रणजीत मूवीटोन (Ranjit Movietone) के बारे में कहा जाता था कि “आकाश से ज़्यादा सितारे रणजीत में हैं” और सितारों से भरे इस स्टूडियो की स्थापना की थी चंदूलाल शाह ने जो अपने जुए और रेस के शौक़ के लिए भी जाने जाते थे।
ज़िंदगी में रिस्क लेना ज़रुरी है मगर किस हद तक, ख़ासतौर पर जब आपके पास वो सब हो जिसकी तमन्ना दूसरे कितने ही लोग करते हैं। ऐसे में ज़रुरत से ज़्यादा आत्मविश्वास कभी-कभी ख़तरनाक़ हो जाता है और एक छोटी सी ग़लती एक ही पल में आपसे वो सब छीन सकती है जिसे पाने में आपने सालों लगाए हों। ऐसा ही हुआ रणजीत मूवीटोन के संस्थापक, चंदूलाल जेसंगभाई शाह के साथ जो The film Federation of India के पहले प्रेजिडेंट भी बने और जिनकी देखरेख में इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री ने अपनी सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली भी मनाई।
रणजीत मूवीटोन के मालिक चंदूलाल शाह ने स्टॉक एक्सचेंज से अपने करियर की शुरुआत की
गुजरात में जन्मे चंदूलाल शाह ने स्टॉक एक्सचेंज की नौकरी से शुरुआत की और एक ऐसे स्टूडियो (रणजीत मूवीटोन) की नींव रखी जिसकी गिनती अपने समय के टॉप थ्री स्टुडियोज़ में की जाती थी। ख़ुद चन्दूलाल शाह इतनी बुलंदी पर पहुँच गए थे कि उस समय की मीडिया ने उन्हें सरदार की उपाधि दे डाली थी। लेकिन एक वक़्त आया जब वो आसमान की बुलंदी से ज़मीन पर आ गिरे।
चंदूलाल शाह बॉम्बे में पढाई के साथ-साथ अपने भाई जे० डी० शाह की मदद करते थे जो कि बॉम्बे में पौराणिक फ़िल्मों के लेखक थे। पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्हें मुंबई के स्टॉक एक्सचेंज में नौकरी मिल गई। नौकरी के दौरान ही उन्हें लक्ष्मी फ़िल्म कंपनी की एक फ़िल्म “विमला” के निर्देशन का मौक़ा मिला और फिर उन्होंने एक नहीं बल्कि तीन फ़िल्मों का निर्देशन किया।
इसके बाद वो कोहिनूर फ़िल्म कंपनी से जुड़े, वहां उनके निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म आई1926 में, जिसका नाम था “टाइपिस्ट गर्ल” ये बहुत बड़ी हिट रही। इस फ़िल्म में काम करने वाली गौहरजान को लेकर चंदूलाल शाह ने कोहिनूर में कई और फ़िल्मों का निर्देशन किया जो अपने समय की हिट फ़िल्में रहीं। फिर 1929 में गौहरजान के साथ मिलकर उन्होंने श्री रणजीत फ़िल्म कंपनी की स्थापना की, जो फ़िल्मों में साउंड आने के बाद रणजीत मूवीटोन में बदल गई।
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रणजीत मूवीटोन की शुरुआत और लोगो
रणजीत मूवीटोन के लोगो में घोड़े पर सवार हाथ में भाला लिए एक व्यक्ति की परछाईं है जो एक शाही योद्धा की छवि दर्शाती है। स्टूडियो का नाम जामनगर के महाराजा और मशहूर क्रिकेटर रणजीत सिंह के सम्मान में रखा गया था, क्योंकि उन्हीं के आर्थिक सहयोग से स्टूडियो की स्थापना हुई थी। एक और महाराज रणजीत सिंह थे जो “शेर-ए-पंजाब” के नाम से मशहूर हुए यहाँ उनकी बात नहीं हो रही है। रणजीत मूवीटोन वाले महाराज रणजीत सिंह वो हैं जिन्हें ‘फ़ादर ऑफ़ इंडियन क्रिकेट’ माना जाता है, उन्हीं के नाम पर रणजी ट्रॉफी की शुरुआत की गई।
एक दौर में रणजीत स्टूडियो (रणजीत मूवीटोन) के बारे में कहा जाता था कि “आकाश से ज़्यादा सितारे रणजीत में हैं” और ये बात काफ़ी हद तक सही भी थी क्योंकि एक वक़्त था जब रणजीत मूवीटोन में 700 से ज़्यादा कलाकार और टेक्नीशियन्स काम करते थे। जिनमें मोतीलाल, के एल सहगल, बिलिमोरिया ब्रदर्स, ख़ुर्शीद, रुबी मेयर्स, गौहरजान, जैसे बड़े कलाकारों के अलावा नानूभाई वकील, डी एन मधोक, चतुर्भुज दोषी, केदार शर्मा, नन्दलाल जसवंतलाल जैसे लेखक निर्देशक और ज्ञानदत्त, उस्ताद झंडे ख़ाँ, बुलो सी रानी, खेमचंद प्रकाश जैसे संगीतकार भी शामिल थे।
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शायद यही वजह थी कि 30-40 के दशक में एक दौर ऐसा रहा जब रणजीत मूवीटोन की लगभग हर फ़िल्म जुबली हिट होती थी। रणजीत मूवीटोन उन स्टुडियोज़ में से था जहाँ हर साल क़रीब 6 फ़िल्में बनती थीं, और ये सिलसिला लम्बे अरसे तक बना रहा। शायद आगे भी जारी रहता अगर चन्दूलालशाह को जुए की बुरी आदत न होती। जुआ, गैंबलिंग किस तरह इंसान के होश-ओ-हवास खो देती है महाभारत से बेहतर इसका कोई उदहारण नहीं मिलेगा जब पांडवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी को ही दाव पर लगा दिया था और हार गए थे।
रणजीत मूवीटोन के मालिक चंदूलाल शाह के घमंड का क़िस्सा
आपने शायद ऐसा नहीं सुना होगा कि किसी स्टूडियो के मालिक ने अपनी फ़िल्म को दाव पर लगाया हो मगर ऐसा हुआ है। ये क़िस्सा है रणजीत मूवीटोन के मालिक चंदूलाल शाह, जिनके जुए और रेसिंग की लत ने उनके अपने ही स्टूडियो की ईमारत ढहा दी थी, मगर ये वक़्त उनके जीतने का था। यहाँ पर जिसने खोया वो थे सागर स्टूडियो के मालिक चिमनलाल देसाई।
एक बार ये दोनों सेठ एक साथ रात की ट्रैन से सूरत से मुंबई का सफ़र कर रहे थे। इस दौरान दोनों ताश खेलने लगे, बड़े-बड़े दाव लगाए जा रहे थे और चिमनलाल देसाई हारते जा रहे थे। जब सब कुछ हार गए तो चंदूलाल शाह ने चिमनलाल देसाई से उनकी कामयाब फ़िल्म “अलीबाबा” को दाव पर लगाने को कहा और उन्होंने लगा दी और फ़िल्म हार गए। शायद ये फ़िल्म हारने से उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता होगा, क्योंकि ये सागर की आख़िरी फ़िल्म थी। लेकिन इस फ़िल्म के निर्देशक महबूब ख़ान को बहुत फ़र्क़ पड़ा।
दरअस्ल चंदूलाल शाह सालों से चाहते थे कि महबूब ख़ान रणजीत मूवीटोन में शामिल हो जाएँ मगर महबूब ख़ान ने हमेशा उनकी पेशकश को ठुकरा दिया। इस फ़िल्म को जीत कर शायद चंदूलाल शाह के अहम् पर मरहम लगा हो, क्योंकि इसके बाद फ़िल्म के सारे राइट्स उन्हें मिल गए थे। फिर उन्होंने महबूब ख़ान और फ़िल्म के हीरो सुरेंद्र को उन्हीं की फ़िल्म के प्रीव्यू के लिए बुलाया और उनसे बेहद ख़राब व्यवहार किया। पहले तो दोनों को घंटों बाहर इंतज़ार कराया, फिर गंदे कपों में चाय पेश की।
मेहबूब ख़ान को ग़ुस्सा तो बहुत आ रहा था मगर वो उस वक़्त खून का घूँट पीकर रह गए। इसके बाद जल्दी ही किसी पार्टी में महबूब ख़ान की मुलाक़ात फिर से चिमनलाल देसाई और चंदूलाल शाह से हुई। चंदूलाल शाह ने उन्हें बड़े ही सरकास्टिंग वे में कहा कि अगर तुम सुरेंद्र के साथ काम करना चाहते हो तो तुम्हें मेरी परमिशन लेनी होगी। उस वक़्त महबूब ख़ान ने बहुत ही गुस्से में कहा “सेठजी आप चाहते हैं कि मैं अपनी ही क्रिएशन के साथ काम करने के लिए आपकी इजाज़त लूँ” ।
रणजीत मूवीटोन के ऊपर चढ़ने और उसके पतन का कारण चंदूलाल शाह ही बने
चंदूलाल शाह का वक़्त था तो उन्होंने दूसरों को नीचा दिखाया मगर जब लेकिन वक़्त ने जब पलटी मारी तो चंदूलाल शाह का शाही साम्राज्य एक पल में ढह गया । चंदूलाल शाह शेयर बाज़ार में सट्टा लगाने के साथ-साथ हॉर्स रेस में भी पैसा लगाते थे और हमेशा वो जीतते ही आये थे इसलिए शायद कभी हारने का ख़याल भी नहीं आया होगा। आखिर क़िस्मत जब देती है तो छप्पर फाड़ के देती है मगर जब वापस लेती है तो ज़रा भी दया नहीं दिखाती।
1944 की बात है जब कपास के एक सट्टे में चंदूलाल शाह एक ही दिन में क़रीब सवा करोड़ रुपए हार गए। तब के सवा करोड़ की क़ीमत आज कितनी होगी इसका अंदाज़ा आप आसानी से लगा सकते हैं। बहुत कोशिश की गई पर उस नुकसान की भरपाई नहीं हो पाई, और 1950 तक आते-आते स्टूडियो (रणजीत मूवीटोन) की जितनी भी प्रॉपर्टी थी सब गिरवी रखनी पड़ी, गौहरजान के नाम पर जो बिल्डिंग थी वो भी इंश्योरेंस कंपनी के पास गिरवी रखी गई।
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हाँलाकि इस दौरान रणजीत मूवीटोन में फ़िल्मों निर्माण होता रहा और उस बुरे वक़्त से निकलने की कोशिशें भी जारी रही। चंदूलाल शाह ने 13 साल बाद राजकपूर के अभिनय से सजी फ़िल्म “पापी” का निर्देशन किया लेकिन कोई सुखद परिणाम नहीं आए। इसके बाद उन्होंने “ऊटपटांग”, “ज़मीन के तारे” और 1963 में रिलीज़ हुई “अकेली मत जइयो” का निर्देशन किया और यही रणजीत मूवीटोन की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। इसके बाद कुछ फिल्में फ्लोर पर गईं पर वो कभी बन नहीं पाईं।
चंदूलाल शाह ने 25 नवम्बर 1975 को ग़रीबी में आख़िरी साँस ली। कहते हैं कि अपने आख़िरी दिनों में वो मुंबई की लोकल बसों से सफ़र किया करते थे, 1984 में अभिनेत्री गौहर की भी मृत्यु हो गई। और उसी के साथ रणजीत मूवीटोन जैसे भव्य स्टूडियो का नाम-ओ-निशान मिट गया जो अपनी सामाजिक व्यंग्य और स्टंट फ़िल्मों के लिए पहचाना गया।
1929 से 1963 तक के अपने सफ़र में रणजीत मूवीटोन में क़रीब 39 साइलेंट और 122 टॉकीज़ का निर्माण हुआ। रणजीत मूवीटोन के बैनर तले बनी पहली सवाक फ़िल्म थी-“देवी देवयानी” फिर राधारानी, सती सावित्री, परदेसी, गुणसुन्दरी, तूफानमेल, होली, दिवाली, पागल, अछूत जैसी कई मशहूर फ़िल्में आईं। “अछूत” बतौर अभिनेत्री ‘गौहर’ की आख़िरी फ़िल्म थी और चंदूलाल शाह ने भी इसके बाद कई सालों तक किसी फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया।
शादी, उम्मीद, भँवरा, भक्त सूरदास, मूर्ति, लाखों में एक जैसी अनेक फ़िल्मों ने रणजीत मूवीटोन की लोकप्रियता बढ़ाई। लेकिन इतनी फ़िल्मों में से अब सिर्फ़ 7 फ़िल्में ही अवेलेबल हैं- तानसेन, जोगन, हम लोग, पापी, फुटपाथ, ज़मीन के तारे और अकेली मत जइयो—- बाक़ी फ़िल्मों के निगेटिव्स जलकर ख़ाक हो चुके हैं। रणजीत मूवीटोन में फ़िल्मों का निर्माण तो 1963 में बंद हो चूका था। मगर इसके बाद स्टूडियो को दूसरे निर्माताओं को किराए पर दिया जाता था। पर 1984 में इंश्योरेंस कंपनी ने रंजीत की सारी प्रॉपर्टी को नीलाम कर दिया और इस तरह एक सुनहरे दौर की वो यादगार भी ख़त्म हो गई।