राजिंदर सिंह बेदी बीसवीं सदी के प्रमुख प्रगतिशील उर्दू लेखकों में से एक थे, जो सआदत हसन मंटो और कृष्ण चन्दर के साथ आधुनिक उर्दू शॉर्ट स्टोरी के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे और ज़ाहिर है उर्दू साहित्य में उनकी एक मख़सूस जगह है, उन्हें ग़ालिब अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया। लेकिन हिंदी फ़िल्मों में एक बेहतरीन संवाद लेखक के रुप में भी उनकी एक मज़बूत पहचान है। जिन्होंने गंभीर से गंभीर फ़िल्मों से लेकर कमर्शियल फ़िल्मों के भी संवाद लिखे।
राजिंदर सिंह बेदी के घर के माहौल ने उनमें लेखन के बीज बोए
राजिंदर सिंह बेदी का जन्म 1 सितम्बर 1915 में स्यालकोट के छोटे से गाँव में हुआ जो अब पाकिस्तान में है, वो तीन भाई एक बहन थे। उनके पिता एस हीरा सिंह बेदी एक पोस्टमास्टर थे, जिन्हें उर्दू और फ़ारसी में काफ़ी रूचि थी। उनकी माँ सेवा देई एक हिंदू परिवार से थीं और सिख और हिंदू धर्म, पुराणों की कहानियों और मुस्लिम कल्चर की भी काफ़ी जानकारी रखती थीं। वो बहुत अच्छी चित्रकारी करती थीं, अपने घर की दीवारों पर उन्होंने महाभारत के दृश्य बनाए हुए थे। इस तरह राजिंदर सिंह बेदी घर के माहौल में सिक्खिस्म, Hinduism की मिली जुली संस्कृति थी।
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उनके पिता बचपन में बच्चों को लैंप की रोशनी में कहानियाँ पढ़ाते थे, दिन में उनकी माँ उन्हें रामायण, भगवद गीता पढ़ाती थीं। उनकी माँ TB की मरीज़ थीं और उनका दिल बहलाने के लिए उनके पिता रोज़ाना उनकी माँ को फ़ारसी के शेर सुनाया करते थे। ऐसे माहौल में राजिंदर सिंह बेदी की रूचि भी बचपन से ही किताबों और लेखन में हो गई थी। उनके चाचा की एक प्रेस थी वहां से उन्हें जो भी किताब दिखती वो पढ़ डालते थे।
उन्होंने लाइब्रेरी की मेम्बरशिप भी ले रखी थी जहाँ से वो दुनिया भर के क्लासिक्स लाकर पढ़ते थे। उनके मुताबिक़ किताबों की महक उन्हें मदहोश कर देती थी। स्कूल कॉलेज में ही उन्होंनेअलग-अलग विषयों पर तरह-तरह की किताबें पढ़ ली थीं जिन्होंने उनकी समझ, सेंसिटिविटी और कल्पनाशक्ति को बढ़ाने में बहुत मदद की।
राजिंदर सिंह बेदी अपनी कहानियों में यूँ डूबे रहते थे कि कई बार मुश्किल में पड़ते-पड़ते बचे
राजिंदर सिंह बेदी ने लाहौर से मैट्रिक और इंटरमीडिएट की पढ़ाई उर्दू मीडियम से की, लेकिन बीए की पढ़ाई कर पाते इससे पहले ही उनकी माँ की मौत हो गई। इसके बाद उनके पिता ने उन्हें पोस्ट ऑफिस में नौकरी दिला दी और फिर एक साल के अंदर-अंदर सिर्फ़ 19 साल की उम्र में उनकी शादी करा दी ताकि घर-परिवार की देखभाल ठीक से हो सके। फिर अगले ही साल उनके यहाँ बेटे का जन्म हुआ। इसी दौरान उनके पिता की भी मौत हो गई, लेकिन अभी एक और सदमा उनका इंतज़ार कर रहा था।
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उनके एक साल के बेटे को भी किस्मत ने उनसे छीन लिया। कुछ ही सालों के अंदर उन्होंने अपने सबसे क़रीबी लोगों को खो दिया, साथ ही साथ घर-परिवार की सारी ज़िम्मेदारी भी उनके कन्धों पर आ गई। राजिंदर सिंह बेदी ने छोटी उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। जब वो स्कूल में थे तब उनकी पहली कहानी बच्चों की पत्रिका फूल में छपी थी। कॉलेज में भी वो एक अखबार के संडे एडिशन के लिए लिखते रहे। फिर उन्होंने अदबी दुनिया और अदब-ए-लतीफ जैसी प्रतिष्ठित उर्दू पत्रिकाओं के लिए भी लिखा। उनका ये लेखन कार्य नौकरी, और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों के साथ भी जारी रहा।
पोस्ट ऑफिस में काम करते हुए भी उनके दिमाग़ में कहानियां ही पनपती रहती थीं। कभी कभी तो वो अपने ख़यालों में इस क़दर खो जाते थे कि कई बार मुश्किल में फँसते-फँसते बचे। एक दिन जब कोई मनी आर्डर करने आया तो उन्होंने रसीद तो काट दी पर उससे रूपए लेना भूल गए। शाम को जब हिसाब हुआ तो पूरे 100 रूपए कम निकले। उस वक़्त 100 रूपए बहुत बड़ी रक़म हुआ करती थी, अब राजिंदर सिंह बेदी के हाथ-पाँव फूल गए। शाम को दफतर के बाद हर उस व्यक्ति के घर गए जो उस दिन डाकखाने आया था तब कहीं जाकर वो व्यक्ति मिला और ये भी गनीमत थी कि वो ईमानदार था मान गया कि वो रूपए देने भूल गया था।
नौकरी के साथ-साथ ही राजिंदर सिंह बेदी रेडियो के लिए भी लिखने लगे थे। 1940 में उनकी कहानियों का पहला संकलन आया “दाना-ओ-दाम”, ये वही कलेक्शन था जिसमें उनकी मशहूर कहानी ‘गरम कोट’ पब्लिश हुई थी। जिस पर बाद में फ़िल्म भी बनी पर उसकी बात थोड़ी देर में करते हैं। उनके पहले कलेक्शन के आते ही उनकी अहमियत साहित्यिक हलक़ों में बढ़ने लगी थी। सआदत हसन मंटो और प्रोफ़ेसर अली एहमद सरूर ने भी उस संग्रह की काफ़ी प्रशंसा की। 1942 में उनका दूसरा संकलन आया “ग्रहण” उस समय तक उन्हें उर्दू साहित्य का एक प्रमुख लेखक माना जाने लगा था।
किसी एक नौकरी या काम में उनका मन नहीं लगा
उर्दू के एक और महत्वपूर्ण साहित्यकार थे कृष्ण चन्दर, उन्होंने भी कुछ फ़िल्मों के लिए लेखन किया। उन्हीं के कहने पर राजिंदर सिंह बेदी ने अपनी 8 साल की पोस्ट ऑफिस की नौकरी छोड़ दी और ऑल इंडिया रेडियो लाहौर से जुड़ गए। उस समय उनकी तालीम पूरी नहीं थी मगर उस दौर में टैलंटेड आर्टिस्ट की बहुत क़द्र हुआ करती थी, उनके लिए नियमों में भी थोड़ी बहुत ढील दे दी जाती थी। और क्योंकि वो पहले से रेडियो के लिए स्क्रिप्टिंग कर रहे थे तो उनके टैलेंट से सभी वाक़िफ़ थे इसलिए ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।
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राजिंदर सिंह बेदी ने रेडियो पर बहुत से उर्दू नाटक लिखे जिन्हें बाद में सात खेल के नाम से प्रकाशित किया गया। युद्ध के दौरान उन्हें युद्ध प्रसारण के लिए सूबा सरहद के रेडियो पर भेजा गया, उनकी तनख़्वाह भी 150 रुपए से 500 रुपए महीना कर दी गई थी मगर वहाँ उन्होंने सिर्फ़ एक साल काम किया फिर नौकरी छोड़कर लाहौर वापस आ गए और लाहौर की एक फ़िल्म कंपनी महेश्वरी फ़िल्म्स में 600 रुपए महीने की नौकरी कर ली। मगर ये नौकरी भी उन्हें रास नहीं आई क्योंकि वहाँ उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसका कोई इस्तेमाल ही नहीं किया गया।
1946 में राजिंदर सिंह बेदी ने “संगम पब्लिशिंग हाऊस” से अपना पब्लिशिंग हाउस खोला जो अच्छा चल रहा था लेकिन देश के विभाजन के समय घर परिवार व्यापार सब बिखर गया। उन्हें अपने परिवार को अपने भाई के पास रोपड़ भेजना पड़ा। वो तब तक लाहौर में अपने घर में ही थे लेकिन जब उनके ऑफिस और गोदाम में तोड़-फोड़ के बाद आग लगा दी गई तो वो भी अपने भाई के पास रोपड़ चले गए। बाद में वो लोग शिमला चले आए।
कहते हैं कि उस दौरान राजिंदर सिंह बेदी और उनके भाई ने कई मुस्लिम परिवारों की जान बचाई और उन्हें सुरक्षित जगहों तक पहुँचाया। इसी दौरान एक बार फिर से रेडियो से उनका नाता जुड़ा और वो जम्मू रेडियो स्टेशन में डायरेक्टर के पद पर रहे। लेकिन कुछ समय बात अधिकारिक स्तर पर हुए मतभेदों के कारण उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और बॉम्बे चले आए।
बॉम्बे ने राजिंदर सिंह बेदी के जीवन की सही दिशा दी
बॉम्बे में राजिंदर सिंह बेदी की एक नई पारी शुरू हुई , वहाँ उनकी मुलाक़ात हुई फेमस पिक्चर कंपनी के मालिक “राइटर-प्रोडूसर-डायरेक्टर” D D कश्यप से, जिन्हें वो पहले से जानते थे, इसलिए काम पाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। DD कश्यप ने उन्हें अपनी कंपनी में 1000 रुपए महीने पर नौकरी दे दी मगर राजिंदर सिंह बेदी ने इस शर्त के साथ ये नौकरी स्वीकार की कि वो दूसरी फिल्म कंपनियों के साथ भी काम करते रहेंगे।
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DD कश्यप की 1949 में आई फिल्म “बड़ी बहन” में बतौर संवाद लेखक राजिंदर सिंह बेदी का नाम पहली बार स्क्रीन पर दिखाई दिया। 1952 की “दाग़” उनकी वो फ़िल्म थी जिसने उन्हें फ़िल्मी लेखकों में पहचान दिलाई। इसके बाद बतौर संवाद लेखक उनकी कई फिल्में आईं और उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। बिमल रॉय की देवदास, मधुमती, सोहराब मोदी की मिर्ज़ा ग़ालिब और ऋषिकेश मुखर्जी की अनुपमा, अभिमान, सत्यकाम जैसी फिल्मों के संवाद उन्होंने ही लिखे थे। ये सभी फिल्में हिंदी सिनेमा में ख़ास मक़ाम रखती हैं, मधुमती और सत्यकाम के लिए तो उन्हें बेस्ट डायलाग राइटर का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी दिया गया।
क्या आप जानते थे कि इनके संवाद किसने लिखे ? लेखकों के साथ ये भेदभाव फ़िल्ममेकर्स ने ही नहीं किया बल्कि आप हम जैसे दर्शकों ने भी किया है। क्योंकि हम जानने की कोशिश ही नहीं करते कि कोई संवाद जिन्हें कोई कलाकार इतने अच्छे ढंग से बोल रहा है आख़िर उन्हें लिखा किसने है! इन फ़िल्मों के अलावा फूल बने अंगारे (1963), दूज का चाँद (1964), बीवी और मकान (1966), बहारों के सपने (1967), मेरे हमदम मेरे दोस्त (1968) के संवाद भी उन्होंने ही लिखे। बहु-बेटी (1965), मेरे सनम (1965), इज़्ज़त (1968) जैसी कुछ फ़िल्मों की पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी।
बॉम्बे आने के बाद राजिंदर सिंह बेदी को काम पाने के लिए तो कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा मगर उनका क्रिएटिव स्ट्रगल काफ़ी रहा। वहाँ हर शख़्स उन्हें ये समझाने की कोशिश करता था कि फ़िल्मी कहानी क्या होती है और कैसे लिखी जाती है। कुछ फ़िल्मकारों की बात तो वो सुन भी लेते थे मगर उस वक़्त उन्हें बहुत कोफ़्त होती थी जब फिल्ममेकर्स के आस-पास घूमने वाले भी उन्हें राय देने लगते थे। इसीलिए उनके अंदर एक बेचैनी होने लगी थी, जिस तरह उनके लिखे में बिना पूछे बदलाव कर दिए जाते थे उससे भी उनमें एक असंतुष्टि थी। इसे आप कमर्शियलिज़्म और कलात्मकता के बीच एक लेखक की ज़हनी जंग कह सकते हैं।
वो निर्माता-निर्देशक बने ताकि अपने लेखन के साथ इंसाफ़ कर सकें
इसीलिए 1954 में राजिंदर सिंह बेदी ने ऋषिकेश मुखर्जी, बलराज साहनी, अमर कुमार, गीता बाली और होमी सेठना जैसे कुछ लोगों के साथ मिलकर एक प्रोडक्शन कंपनी खोली “सिने कोआपरेटिव”। इस कंपनी की पहली फ़िल्म थी “गरम कोट” जो राजिंदर सिंह बेदी की ही मशहूर कहानी पर बनी थी। 1955 में आई “गरम कोट” का स्क्रीनप्ले भी उन्होंने ही लिखा था और इसका निर्माण भी उन्होंने ही किया था, फ़िल्म के निर्देशक थे अमर कुमार।इस फ़िल्म के लिए राजिंदर सिंह बेदी को मिला बेस्ट स्टोरी का पहला फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मगर ये फ़िल्म चली नहीं।
अगर ये फ़िल्म कामयाब होती तो शायद सेनारियो कुछ और होता मगर फ़िल्म फ़्लॉप होने के बाद राजिंदर सिंह बेदी फ़िल्मी लेखन में लगे रहे। उधर “सिने कोआपरेटिव” भी चलता रहा पर उसकी दूसरी फ़िल्म आने में कई साल लग गए। किशोर कुमार वैजयन्तीमाला के अभिनय से सजी वो फ़िल्म ‘रंगोली’ आई 1962 में, जिसका निर्माण एक बार फिर राजिंदर सिंह बेदी ने ही किया था, निर्देशक भी अमर कुमार ही थे। कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलाग राजिंदर सिंह बेदी ने लिखे थे। स्टारकास्ट भी अच्छी थी और म्यूजिक भी प्यारा था, यानी सब कुछ ठीक होते हुए भी फ़िल्म कमर्शियली फ़ेल हो गई।
दस्तक ने उन्हें अमर कर दिया
राजिंदर सिंह बेदी का तीसरा attempt थी दस्तक, जिससे उन्होंने निर्देशन में क़दम रखा। इस फ़िल्म की कहानी राजिंदर सिंह बेदी के रेडियो नाटक ‘नक़्ल-ए-मकानी’ पर आधारित थी जिसका प्रसारण 1944 में AIR लाहौर पर किया गया था। बहुत बेहतरीन तरीक़े से बुनी गई इस कहानी का स्क्रीनप्ले ख़ुद उन्होंने ही लिखा था। संजीव कुमार जैसे मंझे हुए कलाकार हीरो थे और रेहाना सुल्तान हीरोइन, उनकी ये पहली फ़िल्म थी। रेहाना सुल्तान पुणे के फ़िल्म इंस्टिट्यूट में पढ़ रही थी और उन्हें चुनने के पीछे एक ख़ास वजह थी।
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इंस्टिट्यूट के स्टूडेंट अक्सर शार्ट फिल्म्स बनाया करते थे जिन्हें लिखते भी वही थे, एडिट भी वही करते थे और उनमें एक्टिंग भी स्टूडेंट ही करते थे। राजिंदर सिंह बेदी ने ऐसी ही एक 5 मिनट की फ़िल्म Water In The Tap देखी थी, जिसमें रेहाना सुल्तान ने एक्टिंग की थी। उसके बाद वो रेहाना सुल्तान को ढूँढ़ते हुए FTII पहुँच गए मगर उन दिनों स्टूडेंट कोर्स के दौरान किसी फ़िल्म में काम नहीं कर सकते थे। तो जब रेहाना सुल्तान 1968 में पास आउट हुई तब राजिंदर सिंह बेदी ने फ़िल्म शुरु की।
हाँलाकि इस रोल के लिए पहले लीला नायडू से बात हो गई थी उधर मुमताज़ भी ये रोल करना चाहती थीं पर राजिंदर सिंह बेदी के मुताबिक़ रेहाना सुल्तान इस रोल के लिए सबसे सही चुनाव थीं। कहा तो ये भी जाता है कि वो रेहाना सुल्तान के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गए थे। ख़ैर! दस्तक फ़िल्म पूरी होने में क़रीब ढाई साल लगे। फ़िल्म के दोनों कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया। मदन मोहन के बेमिसाल संगीत ने इस फ़िल्म के विषय को मूड को और ज़्यादा उभारा। और मदन मोहन को भी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
“दस्तक” फ़िल्म को ब्लैक एंड वाइट बनाया गया था जबकि उस समय कलर फ़िल्मों का ज़माना था। बहुत से लोगों ने राजिंदर सिंह बेदी को अलर्ट भी किया कि कलर के ज़माने में ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म चलेगी नहीं मगर उनका कहना था कि फ़िल्म का विषय ब्लैक एंड वाइट है कलर इसे ज़्यादा गॉर्जियस बना देगा। और वाक़ई जब आप फ़िल्म देखते हैं तो महसूस होता है कि फ़िल्म की आत्मा उनके रंगहीन होने में ही है।
जिस तरह से कमल बोस ने अपने कैमरा एंगल्स का इस्तेमाल इस ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म को यादगार बनाने में किया उसकी तारीफ़ सभी ने की, उन्हें भी बेस्ट सिनेमेटोग्राफी के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया। राजिंदर सिंह बेदी ने हृषिकेश मुखर्जी की बहुत सी फ़िल्मों के संवाद लिखे थे लेकिन इस फ़िल्म की एडिटिंग हृषिकेश मुखर्जी ने की थी। उन्हें भी बेस्ट एडिटिंग के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ये अपने समय से बहुत आगे की फिल्म थी और जिस तरह इसे बनाया गया था उसकी सभी ने सराहना की।
हाँलाकि इसके नाम को लेकर काफ़ी मज़ाक़ भी बना। लोगों ने कहा “एक दो तीन तक तो ठीक था ये दस तक क्या है?!” ये उनकी एक क्लासिक फ़िल्म थी, एक शहकार जिस से कोई भी कलाकार अपने जीवन में जाना जाता है। 1973 में राजिंदर सिंह बेदी ने जया भादुड़ी, विजय अरोड़ा, धर्मेंद्र और वहीदा रहमान को लेकर बनाई “फागुन” जिसका निर्माण-निर्देशन-लेखन सब राजिंदर सिंह बेदी ने किया था। फ़िल्म ये भी बहुत अच्छी बनी थी मगर चली नहीं। इसके बाद 1978 में “नवाब साहब” और फिर “आँखिन देखी” आई मगर ये भी फ़्लॉप रहीं।
राजिंदर सिंह बेदी का साहित्य में अमिट स्थान है
आप कह सकते हैं कि शायद फ़िल्मी हिसाब-किताब की समझ उनमें नही थी मगर अच्छा साहित्य कैसा होता है इसकी गहरी समझ राजिंदर सिंह बेदी को शुरू से ही थी और वक़्त के साथ साथ साहित्य में उनका रुतबा बढ़ता ही गया। उनका एक मशहूर उपन्यास है “एक चादर मैली सी” जिस का खुशवंत सिंह ने इंग्लिश में अनुवाद किया और इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। बाद में उसका अनुवाद हिंदी, कश्मीरी और बांग्ला में भी हुआ। इस उपन्यास पर पंजाबी फिल्म रानो की शूटिंग भी शुरु हुई थी जिसका निर्देशन राजिंदर सिंह बेदी कर रहे थे और गीता बाली फ़िल्म की निर्माता और अभिनेत्री।
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लेकिन फ़िल्म की शूटिंग के दौरान चेचक की चपेट में आने से उनकी मृत्यु हो गई। गीता बाली उन्हें बाउजी कहती थीं वो भी उन्हें बहुत चाहते थे, गीता बाली की अचानक हुई मौत ने उन्हें ऐसा सदमा दिया कि ये फ़िल्म तो फिर बनी ही नहीं बल्कि उन्होंने क़सम खाई वो इस उपन्यास पर कभी कोई फ़िल्म नहीं बनाएंगे। 1968 में इस पर पाकिस्तान में एक फ़िल्म बनाई गई उसके कई सालों बाद 1986 में इस पर हिंदी फ़िल्म भी बनी जिसमें कुलभूषण खरबंदा, ऋषि कपूर, हेमा मालिनी और पूनम ढिल्लों ने काम किया था।
राजिंदर सिंह बेदी की कहानियाँ इंसान की भावनाओं का एक गहन और सटीक विश्लेषण करती हैं। उनमें स्त्री पुरुष दोनों के रोजमर्रा के जीवन की झलक मिलती है, सामाजिक असमानता है तो आर्थिक समस्याएँ भी हैं। पर उनके साहित्य में महिलाओं का एक विशेष स्थान है, वीमेन इमोशंस और साइकोलॉजी, उनकी समस्याएँ, उनके मानसिक द्वंद्व सब यूँ उभर कर आते हैं जैसे वो उन्हें महसूस कर रहे हों।
अपनी मौत से कुछ महीने पहले ही उन्होंने कहा था कि अगर वो ज़िंदा रहे तो उन महिलाओं पर एक किताब लिखेंगे जिन्हें वो जानते थे। उनके बारे में कहा भी जाता है कि वो बहुत इमोशनल थे, अपनी ही कहानी सुनाते हुए रो पड़ते थे शूटिंग के दौरान कोई सीन बहुत अच्छे से शूट हुआ हो तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगते थे।
उनकी मौत पर पाकिस्तान ने भी शोक व्यक्त किया था
1977 में राजिंदर सिंह बेदी की पत्नी की मौत हो गई थी उसके तुरंत बाद ही उन्हें स्ट्रोक आया, वो ठीक से बोल भी नहीं पाते थे, उनकी एक आँख की रोशनी चली गई थी। और धीरे-धीरे उनकी तबियत ख़राब होती ही गई। फिर 1982 में उन्होंने अपने 45 साल के बेटे नरिंदर सिंह बेदी को भी खो दिया जिन्होंने बंधन, जवानी-दीवानी, बेनाम, रफूचक्कर, सनम तेरी क़सम जैसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया था। 1982 में ही राजिंदर सिंह बेदी को लकवा मार गया, और दो साल बाद 11 नवम्बर 1984 उनकी मृत्यु हो गई।
राजिंदर सिंह बेदी की मौत पर पाकिस्तान के रष्ट्रपति ज़िआ-उल-हक़ ने भी शोक व्यक्त किया और कहा कि (it was a loss not just for India, but for Pakistan as well) ये सिर्फ़ हिंदुस्तान की नहीं बल्कि पाकिस्तान की भी क्षति है। उनकी याद में, पंजाब सरकार ने उर्दू साहित्य के क्षेत्र में “राजिंदर सिंह बेदी पुरस्कार” शुरू किया। बॉम्बे के किंग्स सर्किल का नामकरण उनके नाम पर राजिंदर सिंह बेदी चौक रखा गया।
35 सालों के अपने करियर में राजिंदर सिंह बेदी ने लगभग 17 फ़िल्मों के लिए पटकथा, और डायलाग लिखे, और उनकी लिखी ज़्यादातर फिल्में यादगार हैं। राजेंदर सिंह बेदी ने साहित्य और फ़िल्म दोनों जगह अपने लेखन से जो मक़ाम पाया वो उन्हीं का था, है और हमेशा रहेगा।
फ़िल्मोग्राफ़ी
- बड़ी बहन (1949) – संवाद
- दिलरुबा (1950) – संवाद with नीलकंठ तिवारी, एस दीपक
- दाग़ (1952) – संवाद
- रेल का डिब्बा (1953) – संवाद
- मिर्ज़ा ग़ालिब (1954) – संवाद
- बाराती (1954) – संवाद
- देवदास (1955) – संवाद
- गर्म कोट (1955) – निर्माण और लेखन
- बसंत बहार (1956) – संवाद
- मुसाफ़िर (1957) – संवाद
- अब दिल्ली दूर नहीं (1957) – अतिरिक्त संवाद
- अनुराधा (1960) – संवाद
- बम्बई का बाबू (1960) – संवाद
- अपना हाथ जगन्नाथ (1960) – संवाद
- आस का पंछी (1961) – संवाद
- मेमदीदी (1961) – संवाद
- मेहँदी लगी मेरे हाथ (1962) – संवाद और पटकथा
- रंगोली (1962) – कहानी, संवाद और पटकथा निर्माण
- फूल बने अंगारे (1963) – संवाद [अतिरिक्त संवाद – प्रयाग राज ]
- दूज का चाँद (1964) – संवाद
- बहु-बेटी (1965) – संवाद और पटकथा
- मेरे सनम (1965) – संवाद और पटकथा / कहानी – नरिंदर सिंह बेदी
- अनुपमा (1966) – संवाद
- बीवी और मकान (1966) – संवाद
- बहारों के सपने (1967) – संवाद
- मेरे हमदम मेरे दोस्त (1968) – संवाद
- इज़्ज़त (1968) – संवाद और पटकथा
- सत्यकाम (1969) – संवाद
- प्यासी शाम (1969) – संवाद और पटकथा
- दस्तक (1970) – कहानी, संवाद, पटकथा, निर्माण और निर्देशन
- ज्वाला (1971) – संवाद
- अभिमान (1973) – संवाद
- फागुन (1973) – कहानी, संवाद, पटकथा, निर्माण और निर्देशन
- फिर कब मिलोगी (1974) – संवाद
- अमानत (1977) – संवाद और रिवाइज्ड पटकथा
- नवाब साहिब (1978) – कहानी, संवाद, पटकथा, निर्माण और निर्देशन
- आँखिन देखी (1978) – कहानी, संवाद, पटकथा, निर्माण और निर्देशन
- मुट्ठी भर चावल (1978) – एक चादर मैली सी उपन्यास पर आधारित पाकिस्तानी फ़िल्म
- एक चादर मैली सी (1986) – एक चादर मैली सी उपन्यास पर आधारित हिंदी फ़िल्म
- लाजवंती (टीवी सीरियल)
- किरदार (टीवी सीरियल )
- यार जुलाहे (टीवी सीरियल)