सोहराब मोदी जिनकी फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘मिनर्वा मूवीटोन’ ने एक से बढ़कर एक ऐतिहासिक और भव्य फिल्में बनाई, लेकिन वो जाने गए अपनी बुलंद आवाज़ और डायलॉग डिलीवरी के लिए।
सिनेमा में कुछ लोग ख़ासतौर पर अपनी आवाज़ और डायलॉग डिलीवरी के अपने मख़सूस अंदाज़ के लिए जाने गए। ऐसी ही शख़्सियत थे-सोहराब मेरवानजी मोदी। उनकी आवाज़ और अंदाज़ में वो जादू था कि सिर्फ़ उनके डायलॉग्स सुनने के लिए लोग थिएटर जाते थे। उनकी इसी आवाज़ के कारण उनके स्कूल के प्रिंसिपल ने कहा था कि उन्हें या तो नेता बनना चाहिए या अभिनेता और उन्होंने अभिनेता बनना बेहतर समझा। आवाज़ के साथ-साथ हिंदी और उर्दू भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी, थिएटर से प्यार था और नाटक उन्हें अपनी तरफ़ खींचते थे।
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सोहराब मोदी ने अपनी स्कूलिंग पूरी करके सीधे थिएटर और सिनेमा की दुनिया में क़दम रखा। उनके बड़े भाई रुस्तम ने उन्हें एक सिनेमा प्रोजेक्टर दिया, और उन्होंने एक ट्रेवलिंग सिनेमा खोला। लेकिन जब उनके बड़े भाई बीमार हुए तो उनकी नाटक कंपनी की कमान उन्होंने संभाली और यहीं से उन्हें स्टेज के प्रति एक लगाव पैदा हुआ। वो अक्सर शेक्सपियर के नाटकों का उर्दू में अनुवाद करके स्टेज पर परफॉर्म किया करते थे। उनका एक नाटक ‘ख़ून का ख़ून’ बहुत मशहूर हुआ। अपने भाई के उस घुमन्तु थिएटर ग्रुप के साथ से जुड़ कर उन्होंने पूरे देश में अपने अभिनय का जलवा दिखाया।
सोहराब मोदी ने दो फ़्लॉप फ़िल्मों के बाद मिनर्वा मूवीटोन शुरु किया
लेकिन जैसे-जैसे सिनेमा तरक़्क़ी करता जा रहा था वैसे-वैसे थिएटर कहीं पीछे छूटने लगा था। तब इस गुम होती हुई कला को बचाने के लिए वो फ़िल्मों में आए। हाँलाकि वो कुछेक साइलेंट फ़िल्मों में काम कर चुके थे, पर अपने नाटकों को एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाने के लिए उन्होंने सिनेमा का दामन थामा और अलग-अलग बेनर तले दो फिल्में बनाईं – ‘ख़ून का ख़ून’ और ‘सईद-ए-हवस’, पर ये दोनों ही फिल्में नहीं चलीं पर इस अनुभव से उन्होंने जाना कि फ़िल्म-मेकिंग और थिएटर शो में काफ़ी फ़र्क़ है। उसके बाद नींव पड़ी मिनर्वा मूवीटोन की।
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मिनर्वा मूवीटोन की पहली फ़िल्म थी “आत्मतरंग’ जो बहुत बड़ी फ्लॉप रही। लेकिन इसी फ़िल्म से उन्हें बेहतरीन फिल्में बनाने का हौसला मिला। उन्हीं के बनाए मिनर्वा सिनेमा में इस फ़िल्म का शो चल रहा था। मुश्किल से २०-25 लोग देखने आये थे जिनमें उस समय के चार जज भी थे और उन्होंने उस तरह की फिल्म बनाने के लिए सोहराब मोदी की की हौसलाअफ़ज़ाई की और कहा कि एक दिन वो ज़रुर कामयाब होंगे, और इस बात को वो कभी नहीं भूले। फिर वैसी ही फ़िल्में बनाई जिनके ज़रिए वो समाज को कुछ दे सकें।
मिनर्वा मूवीटोन ऐतिहासिक फ़िल्मों का पर्याय बन गया था
1939 में आई ‘पुकार’ से ऐतिहासिक फ़िल्मों का एक भव्य सिलसिला शुरु हुआ। “पुकार” में मुग़ल बादशाह जहांगीर की न्यायप्रियता की कहानी बयाँ की गई। उसके बाद 1941 में आई ‘सिकंदर’, कहा जाता है कि ‘सिकंदर’ फ़िल्म के लिए उन्होंने बहुत गहरी रिसर्च की थी। उसी को फॉलो करते हुए फ़िल्म के सभी कलाकार एक ख़ास डायट और एक्सरसाइज पर थे जिस का सख्ती से पालन किया जाता था। इस फ़िल्म के सेट्स और प्रोडक्शन वैल्यू हॉलीवुड के लेवल की थी। इस फ़िल्म में दो महान ऐतिहासिक किरदार और दो बुलंद आवाज़ें एक दूसरे के आमने-सामने थीं।
एक पृथ्वीराज कपूर जिन्होंने सिकंदर का मुख्य किरदार निभाया था और दूसरे ख़ुद सोहराब मोदी जो राजा पोरस की भूमिका में थे, ये मुक़ाबला देखने वाला था। जिन दिनों ये फ़िल्म आई देश में आज़ादी की लहर छाई थी, उस जोश को इस फ़िल्म ने दुगुना कर दिया। पर सेंसर से पास होने के बाद भी कुछ इलाक़ों में इसे बैन कर दिया गया था। इसके बाद मिनर्वा मूवीटोन की एक और ऐतिहासिक फ़िल्म आई ‘पृथ्वी वल्लभ’। इन तीन कामयाब फ़िल्मों ने मिनर्वा मूवीटोन को एक अलग मुक़ाम पर खड़ा कर दिया।
सोहराब मोदी को स्कूल के दिनों में इतिहास बिलकुल पसंद नहीं था। मगर जब फ़िल्में बनाने लगे तो उन्होंने न सिर्फ़ इतिहास पढ़ा बल्कि इतनी बारीक़ी से पढ़ा कि मिनर्वा मूवीटोन अपनी ऐतिहासिक फ़िल्मों के लिए ही जाना गया, जिन पर सोहराब मोदी बहुत गहरी रिसर्च करते थे और फिर अपने भव्य विशाल सेट्स से उस दौर को ज़िंदा कर देते थे। सिर्फ़ सेट्स ही नहीं वो हर बारीक़ी पर ध्यान देते थे। इसी की मिसाल थी भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म “झाँसी की रानी” जो 1942 में बनना शुरु हुई थी पर इसे बनने में काफ़ी वक़्त लग गया।
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झाँसी की रानी के जीवन पर बनी ये सबसे ऑथेंटिक फ़िल्म मानी जाती है, इस फ़िल्म के लिए उन्होंने हॉलीवुड से टेक्निशंस बुलाए थे। सटीक ऐतिहासिक घटनाओं और युद्ध के दृश्यों के लिए ये फ़िल्म सराही भी गई मगर 1950 में आई ये महँगी फ़िल्म दर्शकों के दिल को नहीं छू पाई। लेकिन 1954 में मिनर्वा मूवीटोन की वो फ़िल्म आई जिसे राष्ट्रपति के गोल्ड और सिल्वर दोनों मैडल से नवाज़ा गया- “मिर्ज़ा ग़ालिब”। फ़िल्म में मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमिका अदा की थी भारत भूषण ने और उनकी प्रेमिका के रूप में थीं सुरैया, जिन्होंने ग़ालिब की ग़ज़लें इस तरह गाईं, कि ख़ुद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनसे कहा था कि “तुमने मिर्ज़ा ग़ालिब की रूह को ज़िंदा कर दिया”
सोहराब मोदी अपनी फ़िल्मों के प्रति बहुत संवेदनशील थे
‘पुकार’, ‘सिकंदर’, ‘यहूदी’, ‘पृथ्वी वल्लभ’, ‘झाँसी की रानी’, ‘परख’, ‘जेलर’, ‘राजहठ’, ‘नौशेरवान-ए-आदिल’, ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, मिनर्वा मूवीटोन की कुछ प्रमुख फ़िल्में रहीं। जिनमें सोहराब मोदी के निर्माण-निर्देशन के साथ-साथ अभिनय और संवाद अदायगी का जादू भी देखने को मिला। उनकी आवाज़ आम दर्शकों को अपनी तरफ़ खींचती थी और इसका अनुभव उन्होंने ख़ुद किया। हुआ यूँ कि सिनेमा हॉल में उनकी फ़िल्म “शीशमहल” का शो चल रहा था। सोहराब मोदी की आदत थी कि अपनी फ़िल्मों के प्रदर्शन के दौरान वो अक्सर सिनेमा हॉल जाया करते थे ताकि दर्शकों का रिएक्शन जान सकें।
एक दिन उन्होंने देखा कि एक आदमी आँखें बंद करके बैठा है, उन्हें बुरा लगा और उन्होंने एक कर्मचारी को बुलाकर कहा कि उस आदमी को फ़िल्म पसंद नहीं आ रही है इसलिए उसे बाहर कर दो और टिकट के पैसे भी वापस कर दो। लेकिन उस कर्मचारी ने वापस आकर बताया कि वो व्यक्ति देख नहीं सकता है, सिर्फ़ सोहराब मोदी के डायलॉग सुनने के लिए वहाँ आया था। किसी को इससे बड़ी दाद और क्या मिल सकती है!
मिनर्वा मूवीटोन के फाउंडर, प्रोडूसर, डायरेक्टर और एक्टर सोहराब मोदी का जन्म २ नवंबर 1879 में हुआ और उन्होंने आख़िरी साँस ली 28 जनवरी 1984 को मगर आख़िरी दम तक फ़िल्मों के लिए उनका जोश बरक़रार रहा। अभिनेत्री नसीम के साथ उनके रोमांस की ख़बरें आईं मगर उन्होंने शादी की अपने से 20 साल छोटी अभिनेत्री महताब से और बतौर हेरोइन उन्हें लेकर कई फिल्में भी बनाई। महताब तलाक़शुदा थीं और एक बेटे की माँ भी इसीलिए वो इस शादी को लेकर थोड़ा असमंजस में थीं। मगर सोहराब मोदी ने न सिर्फ़ उन्हें बल्कि उनके बेटे को भी पूरे दिल से अपनाया।
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मिनर्वा मूवीटोन में कई समाजिक फिल्मों का निर्माण भी हुआ जो किसी न किसी सन्देश के साथ आईं। शुरुआत में ऐसी फ़िल्मों में एक तरह की प्रोग्रेसिव अप्प्रोच हुआ करती थी। पर बाद में उनका फ्लेवर बदल गया और सोहराब मोदी का केरेक्टर भी काफ़ी लाउड और ज़िद्दी इंसान का दिखने लगा जिसमें एक तरह का दोहराव होने लगा था। मुख्य रूप से मिनर्वा मूवीटोन अपनी ऐतिहासिक फ़िल्मों के लिए ही जाना गया। जो प्रामणिकता और भव्यता के लिहाज़ से सबसे अलग रहीं और उन पर सोहराब मोदी की छाप हमेशा दिखाई दी।