कन्हैयालाल जो एक सूदख़ोर साहूकार के पर्याय बन गए थे। आज भी लोग उन्हें उनके असली नाम से कम बल्कि सुक्खी लाला के नाम से ज़्यादा जानते हैं।
सुक्खी लाला, जिनका असली नाम है कन्हैयालाल ये फ़िल्मी परदे के वो खलनायक थे जिन्होंने अपने किरदारों के लिए बहुत सी गालियाँ खाईं, नफ़रत झेली, यहाँ तक कि उनके घर पर पत्थर भी बरसाए गए। उन पत्थरों को वो अपना अवॉर्ड मानकर संभाल कर रखते थे। सच है न परदे पर निभाए किरदार को कितनी नफ़रत या प्यार मिल रहा है यही तो असल पैमाना है जो किसी कलाकार की काबिलियत तय करता है।
कन्हैयालाल को एक समय में हिंदी सिनेमा का “शुद्ध देसी घी” कहा जाता था
आँखों में चालाकी भरी कुटिलता और वहशीपन, आवाज़ में कभी लालच, लोभ, वासना कभी अपना उल्लू सीधा करने के लिए सिफ़ारिशी लहजा। धोती कुरता पहने चाल में अजीब सी उतावली, बोलचाल में तोल-मोल और व्यवहार में ठेठ गँवईपन। ये सिर्फ़ कन्हैयालाल ही हो सकते हैं। उन्होंने चाहे कितना भी पॉज़िटिव किरदार निभाया हो मगर उनकी दुष्ट ख़लनायक वाली छवि इतनी मज़बूत है कि इस डिस्क्रिप्शन के साथ आप किसी और की कल्पना कर ही नहीं सकते।
एक समय था जब उन्हें हिंदी सिनेमा का “शुद्ध देसी घी” कहा जाता था। और ये वो कलाकार भी थे जिन्हें डायरेक्टर को कभी ये बताना नहीं पड़ता था कि उन्हें कोई सीन कैसे करना है। उन्हें स्क्रिप्ट और डायलॉग्स देकर डायरेक्टर निश्चिन्त हो जाते थे बाक़ी काम कन्हैयालाल ख़ुद इतनी सहजता से कर लेते थे कि कभी लगा ही नहीं कि वो अभिनय कर रहे हैं।
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फ़िल्म जीवन-मृत्यु में उनके मुंह से निकला “भइये” सभी को याद होगा, पूरी फ़िल्म में अलग-अलग वैरिएशन में उन्होंने भइये बोला है। और ऐसे बोला है जैसे ये असल में उनका तकिया कलाम हो। सिर्फ़ एक इस फ़िल्म में नहीं बल्कि हर फ़िल्म में उनका एक ख़ास डायलाग होता था जिसे वो पूरी फ़िल्म में दोहराते थे। जैसे फ़िल्म गंगा-जमुना में एक कुत्ते को देखते ही दोहराते थे “राम बचाये कल्लू को अँधा कर दे लल्लू को”, और दुश्मन में “कर भला, सो हो भला”।
एक ही तरह के रोल्स में टाइपकास्ट होते हुए भी कन्हैयालाल ने कभी परदे पर बोर नहीं किया। उनकी बॉडी लैंग्वेज और हाव-भाव कमाल के थे। उनका आना जहाँ कुछ ग़लत होने का संकेत देता था वहीं उन्हें देखकर दर्शकों के चेहरे पर एक हँसी बिखर जाती थी। वो एक ऐसे कलाकार थे जिनके किरदार में चरित्र कलाकार की खूबियों के साथ-साथ, विलेन, और कॉमेडियन भी छुपे होते थे। इस तरह वो “थ्री इन वन” का पैकेज थे।
कन्हैयालाल के नाटक के शौक़ ने पढ़ाई भी छुड़ाई और काम भी
पंडित कन्हैयालाल चतुर्वेदी का जन्म 15 दिसंबर 1910 को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता वाराणसी में “सनातन धर्म नाटक समाज” नाम की एक रामलीला मण्डली चलाते थे। कहते हैं उनकी रामलीला देखने बनारस के राजा भी आते थे और जब किसी के अभिनय से खुश होते तो अशर्फियां भी देते थे। कन्हैयालाल के एक बड़े भाई थे संकटा प्रसाद और एक बड़ी बहन थीं कुँवर।
कन्हैयालाल ने सिर्फ़ चौथी क्लास तक की पढाई की थी, क्योंकि उनका मन सिर्फ़ नाटक और रंगमंच में लगता था। उनके पिता नहीं चाहते थे कि बचपन में ही ऐसे शौक़ में पडकर वो अपना जीवन बर्बाद करें इसीलिए थोड़ा बड़े होने पर उन्होंने कन्हैयालाल को किराने की दुकान सँभालने को दे दी, मगर वो दुकान बंद करके नाटक देखने पहुँच जाते थे, आटा पीसने की चक्की भी लगवाई मगर वहाँ भी नाटकों पर चर्चा ज़्यादा होती थी। इस तरह उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा और हर काम ठप हो गया।
आख़िरकार उनके पिता ने थक-हार कर उन्हें रंगमंच से जुड़ने की इजाज़त दे दी। इसके बाद तो जैसे उनकी रचनात्मकता को पंख लग गए। नाटकों में अभिनय के साथ-साथ उन्होंने नाटक और कविता लिखना शुरु कर दिया। कहते हैं कि उन्होंने कुछ नाटकों का निर्देशन भी किया मगर उसी दौरान उनके पिता का निधन हो गया उधर बनारस में बाहर की मंडलियों के आने के बाद कॉम्पीटिशन भी बढ़ गया। ऐसे माहौल में उस नाटक मण्डली को बंद करना पड़ा।
फ़िल्मों में आने से पहले किए कई अलग अलग काम
कन्हैयालाल के बड़े भाई संकटा प्रसाद फ़िल्मों में करियर बनाने के इरादे से मुंबई गए थे। कहा जाता है कि जब बहुत दिनों तक संकटा प्रसाद की कोई ख़बर नहीं आई तो माँ ने कन्हैयालाल को उनकी ख़बर लेने मुंबई भेजा, और एक बार मुंबई आने के बाद वो यहीं के हो गए। कन्हैयालाल के इस दौर के बारे में बहुत स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, और जो मिलती है उसमें अलग-अलग बातें निकल के सामने आती हैं। ये तो सब मानते हैं कि वो मुंबई आये और सागर मूवीटोन से अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत की। मगर मुंबई आने और फ़िल्मों में अभिनय का मौक़ा मिलने तक की कहानी में अलग अलग बातें कही जाती हैं।
एक सोर्स के मुताबिक़ मुंबई आने पर पहले उन्होंने एक नाटक का मंचन करना चाहा मगर अंग्रेज़ों की सेंसरशिप की वजह से वो इसमें कामयाब नहीं हुए। इसके बाद उन्होंने पहले कोलकाता का रुख़ किया और वहाँ एक नाटक मंडली में शामिल होकर “तबलची” की भूमिका निभाई लेकिन फिर इलाहबाद चले गए और वहाँ रामलीला मण्डली में शामिल हो गए साथ नाटक भी खेले। इसी दौरान सागर मूवीटोन के मालिक चिमनलाल देसाई ने उन्हें देखा और मुंबई बुला लिया।
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दूसरे सोर्स के मुताबिक कन्हैयालाल अपने भाई की खोज-खबर लेने मुंबई आये थे, उनके भाई संकटा प्रसाद सागर मूवीटोन के साथ काम करते थे। उन्होंने सागर मूवीटोन की पहली तीन टॉकीज़ वीर अभिमन्यु, रोमांटिक प्रिन्स, अबुल हसन में भी काम किया था। संकटा प्रसाद के कहने पर ही कन्हैयालाल सागर मूवीटोन में 35 रुपए महीने की नौकरी पर रख लिया गया। उन दिनों फ़िल्म निर्देशक महबूब ख़ान, और एक्टर-सिंगर सुरेंद्र भी सागर मूवीटोन के साथ काम करते थे और दोनों तीन हिट फ़िल्म्स दे चुके थे और कहते हैं इन्हीं दोनों के कारण कन्हैयालाल हिंदी सिनेमा के फ़लक पर चमके।
एक जानकारी कहती है कि सबसे पहले उन्होंने “सागर का शेर” नाम की फ़िल्म में एक्स्ट्रा का रोल किया था। वहीं कुछ लोग ये भी मानते हैं कि उनकी पहली “ग्रामोफ़ोन सिंगर” थी। जिन दिनों फ़िल्म “ग्रामोफ़ोन सिंगर” की शूटिंग हो रही थी, कन्हैयालाल भीड़ में खड़े थे। शॉट्स के बीच में सुरेंद्र ने उन्हें बात करते हुए सुना, उनके अंदाज़ में कुछ ऐसा था जो सुरेंद्र को बहुत अपीलिंग लगा। इसके बाद सुरेंद्र ने कन्हैयालाल को महबूब ख़ान से मिलवाया और उन्होंने “ग्रामोफ़ोन सिंगर” में ही कन्हैयालाल को एक छोटा सा रोल दे दिया।
कन्हैयालाल के अंदाज़ ने जहाँ लोकप्रियता दिलाई वहीं हँसी का पात्र भी बनाया
हाँलाकि कन्हैयालाल लेखक-निर्देशक बनना चाहते थे, वो 16 साल की उम्र से लेखन कर भी रहे थे। मगर वो जिस तरह के माहौल से गए थे और जिस तरह की तंगी उन्होंने देखी थी। तो उन्होंने किसी भी तरह के काम को मना नहीं किया। इसीलिए उन्होंने फ़िल्मों में दूसरे कामों के साथ-साथ संवाद भी लिखे, गीत भी और जब अभिनय का मौक़ा मिला तो अभिनय भी किया।
1939 – साधना (10 गीत और संवाद )
1940 – सिविल मैरिज (9 गीत और संवाद )
1940 – संस्कार (17 गीत)
कन्हैयालाल का अंदाज़ दूसरों से काफ़ी अलग था जिसने उन्हें आगे बढ़ाने में मदद भी की और उनकी राह में रोड़े भी अटकाए। कन्हैयालाल बनारस के थे और उसी ठेठ अंदाज़ में सेट पर भी रहते थे, पान चबाने का बहुत ज़्यादा शौक़ था। उनके अड़ियल गँवई स्टाइल को देखकर कोई ये मानता ही नहीं था कि वो एक्टिंग कर सकते हैं। जब एक बार कोई आर्टिस्ट सेट पर नहीं पहुँचा तो कन्हैया लाल को वो रोल प्ले करने के लिए कहा गया।
उस वक़्त सेट पर मौजूद लोग व्यंग्यात्मक लहजे में मंद-मंद मुस्कुराने लगे थे क्योंकि उन्हें यक़ीन ही नहीं था कि कन्हैयालाल एक्टिंग कर सकते हैं और जो संवाद उन्हें बोलना था वो एक पेज लम्बा था। मगर उन्होंने उसे ठीक से किया जिसके बाद उन्हें 10 रूपए की तरक़्क़ी भी मिली और उनकी तनख़्वाह हो गई 45 रुपए। उस वक़्त उनकी उम्र थी 29 साल, जब उन्होंने “साधना” फ़िल्म में हीरो के दादा की भूमिका निभाई जो गाँव का एक सम्मानित बुज़ुर्ग है, लेकिन ये उनकी पहली बड़ी भूमिका थी। इसके बाद तो वो बुज़ुर्ग के रोल में ही दिखने लगे।
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दरअस्ल पहले उन्हें “साधना” फ़िल्म के गीत और संवाद लिखने का काम मिला था। पर एक दिन जब वो अपने लिखे संवाद पढ़ रहे थे तब चिमनलाल देसाई ने उन्हें ये ख़ुद ये भूमिका करने को कहा। ये फ़िल्म हिट साबित हुई, इसके बाद उन्होंने एक ही रास्ता, सिविल मैरिज, सेवा समाज जैसी फ़िल्मों में छोटे-बड़े रोल किये। उस समय तक वो महबूब ख़ान के पसंदीदा कलाकारों की लिस्ट में शामिल हो गए थे और उनकी कई फ़िल्मों में दिखाई दिए और जब महबूब खान नेशनल स्टूडियो में गए तो वहाँ भी कन्हैयालाल ने “संस्कार” फ़िल्म में गीत लिखे।
अभिनय के स्तर पर देखें तो नेशनल स्टूडियो में ही वो फ़िल्म आई जिसने कन्हैयालाल के अंदर के कलाकार को खुलकर उजागर किया और उनके करियर का टर्निंग पॉइंट बनी। वो फ़िल्म थी महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी ‘औरत’ जो 1940 में आई थी। इस फ़िल्म में उन्होंने सुक्खी लाला का किरदार निभाया था, एक सूदखोर, बेरहम साहूकार जिसकी बुरी नज़र गाँव की हर औरत पर पड़ती है। “औरत” फ़िल्म तक आते-आते वो कई कामयाब किरदार निभा चुके थे फिर भी सेट पर उनके प्रति एक भेदभाव वाला रवैया था।
जब “औरत” फ़िल्म की शूटिंग हो रही थी तो कन्हैयालाल का मेकअप करने के लिए किसी मेकअप मेैन के पास टाइम नहीं था। मेकअप के नाम पर उनके मुँह पर सिर्फ़ मूँछें चिपका दी गई थीं। जब उन्होंने सिनेमेटोग्राफर फ़रीदून ईरानी को ये बात बताई तो फ़रीदून ईरानी ने कहा कि चिंता मत करो, तुम नैचुरल खलनायक लगते हो, तुम्हें मेकअप की ज़रूरत ही नहीं है, मैं ऐसे ही तुम्हारे शॉट्स लूंगा। और उन्हीं शॉट्स में कन्हैयालाल ने कमाल कर दिखाया।
कन्हैयालाल ने सुक्खी लाला का नाम अमर कर दिया
कन्हैयालाल का मानना था कि एक अभिनेता को अच्छे संवादों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है और “औरत” फ़िल्म में सुक्खी लाला के किरदार को बेहतर बनाने में वजाहत मिर्ज़ा के संवादों ने उनकी बहुत मदद की। कहा जाता है कि वजाहत मिर्ज़ा के कहने पर ही उन्हें ये रोल दिया गया था। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें चोट भी लग गई थी मगर उन्होंने उस दिन के बचे हुए शॉट्स पूरे होने के बाद ही डॉक्टर को दिखाया। ये लगन थी उनमें अपने काम के प्रति।
सुक्खी लाला के इस किरदार में रंग भरने के लिए जो कुछ वो कर सकते थे उन्होंने किया और परदे पर उसे ऐसे निभाया कि समीक्षकों से लेकर दर्शक तक सभी उनके नेचुरल एक्टिंग से प्रभावित हुए और निर्देशक तो इस हद तक प्रभावित हुए कि जब उन्होंने सालों बाद इस फ़िल्म को दोबारा बनाया “मदर इंडिया” के नाम से तो उसमें बाक़ी सभी कलाकारों को रिप्लेस किया गया मगर ‘सुक्खी लाला’ के किरदार के लिए कन्हैयालाल का कोई रिप्लेसमेंट नहीं मिला।
कहते हैं “मदर इंडिया” में नरगिस के बाद सबसे ज़्यादा फ़ीस कन्हैयालाल को ही दी गई थी। मदर इंडिया में ‘सुक्खी लाला’ का रोल अदा करने के दौरान उन्होंने सच में अपने बाल मुंडा दिए थे। ‘मदर इंडिया’ के बाद लोग उनसे इतनी नफ़रत करने लगे थे कि उनके घर पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए थे। उन्होंने वो सारे पत्थर इकठ्ठा किये और सहेज कर रखे, पत्नी ने वजह पूछी तो कहा कि ‘ये पत्थर ही मेरा पुरस्कार हैं’।
उन्होंने कुछ अच्छे किरदार भी निभाए
खलनायक के अलावा उन्होंने कुछ पॉज़िटिव किरदार भी निभाए। 1941 की फिल्म “बहन” में उन्होंने अच्छे स्वाभाव वाले जेबक़तरे की भूमिका निभाई थी, मूल रूप से फ़िल्म में उनके सिर्फ़ 4 सीन थे मगर उन्हें बढाकर चौदह कर दिया गया। 1941 की “राधिका” में उन्होंने मंदिर के पुजारी का रोल किया। 1944 की “लाल हवेली” में भी उनका पंडित का ही रोल था मगर वो हास्य भूमिका थी। ऐसी ही भूमिका 1966 की “बिरादरी” में भी थी।
“बिरादरी” फ़िल्म के दो गीतों में आप उन्हें नाचते-गाते भी देख सकते हैं, ऐसा ही गीत है जानेबहार फिल्म का “मार गयो रे रसगुल्ला घुमाए के” जहाँ उन्होंने ठुमका लगाया है। हाँलाकि उन्हें नाचते हुए देखने की कल्पना करना मुश्किल है मगर वो कैमरा के सामने थिरके ही नहीं हैं बल्कि लिपसिंक भी की है। जिन गीतों में वो स्क्रीन पर गाते हुए नज़र आते हैं, उनमें सबसे मशहूर है “सत्यम शिवम् सुंदरम” का गाना “यशोमति मैया से बोले नंदलाला” और “मेरी सूरत तेरी आंखें” में एक म्यूज़िक टीचर के रुप में “पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई”।
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गंगा-जमुना, धरती कहे पुकार के, और दुश्मन में भी उनके किरदार एक अच्छे स्वभाव वाले व्यक्ति के ही थे। मगर उनके बुरे रोल वाली छवि इस क़दर हावी है कि जब वो परदे पर साफ़-सुथरी भूमिकाएं भी निभाते हैं तो भी यही लगता है कि वो अभी कुछ चालाकी करेंगे।
कन्हैयालाल एक डरपोक क़िस्म के विलेन थे जो कभी खुलकर सामने नहीं आता था। ऐसा खलनायक जो ताक़तवर से हमेशा डरता था और कमज़ोर को दबाता था। वो व्यक्ति जिनकी नज़र बुरी है, काम बुरे हैं, जो पीठ पीछे साज़िश रचता है मगर हीरो से हमेशा डरता है। ये उस समय की बात है जब देश में शहरीकरण पूरी तरह से लागू नहीं हुआ था और उनके जैसे डीलडौल, पहनावे वाले लोग आस-पास दिख जाया करते थे, इसीलिए उनके विलेनिश किरदार इतने कामयाब और यादगार रहे क्योंकि उनसे लोग रिलेट कर पाते थे।
कन्हैयालाल को को शराब की लत ले डूबी
उपकार फ़िल्म में “भारत के घर में महाभारत” वाला डायलॉग कन्हैयालाल ने ही लिखा था। वो भले भी ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं थे मगर साहित्य से उन्हें गहरा लगाव था। उनका मानना था कि साहित्य व्यक्तित्व निर्माण के लिए बहुत ज़रुरी है। इतना पढ़ने का ही नतीजा था कि उनके पास शब्दों की कोई कमी नहीं थी। सही समय पर सटीक शब्द उनकी डिक्शनरी से बाहर निकलते थे और उनकी अदाकारी को और भी बेहतर बनाते थे। नाटकों से उन्हें अंत तक बहुत प्रेम रहा, मुंबई में अक्सर मराठी नाटक देखने जाते थे।
45 सालों के अपने फ़िल्मी सफर में कन्हैयालाल ने क़रीब 155 फ़िल्में कीं। इनमें हम लोग, दाग़, अमानत, मदर इंडिया, परख, गंगा-जमुना, घराना, सौतेला भाई, भरोसा, गृहस्थी, हिमालय की गोद में, ऊँचे लोग, गबन, दादी माँ, राम और श्याम, उपकार, बंधन, जीवन-मृत्यु, बनफूल, अपना देश, आन-बान, सत्यम शिवम् सुंदरम, जनता हवलदार, हम पाँच के अलावा और बहुत सी फ़िल्में हैं जिनमें उन्होंने अपनी अदाकारी के रंग बिखेरे।
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कन्हैयालाल की शादी 15 साल की छोटी उम्र में हो गई थी, शादी के 25 साल बाद उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उन्होंने दूसरी शादी की थी। लेकिन जब उनके बेटे प्रभुलाल की असमय मृत्यु हो गई और उनकी पत्नी का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ा तो उसका असर कन्हैयालाल के जीवन और स्वास्थ्य पर भी पड़ा। पान खाने की लत पहले से ही थी, भांग भी खाया करते थे लेकिन फिर शराब का साथ लिया और ऐसा लिया कि मरते दम तक नहीं छूटा।
कन्हैयालाल को अस्थमा था उसी वजह से उन्होंने ब्रांडी पीना शुरू किया था मगर फिर उन्हें शराब की लत लग गई। कई बार तो वो सेट पर भी पूरी तरह नशे में धुत होकर जाते। मगर अभिनय से लगाव ऐसा था कि कभी अपने डायलॉग्स नहीं भूले बल्कि सामने वाला कलाकार अगर कहीं अटक रहा है तो सीन को संभाल लेते। 14 अगस्त 1982 को कन्हैयालाल इस दुनिया को अलविदा कह गए।
कन्हैयालाल जब तक ज़िंदा रहे मुंबई की फ़िल्म कला जगत की महफ़िलें उनके बिना अधूरी मानी जाती थीं। उन्होंने स्टारडम देखा, पैसे भी खूब कमाए पर न तो कभी स्टार्स जैसे नखरे दिखाए न ही फ़िज़ूलख़र्ची की। कहते हैं कि वो हमेशा बस में सफ़र किया करते थे। उनका पहनावा आख़िरी समय तक वही रहा, धोती, कुर्ता, जैकेट, टोपी और हाथ में छतरी तो हमेशा ही रहती थी। अपनी इसी पहचान के साथ वो ताउम्र जिए और हमेशा इसी पहचान के साथ याद किए जाएँगे।