सरस्वती देवी भारतीय सिनेमा की पहली पेशेवर महिला संगीतकार थीं मगर उस समय सिनेमा का नाम ही ख़तरनाक़ समझा जाता था और किसी महिला का फ़िल्मों से जुड़ना तो और भी विवाद का विषय, इसलिए उन्हें अपने समाज का भारी विरोध झेलना पड़ा। लेकिन उनका संगीत ऐसा था कि बाद में उन्हीं की धुनों पर बने गानों ने ख़ूब लोकप्रियता बटोरी।
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आजकल पुराने गानों में थोड़े से बीट्स मिक्स करके उन्हें नया रंग रुप देकर नई फ़िल्मों में इस्तेमाल किया जा रहा है। मगर ये काम फ़िल्मों में कोई नया नहीं है बल्कि बहुत पहले से हो रहा है। “पड़ोसन” फ़िल्म का ये क्लासिक कॉमेडी सांग तो आपको याद ही होगा – “एक चतुर नार करके सिंगार” और “झुमरु” का ये दर्द भरा गीत – “कोई हमदम न रहा कोई सहारा न रहा”
ये दोनों गाने इससे सालों पहले दो अलग-अलग फ़िल्मों में सुनाई दे चुके हैं। “एक चतुर नार” 1941 की फ़िल्म ‘झूला’ के लिए कवि प्रदीप ने लिखा था जिसे किशोर कुमार की सलाह पर “पड़ोसन” फ़िल्म में गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने दोबारा लिखा।
इसी तरह “कोई हमदम न रहा कोई सहारा न रहा” 1936 की फ़िल्म “जीवन नैया” का गीत है जिसे “झुमरु” में किशोर कुमार ने गाया। ओरिजिनल दोनों गाने अशोक कुमार पर फिल्माए गए थे और उन्होंने ही गाए थे। लेकिन इन दोनों गानों का ओरिजिनल म्यूज़िक दिया था – पहली प्रोफ़ेशनल फीमेल म्यूज़िक डायरेक्टर “सरस्वती देवी” ने।
सरस्वती देवी या जद्दनबाई कौन थीं पहली महिला संगीतकार
यूँ तो जद्दनबाई को हिंदी फ़िल्मों की पहली महिला संगीतकार माना जाता है, पर उन्होंने अपने बैनर की फ़िल्मों में ही संगीत दिया था। लेकिन सरस्वती देवी एक फ़ुल टाइम म्यूज़िक डायरेक्टर थीं, जिन्होंने एक दशक से भी ज़्यादा समय तक हिंदी फ़िल्मों में संगीत दिया। वैसे भी जद्दनबाई के संगीत से सजी “तलाश-ए-हक़” और सरस्वती देवी के संगीत से सजी “जवानी की हवा” दोनों ही 1935 में रिलीज़ हुई थीं।
एक पारसी परिवार में जन्मीं सरस्वती देवी का असली नाम था – ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी। उनके म्यूज़िक के प्रति लगाव को देख कर उनके पिता ने उन्हें बाक़ायदा शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलाई। जब मुंबई में ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ की शुरुआत हुई तो वहां होमजी सिस्टर्स यानी सरस्वती देवी और उनकी बहनों की ऑर्केस्ट्रा पार्टी बहुत मशहूर हुई थी। वहीं से सरस्वती देवी ने बाक़ायदा गाने की शुरुआत की हाँलाकि वो कॉलेज के टाइम से ही स्टेज पर गाया करती थीं और बाद में भी उन्होंने बड़े-बड़े समरोहों में अपने गाने से लोगों का दिल जीता।
बॉम्बे टॉकीज़ का साथ और विरोध
ऐसे ही एक फंशन में उनकी मुलाक़ात हिमांशु राय से हुई जो उस समय बॉम्बे टॉकीज़ शुरु करने जा रहे थे और उनके आग्रह पर सरस्वती देवी ने बॉम्बे टॉकीज़ में बतौर संगीतकार काम करना स्वीकार कर लिया, बल्कि कहना चाहिए कि पूरा म्यूज़िक डिपार्टमेंट उनकी देख-रेख और निर्देशों के अनुसार बना। सभी एक्सपर्ट म्यूज़िशियन को उन्होंने ही चुना। मशहूर संगीतकार S N त्रिपाठी ने अपने करियर की शुरुआत वहाँ उनके सहायक के रूप में ही की थी।
सरस्वती देवी के साथ उनकी एक बहन माणिक ने भी बॉम्बे टॉकीज़ ज्वाइन किया। लेकिन दोनों बहनों के फ़िल्म इंडस्ट्री ज्वाइन करने से पारसी समाज में हलचल मच गई। हर जगह उनका विरोध होने लगा। एक बार तो ऐसा हुआ कि वो हिमांशु राय के साथ कहीं जा रही थीं कि भीड़ ने उनकी गाड़ी को रोक लिया और सरस्वती देवी को बाहर खींच लिया। उस वक़्त हिमांशु राय ने ये कह कर जान बचाई कि वो देविका रानी हैं। लेकिन इस विरोध को ख़त्म करने के लिए ये सोचा गया कि ख़ुर्शीद होमजी मिनोचर नाम को ही बदल दिया जाए। इसके बाद दोनों बहनों का नाम बदल दिया गया।
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बावजूद इसके सरस्वती देवी की पहली फ़िल्म “जवानी की हवा” जो बॉम्बे टॉकीज़ की भी पहली फ़िल्म थी। उसका पारसी फ़ेडरल कॉउन्सिल ने बहुत विरोध किया, जुलूस तक निकाले। मामला तब जाकर शांत हुआ जब बॉम्बे टॉकीज़ ट्रस्ट के कुछ पारसी सदस्यों ने बीच-बचाव किया और ख़ूब समझाया-बुझाया। और जैसा कि होता है हर विरोध एक न एक दिन ठंडा पड़ जाता है, सरस्वती देवी का विरोध भी धीरे-धीरे ठंडा पड़ा और वो अपने काम में आगे बढ़ने लगीं।
कहते हैं कि प्लेबैक आने से पहले ही सरस्वती देवी और हिमांशु राय प्लेबैक टेक्नीक का एक प्रयोग कर चुके थे। “जवानी की हवा” फ़िल्म में सरस्वती देवी की बहन “चन्द्रप्रभा ” पर एक गाना फ़िल्माया जाना था मगर उस दिन उनका गला ख़राब था तो हिमांशु राय की सलाह पर सरस्वती देवी ने वो गाना लाइव गाया और चन्द्रप्रभा ने सिर्फ़ होंठ हिलाए थे। इस घटना का ज़िक्र सरस्वती देवी ने अपने एक अनौपचारिक इंटरव्यू में किया था।
कामयाबी की उड़ान
सरस्वती देवी शास्त्रीय संगीत की ज्ञाता थीं, मगर फ़िल्मों में उनकी क़ाबिलियत उस तरह उभर कर नहीं आ पाई। क्योंकि उस दौर में हीरो-हीरोइन्स को अपने गाने ख़ुद गाने पड़ते थे, तो फ़िल्मों का संगीत कलाकारों की गायन क्षमता के अनुसार ही देना पड़ता था, उनके लिए ऐसी सरल धुनें तैयार करनी होती थीं जिन्हें वो सहजता से गा सकें। मगर यही सरल धुनें सरस्वती देवी की ख़ूबी बन गईं। ऐसे ही गीत सुनाई दिए 1936 में आई “अछूत कन्या” में जो उनकी पहली हिट फ़िल्म थी।
“अछूत कन्या” का सबसे मशहूर गाना है “मैं बन की चिड़िया बन के बन-बन डोलूँ रे” इस गाने का रियाज़ अशोक कुमार और देविका रानी को क़रीब एक महीने तक कराया गया था। फिर उसी साल सरस्वती देवी ने “जन्मभूमि” फ़िल्म का म्यूज़िक दिया। इस फ़िल्म में एक राष्ट्रवादी गीत था, जिसे J S कश्यप ने लिखा था- “जय-जय जननी जन्मभूमि” इस गाने के कोरस की एक धुन को बीबीसी ने अपनी इंडियन न्यूज़ सर्विस की सिग्नेचर TUNE के तौर पर इस्तेमाल किया। बॉम्बे टॉकीज़ की ‘जीवन-नैया”, “जीवन प्रभात”, “प्रेम कहानी”, “वचन”, “पुनर्मिलन” और “झूला” जैसी अनेक फ़िल्मों में उन्होंने अकेले संगीत दिया और “कंगन”, “बंधन” “नया संसार” में रामचंद्र पाल के साथ मिलकर संगीत दिया जो बहुत मशहूर भी हुआ।
फ़िल्मों से सन्यास
लेकिन 1940 में हिमांशु राय की मौत के बाद बॉम्बे टॉकीज़ के हालात बिगड़ने लगे थे। ऐसे में जब सोहराब मोदी ने सरस्वती देवी को मिनर्वा मूवीटोन में काम करने की पेशकश की तो उन्होंने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पर वहाँ न तो काम की आज़ादी थी न ही उन शाही फ़िल्मों में सरलता की जगह। मिनर्वा मूवीटोन की कुछेक फ़िल्मों के अलावा उन्होंने कुछ दूसरे बैनर्स के साथ भी काम किया पर बॉम्बे टॉकीज़ वाला दौर फिर लौट कर नहीं आया और फिर उन्होंने फ़िल्मों से संन्यास ले लिया।
सरस्वती देवी ने HMV के लिए दो नॉन-फ़िल्मी ग़ज़लों का भी संगीत दिया था जिन्हें हबीब वली मोहम्मद ने आवाज़ दी थी। इनमें से एक थी “लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में” और दूसरी “ये न थी हमारी क़िस्मत” ये दोनों ही ग़ज़लें उस समय बहुत मशहूर हुईं।
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जिस दौर में फ़िल्में एक टैबू हुआ करती थीं, महिलाओं के लिए आगे बढ़ना आसान नहीं था। उस दौर में भारी विरोध झेलकर भी सरस्वती देवी डरी नहीं, रुकी नहीं और मेल डोमिनेटिंग सोसाइटी में उन्होंने अपनी वो पहचान बनाई, जो आज के दौर में भी आसान नहीं है। अपने आख़िरी दिनों में वो फ्रेक्चर की वजह से काफ़ी तक़लीफ़ में रहीं, और 9 अगस्त 1980 को लगभग गुमनामी में ही उनकी मौत हुई। फ़िल्मी दुनिया का ये एक काला पहलू है कि डूबते सितारे की तरफ़ कोई नहीं देखता है। फिर चाहे उस सितारे ने अपने वक़्त में कितनी ही चमक बिखेरी हो। लेकिन सरस्वती देवी का नाम, फ़िल्म इतिहास में पहली पेशेवर महिला संगीतकार के रुप में हमेशा अमर रहेगा।
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