शकील बदायूँनी के जन्मदिन के मौक़े पर उनकी ज़िंदगी पर एक नज़र। गीतकार-ए-आज़म की उपाधि से नवाज़े गए शकील बदायूँनी हिंदी फ़िल्मों के ऐसे गीतकार थे जिन्होंने हमेशा स्तरीय गीत लिखे। “चौदहवी का चाँद हो या आफ़ताब हो”, “मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम”, “जब प्यार किया तो डरना क्या”, “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा” उनका लिखा एक-एक गाना अनमोल नगीने की तरह है।
जब सारी दुनिया एक ही राह पर चल रही हो तब कोई उस राह से अलग किसी और ही रास्ते पर चलने की हिम्मत दिखाए और अपनी एक अलग पहचान बनाये तो फिर उस इंसान को कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता—ऐसे ही शायर और गीतकार थे शकील बदायूँनी। उन्होंने जब लिखना शुरू किया तब ज़्यादातर शायर समाज के कड़वे सच को अपनी शायरी में उतार रहे थे, या समाज की बेहतरी के लिए लिख रहे थे। ऐसे में शकील बदायूँनी ने इश्क़ की दास्ताँ, मोहब्बत के दर्द, जुदाई की तड़प और मिलन के सुख को अपनी शायरी का विषय बनाकर अपनी एक अलग राह बनाई।
शकील बदायूँनी का शुरुआती जीवन
3 अगस्त 1916 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्म हुआ शकील अहमद यानी शकील बदायूँनी का। उनके पिता बदायूँ के सम्मानित विद्वान और उपदेशक थे, साथ ही “सोख़्ता” नाम से शायरी भी किया करते थे। उनके चाचा भी उस्ताद शायर थे और उन्हीं के मार्गदर्शन में शकील बदायूँनी ने 14 बरस की उम्र में शेर कहना शुरू कर दिया था। 14 बरस की उम्र बहुत कम होती है लेकिन आपके अंदर किसी चीज़ के लिए जुनून है तो उम्र मायने नहीं रखती आप किसी भी उम्र में कुछ भी हासिल कर सकते हैं। बदायूँ में उर्दू, फ़ारसी और हिंदी की शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का रुख़ किया।
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यूनिवर्सिटी में शकील बदायूँनी ने मुशायरों और मुक़ाबलों में शिरक़त करना शुरू कर दिया था और कई मुक़ाबले जीते भी। इसी दौर में उन्होंने हक़ीम अब्दुल वाहिद अश्क़ बिजनौरी से शायरी के सबक़ लेना भी शुरू कर दिया। ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद वो दिल्ली आकर सप्लाई अफसर की नौकरी करने लगे पर दिल और दिमाग़ शायरी में लगा रहता था। सो दिल्ली में भी उन्होंने मुशायरों में हिस्सा लेना जारी रखा और ऐसा ही एक मुशायरा सबब बना उनके मुंबई जाने का।
एक मुशायरे में संगीतकार नौशाद और फ़िल्मकार A R कारदार ने शकील बदायूँनी को सुना और बहुत प्रभावित हुए। जब उन से फिल्मों में गीत लिखने के बारे में पूछा तो ज़ाहिर सी बात है वो तुरंत राज़ी हो गए। तब नौशाद ने उनसे एक लाइन में कुछ सुनाने को कहा और उन्होंने कहा “हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे” और ठीक उसी वक़्त शकील बदायूनी को फ़िल्म “दर्द” के लिए साइन कर लिया गया।
फ़िल्मी सफ़र
दर्द (1947) फ़िल्म के गाने बहुत लोकप्रिय हुए लेकिन एक गाने ने तो हर दिल में जगह बना ली थी। उमा देवी यानि टुनटुन का गाया ये गाना आज भी जब सुनाई देता है तो आप गुनगुनाने को मजबूर हो जाते हैं – “अफसाना लिख रही हूँ दिल-ए-बे-क़रार का”, बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिन्हें पहली ही फ़िल्म से शोहरत और कामयाबी मिलती है। शकील बदायूँनी उनमें से एक रहे जिनकी कामयाबी का सिलसिला बरसों-बरस चलता ही गया।
संगीतकार नौशाद के साथ उनकी जोड़ी भी हिट रही। इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी ने क़रीब 20 साल तक साथ काम किया और दीं- “बैजू बावरा”, “मदर इंडिया”, “गंगा-जमुना”, “मुग़ल-ए-आज़म”, “मेरे महबूब” जैसी कितनी ही सुपरहिट म्यूजिकल फ़िल्में, जिनके गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने उस ज़माने में थे।
सिचुएशन मूड जगह और धुन के मुताबिक़ गीत लिखना उनकी खासियत थी जो किसी भी गीतकार की खासियत होनी भी चाहिए। उनके लेखन में एक तरह की सादगी थी जो सुनने वालों को एकदम लुभा लेती थी। शकील बदायूँनी ने नौशाद के अलावा C रामचंद्र (ज़िंदगी और मौत, वतन के लोग ), रोशन (बेदाग़ और नूरजहां ), S D बर्मन (कैसे कहूँ, बेनज़ीर ), रवि (घराना, घूँघट, गृहस्थी, फूल और पत्थर, चौदहवीं का चाँद और दो बदन ) हेमंत कुमार ( २० साल बाद, बिन बादल बरसात और साहिब बीबी और ग़ुलाम) के लिए बहुत से सुपरहिट गीत लिखे।
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वैसे तो शकील बदायूँनी ने नौशाद के लिए सबसे ज़्यादा गीत लिखे पर उन्हें फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ गीतकार के अवार्ड मिले, रवि के संगीत निर्देशन में बनी फिल्मों “घराना”, “चौदहवी का चाँद” और हेमंत कुमार के संगीत से सजी फ़िल्म “20 साल बाद” के लिए। “20 साल बाद” का ये मशहूर गाना “कहीं दीप जले कहीं दिल” तो आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। शकील बदायूँनी ने क़रीब 90 फिल्मों में गीत लिखे। इनके अलावा उनकी लिखी कुछ मशहूर ग़ज़लें हैं जिन्हें बेगम अख़्तर और तलत महमूद जैसे सिंगर्स ने गाया। उनके कलाम आज भी कई ग़ज़ल गायकों द्वारा गाये जाते हैं।
शकील बदायूँनी को बैडमिंटन खेलना, पतंग उड़ाना और दोस्तों के संग पिकनिक पर जाना बहुत पसंद था। आमतौर पर इंसान अगर अच्छी ज़िंदगी जीना चाहता है तो उसे ये सब करना भी चाहिए। कहते हैं पतंग बाज़ी में मोहम्मद रफ़ी के अलावा कभी-कभी जॉनी वॉकर भी उनका साथ दिया करते थे। फ़िल्म इंडस्ट्री में नौशाद, मोहम्मद रफ़ी, ग़ुलाम मोहम्मद, दिलीप कुमार और लेखक वजाहत मिर्ज़ा, ख़ुमार बाराबंकवी और अज़्म बाज़िदपुरी उनके अच्छे दोस्तों में से थे।
डायबिटीज़ के कारण 20 अप्रैल 1970 में को शकील बदायूँनी इस दुनिया से रुख़सत हो गए। उनके जाने के बाद उनके कुछ बेहद अज़ीज़ दोस्तों ने उनकी याद में एक ट्रस्ट बनाया -“याद-ए-शक़ील” जिससे उनके परिवार की मदद हो सके। उनकी दो बेटियां और दो बेटे हुए। एक बेटी नजमा की मौत उनकी मौत के कुछ वक़्त बाद ही हो गई थी। शकील बदायूँनी की याद में उन्हें सम्मान देते हुए 3 मई 2013 को एक डाक टिकट जारी किया गया था। उनकी क़ाबिलियत और हिंदी फ़िल्मों में जो उनका योगदान था उसी के कारण उन्हें गीतकार-ए-आज़म की उपाधि से भी नवाज़ा गया।
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