कामिनी कौशल शुरुआती दौर की पढ़ी-लिखी अभिनेत्रियों में से एक रहीं। उन का नाम उन कुछ एक्ट्रेस में शामिल किया जा सकता है जिन्होंने शादी के बाद फ़िल्मों में शोहरत पाई। कामिनी कौशल अपने समय में बहुत पॉपुलर थीं, उनके बहुत से सिरफिरे फैंस थे। एक बार वो एक फ़िल्म की शूटिंग के सिलसिले में टीम के साथ एक ट्रैन में सफ़र कर रही थीं कि उनका एक फैन जाने कैसे कम्पार्टमेंट में घुस आया और उनका तकिया चुरा के ले गया। साथ में एक नोट छोड़ा जिसमें लिखा था –
कामिनी कौशल नाम दिया चेतन आनंद ने
बॉटनी के प्रोफ़ेसर S R कश्यप की बेटी उमा कश्यप जब फ़िल्मों में आईं तो कहलाईं कामिनी कौशल, ये नाम उन्हें दिया प्रोडूसर डायरेक्टर एक्टर चेतन आनंद ने। दो भाई, तीन बहनों में वो सबसे छोटी रहीं और उनका जन्म का नाम था उमा। पिता का साथ उन्हें ज़्यादा नहीं मिल पाया, जब वो मात्र छह साल की थी तभी उनके पिता चल बसे। उनके परिवार में सभी पढ़े-लिखे थे इसलिए उन्हें भी पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी थी, उन्होंने लाहौर से इंग्लिश में ग्रेजुएशन किया।
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अपने कॉलेज के दिनों में वो स्विमिंग, स्केटिंग, साइकिलिंग और राइडिंग किया करती थीं, बच्चों के लिए शार्ट स्टोरीज़ और कविताएँ भी लिखती थीं, साथ ही आकाशवाणी लाहौर पर रेडियो नाटकों में भी भाग लिया करती थीं। रेडियो पर ही उनकी आवाज़ सुनकर चेतन आनंद ने उन्हें अपनी फ़िल्म “नीचा नगर” में लीड रोल ऑफर किया था। चेतन आनंद फ़ैमिली फ्रेंड थे इसलिए किसी को कोई ऐतराज़ नहीं हुआ।
नीचा नगर में चेतन आनंद की पत्नी भी काम कर रही थीं और उनका नाम भी उमा था इसलिए चेतन आनंद चाहते थे कि उनका नाम बदल दिया जाए। तो कामिनी कौशल ने चेतन आनंद से कहा कि उनका नया नाम K से ही हो तो अच्छा रहेगा इस तरह उमा कश्यप को उनका फ़िल्मी नाम मिला – कामिनी कौशल। नीचा नगर यूँ तो कामयाब नहीं हुई पर समीक्षकों ने इसे काफी सराहा। कान्स फ़ेस्टिवल में जाने वाली ये पहली फ़िल्म थी जिसने ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड जीता और कामिनी कौशल को भी मोंट्रियल फ़िल्म फ़ेस्टीवल में बेस्ट डेब्यू अवार्ड मिला।
कामिनी कौशल को अपनी बहन के पति से ब्याह करना पड़ा
लेकिन इसी बीच एक ट्रेजेडी हो गई, उनकी बड़ी बहन उषा की रोड एक्सीडेंट में मौत हो गई। उनकी दो छोटी बच्चियां थीं जो सिर्फ़ दो-तीन साल की थीं। उस समय परिवार में सबको यही सही लगा कि उन बच्चियों की परवरिश के लिए उमा को उनकी माँ का दर्जा दे देना चाहिए और फिर उन की शादी उनकी बहन के पति से हो गई। लेकिन फ़िल्मों के ऑफर्स लगातार आ रहे थे तो शादी के बाद वो लाहौर से मुंबई शिफ़्ट हो गईं। और फिर शादी के बाद उनकी पहली फ़िल्म आई “जेल यात्रा”, इसके बाद “दो भाई”, “आग” और “ज़िद्दी” जैसी फ़िल्में आईं।
फ़िल्मिस्तान की “दो भाई” (47) से कामिनी कौशल कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। और फिर जल्दी ही वो वक़्त आया जब उनका स्टार स्टेटस ऊंचाईयां छूने लगा। फ़िल्म क्रेडिट्स में उनका नाम अक्सर हीरो के नाम से पहले आता था। “ज़िद्दी” में जहाँ किशोर कुमार ने अपना पहला सोलो सांग गाया था वहीं लता मंगेशकर ने पहली बार फ़िल्म की हेरोइन के लिए अपनी आवाज़ दी। इससे पहले लता जी को साइड हीरोइन्स के लिए ही गाने का मौक़ा मिलता था।
जब प्यार ने उनकी ज़िन्दगी में हलचल मचा दी
1948 में आई शहीद जिसमें कामिनी कौशल के हीरो थे दिलीप कुमार। यहाँ से दोनों की ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया, और दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचते चले गए। “शहीद” के बाद इस जोड़ी की “नदिया के पार(48)”, “शबनम (49)” और “आरज़ू(50)” जैसी कुछ और फ़िल्में आईं और ये जोड़ी दर्शकों की मनपसंद जोड़ी बन गई। इस दौरान जहाँ उन दोनों का प्यार गहराया वहीं इस प्यार के सर पर लगातार समाज और बिरादरी की तलवार लटकती रही।
फिर वही हुआ जो होता है एक तो कामिनी कौशल पहले से शादीशुदा थी, दूसरा दिलीप कुमार मुसलमान थे। हाँलाकि दोनों के लिए इस रिश्ते के बहुत मायने थे और दोनों शादी भी करना चाहते थे मगर कहीं न कहीं दोनों को ही ये अंदाज़ा भी था कि ऐसा होना संभव नहीं है। कामिनी कौशल अपने शादीशुदा होने की वजह से पसोपेश में थीं, उनके लिए अपने पति और परिवार को छोड़ना कोई आसान काम नहीं था। फिर जब उनके घरवालों तक इस प्रेम की ख़बर पहुँची तो कामिनी कौशल के भाई जो मिलिट्री में थे वो एक दिन बंदूक लेकर फ़िल्म के सेट पर पहुँच गए और दोनों को जान से मार डालने की धमकी दे डाली।
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इसके बाद कोई गुंजाइश ही नहीं बची, और सब ख़त्म हो गया। इस रिश्ते के टूटने से हाँलाकि दोनों ही बुरी तरह टूट गए थे, क्योंकि दोनों का ही ये पहला सीरियस अफेयर था, लेकिन प्यार भरे रिश्तों का अंजाम अक्सर यही तो होता है। इसी के बाद दिलीप कुमार ने ट्रेजेडी किंग का ख़िताब पाया और कामिनी कौशल ने ख़ुद को अपने काम और घर-गृहस्थी में बिजी कर लिया। उनके तीन बेटे हुए – राहुल, विदुर और श्रवण। काफ़ी सालों बाद 2013 में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल आमने-सामने आए मगर तब तक दिलीप कुमार की बीमारी इतनी बढ़ चुकी थी कि वो लोगों को पहचान ही नहीं पाते थे तो उन्होंने कामिनी कौशल को भी नहीं पहचाना।
बिराज बहु रही मील का पत्थर
आरज़ू के बाद कामिनी कौशल की बहुत सी फिल्में आईं लेकिन उनमें बिमल रॉय की बिराज बहू सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म थी। ये रोल बहुत ही intense था और इस रोल को मधुबाला फ़्री में करने के लिए तैयार थीं मगर ये रोल मिला कामिनी कौशल को। “बिराज बहु” शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित थी। बिमल दा ने उन्हें ये नॉवल पढ़ने के लिए दिया और कहा कि एक दो बार नहीं बार- बार पढ़ो, इतना पढ़ो कि ख़ुद को वो पात्र मानने लगो।
कामिनी कौशल ने ख़ुद कहा कि वो इस किरदार में इतना डूब गईं थीं कि शूटिंग के दौरान उस किरदार को निभाते हुए वो असल में भावनाओं में बह जाती थीं। उनके इसी कन्विक्शन ने उन्हें दिलाया फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड और बिमल रॉय को बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड। बतौर हेरोइन उनकी आख़िरी फिल्म थी गोदान जो मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित थी।
कम उम्र में दिखीं माँ के रोल में
फिर उन्होंने एक ब्रेक लिया और उसके बाद वो सीधे करैक्टर रोल्स में दिखाई दीं। वो फिल्म थी मनोज कुमार की 1965 में आई शहीद, हाँलाकि वो माँ के रोल के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थीं मगर मनोज कुमार भी ठान चुके थे, आख़िरकार कामिनी कौशल को मानना पड़ा। शहीद भगत सिंह की माँ के रोल के लिए उन्हें BFJA अवार्ड से नवाज़ा गया। उसके बाद उपकार, पूरब और पश्चिम, शोर, सन्यासी, रोटी कपड़ा और मकान, दस नंबरी और संतोष जैसी फ़िल्मों में वो मनोज कुमार की माँ के रोल में दिखाई दीं।
दो रास्ते, हीर राँझा में भाभी का रोल किया और बाद के दौर में तो उन्होंने दादी-नानी के रोल्स में भी ख़ूब रंग जमाया। चोरी-चोरी, लागा चुनरी में दाग़, चेन्नई एक्सप्रेस और कबीर सिंह जिस में कबीर की दादी के रोल में उन्हें बहुत ज़्यादा पसंद किया गया।
कामिनी कौशल ने सिनेमा से इतर भी बहुत कुछ किया
कामिनी कौशल उन एक्ट्रेस में से नहीं थीं जिनकी दुनिया सिर्फ़ सिनेमा के इर्द-गिर्द घूमती है। कॉलेज के ज़माने से ही वो बच्चों के लिए शार्ट स्टोरीज़ और कविताएँ लिखा करती थीं, उनमें से कई कहानियाँ बाद में बच्चों की मैगज़ीन पराग में छपी। 70s में वो चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी की चेयरपर्सन भी रहीं। जब वो दस साल की थीं तब से पपेट यानी कठपुतलियों से उन्हें गहरा लगाव रहा वो ख़ुद उन्हें बनाती थीं, उनका अपना पपेट थिएटर भी था और बाद में भी कामिनी कौशल का ये शौक़ बरक़रार रहा।
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उन्होंने गुलज़ार साहब की सलाह पर अपना एक बैनर बनाया गुड़िया घर प्रोडक्शंस। इसी बेनर तले उन्होंने बच्चों के लिए कई शोज़ बनाए जो दूरदर्शन पर प्रसारित हुए। इनमें वो अपनी बनाई हुई अलग-अलग कठपुलियों के साथ खेलती थीं उन के लिए अलग-अलग आवाज़ें निकालती थीं। उनकी ये सीरीज़ उस समय बहुत चली। उन्होंने “मेरी परी” नाम की एक एनीमेशन फ़िल्म भी बनाई। पिछले कई सालों से वो टीवी धारावाहिकों में दादी नानी के रोल में नज़र आती रहीं। दरअस्ल कामिनी कौशल ने अपने अंदर के बच्चे को कभी मरने नहीं दिया शायद इसीलिए वो हमेशा एक ज़िंदादिल इंसान रहीं।
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