कानन देवी (22 April 1916 – 17 July 1992) की याद में जिन्हें फर्स्ट लेडी ऑफ़ बंगाली सिनेमा और फर्स्ट मेलोडी क्वीन ऑफ़ इंडियन सिनेमा का ख़िताब दिया गया।
10 साल की एक छोटी सी बच्ची जिसे शायद ठीक से खाना भी नहीं मिलता था, एक छोटे से कमरे में जहाँ न जाने कितने लोग रहते थे। ऐसे माहौल से निकली थीं – सिल्वर स्क्रीन पर दमकने वाली कानन बाला। जो न सिर्फ़ एक बेहतरीन गायिका, अभिनेत्री, और निर्माता थीं बल्कि वो मज़बूत महिला थीं जिसने बचपन से हर परेशानी से जूझते हुए उस पुरुष प्रधान क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई जहाँ एक अभिनेत्री को सिर्फ़ बुरी नज़रों से ही देखा जाता था। जिसे बंगाल का so-called प्रगतिशील सभ्य समाज अपने बीच सम्मान देने से भी डरता था।
आख़िर कैसे बनाई उन्होंने अपनी जगह, क्या क्या मुश्किलें झेलीं और कहलाईं फर्स्ट मेलोडी क्वीन ऑफ़ इंडियन सिनेमा।
कानन देवी शुरुआत से अंत तक
22 अप्रैल 1916 को हावड़ा में जन्मी कानन बाला की माँ का नाम था राजबाला और जिसे वो पिता मानती थीं उनका नाम था रतन चंद्र दास, जो एक छोटी सी दुकान चलाते थे लेकिन बहुत सी बुरी आदतों के शिकार थे जिसकी वजह से कानन बाला के बचपन के दिन तंगी में ही गुज़रे। उनकी मौत के बाद मुश्किलें और बढ़ीं, और यहीं से शुरुआत हुई उस सफ़र की जिसने कानन बाला को कानन देवी बनाया।
तुलसी बंदोपाध्याय थिएटर के आदमी थे, कानन बाला उन्हें काका बाबू कहती थीं। वो ही 10 साल की कमज़ोर बीमार बच्ची कानन को मदन थिएटर ले गए। मदन थिएटर्स में ही उनके गायन और अभिनय यात्रा की नींव पड़ी।बतौर बाल कलाकार उन्होंने दो मूक फ़िल्में की – 1926 की “जॉयदेब” में उन्होंने श्रीकृष्ण की भूमिका की और 1927 में धीरेंद्र गांगुली की “शंकराचार्य’ में एक छोटी से भूमिका निभाई।
शुरुआती दो फ़िल्मों के बाद कुछ सालों तक उनकी कोई फ़िल्म नहीं आई। उन कुछ सालों में उनकी गायकी को निखारा जा रहा था और ये काम किसने किया इस विषय में कई नाम उभर कर आते हैं। कहा जाता है कि उनकी गायन प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना बंगाल के विद्रोही कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम ने। हाँलाकि शुरूआती दौर में जिन्होंने उन्हें गीत – संगीत सिखाया उनमें कोलकाता के एक सगीतकार अल्लारक्खा का नाम लिया जाता है।
सिंगिंग करियर
कानन देवी का पहला रिकार्डेड गाना आया 1929 में जिसे HMV ने निकाला – “ओगो बोलो केनो सखी नयना झारे”। उस रिकॉर्ड पर उनका नाम था मिस कानन बाला और ये उनका एकमात्र ब्लैक लेबल रिकॉर्ड था। ग्रामोफोन कंपनी ने 1930 में उसके चार और गाने निकाले। फिर बेहतर मौक़ों की तलाश में कानन बाला ने हिरेन बोस, क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम, और धीरेन दास के साथ ग्रामोफोन कंपनी छोड़ दी और मेगाफोन रिकॉर्डिंग कंपनी जिसे स्वदेशी रिकॉर्डिंग कंपनी भी कहा जाता है ज्वाइन कर ली।
हिरेन बोस, विश्वदेव चट्टोपाध्याय, ज्ञानदत्त उनके शुरुआती मेंटोर थे। ये वो दौर था जब कानन देवी की उम्र कम थी, वो न तो फिल्म इंडस्ट्री को उतनी गहराई से समझती थीं और न ही लोगों की फ़ितरत को। ये समाज और यहाँ काम करने का माहौल कभी भी महिलाओं के लिए बहुत सुरक्षित नहीं रहा, ख़ासकर वो महिलाएँ जिनका कोई स्ट्रॉंग बैकग्राउंड न हो जिन्हें आसानी से एक्सप्लॉइट किया जा सकता हो और वो तो कम उम्र की ख़ूबसूरत लड़की थीं।
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ऐसे में किसी का भी झुकाव उस व्यक्ति की तरफ़ हो सकता है जिसमें एक दोस्त की झलक मिलती हो या वो सहारा दिखाई दे जिस पर विश्वास किया जा सके। उन्हें वो सहारा दिखा हिरेन बोस में, और फिर उनके गायन का सफ़र उन्हीं के मुताबिक़ आगे बढ़ा। माना जाता है कि दोनों रोमेंटिकली भी एक दूसरे से जुड़े थे, एक गहरा रिश्ता तो ज़रुर था क्योंकि उनके गाए ज़्यादातर गानों के गीतकार या संगीतकार हिरेन बोस ही हुआ करते थे।
जब 1932 में रॉयल्टी के इशू को लेकर कुछ मतभेद हुए और वो लोग मेगाफोन छोड़कर कोलम्बिया रिकॉर्डिंग कंपनी में चले गए। 1933 में कोलम्बिया के साथ उनकी तीन डिस्क आईं जिसमें चार गाने बंगाली में और दो हिंदी में थे। इसके बाद उनके हिंदी गानों का भी रिकॉर्ड आया। लेकिन इसी दौर में कानन देवी फिर से मेगाफोन रिकॉर्ड कम्पनी में शामिल हो गईं। हिरेन बोस की तरह ही उनकी ज़िन्दगी में मेगाफोन रिकॉर्ड कंपनी के मालिक जे.एन. घोष की भी बहुत इम्पोर्टेन्ट जगह थी। कानन देवी उन कुछ शुरूआती कलाकारों में से थीं जिन्हें मेगाफोन कम्पनी के गाने रिकॉर्ड करने का मौक़ा मिला।
जे एन घोष फ़िल्म इंडस्ट्री के अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें वो “बाबा” कहकर बुलाती थीं। उन्होंने कानन देवी को एक तरह से पिता की तरह सहारा दिया, कंपनी के घर में रहने को जगह दी। जे.एन.घोष ने उन्हें अंग्रेजी सिखाने के लिए एक टीचर का भी इंतज़ाम किया। और सबसे बढ़कर वहाँ उन्हें वो सम्मान मिला जो अक्सर इंडस्ट्री के लोग उन्हें नहीं देते थे। मेगाफोन रिकॉर्डिंग कंपनी में उनके शामिल होने के बाद कानन बाला के बंगाली और हिंदी में बड़ी संख्या में रिकॉर्ड आए। जिन्होंने कानन देवी को मेलोडी क्वीन का ख़िताब दिलाया।
फ़िल्मों में कामयाबी का दौर
कानन बाला अपनी गायकी से एक सिंगिंग सेंसेशन बन चुकी थीं और इसी बीच फ़िल्मों में भी उनकी वापसी हुई। पहली फिल्म रही 1931 में आई “जोर बारात” फिर “ऋषिर प्रेम”, “विष्णुमाया” और “प्रह्लाद” जैसी कुछ फ़िल्में करने के बाद जैसे ही उन्हें मौक़ा मिला उन्होंने मदन थिएटर्स छोड़ दिया और राधा फ़िल्म्स में काम करने लगीं। वैसे भी अपनी गायकी और एक्टिंग की वजह से उन्होंने वो जगह हासिल कर ली थी कि अब कोई उनका फ़ायदा नहीं उठा सकता था। इसी दौर में हिरेन बोस के साथ जो रिश्ता था वो भी टूट गया। इसके बाद कानन देवी की प्रसिद्धी बढ़ती ही गई।
राधा फ़िल्म्स की “माँ”, “मनमोई गर्ल्स स्कूल” और “कंठहार” जैसी फ़िल्मों से उनकी लोकप्रियता बढ़ी। और उन्हें अलग-अलग जगहों से ऑफर्स आने लगे। एक ऑफर आया न्यू थिएटर्स से, फ़िल्म थी “देवदास” मगर राधा फ़िल्म्स के कॉन्ट्रैक्ट से बंधे होने की वजह से वो ये फ़िल्म नहीं कर पाईं जिसका उन्हें ताउम्र अफ़सोस रहा। लेकिन राधा फिल्म्स के साथ जैसे ही उनका कॉन्ट्रेक्ट ख़त्म हुआ उन्होंने न्यू थिएटर्स ज्वाइन कर लिया। हाँलाकि कुछ हफ़्ते पहले कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म करने के कारण उन्हें राधा फ़िल्म्स को 4000 रुपए मुआवज़ा देना पड़ा।
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न्यू थिएटर्स उनके लिए नए आसमान लेकर आया जहाँ उनकी ख़ूबसूरती, अभिनय और गायन कला को एक नई उड़ान मिली। न्यू थिएटर्स की पहली ही फ़िल्म मुक्ति (1937) से वो स्टूडियो की टॉप स्टार बन गईं। उनका नाम हर अखबार और पत्रिका में छपने लगा। उनकी ख़ूबसूरती और टैलेंट पर चर्चा होने लगी और फिर विद्यापति (1937), साथी (1938), स्ट्रीट सिंगर (1938), सपेरा (1939), जवानी की रीत (1939), पराजय (1939), अभिनेत्री (1940), लगन (1941), और परिचय(1941) जैसी फ़िल्मों ने उन्हें कोलकाता फ़िल्म इंडस्ट्री का सुपरस्टार बना दिया।
बाद के दौर में कानन देवी ने संगीत की तालीम ली भीष्मदेव भट्टाचार्य से और रबींद्र संगीत सीखा आनंदी दस्तीदार से। लेकिन न्यू थिएटर्स में काम करते हुए रायचंद बोराल, पंकज मलिक जैसे म्यूज़िक डायरेक्टर के साथ उन्होंने गायन की बारीकियों को सीखा। और फिर एक वक़्त आया जब उन्हें लगा कि उन्हें किसी स्टूडियो में बंधे रहने की बजाय बतौर फ्रीलान्स आर्टिस्ट काम करना चाहिए और उन्होंने 1941 में न्यू थिएटर्स छोड़ दिया। हाँलाकि वो उनका पीक टाइम था।
M P प्रोडक्शंस की जवाब (1942) उनकी सबसे बड़ी हिट कही जा सकती है। इसके बाद हॉस्पिटल (1943), बनफूल (1945) राजलक्ष्मी (1946) जैसी कई फिल्में आईं। उनकी आख़िरी हिंदी फिल्म थी 1948 में आई “चंद्रशेखर”।
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निर्माता और समाजसेवी कानन देवी
1949 में फ़िल्म “अनन्या” से कानन देवी प्रोडूसर बन गईं, उन्होंने अपनी फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी शुरु की “श्रीमती पिक्चर्स” के नाम से। मेजदीदी (1950), नबबिधान (1954), दर्पचूर्ण (1952), देबात्रा (1955) अंधारे अलो (1957) जैसी कई फ़िल्में आईं, इनमें से ज़्यादातर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानियों पर ही आधारित थीं। उन्होंने शरतचंद्र के एक उपन्यास के राइट्स ख़रीदे थे मगर वो ऐसे क़ानूनी पचड़े में पड़ गई कि कोर्ट ने फ़ैसला आने तक निर्माण पर रोक लगा दी और फ़ैसला तब आया जब वो फ़िल्मों का निर्माण और फ़िल्मों में अभिनय करना भी छोड़ चुकी थीं।
हाँलाकि 1949 से ही वो अभिनेत्री से चरित्र भूमिकाओं की तरफ़ मुड़ गईं थीं और ठीक दस साल बाद उन्होंने अभिनय को भी अलविदा कह दिया। कानन देवी का स्टेज का कोई बैकग्राउंड नहीं था मगर उन्होंने महिला शिल्पी महल नाम की एक ऐसी संस्था बनाई जिससे फ़िल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियों को फ़िल्मों से बाहर भी एक पहचान मिल सके। इसके सदस्य स्टेज शोज़ करते थे जिसमें केवल महिला कलाकार भाग लेती थीं। इससे जो भी पैसा आता था उसका इस्तेमाल बेघर लोगों के लिए घर ख़रीदने में किया जाता था। लेकिन इसकी सफलता के साथ ही कुछ सदस्यों का लालच बढ़ा और आख़िरकार इसे बंद करना पड़ा।
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प्रेम, शादी, विरोध और अलगाव की कहानी
“The First Lady of Bengali Cinema”, “The First Melody Queen of Indian Cinema” जैसे ख़िताब पाने वाली कानन देवी थी तो वो एक लड़की ही और हर आम लड़की की तरह उन्होंने भी एक सुखी परिवार का सपना देखा था, जिसमें पति और बच्चों का साथ हो, प्यार हो। ऐसा हुआ भी मगर क़िस्मत ने सब छीन भी लिया। शायद दौलत-शोहरत भी अपनी क़ीमत मांगती हैं। ज़्यादातर बड़े स्टार्स की निजी ज़िंदगी कमोबेश ऐसी ही दुखद रही है।
1968 में पद्मश्री और 1976 में दादा साहब फालके अवार्ड्स से सम्मानित कानन देवी को अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया। मगर इतना कुछ पाने वाली कानन देवी की निजी ज़िंदगी कभी ख़ुशगवार नहीं रही। जब उनका पीक टाइम था तब हर तरफ़ उनकी ही चर्चा होती थी, दौलत-शोहरत उनके क़दमों में थी। जगह-जगह उनके पोस्टर्स लगे होते थे, कितने ही जवान दिल उनके लिए धड़कते थे।
पहली शादी का दुखद परिणाम
देश भर में उनके लाखों चाहने वाले थे, उन्हीं में से एक नाम था अशोक मैत्रा का, जो ब्रह्म समाज के कट्टर नेता और सिटी कॉलेज के प्रिंसिपल हेराम्बा चंद्र मैत्रा के छोटे बेटे थे। अशोक ख़ुद बहुत पढ़े-लिखे थे और उन्होंने शांतिनिकेतन में पढ़ाया भी। जिस तरह उन दोनों की मुलाक़ात हुई वो भी किसी फ़िल्मी सीन से कम नहीं है।
हुआ ये कि एक शाम अशोक मैत्रा अपने दोस्तों के साथ सैर-सपाटे के लिए निकले थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा शराब पी रखी थी उसी के नशे में कानन देवी के साथ की इच्छा ज़ाहिर कर बैठे और फिर नशे में ही बेहोश हो गए। उनके दोस्तों को शरारत सूझी और उन्होंने बेहोश अशोक मैत्रा को कानन देवी के घर के दरवाज़े पर छोड़ दिया।
जब कानन देवी की नज़र उन पर पड़ी तो इतने हैंडसम आदमी को देखकर वो ख़ुद को रोक नहीं पाई। पहले तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि वो है कौन लेकिन जिस तरह वो लेटे हुए थे, कानन देवी ने उनके सर को सहारा देने के लिए अपनी गोद में रख लिया। जब अशोक मैत्रा ने आधे होश आधी बेहोशी में आँखें खोलीं तो कानन देवी को सामने देखकर उन्हें लगा कि वो कोई सपना देख रहे हैं और उन्होंने तुरंत आँखें बंद कर लीं।
इस तरह दोनों की पहली मुलाक़ात हुई, प्रेम भी हुआ मगर ये प्रेम शादी में नहीं बदल सकता था क्योंकि अशोक मैत्रा के पिता थिएटर और फिल्मों के सख़्त खिलाफ थे। वो कानन देवी और फ़िल्मों में अभिनय को बहुत ही बुरी नज़रों से देखते थे। अशोक मैत्रा ने बहुत कोशिश की मगर कोई सुखद परिणाम नहीं निकला। 1940 में जब उनके पिता की मौत हो गई तब 36 साल के अशोक मैत्रा ने 25 साल की कानन देवी से कोर्ट मैरिज कर ली। इस शादी से कानन देवी के फैन्स बहुत excited थे, हाँलाकि सबको ये डर भी था कि कहीं वो शादी के बाद काम करना तो नहीं छोड़ देंगी।
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लेकिन इन ख़ुशियों के बीच जो नज़र अंदाज़ किया गया वो ये कि विरोध करने वाले और भी थे। इस शादी ने उस समय के कलकत्ता के सभ्य समाज को हिला के रख दिया था, ख़ासकर ब्रह्म समाज के कर्ता-धर्ता इसे अपमानजनक मान रहे थे। हाँलाकि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भी इस जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया और उन्हें तोहफ़े में अपना साइन किया हुआ फ़ोटो भेजा, लेकिन उसका भी घोर विरोध हुआ। बहुत से लोगों ने गुरुदेव को लेटर लिखा कि एक इतने महान कवि ने एक अभिनेत्री को अपनी फ़ोटो क्यों भेजी ? उन जैसी स्त्रियों को एक कवि की फ़ोटो रखने का कोई अधिकार नहीं है।
जो शादी ख़ुशियों की वजह बननी चाहिए थी उसी को लेकर उस नए शादीशुदा जोड़े के जीवन में विष घोला गया। अगर कानन देवी शादी के बाद फिल्में छोड़ देतीं तो शायद ये विरोध धीरे-धीरे कम हो जाता मगर फिल्में उनके लिए सिर्फ़ काम नहीं था, उनकी ज़िंदगी थीं। फ़िल्मों की वजह से ही उन्हें एक रुतबा मिला था, उन्हें वो छोड़ना ही नहीं चाहती थीं। और उन्हें लगता था कि उनके पति को भी इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है इसीलिए उन्होंने फ़िल्मों में काम करना जारी रखा।
लेकिन विरोध दिन- ब- दिन बढ़ता ही जा रहा था, यहाँ तक कि कुछ लोग हर रोज़ उनके घर के सामने प्रदर्शन करते थे, उनके ख़िलाफ़ नारे लगाते। सिर्फ़ इसलिए कि एक अभिनेत्री ने एक कुलीन परिवार में शादी करने का दुस्साहस कैसे किया ? यहाँ तक कि फ़िल्म इंडस्ट्री के भी कुछ लोग उन्हें indirectly बेइज़्ज़त करते। क्या शादी करना इतना बड़ा गुनाह है ? वो वक़्त उनके लिए किसी बुरे सपने के जैसा था जो ख़त्म ही नहीं हो रहा था।
एक दिन उनके पति ने उनसे फ़िल्में छोड़ देने को कहा, लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकती थीं। इसी वजह से दोनों में झगड़े होने लगे और आख़िरकार वही हुआ जो वो सो-कॉल्ड सभ्य समाज चाहता था। 1945 में अशोक मैत्रा और कानन देवी की शादी टूट गई। लेकिन कानन देवी ने उस घर के लोगों और रिश्तेदारों से अपने सम्बन्ध नहीं तोड़े। अपनी सास कुसुमकुमारी के साथ भी उनके सम्बन्ध आख़िर तक अच्छे रहे। यहाँ तक कि जब कुसुमकुमारी के बीमार होने की ख़बर आई तो वो शूटिंग कैंसिल करके उनसे मिलने गईं और उनकी देखभाल की, उन्हीं की बाहों में उन की सास ने दम तोड़ा।
दूसरी शादी
कुछ सालों बाद कानन देवी ने एक बार फिर से अपनी गृहस्थी बसाने की कोशिश की। वो एक बार एक स्कूल समारोह में भाग लेने के लिए गई थीं। वहीं पर उनकी मुलाक़ात हुई हरिदास भट्टाचार्जी से जो उस वक़्त ए.डी.सी. थे। 1949 में दोनों ने शादी कर ली, इसके बाद उनके पति हरिदास भट्टाचार्जी ने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपनी पत्नी के साथ उनके घर पर रहने लगे। दोनों का एक बेटा हुआ सिद्धार्थ।
बाद में हरिदास कानन देवी की फिल्म निर्माण कम्पनी श्रीमती पिक्चर्स में एक पटकथा लेखक के तौर पर जुड़ गए। और 1952 के बाद से, उनके होम प्रोडक्शन की सभी फिल्मों का निर्देशन हरिदास भट्टाचार्जी ने ही किया। हाँलाकि उन्होंने बंगाल की फिल्मी दुनिया में अपने लिए जगह बनाई, लेकिन उन्हें हमेशा कानन देवी के पति के रूप में जाना जाता था। कहते हैं कि ये बात उनका मेल ईगो बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था इसलिए उन्होंने 1987 में कानन देवी का घर छोड़ दिया।
कानन देवी की मौत
17 जुलाई 1992 को कानन देवी अपनी इस अनेकों उतार-चढ़ाव भरी, अकेली ज़िंदगी को अलविदा कह गईं। लेकिन उनका जीवन एक मिसाल है कि कैसे समाज से बाहर मानी जाने वाली एक छोटी सी लड़की ने जिसका खाना खाने से भी लोग परहेज़ करते थे, समाज में अपनी वो जगह बनाई जहाँ पहुँचना सिर्फ़ एक ख़्वाब होता है। कानन देवी को The First Lady Of Bangali Cinema के तौर पर हमेशा याद किया जाता रहेगा।
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