लीला चिटनीस का शुमार उस दौर में सिनेमा की पढ़ी-लिखी महिलाओं में होता है। उस समय के एक अखबार ने उनके बारे में छापा था कि वो महाराष्ट्र की पहली स्नातक महिला हैं। आज के दौर में किसी महिला का ग्रेजुएट होना कोई बड़ी बात नहीं है मगर याद रखिये कि हम उस दौर की बात कर रहे हैं, जब महिलाओं का पढ़ना भी बुरी बात समझी जाती थी।
हिंदुस्तान में एक लम्बे अरसे तक ब्यूटी सोप का मतलब हुआ करता था-लक्स, इसकी वजह ग्लैमर हो सकता है क्योंकि लक्स साबुन के विज्ञापन में हमेशा से फिल्म स्टार्स ही नज़र आते रहे हैं। पहले सिर्फ़ हॉलीवुड हीरोइन्स ही वो विज्ञापन किया करती थीं। लेकिन 1941 में पहली बार किसी भारतीय अभिनेत्री ने लक्स के विज्ञापन में काम किया। वो अभिनेत्री थीं अपने ज़माने की बेहद ग्लैमरस हेरोइन लीला चिटनीस , जो सादगी में सुंदरता की मिसाल थीं।
लीला चिटनीस के बारे में कहा जाता है कि वो अपनी आँखों से अभिनय करती थी। अभिनेता अशोक कुमार भी उनके क़ायल थे, और मानते थे कि आँखों से बोलने की कला उन्होंने लीला चिटनिस से ही सीखी थी। लेकिन ऐसी प्रतिभाशाली और ख़ूबसूरत हेरोइन को आज ज़्यादातर उनके माँ के किरदार के लिए ही याद किया जाता है – बेबस, दुखी, लाचार, बीमार माँ।
लीला चिटनीस ने जब आत्महत्या की कोशिश की तो उनकी माँ को मानना पड़ा
9 सितम्बर 1909 को कर्नाटक के धारवाड़ में जन्मी “लीला नागरकर” ने ग्रेजुएशन के बाद नाटयमनवंतर थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया जहाँ मराठी के नाटकों का मंचन होता था। इसी थिएटर से उनके पिता भी जुड़े थे, जो इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफ़ेसर भी थे, लेकिन जब वो कॉलेज में आई उसी समय उनके पिता की मौत हो गई। कॉलेज की पढाई के दौरान उनकी मुलाक़ात इंग्लैंड से आये एक विधुर डॉ चिटनिस से हुई। लीला की उम्र उस समय सिर्फ़ 16 साल की थी और वो डॉ चिटनीस से इस क़दर प्रभावित हो गई थीं कि उनसे शादी करना चाहती थीं।
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घरवाले उन दोनों की शादी के बिलकुल ख़िलाफ़ थे, पर अपनी ज़िद में जब लीला ने आत्महत्या का प्रयास किया तो उनकी माँ को मानना ही पड़ा। 1928 में शादी के बाद लीला नगरकर बन गईं लीला चिटनीस। जल्दी ही वो चार बच्चों की माँ बनी और फिर कुछ समय बाद ही उनका तलाक़ हो गया। इसके बाद वो कुछ समय स्कूल टीचर रहीं लेकिन 30 के दशक में अपने चार बच्चों की परवरिश के लिए वो मुंबई आ गईं।
स्टंट फ़िल्मों से टॉप की हेरोइन तक का सफ़र
फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाओं से शुरू करके लीला चिटनीस ने प्रयोग के तौर पर स्टंट फिल्में भी कीं। पर जल्दी ही उन्हें मौक़ा मिला मास्टर विनायक, नारायण काले और सोहराब मोदी जैसे इंडस्ट्री के बड़े -बड़े लोगों के साथ काम करने का। 30 के दशक का आख़िरी दौर और 40 के दशक का शरुआती समय लीला चिटनीस का सुनहरा दौर था, जब उनका शुमार चोटी की अभिनेत्रियों में होता था। 1938 की “जेलर” में लीला चिटनिस ने सोहराब मोदी के साथ काम किया। 1939 में रणजीत मूवीटोन की “संत तुलसीदास” में उन्होंने तुलसीदास की पत्नी की भूमिका निभाई थी और इस फिल्म की सफलता के साथ ही वो एक बड़ी स्टार बन गईं।
प्रभात पिक्चर्स और रणजीत मूवीटोन में काम करने के बाद लीला चिटनीस बॉम्बे टॉकीज़ से जुड़ी और फिर 1939 में आई फ़िल्म “कंगन” जो सुपर डुपर हिट रही। “कंगन” में उनके नायक थे अशोक कुमार, “कंगन” के बाद इस जोड़ी की “बंधन” और “झूला” दो और फ़िल्में लगातार आईं और वो दोनों भी सुपरहिट रहीं। “बंधन” फ़िल्म में उनका गेट-अप बहुत ही सादा था। सादी साड़ी और उस पर दो चोटियाँ। उस दौर की फ़िल्मों को अगर आप देखें तो पाएंगे की सादगी भी कितनी ख़ूबसूरत हो सकती है।
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अशोक कुमार और बॉम्बे टॉकीज़ के साथ उनकी एक टीम बन गई थी पर लीला चिटनीस किसी एक स्टूडियो के साथ बंध कर काम नहीं करना चाहती थीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती थीं। पर जब उनके इस फैसले का नतीजा बहुत अच्छा नहीं रहा तो उन्होंने फिर से बॉम्बे टॉकीज़ के साथ काम करना शुरू कर दिया। 1944 की “चार आँखें” और “किरण” उसी दौर की फिल्में हैं, पर वापसी पर ख़ुद बॉम्बे टॉकीज़ उतार-चढाव से गुज़र रहा था तो उन्हें भी पहले वाली कामयाबी नहीं मिल पाई और 40 का दशक समाप्त होते होते लीला चिटनीस ने माँ की भूमिकाएं स्वीकार करनी शुरू कर दीं।
हिंदी फ़िल्मों की बेबस दुखी लाचार माँ
पहली बार 1948 की फ़िल्म “शहीद” में लीला चिटनीस ने दिलीप कुमार की माँ का रोल किया था उसके बाद वो कई फ़िल्मों में दिलीप कुमार की माँ के रोल में नज़र आईं। इस तरह कह सकते हैं की शहीद फ़िल्म की सफलता से लीला चिटनिस की दूसरी पारी शुरू हुई -चरित्र कलाकार के रूप में, ख़ासकर उनकी इमेज रही एक बूढ़ी बीमार माँ की या अपने बच्चों की ज़िंदगी सँवारने के लिए संघर्ष करती माँ की। ऐसी ही भूमिका थी फ़िल्म “आवारा” में, इस फिल्म में वो राजकपूर की माँ बनी थीं। ये भूमिका उनकी कुछ बहुत अच्छी भूमिकाओं में से थी।
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“आवारा” फिल्म की कहानी में एक डक़ैत वकील से बदला लेने के लिए उसकी पत्नी का अपहरण कर लेता है पर सही सलामत लौटा देता है लेकिन पति को अपनी पत्नी पर शक़ बना रहता है। उस मजबूर पत्नी और फिर बाद में अपने बेटे को गलत संगत से बचाने की कोशिश करती, उस की परवरिश के लिए संघर्ष करती माँ की भूमिका को लीला चिटनीस ने बख़ूबी निभाया। राज कपूर की “आवारा” के अलावा बिमल रॉय की फ़िल्म “माँ” में भी उनकी केंद्रीय भूमिका थी। लेकिन ऐसी फिल्में कम ही थीं।
50 के दशक के मध्य तक आते आते लीला चिटनीस ज़्यादातर हीरो की उदास-दुखी मजबूर, लाचार बीमार माँ की लगभग एक जैसी भूमिकाओं में ही नज़र आने लगीं। लेकिन जब भी उन्हें मौक़ा मिला अच्छे रोल्स मिले उन्होंने उन्हें पूरी शिद्दत से निभाया। ऐसी फिल्मों में “साधना”, गाइड”, “काला बाज़ार”, “हम दोनों” जैसी फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं। ख़ासकर गाइड जिसमें एक रूढ़ियों में बंधी लाचार माँ अपने बेटे के मॉडर्न ख़यालात से सहमत नहीं हो पाती।
लीला चिटनिस छोटी छोटी भूमिकाओं से शुरू करके मुख्य अभिनेत्री बनी और फिर माँ के किरदार निभाए। इस दौरान उन्होंने बहुत सी मशहूर फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें “जेलर”, “संत तुलसीदास”, “कंगन”, “बंधन”, “झूला”, “आज़ाद”, “शहीद”, “घर घर की कहानी”, “आवारा”, “साधना”, “नया दौर”, “गंगा जमुना”, “शहनाई”, “ज़िंदगी”, “बसंत-बहार”, “घूँघट”, “उजाला”, “धूल का फूल”, “कोहिनूर”, “परख”, “दिल ही तो है”, “नई उम्र की नई फसल”, “फंटूश”, “फूल और पत्थर”, “फिर सुबह होगी” जैसी कई प्रसिद्ध फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।
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एक समय में लीला चिटनीस ने अपना एक थिएटर ग्रुप बनाया था। बाद में उन्होंने एक फ़िल्म का निर्देशन भी किया जिसका नाम था – “आज की बात” जो 1955 में आई थी लेकिन इसके बाद उन्होंने फिर किसी फिल्म का निर्देशन नहीं किया। 1981 में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई जिसका नाम था- “चंदेरी दुनियेत” 1985 तक वो फिल्मों में सक्रिय रही और फिर वो अपने बच्चों के पास US चली गईं। वहीं 14 जुलाई 2003 में लीला चिटनीस का निधन हो गया।
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