नौशाद वो संगीतकार जिन्होंने फ़िल्म संगीत को ऐसी धुनें दीं जो स्तरीय होने के साथ साथ आम लोगों में मशहूर भी हुईं। उनके जन्मदिन पर उनके जीवन के शुरूआती संघर्ष पर एक नज़र।
संगीतकार नौशाद के संगीत ने कभी न कभी हम सब को झूमने पर मजबूर किया है, रुलाया भी है और इश्क़ की ख़ुमारी में डूब कर बहलाया भी है। मगर जिस मक़ाम पर वो पहुँचे वहाँ तक पहुँचना आसान काम नहीं था, घरवालों की पसंद के ख़िलाफ़ जाना अपने पैशन के लिए ख़ुद को मिटा देना हर मुश्किल का सामना करना… अच्छे-अच्छे लोग हार मान जाते हैं, आधे तो उस डगर पर चलने का साहस ही नहीं जुटा पाते, सपना तक देखने से डरते हैं।
मगर नौशाद ने न सिर्फ़ सपने देखे बल्कि उन्हें पूरा करने के लिए जी-जान एक कर दिए, हर आज़माइश के बाद क़िस्मत ने भी उनका साथ दिया और आख़िरकार उनका सपना पूरा हुआ। तभी आज उनका नाम संगीत के महारथियों में शामिल किया जाता है। नौशाद का जन्म जिस परिवार में हुआ वहाँ दूर-दूर तक किसी का संगीत से कोई नाता नहीं था, उनके पिता वाज़िद अली को तो संगीत से सख़्त नफ़रत थी। बेहद मज़हबी माहौल में पले बड़े नौशाद अली का जन्म 25 दिसंबर 1919 को लखनऊ में हुआ।
नौशाद का मन बचपन से ही पढाई में नहीं सिर्फ़ संगीत में रमता था
ऊपर वाला हर किसी को कोई न कोई ख़ासियत देके भेजता है, जो अपनी उस क्वालिटी को पहचान कर उस के मुताबिक़ आगे बढ़ता है वो कामयाब हो जाता है। नौशाद को बचपन से ही संगीत का इस हद तक शौक़ था कि वो हर समय संगीत की स्वर-लहरियों में डूबते उतरते रहते। इसीलिए न तो स्कूल की पढाई में मन लगता न ही मौलवी साहब के दिए इल्म में। लेकिन जब कभी साइलेंट मूवीज देखने का मौक़ा मिलता तो जो साजिंदे वहाँ बैठकर साज़ बजा रहे होते, उन्हें बड़ी ही दिलचस्पी के साथ देखा करते और किस सिचुएशन पर किस तरह की धुन बजाई जा रही है इस पर उनका पूरा ध्यान रहता।
नौशाद सिर्फ़ दस साल के थे जब वो पहली बार अपने मामा के साथ हज़रत वारिस अली शाह का उर्स देखने गए थे। दस दिन के उस उर्स में जो बात उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद आई वो भी संगीत ही था। उस उर्स में देश भर के मशहूर गायक आया करते थे, जो भी उन्होंने गाया वो जैसे 10 साल के बच्चे नौशाद के दिल-ओ-दिमाग़ में समा गया। वहीं एक बाँसुरीवाला भी था उसकी बाँसुरी की तान उन्हें इतना लुभाती कि वो जब तक बजाता रहता वो उसके सामने बैठे सुनते रहते। एक बार जो उर्स गए तो फिर ये जैसे हर साल का मामूल हो गया और जैसे जैसे संगीत की समझ बढ़ती गई उसके लिए दीवानगी भी बढ़ती गई।
संगीत से लगाव के कारण वाद्य-यंत्रों की दुकान पर काम किया
लखनऊ में वो अक्सर 25 पैसे का टिकट लेकर फ़िल्म देखने रॉयल सिनेमा जाया करते थे। वहां के ऑर्केस्ट्रा को लीड करते थे नवाब लड्डन, हारमोनियम पर उनकी धुनें सुनकर नौशाद मियाँ का भी दिल चाहता हारमोनियम बजाने का लेकिन न तो हारमोनियम ख़रीदने के पैसे थे न ही घरवालों से उसे ख़रीदने की इजाज़त मिलने की कोई उम्मीद। इसलिए मन मसोसकर रह जाते थे। लेकिन फिर यही शौक़ उन्हें एक इंस्ट्रूमेंट्स की दुकान पर ले गया। वो रोज़ाना दुकान के सामने जाकर खड़े हो जाते और हसरत भरी नज़रों से हरेक इंस्ट्रूमेंट को देखा करते।
उस दुकान के मालिक थे ग़ुरबत अली एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया कि रोज़ाना यहाँ क्यों खड़े हो जाते हो ? तो नौशाद साहब काम की तलाश की बात कह दी और फिर बाद ग़ुरबत अली ने उन्हें as a salesman काम पर रख लिया। एक दिन युवा नौशाद ने उनसे कहा कि अगर वो दुकान की चाबी उन्हें दे दें तो वो सुबह आकर दुकान भी खोल देंगे और साफ़-सफ़ाई भी कर देंगे। उन्होंने चाबियाँ दे दीं, अब होता ये कि नौशाद सुबह आकर साफ़ सफ़ाई करते और हारमोनियम लेकर बैठ जाते।
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एक दिन मालिक ने पकड़ लिया पहले तो डाँटा फिर पूछा कि तुमने हारमोनियम कहाँ से सीखा ? और जब उन्हें पता चला कि नौशाद ने बिना प्रैक्टिस के सिर्फ़ देख-देख कर इतना बढ़िया हारमोनियम बजाना सीखा है तो उन्होंने ख़ुश होकर वो हारमोनियम जिस पर वो प्रैक्टिस कर रहे थे नौशाद को दे दिया। अपने वालिद से छुपकर वो हारमोनियम घर ले गए और एक कोठरी में छुपा कर रख दिया जब भी मौक़ा मिलता वो हारमोनियम का रियाज़ करते। इसी बीच ग़ुरबत अली ने रॉयल सिनेमा के लड्डन साहब को युवा नौशाद के बारे में बताया और फिर लड्डन साहब ने उन्हें शागिर्द बना लिया।
उनके पिता ने साफ़-साफ़ कह दिया कि घर या संगीत में से एक को चुनना होगा
रॉयल सिनेमा के नाइट शो में वो हारमोनियम बजाया करते थे में बतौर वादक बुलाना शुरु कर दिया। आख़िरी शो के बाद देर रात घर पहुँचते तो इस डर से कि कहीं उनकी पिताजी जाग न जाएँ बिना खाए पिए ही सो जाते। लेकिन घर में कुछ होगा तो कभी न कभी तो राज़ खुलेगा ही। एक दिन उनके पिता ने उन्हें हारमोनियम बजाते देख लिया और उन्हें बहुत डाँटा और आइंदा न बजाने की वार्निंग भी दे दी, तब से वो ज़्यादा सावधानी बरतने लगे मगर एक दिन फिर से पकडे गए इस बार पिता ने हारमोनियम ही उठा के फेंक दिया। इसके बाद उन्हें वो हारमोनियम अपने एक शायर दोस्त के घर पर रखना पड़ा।
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जब इंसान ख़ुद कोशिशें करता है तो बहुत से हाथ मदद को आ जाते हैं। उन्हें भी ग़ुरबत अली की मदद से ही उस्ताद बब्बन ख़ाँ से शास्त्रीय संगीत और उस्ताद यूसुफ़ अली से सितार सीखने का मौक़ा मिला। फिर एक दिन उन्हें थिएटर में पुराने गानों की धुन बजाने का काम मिल गया और तब उन्हें समझ में आया कि जो मज़ा उन्हें धुनें बनाने में आता है वो किसी और काम में नहीं आता। इसी बीच हुआ ये कि एक घुमन्तु नाटक कंपनी लखनऊ आई जिसमें नौशाद को हारमोनियम बजाने का काम मिल गया और फिर वो घर से भाग कर उस कंपनी के साथ टूर पर निकल गए।
महीनों बाद जब नाटक कंपनी फ़ेल हो गई तो एक दोस्त ने उन्हें 75 रुपए देकर लखनऊ की ट्रैन में बिता दिया। घर तो आ गए मगर अबकी बार उनके पिता ने साफ़ साफ़ कह दिया कि आज फ़ैसला कर लो कि तुम्हें संगीत चाहिए या घर। और इसके बाद नौशाद साहब ने घर छोड़ दिया। घर छोड़ने के बाद वही शायर दोस्त आसरा बने और फिर उन्हीं की सलाह पर वो मुंबई चले आये जहाँ सवाक फ़िल्में बनने लगी थीं।
बम्बई का संघर्ष और कामयाबी
नौशाद के दोस्त ने अपने एक जानने वाले अब्दुल अलीम नामी का पता और उनके नाम एक ख़त के साथ ख़र्चे के लिए कुछ रूपए भी दिए और इस तरह नौशाद मुंबई पहुँच गए। वहाँ किसी के ज़रिए कारदार फ़िल्म्स के संगीतकार मुश्ताक़ हुसैन से मिलने की बात हुई उन्हें फ़िल्मसिटी स्टूडियो बुलाया गया मगर किसी ने उन्हें अंदर जाने ही नहीं दिया। कई दिनों तक ये सिलसिला चला, फिर किसी के कहने पर रणजीत स्टूडियो के चक्कर लगाए मगर वहाँ भी एंट्री नहीं मिली।
पैसे एक तो वैसे ही कम थे उस पर जेब कट गई तो वो 20 मील की दूरी फटे जूतों के साथ पैदल ही तय करते। रात का खाना तो नामी साहब खिला देते दिन भर भूखे ही रहना पड़ता। मगर इन हालात में भी नौशाद ने हार नहीं मानी। और फिर एक दिन नामी साहब ने उन्हें “न्यू इंडिया पिक्चर्स” का एक इश्तिहार दिखाया जिसने फ़िल्मी दुनिया में उनकी एंट्री कराई। एक नई कम्पनी खुल रही थी जहाँ म्यूजिशियंस की ज़रुरत थी तो नौशाद साहब भी वहाँ पहुँच गए इंटरव्यू देने। वहाँ उन्होंने देखा कि बहुत उम्रदराज़ अनुभवी लोग इंटरव्यू के लिए आये हुए थे। उन्हें लगा उनका कोई चांस ही नहीं है।
उसी इंटरव्यू में पहली बार उन्होंने उस्ताद झंडे खाँ को देखा उनके मुताबिक़ वो संगीतकार कम और मौलवी ज़्यादा लग रहे थे। नौशाद ने पियानो बजाकर दिखाया और लौट आए कुछ दिनों बाद उन्हें एक पत्र मिला, जो उनका जॉइनिंग लेटर था। उन्हें 40 रूपए महीने की तनख़्वाह पर पियानो प्लेयर के तौर पर काम मिल गया था। उसी दौर का ज़िक्र नौशाद ने अपनी बायोग्राफी में किया है कि जब ख़ाँ साहब सुनहरी मकड़ी फ़िल्म के लिए एक धुन बना रहे थे तो रशियन डायरेक्टर को धुन पसंद नहीं आ रही थी।
तब युवा नौशाद ने ख़ाँ साहब को कुछ सुझाव दिए और जब वो धुन डायरेक्टर को सुनाई गई तो उसे बहुत पसंद आई और उस्ताद झंडे ख़ान उनसे बहुत ख़ुश हुए। नौकरी मिलने के बाद नौशाद साहब ने नामी साहब का घर छोड़ दिया उन्हें दादर में एक दुकान के पिछले हिस्से में रहने की जगह मिल गई थी मगर वहाँ गर्मी से बुरा हाल होता था तो मजबूरन वो फुटपाथ पर सोते और जब बारिश आती तो वो बिल्डिंग की सीढ़ियों पर बिछोना लगाते।
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ये वही बिल्डिंग थी जिसमें उस समय की मशहूर हेरोइन लीला चिटनीस रहती थीं और ये बात बहुत मशहूर है कि कई बार वो सोते हुए नौशाद को लाँघ कर गुज़रती थीं। इंसान का रुतबा और दौलत कितनी मायने रखती है इस घटना से समझा जा सकता है। और उसी जगह पर रहते हुए नौशाद ये ख़ुदा से पूछा करते थे कि उनकी ज़िन्दगी के अँधेरे कब छंटेंगे ?
उस्ताद झंडे ख़ाँ के बाद नौशाद ने मुश्ताक़ हुसैन के साथ कुछ वक़्त सहायक के तौर पर काम किया और फिर उन्हें रणजीत स्टूडियो में 75 रूपए महीने की नौकरी मिल गई। रंजीत में नौशाद ने मनोहर कपूर के सहायक के तौर पर काम शुरु किया था मगर जब खेमचंद प्रकाश को स्टाफ़ की ज़रुरत पड़ी तो वो उनके भी सहायक बन गए। कुछ समय तक उन्होंने बतौर असिस्टेंट काम किया। उनके काम और व्यवहार से डी एन मधोक बहुत ख़ुश थे, फिर उनकी सिफारिश पर चंदूलाल शाह ने “कंचन” फ़िल्म में नौशाद को संगीतकार बना दिया।
एक फ़िल्म में संगीत देने की ज़िम्मेदारी मिलने से नौशाद बहुत ख़ुश हुए मगर जल्दी ही उनकी ख़ुशी पर पानी फिर गया। अकेला संगीतकार बिना म्यूजिशियंस के क्या कर सकता है और और उनके पास सारा स्टाफ वही वही था जिनके साथ वो कल तक काम किया करते थे और उन लोगों को इस बात से चिढ़ हो रही थी कि हमारे साथ काम करने वाला लड़का रातों रात संगीतकार बन गया। इसलिए वो लोग न तो उनके ऑर्डर्स मान रहे थे न ही कोऑपरेट कर रहे थे। एक गाना तो उन्होंने जैसे तैसे बना दिया जो चंदूलाल शाह को पसंद भी आया मगर इसी के साथ नौशाद ने अपना इस्तीफ़ा भी दे दिया।
अब मुश्किल ये थी कि दूसरा काम कैसे मिले तब एक बार फिर डी एन मधोक ने उन्हें इस मुश्किल से निकाला। वो ही युवा नौशाद को मोहन भवनांनी के पास ले गए और उन्हें कन्विंस भी किया कि अगर उनसे कोई ग़लती हुई तो वो उसकी भरपाई करेंगे। तब जाकर नौशाद को बतौर संगीतकार अपनी पहली फ़िल्म मिली “प्रेम नगर”। तीन महीने बाद जब वो फ़िल्म रिलीज़ हुई और उनका नाम स्क्रीन पर आया तब जाकर उनका वो सपना पूरा हुआ जिसके पूरा होने की वो दुआएँ माँगा करते थे। मगर अभी और भी मंज़िलें तय करना बाक़ी था।
“प्रेम नगर” के बाद उन्हें प्रकाश पिक्चर्स की फिल्म “माला” मिली और उसी के साथ उन्होंने एक चॉल में कमरा किराए पर ले लिया। और फिर उन्हें प्रकाश पिक्चर्स की ही “दर्शन” और “स्टेशन मास्टर” में भी संगीत देने की ज़िम्मेदारी मिल गई। स्टेशन मास्टर नौशाद की पहली सिल्वर जुबली थी, तब तो उन्हें उन लोगों के बुलावे भी आने लगे जिन्होंने कभी उन्हें काम देने से मना कर दिया था। ऐसा ही बुलावा आया ए आर कारदार का, नौशाद उनके साथ काम करना तो नहीं चाहते थे मगर एक शुभचिंतक की सलाह पर उन्होंने कारदार प्रोडक्शंस की “नई दुनिया” में संगीत दिया।
हाँलाकि प्रकाश पिक्चर्स के साथ कॉन्ट्रैक्ट था कि उनके साथ काम करते हुए वो किसी और बैनर की फिल्म नहीं करेंगे मगर ये वो दौर था जब नौशाद की प्रतिभा को पहचाना जा रहा था और वो एक के बाद एक फ़िल्में करते जा रहे थे और कह सकते हैं कि रास्ते की मुश्किलें भी हटती जा रही थीं तो जब ए आर कारदार ने उन्हें अपनी दूसरी फ़िल्म में संगीत देने को कहा तो नौशाद ने भट्ट भाइयों से इजाज़त लेकर “शारदा” फिल्म का संगीत दिया और साथ ही चॉल छोड़कर एक अच्छे फ्लैट को किराए पर ले लिया।
पहली सुपरहिट फ़िल्म जिसके बाद नौशाद ने कभी मुड़कर नहीं देखा
कारदार फ़िल्म्स के साथ नौशाद ने फिर “क़ानून”, “संजोग”, “नमस्ते”, “जीवन” जैसी फ़िल्में कीं। शुरूआती 8-10 फ़िल्मों की कामयाबी ने नौशाद को पहचान तो दिलाई मगर वो म्यूज़िकल फ़िल्म आनी अभी बाक़ी थी जिसने उन्हें रातों रात शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया। वो आई 1944 में, जैमिनी दीवान की “रतन” जो सिर्फ़ 75 हज़ार रूपए में बनकर तैयार हुई थी मगर इस फ़िल्म के रिकार्ड्स की पहले साल बिक्री से जो रॉयलिटी जैमिनी दीवान को मिली वो थी साढ़े तीन लाख रूपए।
नौशाद साहब के मुताबिक़ जैमिनी दीवान ने उनसे वादा किया था कि उन्हें इतना मेहनताना देंगे जितना किसी ने नहीं दिया होगा, साथ ही रॉयल्टी में भी हिस्सा देने की बात की थी मगर फ़िल्म सुपरहिट होने के बाद उन्होंने सिर्फ़ 8000 रूपये का चेक नौशाद साहब को दिया।
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जब “रतन” का संगीत गली-गली में गूँज रहा था उन्हीं दिनों नौशाद की शादी तय हो गई थी। उनके पिता ने ये रिश्ता कराया था उनकी ससुराल वाले सूफ़ी क़िस्म के व्यक्ति थे इसलिए उन्हें सच नहीं बताया गया था कि वो फ़िल्मों में संगीत देते हैं। नौशाद जब बारात लेकर पहुंचे तो हर तरफ़ रतन के गाने बज रहे थे। और वो अंदर ही अंदर डर रहे थे कि कहीं किसी को पता न चल जाए। शादी के कई सालों बाद उनके ससुर को पता चला कि वो फ़िल्मों में काम करते हैं। “रतन” के बाद नौशाद को कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। फ़िल्म भले ही फ़्लॉप हो जाए मगर उनका म्यूजिक फ़्लॉप नहीं हुआ।
“अनमोल घड़ी”, “शाहजहाँ”, “दर्द”, “मेला”, “अंदाज़”, “बाबुल”, “दीदार”, “आन”, “बैजू बावरा”, “उड़न खटोला”, “मदर इंडिया”, “कोहिनूर”, “मुग़ल-ए-आज़म”, “गंगा जमुना”, “मेरे महबूब”, “लीडर”, “साथी”, “राम और श्याम”, “पाकीज़ा” कितने ही अनमोल संगीतमय जवाहरात उन्होंने हिंदी फ़िल्मों को दिए जिनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
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