P L संतोषी के जन्मदिन पर उनकी ज़िंदगी के पन्ने पलट कर उनकी यादों को साझा कर रही हूँ।
राजकुमार संतोषी का नाम आज के दौर में, आज की पीढ़ी के लिए, बिलकुल अंजाना नहीं है – घायल, दामिनी, अंदाज़ अपना अपना, लज्जा, अजब प्रेम की गज़ब कहानी जैसी फ़िल्मों से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। उन्हीं के पिता थे P L संतोषी, जो अपने समय के मशहूर निर्माता-निर्देशक, लेखक और गीतकार थे। मगर उस समय की दूसरी कई हस्तियों की तरह P L संतोषी को भी बाद के दौर में तंगहाली का सामना करना पड़ा। अपने आख़िरी कुछ सालों में तो हालात इतने ख़राब हो गए थे कि उन्हें साउथ इंडियन डब फ़िल्मों में बतौर घोस्ट राइटर काम करना पड़ा।
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P L संतोषी का शुरुआती जीवन
P L संतोषी का असली नाम था प्यारेलाल श्रीवास्तव, “संतोषी’ उनका पेन नेम था जो बाद में उनका सरनेम बन गया। उनका जन्म मध्यप्रदेश के जबलपुर में 7 अगस्त 1916 को हुआ। उन्हें बचपन से कविता लिखने का शौक़ था और वो इतना अच्छा लिखते थे कि उन्होंने स्कूल के दिनों से ही कवि सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया था। एक बार जबलपुर में किसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही थी वहाँ अचानक एक डायलॉग असिस्टेंट की ज़रुरत पड़ी। P L संतोषी वहाँ थे तो उन्होंने डायलॉग्स लिखने में मदद की।
फ़िल्मी करियर
इस घटना के बाद से ही उनके दिल में सिनेमा में काम करने की इच्छा जागी और क़रीब 30 के दशक के आख़िर में वो लेखक और गीतकार बनने का सपना लिए मुंबई चले गए। मुंबई में सबसे पहले उन्होंने जद्दनबाई के मैनेजर के तौर पर काम किया। जद्दनबाई मशहूर अभिनेत्री नरगिस की माँ थीं और अपने वक़्त की एक मशहूर अभिनेत्री, गायिका और फ़िल्ममेकर भी थीं। उनकी फ़िल्म “मोती का हार” में P L संतोषी को गीत लिखने का मौक़ा मिला। ये फ़िल्म 1937 में आई थी और इसमें P L संतोषी ने एक छोटी सी भूमिका भी निभाई थी। इसके बाद जद्दनबाई की ही “जीवन स्वप्न” में भी उन्होंने कुछ गीत लिखे।
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जल्दी ही P L संतोषी उस समय के मशहूर स्टुडिओज़ से जुड़ गए जिनमें सबसे पहला था रणजीत मूवीटोन जहाँ उन्होंने कई फ़िल्मों में के गीत लिखे जिनमें “संत तुलसीदास(1939)”, “ठोकर(1939)”, “पागल(1940)” और “परदेसी(1941)” जैसी कामयाब फिल्में भी शामिल है। 1941 में उन्होंने रणजीत मूवीटोन छोड़कर बॉम्बे टॉकीज़ ज्वाइन कर लिया। वहाँ उन्होंने 1941 की फ़िल्म “अनजान”, 1942 की “बसंत” में गीत लिखे फिर 1943 की सुपर डुपर हिट फ़िल्म ‘क़िस्मत” में उन्होंने शाहिद लतीफ़ के साथ मिलकर स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स भी लिखे।
इसके बाद P L संतोषी पुणे की प्रभात फिल्म कंपनी से जुड़ गए जहाँ उन्हें फ़िल्म निर्देशन का पहला मौक़ा मिला। फ़िल्म थी 1946 में आई “हम एक हैं” जो देवानंद की भी डेब्यू फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के संवाद और गीत P L संतोषी ने ही लिखे थे। लेकिन बतौर फ़िल्म डायरेक्टर उनकी सबसे बड़ी हिट आई 1947 में फ़िल्मिस्तान के बेनर तले बनी “शहनाई” जिसका एक गाना “आना मेरी जान मेरी जान संडे के संडे” आज तक गुनगुनाया जाता है।
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इसी फ़िल्म से संगीतकार C रामचंद्र और गायिका लता मंगेशकर के साथ उनका एक स्ट्रांग एसोसिएशन बना जो आगे कई फ़िल्मों तक चला। लेकिन “सरगम”, “शिन शिनाकी बबला बू”, “निराला” जैसी फ़िल्मों के कई फनी गानों ने सीरियस गीतकार की उनकी इमेज को धक्का पहुँचाया। पर उन फनी गानों के बोल इतने कैची थे कि वो अपने समय में काफ़ी लोकप्रिय हुए। और ये भी सच है कि इन्हीं फ़िल्मों में उन्होंने कई बेहद ख़ूबसूरत गीत भी लिखे जिन्हें शायद उनके आलोचकों ने नज़रअंदाज़ कर दिया। दरअस्ल उन्हें हर तरह के गीत लिखने में महारत हासिल थी-लाइट रोमेंटिक हों दर्द भरे गीत हों या फनी। 50 के दशक के आख़िर तक वो फिल्मों में गीत लिखते रहे।
बतौर निर्देशक 50 के दशक में उन्होंने कई कामयाब और मशहूर फिल्में दीं जिनमें “सरगम (1950)”, “शिन शिनाकी बबला बू (1952)”, AVM की “हम पंछी एक डाल के (1957)”, और 1960 में आई “बरसात की रात” शामिल हैं। “बरसात की रात” फ़िल्म अपनी क़व्वालियों और गीत-संगीत के लिए बहुत मशहूर है। ख़ुद एक गीतकार होते हुए उन्होंने इस फ़िल्म में गीत लिखने के लिए साहिर लुधियानवी को चुना। अपने शब्दों के मोह से निकल पाना इतना आसान नहीं होता मगर बाद की कई फ़िल्मों में उन्होंने अपने अंदर के गीतकार को सर उठाने नहीं दिया।
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लेकिन इसी दौर में “छम छमा छम (1952)”, “चालीस बाबा एक चोर (1953)”, “सबसे बड़ा रुपैया (1955)” जैसी फ़िल्में कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा पाईं। इसके बाद भी 1964 में आई “दिल ही तो है” को छोड़कर उनकी ज़्यादातर फिल्में असफल रहीं जिनमें 1961 में आई “प्यार की दास्ताँ”, 1961 की ही “ओपेरा हाउस”, 1963 की “हॉलिडे इन बॉम्बे”(Holiday in Bombay) का नाम ले सकते हैं। उनके निर्देशन में बनी आख़िरी फ़िल्म थी रुप-रुपैया जो 1968 में आई थी।
P L संतोषी की इंडस्ट्री में काफी इज़्ज़त थी, उन्हें लोग गुरूजी कहते थे और वो अपने समय के हाईएस्ट पेड डायरेक्टर थे। लेकिन जब उन्होंने फ़िल्म निर्माण करना शुरू किया तब से हालात बिगड़ने शुरु हो गए। ख़र्चे बढ़ते गए, अपने घर से किराए के घर में गए, उस पर फ़िल्में फिल्में फ्लॉप होती गईं और वो बुरी तरह क़र्ज़ में डूब गए। इसीलिए बाद के दौर में उन्हें साउथ की डब फ़िल्मों में घोस्ट राइटर के तौर पर काम करना पड़ा।
निजी जीवन
P L संतोषी ने दो शादियां की थीं मशहूर डायरेक्टर राजकुमार संतोषी उनकी दूसरी पत्नी के बेटे हैं। किडनी फेल हो जाने के कारण 7 सितम्बर 1978 को उन्होंने आख़िरी साँस ली। मैं सोचती हूँ कि अगर आज उनके बेटे का कोई नाम-मुक़ाम नहीं होता तो क्या कोई P L संतोषी को याद करता ! अपने दौर में कई कामयाब फिल्में बनाने और बहुत से यादगार गीत लिखने वाले P L संतोषी भी, मुमकिन है अपने समय की दूसरी हस्तियों की तरह पूरी तरह भुला दिए गए होते।
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