ओम प्रकाश उन भाग्यशाली हास्य और चरित्र कलाकारों में से थे जिन के लिए अलग से रोल लिखे जाते थे, ख़ासतौर पर सिचुएशन बनाई जाती थीं। गीतकारों ने भी उनके लिए कुछ अच्छे गाने लिखे।
अगर हम बात करें 50s, 60s 70s की तो हर कलाकार-फ़नकार का अपना एक अलग स्टाइल हुआ करता था,आज भी कलाकार का नाम आते ही उनका वो मख़सूस अंदाज़ याद आ जाता है। ऐसा ही अलग अंदाज़ था ओम प्रकाश बक्शी का जिन्होंने फ़िल्मों में सिर्फ़ हँसाया ही नहीं बल्कि अपने भावुक अंदाज़ से रुलाया भी। उनका ‘अरी ओ भागवान’ वाला डायलॉग तो जैसे अमर ही हो गया।
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ओम प्रकाश उन दिनों फतेहदीन के नाम से मशहूर थे
19 दिसंबर 1919 को ओम प्रकाश बख्शी का जन्म लाहौर में हुआ। उनके पिता अपने ज़माने के रईस इंसान थे जिनके जम्मू और लाहौर में ज़मीनें और बंगले थे। ओम जी तीन भाई थे और उनकी एक बहन, लेकिन उन्हें बचपन से ही हँसी-मज़ाक़ करना, एक्टिंग करना पसंद था। इसके साथ-साथ उन्हें म्यूज़िक का भी शौक़ था, उन्होंने 12 साल की उम्र तक क्लासिकल म्यूज़िक सीखा था और इसी शौक़ के कारण 1937 में वो ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ गए।
ऑल इंडिया रेडियो में गाने के साथ-साथ वो अभिनय भी करते थे और नाटक भी लिखा करते थे। उनका एक प्रोग्राम था जो वो “फतेहदीन” के नाम से करते थे। उस समय लाहौर और पूरे पंजाब में “फतेहदीन” के प्रोग्राम बहुत पसंद किए जाते थे। लेकिन इतनी शोहरत पाने के बाद भी अंदरूनी राजनीति और अपनी क़ाबिलियत से कम पाने की असंतुष्टि के चलते उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी।
जिन दिनों ओम प्रकाश ख़ाली थे, उन्हीं दिनों एक बार ओम प्रकाश अपने एक दोस्त की शादी में गए थे और अपनी आदत के मुताबिक़ वो सबको हँसा रहे थे। शादी के बाद वो अपने अंकल के पास जम्मू चले गए, लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि उस शादी में किसी की पारखी नज़र उन पर पड़ चुकी थी। वो थे उस समय के मशहूर फ़िल्ममेकर दलसुख पंचोली जिन्होंने ओम प्रकाश को देखा, उनसे काफ़ी प्रभावित हुए और उन्हें लगा कि इस व्यक्ति की सही जगह फ़िल्मों में है। इसीलिए उन्होंने ओम प्रकाश को जम्मू में एक टेलीग्राम भेजा जिसमें लिखा था “तुरंत आओ-पंचोली”, ओम प्रकाश को लगा कि उनके दोस्त उनके साथ मज़ाक़ कर रहे हैं लेकिन घरवालों के समझाने पर वो लाहौर चले गए।
लाहौर में की पहली फ़िल्म
लाहौर पहुँच कर उन्होंने दलसुख पंचोली को फोन किया लेकिन उन्हें उस वक़्त धक्का लगा जब दलसुख पंचोली ने कहा कि वो किसी ओम प्रकाश को नहीं जानते। इसके बाद ओम प्रकाश ने वापस जम्मू जाने की टिकट करा ली। लेकिन ट्रैन के आने में काफ़ी टाइम था तो तब तक वक़्त गुज़ारने के लिए वो अपनी पसंदीदा पान की दुकान पर चले गए, जहाँ उन्हें मिले प्राण, जो उस समय पंजाबी फ़िल्मों में बतौर हीरो और विलेन काम कर रहे थे। उनसे बात करने पर सारी उलझन सुलझ गई। दरअस्ल दलसुख पंचोली उन्हें ओम प्रकाश के नाम से नहीं बल्कि “फतेहदीन” के नाम से पहचानते थे।
सच जानने के बाद ओम प्रकाश ने वापस जाने की बजाय दलसुख पंचोली के ऑफिस का रुख़ किया। और दलसुख पंचोली ने तुरंत उन्हें अपनी फ़िल्म में बहुत बढ़िया रोल दे दिया। ये फ़िल्म थी 1944 में आई “दासी” जिसमें उन्होंने कॉमिक विलेन का रोल किया था। फ़िल्म सुपरहिट थी, उसके बाद “धमकी” फ़िल्म आई वो भी सुपरहिट रही। अभी तक उन्हें 80 रुपए महीने के मिल रहे थे, लेकिन जब दलसुख पंचोली को पता चला तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया क्योंकि उन्होंने ओमजी की तनख़्वाह 250 रूपए महीना तय की थी। मगर फिर वही अंदरूनी राजनीति जो हर जगह पाँव पसारे रहती है उसी के चलते मैनेजर उन्हें कम फ़ीस दे रहा था।
लेकिन इसके बाद दलसुख पंचोली ने उन्हें सीधे 1000 रूपए का चेक थमाया। सब कुछ ठीक होने लगा था कि पार्टीशन की आँधी ने सब कुछ उजाड़ दिया। ओम प्रकाश भी लाहौर छोड़ कर परिवार के साथ जैसे तैसे पहले अमृतसर, दिल्ली और फिर वृन्दावन पहुँचे। लेकिन अब सवाल था रोज़ी-रोटी का। ओम प्रकाश लाहौर में थे तब बी. आर. चोपड़ा के साथ उन्होंने एक फ़िल्म साइन की थी, विभाजन के बाद उन्होंने ओम प्रकाश को तार देकर मुंबई बुलाया। लेकिन जब वो मुंबई पहुंचे तो बी. आर. चोपड़ा को पंजाब जाना पड़ा। मुंबई में ओम प्रकाश के न रहने का कोई ठिकाना था न खाने का, कभी किसी दोस्त के घर रुकते कभी किसी के। उधर बी. आर. चोपड़ा का कुछ अता-पता नहीं था।
ज़मींदार के बेटे को भुखमरी के दिन भी देखने पड़े
बेहद मुश्क़िल दिन थे लेकिन कुछ लोगों ने उनकी काफ़ी मदद की, और उन लोगों को वो कभी भूले नहीं बल्कि कामयाबी पाने के बाद हमेशा उनके काम आए। ऐसे ही मुश्किल भरे दिनों में जब वो लगभग पूरी तरह निराश हो चुके थे तभी उन्हें एक कमेंट्री का ऑफर आया, उन्हें सिर्फ़ वॉइस-ओवर करना था मगर वो स्क्रिप्ट किसी को पसंद नहीं आ रही थी तब ओमप्रकाश ने कहा कि वो भी लिखते हैं और जो कुछ उन्होंने लिखा उसे जब पढ़कर सुनाया तो सब को बहुत पसंद आया। लेकिन इसके बाद ज़िंदगी फिर उसी फ़ाकाक़शी के दौर से गुज़रने लगी।
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ओम प्रकाश जगह-जगह की ख़ाक़ छानते मगर कोई काम मिल नहीं रहा था, पैसे भी ख़त्म हो गए थे। एक दौर तो वो आया जब वो तीन दिन से भूखे थे और जब भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो एक बड़े होटल में पहुँच कर खाना खा लिया। पर अब बारी थी बिल भरने की तो ओम प्रकाश ने मैनेजर को जाकर सारी बात सच-सच बता दी और कहा कि जिस दिन मैं कामयाब हो जाऊंगा आपके पैसे ज़रुर चुका दुँगा। मरता क्या न करता, मैनेजर ने बुरे मन से उन्हें जाने दिया। इसी तरह जैसे तैसे दिन गुज़र रहे थे कि एक दिन निर्देशक जयंत देसाई ने उन्हें बुलाया और फिर उनकी फ़िल्म “लखपति” में ओम प्रकाश ने एक विलेन का रोल किया।
“लखपति” फ़िल्म के लिए उन्हें 5000 हज़ार रुपए महीने पर साइन किया गया और 1000 रूपए एडवांस मिले। इतने रुपयों की उम्मीद ओम प्रकाश को नहीं थी, लेकिन जैसे ही पैसे मिले उन्होंने सबसे पहले होटल जाकर बिल के पैसे चुकाए। इसी दौरान उन्हें मिली पंजाबी फ़िल्म “चमन” जो सुपरहिट रही इस कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी और पूरे परिवार को मुंबई बुला लिया। फिर तो सिलसिला चल निकला और ज़िंदगी की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी।
दो फ़िल्में रहीं उनके फ़िल्मी सफ़र का टर्निंग पॉइंट
उस दौर में ओम प्रकाश ने “चमन”, “लाहौर”, “चार दिन”, “रात की रानी” जैसी फ़िल्में आईं। साथ ही आईं बड़ी-बड़ी स्टारकास्ट वाली फ़िल्में “आज़ाद” “सरगम” “मिस मेरी”, “बहार” “आशा” “मुनीमजी” जिनमें ओम प्रकाश ने अपने अभिनय, अपने अंदाज़ से अपनी एक अलग छाप छोड़ी। उन्होंने अपना एक अलग अंदाज़, एक अलग शख़्सियत डेवलप की, जिस ने न केवल उन्हें स्थापित किया बल्कि एक बड़ा नाम भी बनाया। ये अलग बात है कि उनकी मुख्य पहचान एक कमेडियन की रही पर शुरुआती दौर में तो उन्होंने खलनायक की भूमिकाएँ की फिर बीच-बीच में भी नकारात्मक किरदार निभाते रहे और चरित्र भूमिकाओं में भी अलग-अलग रंग भरे।
300 से ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय करने वाले ओम प्रकाश के जीवन में दो फ़िल्में बहुत महत्वपूर्ण रहीं जिन्हें उनके करियर का टर्निंग पॉइंट कहा जा सकता है। पहली थी 1966 में आई “दस लाख” जिसमें हीरो थे संजय ख़ान और हेरोइन बबीता पर फ़िल्म का मेन अट्रैक्शन थे ओम प्रकाश और इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट कॉमेडियन के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से नवाज़ा गया। इस सिल्वर जुबली हिट फ़िल्म से उन्होंने साबित किया कि उनमें अपने कंधे पर फ़िल्म को कामयाबी दिलाने की ताक़त थी।
उनके करियर का दूसरा टर्निंग पॉइंट थी 1970 में आई “गोपी” जिसमें दिलीप कुमार जैसे बड़े स्टार के साथ उन्होंने स्क्रीन शेयर की। हाँलाकि इससे पहले भी उन्होंने आज़ाद जैसी कुछ फ़िल्मों में दिलीप कुमार के साथ काम किया था, मगर इस समय तक आते-आते ओम प्रकाश का अभिनय और बतौर अभिनेता उनका रुतबा दोनों बदल चुके थे। दिलीप कुमार ने ख़ुद माना कि उन्हें इस बात का डर था कि कहीं ओम प्रकाश उन्हें ओवर-शैडो न कर दें। दिलीप कुमार के बड़े भाई की इस भूमिका ने उनके करियर को एक नई दिशा दी। लोगों ने जाना कि वो परिपक्व और गंभीर भूमिकाएं भी उतनी ही सहजता से निभा सकते हैं जितनी सरलता से वो कॉमेडी किया करते थे।
इसके बाद तो कई ऐसी फ़िल्में आईं जिनमें वो फिल्म के केंद्र में रहे, और बेहद भावुक किरदार उन्होंने निभाए। इनमें साधू और शैतान (1968), अन्नदाता (1972), बुड्ढा मिल गया (1971), चौकीदार(1974), अलाप (1977), गोलमाल (1979), जैसी कई फ़िल्मों के नाम लिए जा सकते हैं। प्रकाश मेहरा और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फ़िल्मकारों की फ़िल्मों में उनका एक अहम् रोल हमेशा हुआ करता था। “चुपके-चुपके” के जीजाजी को तो कोई भुला ही नहीं सकता, जो सूंघ कर आदमी पहचान लेते थे। प्रकाश मेहरा की नमकहलाल के मॉडर्न दद्दू हों या शराबी के वफ़ादार दर्दमंद मुंशी जी, उनका हर किरदार यादगार है।
ओम प्रकाश ने भी दूसरे कई कलाकारों की तरह अभिनय के साथ-साथ फ़िल्म निर्माण किया। पहले उन्होंने संगीतकार सी रामचंद्र के साथ मिलकर तीन फिल्में बनाई – “दुनिया गोल है”, “झांझर” और “लकीरें” पर ये फ़िल्में चली नहीं और पार्टनरशिप यहीं ख़त्म हो गई लेकिन दोस्ती बरक़रार रही। इसके बाद उन्होंने ख़ुद की प्रोडक्शन कंपनी खोली और “गेटवे ऑफ़ इंडिया”, “चाचा ज़िन्दाबाद”, “संजोग” और “जहाँआरा” जैसी फिल्मों का निर्माण किया। इन सभी फ़िल्मों ने आलोचकों का ध्यान तो खींचा, उनका संगीत भी यादगार है, ट्रीटमेंट भी अच्छा था पर ये फ़िल्में बॉक्स-ऑफिस पर कुछ कमाल नहीं दिखा पाईं। उन्होंने राज कपूर, नूतन स्टारर फ़िल्म “कन्हैया” की कहानी लिखी और उस का निर्देशन भी किया।
ओम प्रकाश की शादी से जुड़ा वाक़या बहुत ही अनोखा है
“उजाले तीरगी की कैद में हैं, झूठ की मुट्ठी में हैं सच्चाईयां।
दो मुहब्बत करने वाले मर गए, जी रही हैं आज भी रुसवाईयां।”
ये शेर ओम प्रकाश का पसंदीदा था, वो अक्सर ये शेर कहा करते थे। उन्हें एक सिक्ख लड़की से प्यार हुआ था मगर अलग जाति होने के कारण लड़की के घरवाले शादी के लिए तैयार नहीं हुए। उनकी माँ रिश्ता लेकर उनके घर भी गईं पर बात नहीं बनी बल्कि काफ़ी बखेड़ा खड़ा हो गया और प्यार की कहानी लगभग ख़त्म हो गई। फिर एक दिन जब वो पान की दुकान पर खड़े थे तो एक विधवा स्त्री वहाँ आईं और कहने लगीं कि उनकी चार बेटियाँ हैं सबसे बड़ी 16 साल की है। वो चाहती थीं कि ओम प्रकाश उनकी बेटी से शादी कर लें, वो महिला उनके सामने दामन फैलाकर गुज़ारिश करने लगीं। ओम प्रकाश की माँ को भी कोई एतराज़ नहीं था तो इस तरह ओम प्रकाश की शादी उस महिला की बेटी से हो गई।
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ओम प्रकाश वैसे भी काफ़ी नर्मदिल इंसान थे, हर किसी की मदद के लिए तैयार रहते थे लेकिन उसका कभी ज़िक्र नहीं करते थे। उनका मानना था कि अगर सीधे हाथ से कुछ दे रहे हैं तो उलटे हाथ को भी नहीं पता चलना चाहिए। इंडस्ट्री में भी उन की छवि एक पिता समान व्यक्ति की थी जिसे सभी प्यार और सम्मान देते थे। बहुत ही विनम्र, हाज़िरजवाब, ज़िंदादिल, बेहद आशावादी और ज़मीन से जुड़े साधारण इंसान पर उसूलों के एकदम पक्के। देवानंद, दिलीप कुमार, प्राण, सुनील दत्त और राजेंद्र कृष्ण उनके अच्छे दोस्तों में से थे जिनके साथ वो वक़्त बिताना पसंद करते थे।
ज़िंदगी के अलावा अच्छी शायरी, अच्छा संगीत और अच्छी किताबों से उन्हें बहुत प्यार था। और इसी प्यार की सौग़ात लिए 14 फ़रवरी 1998 को उन्होंने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। उनके जाने से सिर्फ़ एक बेहतरीन कलाकार ही कम नहीं हुआ बल्कि इस दुनिया के अच्छे इंसानों में से एक इंसान भी कम हो गया। पर उनकी यादों का ज़खीरा है न, जब-जब उस पर नज़र डालेंगे, क़हक़हे सुनाई देंगे, ठहाके गूँजेंगे और ओम प्रकाश की चिर-परिचित आवाज़ सुनाई देगी।