ग़ुलाम मोहम्मद

ग़ुलाम मोहम्मद उन फ़नकारों में से थे जिन्हें बेमिसाल शोहरत मिली, लेकिन तब जब वो उस शोहरत का लुत्फ़ लेने के लिए इस दुनिया में नहीं रहे।

कहते हैं किसी भी कलाकार को अमर बनाने के लिए सिर्फ एक मास्टर पीस काफ़ी होता है, और ग़ुलाम मोहम्मद ने तो कई फिल्मों में ऊँचे दर्जे का बेहतरीन संगीत दिया। लेकिन एक फिल्म ऐसी है जो उन सब पर भारी है जिसके संगीत ने उन्हें अमर कर दिया, उनका मास्टर पीस “पाकीज़ा”। 1903 में राजस्थान में जन्मे ग़ुलाम मोहम्मद मूल रूप से तबला और ढोलक वादक थे। बचपन में उन्होंने अपने पिता नबी बक्श से ही संगीत सीखा जो खुद एक अच्छे तबला वादक थे।

ग़ुलाम मोहम्मद मटका बजाने में माहिर थे

ग़ुलाम मोहम्मद ने बहुत छोटी उम्र में ही जोधपुर -बीकानेर नाम की एक घुमंतू थिएटर कंपनी में काम करना शुरू कर दिया था। वहां उन्होंने लगभग हर विधा सीखी कंपनी के डांस डायरेक्टर भी रहे। उन्होंने लाहौर की न्यू अल्फ़्रेड कंपनी में भी काम किया। संगीत में उनकी काफ़ी रूचि थी तो हैदराबाद के ग़ुलाम रसूल ख़ाँ से उन्होंने संगीत की बारीक़ियाँ सीखीं और कई वाद्यों में महारत हासिल की। तबला, ढोलक, पखावज के अलावा वो मटका, ढफ, खंजीरा और चिमटा बजने में माहिर थे।

उनके मटके का कमाल पारस फ़िल्म के गीत “इस दर्द की मारी दुनिया में मुझसे भी कोई मजबूर न हो” और शायर फ़िल्म के गीत “ये दुनिया है यहाँ दिल का लगाना किसको आता है” में सुना जा सकता है। ग़ुलाम मोहम्मद 1924 में  मुम्बई आ गए थे, लेकिन वहाँ उन्होंने संघर्ष का एक लंबा दौर देखा। आखिरकार आठ साल बाद उन्हें सरोज मूवीटोन में तबला प्लेयर का काम मिला। “राजा भर्तृहरि” इसी बैनर की फिल्म थी जिसमें उनके तबला वादन की काफी प्रशंसा हुई।

ग़ुलाम मोहम्मद और नौशाद की दोस्ती ताउम्र चली

ग़ुलाम मोहम्मद कुछ समय तक संगीतकार उस्ताद झंडे ख़ाँ, रफ़ीक़ ग़ज़नवी और अनिल बिस्वास के सहायक रहे। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात नौशाद से हुई, कहते हैं उन्होंने ही नौशाद को उस्ताद झंडे ख़ाँ से मिलवाया और एक ऑर्गन प्लेयर के तौर पर उन्हें काम दिलाया। तभी से दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। 1943 की फ़िल्म “संजोग” से लेकर 1951 की “आन” तक वो संगीतकार नौशाद के सहायक रहे। हाँलाकि शुरुआत तबला वादक के तौर पर हुई थी कुछ समय बाद वो नौशाद के असिस्टेंट बने।

नौशाद की इस दौर की फ़िल्मों के संगीत में जो ढोलक और तबला का कमाल दिखता है उसके पीछे ग़ुलाम मोहम्मद का ही हाथ है। नौशाद के सहायक रहते हुए भी ग़ुलाम मोहम्मद ने कई फ़िल्मों में संगीत दिया और जब पूरी तरह इंडिपेंडेंट म्यूज़िक देने लगे तब भी दोनों का साथ बना रहा। 1947 में ग़ुलाम मोहम्मद ने पी एन अरोड़ा की फ़िल्म “डोली” में संगीत दिया जिसमें शमशाद बेगम का गाया ये गाना बहुत मशहूर हुआ – अंगना में बोले कागा रे बहुत मशहूर हुआ।

ग़ुलाम मोहम्मद

ग़ुलाम मोहम्मद ने “डोली” के बाद पी एन अरोड़ा की क़रीब 10 फ़िल्मों में संगीत दिया। लेकिन एक संगीतकार के तौर पर उनकी शोहरत को नया आसमान मिला 1948 में आई फ़िल्म “काजल” से। इस दौर में “टाइगर क्वीन”, “गृहस्थी”, “पगड़ी”, “पराई आग”, “दिल की बस्ती”, “शायर” और “परदेस”, जैसी कई फ़िल्मों में ग़ुलाम मोहम्मद का म्यूज़िक सुनाई दिया, “गृहस्थी” और “पगड़ी” के गाने तो बहुत मशहूर हुए।

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पर ग़ुलाम मोहम्मद की 1950 में आई “परदेस” उनकी उस वक़्त की सबसे हिट फिल्म थी और अकेली ऐसी फिल्म भी जिसके शोख़ गाने संजीदा गीतों से ज़्यादा मशहूर हुए। “पारस” और “शायर” जैसी फिल्मों में मटके का खूबसूरती से प्रयोग करने वाले संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने “परदेस” में ऑरकेस्ट्रेशन में अपना सिक्का जमाया। 1953 की फिल्म “लैला मजनू” में शकील बदायुनी ने उनके लिए गीत लिखे और फिर इस जोड़ी ने कई फिल्मों में यादगार गीत दिए, पर इन दोनों की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म रही “दिल-ए-नादाँ” ।

अमूमन ग़ुलाम मोहम्मद के गीतों में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें हुआ करती थीं। मगर जब A R कारदार ने “दिल-ए-नादाँ” बनाई तो उसमें हीरो थे गायक तलत महमूद जो ख़ुद बहुत अच्छे गायक थे तो अपने गाने उन्होंने ख़ुद ही गाए जिनमें से एक तो आज भी तलत महमूद के हिट सांग्स में शामिल किया जाता है। “ज़िंदगी देने वाले सुन – दिल – ए- नादाँ”  इसी फिल्म से ग़ुलाम मोहम्मद ग़ज़ल स्टाइल की तरफ बढे जो बाद में उनके संगीत की ख़ासियत बन गई।

ग़ुलाम मोहम्मद

फ़िल्मी ग़ज़ल को नया रुप देने वाले संगीतकार थे ग़ुलाम मोहम्मद

1954 में आई “मिर्ज़ा ग़ालिब” का संगीत ग़ुलाम मोहम्मद के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। मिर्ज़ा ग़ालिब वही फ़िल्म है जिसे राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था और इसी फ़िल्म के गीत सुनकर पं जवाहर लाल नेहरु ने सुरैया से कहा था कि “तुमने मिर्ज़ा ग़ालिब की रुह को ज़िंदा कर दिया” यक़ीनन सुरैया की आवाज़ ने कमाल किया था मगर म्यूजिक का कमाल ग़ुलाम मोहम्मद का था। इस एक फिल्म से उनकी गिनती चोटी के संगीतकारों में होने लगी थी।

मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे शायर की मुश्किल ग़ज़लों को धुनों में पिरोना यानी फ़िल्मी म्यूज़िक से अलग हट कर संगीत देना ताकि ग़ज़ल की रुह बनी रहे और सुननेवालों को पसंद भी आये। तो ग़ुलाम मोहम्मद ने ट्रेडिशनल (परंपरागत) ग़ज़ल गायकी वाला संगीत न देकर ऐसी धुनें तैयार कीं जिन्हें लोग लोग गुनगुना सकें। और ये उस समय की बात है जब फ़िल्मी ग़ज़लों का सुनहरा दौर शुरू भी नहीं हुआ था। इस तरह देखें तो ये एक नई पहल थी, जिसके लिए उनकी थोड़ी आलोचना भी की गई।

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मिर्ज़ा ग़ालिब फिल्म में एक ग़ज़ल है है “बस के हर एक उनके इशारों में बयां और” ये पहली ग़ज़ल थी जिसे तेज़ धुन के साथ कम्पोज़ किया गया। जब ये ग़ज़ल लोगों ने सुनी तो हंगामा मच गया, संगीत के जानकारों ने उन्हें बहुत भला-बुरा कहा। लेकिन ग़ुलाम मोहम्मद का कहना था कि फ़िल्म में ये ग़ज़ल एक भिखारी गा रहा है जिसे सुर-ताल की कोई समझ नहीं है, उसका मक़सद सिर्फ़ गाकर भीख माँगना है तो वो ग़ज़ल की उसी तरीक़े से गाएगा जिससे वो फैमिलियर है।

फ़िल्म की सिचुएशन के हिसाब से उनका तर्क बिलकुल सही था और उनके इस जवाब से उनके सभी आलोचकों के मुँह बंद हो गए। तो ग़ज़ल को फिल्म संगीत में एक नए रूप में लाने का श्रेय संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को दे सकते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब के अलावा भी उस दौर में ग़ुलाम मोहम्मद ने जिन फिल्मों में म्यूज़िक दिया वो बेहद परिपक़्व और परिष्कृत रहा और उनकी यही विशेषता उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल बन गई।

फिल्म संगीत का अपना एक स्टाइल होता है, और ग़ुलाम मोहम्मद हर अंदाज़ का संगीत बना सकते थे पर कहीं न कहीं ये मान लिया गया था कि वो सिर्फ “लैला मजनूँ”, “मिर्ज़ा ग़ालिब” जैसी फिल्मों के लिए ही बढ़िया संगीत दे सकते हैं। ये ठीक है कि उनकी धुनें शास्त्रीय संगीत पर आधारित होती थीं, पर मेलोडियस होती थीं, लेकिन उनके बारे में जो एक विचाधारा बन गई थी उस की वजह से वो कमर्शियली पिछड़ गए और उन्हें मिलने वाली फिल्में कम होती गईं। यहाँ तक कि 1957 से 1960 के बीच उनकी सिर्फ तीन फ़िल्में आईं, पाक दामन (1957), मालिक (1958) और दो गुंडे (1959) ।

“पाकीज़ा” ग़ुलाम मोहम्मद का मास्टरपीस

इधर उन्हें काम नहीं मिल रहा था उधर “पाकीज़ा” जिसमें उनकी ज़िन्दगी का सर्वश्रेष्ठ संगीत था, जिसके लिए उन्होंने 15 गाने कंपोज़ किये थे, वो अधूरी पड़ी थी। सोचिये क्या गुज़रती होगी उस इंसान के मन पर जिसे अपनी क़ाबिलियत साबित करने का मौक़ा ही नहीं मिल पाए। इसी बुरे दौर में ख़ुशी की लहर बन कर आई फ़िल्म “शमाँ” जिसके गीतों ने ऐसी धूम मचाई कि “मिर्ज़ा ग़ालिब” की याद ताज़ा हो गई। पर अफ़सोस की बात ये है कि उनके जीते जी यही उनकी आख़िरी रिलीज़ रही।

“पाकीज़ा” की कामयाबी ग़ुलाम मोहम्मद देख नहीं सके क्योंकि 17 मार्च 1968 में वो इस दुनिया को अलविदा कह गए और “पाकीज़ा” उनकी मौत के चार साल बाद रिलीज़ हुई। जिस दौरान वो पाकीज़ा का संगीत तैयार कर रहे थे उन की माली हालात ठीक नहीं थी, वो दिल की बीमारी से जूझ रहे थे पर उसका इलाज तो दूर की बात है उनके पास त्यौहार मनाने तक के पैसे नहीं थे। किस्मत साथ न दे तो टैलेंट धरा का धरा रह जाता है, ऐसा ही हुआ ग़ुलाम मोहम्मद के साथ हुआ।

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“पाकीज़ा” का बैकग्राउंड म्यूजिक और कुछ गानों का संगीत उनकी बीमारी और फिर मौत के कारण संगीतकार नौशाद ने तैयार किया लेकिन मुख्य संगीतकार के रूप में ग़ुलाम मोहम्मद ने “पाकीज़ा” से वो मुक़ाम हासिल किया जो किसी भी संगीतकार की तमन्ना होती है। “पाकीज़ा” उनका एक महान म्यूज़िकल मास्टरपीस है, मुजरे को इतनी पाकीज़गी और दिलकश अंदाज़ के साथ इससे पहले किसी संगीतकार ने पेश नहीं किया था जैसे ग़ुलाम मोहम्मद ने किया।

ग़ुलाम मोहम्मद

“पाकीज़ा” फ़िल्म का एक-एक गाना लाजवाब है, ग़ुलाम मोहम्मद ने इसमें अपना दिल और आत्मा सब डाल दी थी। जो गीत इस फिल्म में शामिल हुए और सुने गए उनकी तारीफ़ और चर्चा तो बहुत होती है पर कुछ गाने ऐसे भी थे जो रिकॉर्ड तो हुए पर फिल्म में शामिल नहीं हो सके। बाद में उन्हीं गानों का रिकॉर्ड निकाला गया जिसका नाम था “पाकीज़ा रंग-ब-रंग” ये गीत भी अपने आप में मिसाल हैं।

ग़ुलाम मोहम्मद के पक्ष में प्राण ने ठुकराया अपना अवॉर्ड

पाकीज़ा के म्यूजिक के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड्स की बेस्ट म्यूजिक कैटगरी में ग़ुलाम मोहम्मद का नाम नॉमिनेट किया गया था लेकिन उन्हें ये अवार्ड नहीं दिया गया। अवॉर्ड दिया गया 1972 में आई फ़िल्म बेईमान के संगीतकार शंकर-जयकिशन को। इसी फिल्म के लिए प्राण को भी बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड दिया जा रहा था, लेकिन प्राण ने वो अवॉर्ड लेने से मना कर दिया। क्योंकि उन्हें ही नहीं बल्कि सभी को ऐसा लगता था और आज भी लगता है कि बेस्ट म्यूजिक का अवार्ड संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को मिलना चाहिए था, ख़ासकर उस समय जब वो इस दुनिया से जा चुके थे।

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ग़ुलाम मोहम्मद वो संगीतकार थे जिन्हें वो मक़ाम नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। फिल्म इंडस्ट्री ने उनके फ़न की क़द्र नहीं की। पर सिर्फ़ फ़िल्म इंडस्ट्री को ही क्यों दोष दिया जाए, ऐसा तो हर जगह होता है। हर इंसान को उतना ही मिलता है जितना उसके हिस्से में होता है।