हिंदी सिनेमा में चेतन आनंद एक ऐसे फ़िल्मकार के तौर पर जाने जाते हैं जिन्होंने फिल्म कंटेंट, टेक्नीक और स्टाइल को लेकर बहुत से एक्सपेरिमेंट किए और हक़ीक़त, हीर-राँझा, हँसते ज़ख़्म, क़ुदरत जैसी एक से बढ़कर एक बेहतरीन फिल्में दीं।
किसी भी फिल्म में उस निर्देशक की अपनी सोच उसका नजरिया,उसकी मेहनत उसकी प्रतिबद्धता और उसका परफ़ेक्शन पूरी तरह नज़र आता है, जो उस फिल्म को बेहतरीन और यादगार बनाता है। कुछ ऐसे फ़िल्मकार हुए है जिनकी एक-एक फ़िल्म अनमोल नगीने की तरह है। उनकी हर फ़िल्म में कुछ न कुछ ऐसा ज़रुर है जो उसे ख़ास बनाता है। ऐसे ही निर्माता निर्देशक और स्क्रीन राइटर थे चेतन आनंद जिन्हें पोएटिक जीनियस माना जाता है।
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चेतन आनंद का शुरुआती जीवन
चेतन आनंद का जन्म हुआ था 3 जनवरी 1921 को लाहौर में। देवानंद, विजय आनंद के सबसे बड़े भाई चेतन आनंद, उनकी एक बहन भी थीं, शीला कांता कपूर, मशहूर फ़िल्म निर्देशक शेखर कपूर उन्हीं के बेटे हैं। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से वेद शास्त्रों की पढाई की और फिर इंग्लिश में स्नातक किया। कॉलेज में उनके जो प्रिंसिपल थे उन्हें चेतन आनंद अपना मेंटोर मानते थे, उन्हीं की बेटी उमा से उनकी शादी हुई थी।
फिल्म इंडस्ट्री में आने से पहले उन्होंने कई काम किए, उन्हें लंदन यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप मिली, कुछ वक़्त तक उन्होंने BBC के लिए भी काम किया, उसके बाद उन्होंने दून स्कूल में इंग्लिश और हिस्ट्री जैसे सब्जेक्ट्स पढ़ाए फिर कुछ एक स्क्रिप्ट्स लिखी और उसके बाद मुंबई नगरी का सफर शुरू हुआ। दरअस्ल चेतन आनंद इंडियन सिविल सर्विसेज़ ज्वाइन करना चाहते थे पर इप्टा से जुड़ने के बाद उन्हें महसूस हुआ कि आम लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में सिनेमा सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकता है तब उन्होंने फिल्म निर्देशक बनने का सोचा। निर्देशक बनने से पहले फणि मजूमदार ने उन्हें अपनी फिल्म “राजकुमार” में लीड रोल में ले लिया।
निर्देशन की शुरुआत
चेतन आनंद के निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म आई “नीचा नगर” जो सोशल रियलिज़्म पर बनी शुरुआती फ़िल्मों में से थी। इस फिल्म में उनकी पत्नी उमा, रफ़ीक अहमद और कामिनी कौशल ने अभिनय किया था। म्यूज़िक कंपोज़र के तौर पर ये पं० रविशंकर की पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने फर्स्ट कांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में “ग्रैंड प्रिक्स” अवार्ड जीता और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी सिनेमा को पहचान दिलाई साथ ही चेतन आनंद भी एक निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए।
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1950 में चेतन आनंद के भाई देवानंद ने अपने बैनर “नवकेतन” की शुरुआत की। जिसकी पहली फ़िल्म “अफ़सर” का निर्देशन चेतन आनंद ने ही किया। पर ये फ़िल्म नहीं चली फिर इस बैनर तले बनी “आँधियाँ” भी नाकाम रही। उसके बाद चेतन आनंद ने अपना स्टाइल थोड़ा बदला और वो एक एंटरटेनर के रूप में सामने आये। उस स्टाइल की पहली फ़िल्म थी “टैक्सी ड्राइवर” जिसे 35 दिनों तक लगातार सुबह से शाम तक मुंबई की सड़कों पर एक हैंडी कैमरा से शूट किया गया था, ये फिल्म बेहद कामयाब हुई।
इसके बाद आई “फंटूश”, लेकिन उसके बाद उनके अपने भाइयों के साथ कुछ मतभेद हो गए। फिर चेतन आनंद ने भाइयों से राह अलग करते हुए अपना ख़ुद का बैनर बनाया “हिमालय फिल्म्स” जिसकी पहली फ़िल्म काफ़ी बाद में आई पर इस बीच चेतन आनंद ने “अर्पण” और “किनारे-किनारे” का निर्देशन किया, इन फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय भी किया। दरअस्ल जब भी मौक़ा मिला उन्होंने निर्देशन के साथ-साथ अभिनय भी किया। “अमन”, “कांच और हीरा”, “हिंदुस्तान की क़सम” और “काला बाज़ार” जैसी कुछ फिल्मों में आपने उन्हें देखा होगा।
चेतन आनंद की कामयाबी का सफ़र
एक दिन चेतन आनंद अपनी एक फ़िल्म में गाने लिखने का प्रस्ताव लेकर कैफ़ी आज़मी के पास गए। कैफ़ी आज़मी तब तक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा स्थापित नहीं हुए थे, उनके गाने पसंद तो किये जाते थे मगर वो फिल्में नहीं चल पा रही थीं। ऐसे में इंडस्ट्री में यह बात फैल गई थीं कि कैफ़ी आज़मी फिल्मों के लिए अनलकी हैं, और उन्हें काम मिलना बंद हो गया। तो कैफ़ी आज़मी ने चेतन आनंद के ऑफर पर कहा – लोग मुझे अनलकी मानते हैं आप क्यों रिस्क लेना चाहते हैं ? चेतन आनंद का कहना था कि उनकी भी फ़िल्में फ़्लॉप हो रही हैं और माइनस-माइनस प्लस होते हैं तो ये फिल्म आप ही के साथ बनेगी।
हक़ीक़त Trivia
इस तरह दो माइनस मिले और वाक़ई एक कामयाब फ़िल्म बनकर सामने आई जिसका नाम था हक़ीक़त जिसने दोनों के बंद रास्ते खोल दिए आगे के सभी रास्ते खोल दिए। हिमालय फिलम्स के बैनर तले 1964 में आई “हक़ीक़त” युद्ध पर बनी फ़िल्मों में आज भी पहले पायदान पर रखी जाती है इसकी कहानी चेतन आनंद ने ही लिखी थी। लद्दाख में actual लोकेशन पर फिल्माई गई ये पहली फ़िल्म थी। वहाँ के सख़्त हालात जो सिपाहियों के लिए भी मुश्किल होते हैं, सभी कलाकारों ने वहाँ सारी मुश्क़िलों को सहते हुए काम किया जो उनके चेहरों पर नज़र भी आता है।
वो जब “हक़ीक़त” फ़िल्म बनाने जा रहे थे तो उन्हें फाइनेंसर नहीं मिल पा रहा था, जो फण्ड उनके पास इकठ्ठा हुआ उसमें क़रीब 25 हज़ार रुपए कम पड़ रहे थे। ऐसे में फ़रिश्ता बनकर आईं चेतन आनंद की पत्नी उमा की एक सहेली जिनके मामा उस समय पंजाब के मुखयमंत्री थे। तो उस सहेली के कहने पर चेतन आनंद मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों से मिले उन्हें ‘हक़ीक़त’ की कहानी सुनाई और कहानी सुनते ही प्रताप सिंह कैरों ने अपने वित्त सचिव से कहा कि चेतन आनंद को 10 लाख रूपए का चेक दे दिया जाए। कहाँ तो 25 हज़ार रुपए नहीं मिल रहे थे और कहाँ 10 लाख मिल गए।
मदन मोहन का संगीत कैफ़ी आज़मी के बोल, कलाकारों और चेतन आनंद के डेडिकेशन ने इस फिल्म को इतना रीयलिस्टिक बना दिया कि जहाँ-जहाँ ये फ़िल्म दिखाई गई लोगों की आँखों से आँसू थामे नहीं। आजकल युद्ध पर आधारित जो फ़िल्में बनती हैं उनका बेस “हक़ीक़त” ही है। इसे दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। लद्दाख में जहाँ इस फिल्म की शूटिंग की गई थी वहां की एक हिल का नाम बाद में “हक़ीक़त हिल” ही रख दिया गया, इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा ?
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इस फ़िल्म के सभी गाने लाजवाब हैं पर एक तरह से जो फ़िल्म का थीम सांग है, वो लाजवाब है – “कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियो” – हक़ीक़त (1964) – मदन मोहन – कैफ़ी आज़मी
इस गाने के बनने की भी एक अनोखी कहानी है, इस सिचुएशन पर कैफ़ी आज़मी ने कई गीत लिखे पर कोई भी गाना चेतन आनंद को पसंद ही नहीं आ रहा था। लेकिन उस दौर के लोग एक-एक गाने को बनाने में अपनी पूरी जान लगा देते थे। तो एक रात कैफ़ी आज़मी को कुछ सुझा और उन्होंने रात में 1 बजे चेतन आनंद को फोन किया और ये गाना सुनाया और बोल सुनते ही चेतन आनंद ने मदन मोहन के घर आने को कहा। फिर रात में ही गाना फाइनल हुआ और सुबह नौ बजे रिकॉर्ड किया गया।
हीर-राँझा
ऐसा ही हुआ “हीर-राँझा” के वक़्त, उस रोज़ कैफ़ी साहब झुँझला गए और बोले कि “मैं suicide कर लूंगा चेतन, ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं है” और जैसे ही ये जुमला चेतन आनंद ने सुना उन्होंने इसे फाइनल कर दिया। हीर-रांझा तो वैसे भी एक पोएटिक फिल्म थी क्योंकि उसमें जो भी डायलॉग्स थे, सभी काफ़िया में कहे गए थे गीत के अंदाज़ में। इन मायनों में ये एक बिलकुल अलग एक्सपेरिमेंटल फिल्म थी।
इस स्टाइल में बनने वाली ये पहली फिल्म थी और शायद आख़िरी भी क्योंकि मुझे कोई और फ़िल्म याद नहीं आती तो पूरी तरह पद्य में बनी हो तो उस समय भी हीर राँझा को बनाना किसी रिस्क से कम नहीं था। रिस्क कई थे, हो सकता था – लोग इसे पसंद नहीं करते या दर्शकों को ये फ़िल्म समझ में ही नहीं आती और वो इसे स्वीकार ही नहीं करते, पर चेतन आनंद ने ये रिस्क लिया और उनका ये प्रयोग सफल भी रहा।
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चेतन आनंद के निर्देशन में बनी फिल्मों में “आखिरी ख़त” का भी एक ख़ास मक़ाम है जिसमें उन्होंने एक छोटे से बच्चे को उसके नेचुरल अंदाज़ में शूट किया जो बहुत ही सब्र का काम होता है। और इसके लिए lengthy सीन्स को एक्चुअल लोकेशन पर हैंडी कैमरा से फिल्माया गया। ये राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी लेकिन प्रदर्शित बाद में हुई थी।
इसकी कहानी एक छोटे से बच्चे के एक शहर में खो जाने की है इसलिए इसमें गानों की ज़रुरत नहीं थी तो उन्होंने म्यूज़िक डॉयरेक्टर ख़ैयाम से कहा कि उन्हें सिर्फ़ एक गाना चाहिए। जब ख़ैयाम साब ने एक लोरी तैयार कर दी तो वो चेतन आनंद को वो इतनी पसंद आई कि उन्होंने एक और गाना तैयार करने को कहा और फिर बना “बहारों मेरा जीवन भी सँवारो” और इस तरह इस फिल्म में गानों के लिए जगह बनाई गई।
चेतन आनंद के बैनर की क़रीबन हर फिल्म में टीम लगभग वही रही। फोटोग्राफर जल मिस्त्री,, म्यूजिक डायरेक्टर मदन मोहन, गीतकार कैफ़ी आज़मी और हेरोइन प्रिया राजवंश। प्रिया राजवंश का फ़िल्मी सफ़र “हक़ीक़त” से शुरु हुआ और उसके बाद वो सिर्फ चेतन आनंद की फिल्मों में ही नज़र आई। वो सिर्फ चेतन आनंद की फिल्मों का ही नहीं बल्कि उनकी ज़िंदगी का भी एक अहम् हिस्सा थीं। कहते हैं वो सिर्फ़ अभिनय ही नहीं बल्कि स्क्रिप्ट्स से लेकर पोस्ट प्रोडक्शन तक हर क्षेत्र में अपना योगदान देती थीं। चेतन आनन्द भी अपनी हर फ़िल्म में उन्हें ही हीरोइन लेते थे।
सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ जब प्रिया राजवंश उनकी फिल्म में नहीं थी। फिल्म थी नवकेतन की “जानेमन” जिसका निर्देशन उन्होंने देवानंद के कहने पर किया। इसमें हेमा मालिनी थीं और ये “टैक्सी ड्राइवर” का रीमेक थी। इसी तरह “साहब बहादुर” “अफ़सर” फिल्म का रीमेक थी, पर इन फिल्मों ने कोई ख़ास कमाल नहीं दिखाया। 1981 में आई चेतन आनंद के निर्देशन में बनी फ़िल्म “क़ुदरत” ये एक मल्टीस्टारर फिल्म थी जो पुनर्जन्म पर आधारित थी। इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट स्टोरी का अवार्ड मिला। हाँलाकि उन्होंने क़रीब 17 फिल्में बनाई और उनकी फिल्मों को बेस्ट फ़िल्म का अवार्ड भी मिला पर उन्हें बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड कभी नहीं मिला।
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उनकी आखिरी फ़िल्म थी “हाथों की लकीरें”, उन्होंने एक टीवी सीरियल भी बनाया था “परमवीर चक्र” जिसमें एक बार फिर उन्होंने युद्ध और सैनिकों पर फोकस किया। वो पार्टीशन पर फिल्म बनाना चाहते थे, उसके 6 गाने रिकॉर्ड भी हो गए थे लेकिन वक़्त ने इजाज़त नहीं दी। 6 जुलाई 1997 को वो इस दुनिया को अलविदा कह गए। चेतन आनंद एक पोएटिक जीनियस थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को अपने परफेक्शन और अपनी प्रयोगात्मक सोच से समृद्ध किया, आगे बढ़ाया ।
1996 में जब कान फेस्टिवल अपनी गोल्डन जुबली मना रहा था तो वहां चेतन आनंद को बुलाया गया पर जब वो नहीं जा सके तो वहाँ से एक टीम आई ख़ासतौर पर उनका इंटरव्यू करने के लिए, ये मक़ाम था चेतन आनंद का। उनकी ज़िंदगी पर एक किताब भी आई है और डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई है।
चेतन आनंद आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी बनाई फिल्में हमेशा नए फिल्मकारों को प्रेरित करती रहेंगी और दर्शकों को ये याद दिलाती रहेंगी कि एक ऐसा फ़िल्मकार था जो इंसान के दर्द को अपनी फिल्मों में बेहतर तरीके से दिखाता था। लव स्टोरी को ड्रामेटिक डेप्थ के साथ दिखाना उनकी ख़ासियत थी। उनका मानना था कि अपनी भावनाओं को बेहद असरदार तरीके से दिखने का अगर कोई माध्यम है तो वो सिनेमा है जिसे आम इंसान भी आसानी से समझ सकता है और इसी सिनेमा के लिए वो जीते रहे।
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