निर्माता, एक नर्मदिल और बेहतरीन इंसान, क़दम से क़दम मिलाकर चलने वाली शरिक़े हयात, सायरा बानो ने अपनी हर भूमिका को पूरी शिद्दत और ईमानदारी से निभाया है। और बतौर अभिनेत्री अपनी एक अमिट पहचान बनाई है।