गुरुदत्त

गुरुदत्त की जन्मशती पर ख़ास प्रस्तुति उनकी अधूरी फ़िल्में

गुरुदत्त ने बेजोड़ क्लासिक फ़िल्में बनाईं, लेकिन अपने जीते जी उन फ़िल्मों को कल्ट फ़िल्म्स का दर्जा मिलते नहीं देख पाए। गुरुदत्त, जिन्होंने ऐसी-ऐसी फ़िल्में बनाई जिन्हें बनाना उस समय एक बड़ा जोखिम था मगर उन्होंने वो जोखिम उठाया, पूरे कन्विक्शन और परफेक्शन के साथ अपनी बात सिने-प्रेमियों तक पहुँचाई। लेकिन उनका यही परफ़ेक्शन था, जो उन्हें संतुष्ट नहीं होने देता था, इसीलिए उनकी कितनी ही फिल्में अधूरी रह गईं।

उन्होंने कई फ़िल्मों की घोषणा की मगर वो फ़िल्में सिनेमा हॉल तो क्या फ़्लोर तक भी नहीं पहुंचीं। कुछ फिल्में तो ऐसी भी हैं जिन्हें हम देखते हैं, वाह-वाही करते हैं मगर जो हम तक पहुँचा है वो उन फ़िल्मों का दूसरा वर्ज़न है यानी टोटल री-शूट। गुरुदत्त की 100 वीं जयंती पर ये एक स्पेशल ट्रिब्यूट – गुरुदत्त की वो फ़िल्में जो पूरी नहीं हुईं।

 

गुरुदत्त की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म प्यासा के अनसुने गाने

Time मैगजीन की 100 ग्रेटेस्ट फिल्मों में जिन फ़िल्मों का नाम शामिल है उनमें से एक प्यासा भी है। वो मास्टरपीस, जिसका हर पहलू दमदार है। जब गुरुदत्त प्यासा बना रहे थे तो काफ़ी लोगों ने उन्हें कहा था कि ये कहानी जोखिम भरी है, शायद न चले पर उन्होंने फ़िल्म बनाई और उसे लोगों का प्यार भी मिला और इतना मिला कि आज भी गुरुदत्त का नाम आते ही प्यासा याद आती है।

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प्यासा में पहले दिलीप कुमार और मधुबाला को मेन लीड में लेने के लिए सोचा गया था। पर जब दोनों ही ये फ़िल्म नहीं कर पाए तो गुरुदत्त ने ख़ुद नायक की भूमिका की और मधुबाला की जगह चुना गया माला सिन्हा को। गुरुदत्त की ख़ासियत थी कि अगर अपनी फ़िल्म से वो संतुष्ट नहीं होते थे तो बिना किसी बात की परवाह किए या तो उसे बंद कर देते थे या रीशूट करते थे। प्यासा की भी चार रील्स बन चुकी थीं, एडिट भी हो चुकी थीं पर वो ख़ुश नहीं थे, उन्हें कुछ कमी लग रही थी, इसलिए उन्होंने उन चारों रील्स को नष्ट कर दिया और फिर से फ़िल्म शूट की।

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उनके इसी परफ़ेक्शन की वजह से उनकी कई फ़िल्में अधूरी रह गईं और हमेशा हमेशा के लिए डिब्बे में बंद हो गईं। लेकिन उन्होंने गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं किया। प्यासा फ़िल्म में फ़्लैश बैक में एक गाना सुनाई देता है – पीछे पीछे दुनिया आगे-आगे हम। ये गाना फ़िलर की तरह आता है और दर्शकों के मन पर कोई भी निशान छोड़े बग़ैर चला जाता है। ज़्यादातर लोगों ने शायद इसे सुना भी न हो !  इस गाने को देख सुनकर ऐसा लगता है जैसे इसे बनाया तो पूरा गया होगा मगर फ़िल्म में सिर्फ़ एक अंतरा ही यूज़ किया गया है।

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किसी ऑडियो एल्बम में भी ये गाना नहीं मिलता, और इस गाने का रिकॉर्ड भी नहीं निकला। जबकि फ़िल्म में गुरुदत्त पर या दूसरों पर जो शेर-ओ-शायरी फिल्माई गई है वो भी एल्बम में मिलते हैं, मगर इस गीत का कोई अंश नहीं है। ये गाना तो फिर भी फ़िल्म में रह गया, मगर एक और गाना था जो बाक़ायदा वहीदा रहमान पर शूट भी हुआ था और फ़िल्म में डाला भी गया था। लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया, उसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। हुआ ये कि जब फिल्म रेडी हो गई तो सबकी राय जानने के लिए फ़िल्म का ट्रायल रखा गया जिसमें फ़िल्म की पूरी स्टार कास्ट और क्रू मेंबर्स भी शामिल थे।

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फ़िल्म देखने के बाद सभी से उनकी राय पूछी गई तो वहीदा रहमान ने ख़ुद अपने ही गीत के बारे में कहा कि उन्हें लगता है कि उस सिचुएशन पर वो गाना फिट नहीं होता और बोरिंग लग रहा है। दरअस्ल वो गाना उस समय डाला गया था जब हीरो को मरा हुआ मान लिया जाता है और गुलाबो यानी वहीदा रहमान दुःख और सदमे में है। उस समय भला वो कोई गीत कैसे गाएगी और ऐसे में दर्शकों के मन भी में ये जानने की उत्सुकता होगी कि हीरो वाक़ई मर चुका है या नहीं !

यही लॉजिक वहीदा रहमान ने गुरुदत्त को दिया। बाद में ख़ुद गुरुदत्त को भी ये महसूस हुआ कि वो गाना मिसफिट है इसलिए उसे हटा दिया गया। वो गाना गीता दत्त की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया था, जिसके बोल हैं – रुत फिरे पर दिन हमारे फिरे न फिरे न फिरे न। फ़िल्म मेकिंग गुरुदत्त के लिए ऑब्सेशन था। वो बहुत ही महत्वकांक्षी व्यक्ति थे। एक निर्देशक के रुप में वो अपनी किसी फ़िल्म से संतुष्ट नहीं होते थे, उन्हें हमेशा यही लगता था कि कहीं कुछ कमी रह गई है। इसी वजह से कई फिल्में फ़्लोर तक तो पहुँचीं मगर कभी बन नहीं पाईं।

गुरुदत्त की निर्देशक के रूप में पहली बांग्ला फ़िल्म जो बन नहीं पाई

“गौरी” नाम की एक फ़िल्म 1957 में शुरु की गई थी, जिसे बांग्ला और इंग्लिश में बनाने की योजना थी। लेकिन उससे भी ज़्यादा ख़ास बातें इस फिल्म से जुड़ी हैं। अगर ये फ़िल्म बनती तो गुरुदत्त की बांग्ला में डायरेक्टोरियल डेब्यू होती और गीता दत्त की हेरोइन के रूप में डेब्यू फ़िल्म होती। अगर ये फ़िल्म बनती तो “काग़ज़ के फूल” की जगह यही होती भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म। लेकिन अफ़सोस ये फ़िल्म पूरी नहीं हो पाई, सिर्फ़ दो सीन्स की शूटिंग के बाद इसका प्रोडक्शन रुक गया। हाँलाकि म्यूजिक डायरेक्टर SD बर्मन ने इस फ़िल्म के लिए दो गीत रिकॉर्ड भी कर लिए थे, जिनमें से एक बांग्ला सांग उपलब्ध है और बहुत मशहूर भी है।

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लेकिन SD बर्मन ने गौरी के लिए बनाई गई उन्हीं धुनों को बाद में दूसरी हिंदी फ़िल्मों में इस्तेमाल किया। एक धुन पर बना डॉ विद्या फ़िल्म का गाना – जानी तुम तो डोले दग़ा देके। और दूसरी धुन को SD बर्मन ने सालों बाद फ़िल्म अनुराग में इस्तेमाल किया – नींद चुराए चैन चुराए डाका डाले तेरी बंसी।

एक फ़िल्म को गुरुदत्त ने दो बार बनाने की कोशिश की मगर…

जिन दिनों “कागज़ के फूल” फ़िल्म की शूटिंग चल रही थी, उन दिनों गुरुदत्त ख़ुद बहुत अच्छी मानसिक दशा में नहीं थे जैसा कि फ़िल्म से जुड़े लोगों ने अपने इंटरव्यूज में कहा। ऐसे में गुरु दत्त ने अपने सहायक निरंजन को एक और प्रोजेक्ट सौंप दिया। वो था विकी कॉलिन्स की क्लासिक कहानी “द वूमन इन व्हाइट” पर आधारित फ़िल्म “राज़” ।

गुरुदत्त

गुरुदत्त ने इस फ़िल्म में हीरो के लिए सुनील दत्त को चुना गया जो एक आर्मी डॉक्टर की भूमिका निभा रहे थे और दो जुड़वाँ बहनों की मुख्य भूमिका निभा रही थीं वहीदा रहमान। इस फ़िल्म के कुछ दृश्यों की शिमला में शूटिंग हो चुकी थी। फ़िल्म में म्यूजिक दे रहे थे R D बर्मन, जिन्होंने दो गाने रिकॉर्ड भी कर लिए थे, जो अब नहीं मिलते हैं। अगर फ़िल्म बनती तो ये R D Burman की बतौर संगीतकार डेब्यू फ़िल्म होती। लेकिन 10 दिन की शूटिंग के बाद इसे बंद कर दिया गया।

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जब दोबारा इस फ़िल्म पर काम शुरु हुआ तो सुनील दत्त फ़िल्म का हिस्सा नहीं थे, तब गुरुदत्त मुख्य भूमिका में आ गए। फ़िल्म की पांच-छह रील की शूटिंग और एडिटिंग के बाद, गुरुदत्त संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने फ़िल्म को बंद कर दिया। बाद में उसी कहानी पर उनके अस्सिस्टेंट और दोस्त राज खोसला ने “वो कौन थी” फ़िल्म बनाई, जो उनके करियर में मील का पत्थर साबित हुई।

“राज़” फ़िल्म बनी ही नहीं तो गुरुदत्त ने निरंजन को एक और फ़िल्म ऑफर की जिसमें सलीम ख़ान हीरो के रोल में थे और तनुजा हेरोइन। फ़िल्म का नाम था “मोती की मौसी” ये फ़िल्म भी अधूरी ही रही क्योंकि ज़्यादा शराब पीने से निरंजन की सेहत पर बुरा असर पड़ा और आख़िरकार उनकी जान चली गई। फिर ये फ़िल्म भी बंद हो गई।

प्रोफ़ेसर जैसी फ़िल्म अगर गुरुदत्त बनाते तो….

जी हाँ, गुरुदत्त ने इसी कहानी पर फ़िल्म बनाने की घोषणा भी कर दी थी, जिसका निर्देशन करने वाले थे शशि भूषण। फ़िल्म में प्रोफ़ेसर की भूमिका में कास्ट किये गए थे किशोर कुमार और हेरोइन थीं वहीदा रहमान। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले अबरार अल्वी ने लिखा था, गुरुदत्त ने उन्हीं से इसका निर्देशन करने को भी कहा था, मगर अबरार अल्वी ने मना कर दिया। फिर जाने क्या हुआ गुरुदत्त ने तो ये फ़िल्म नहीं बनाई लेकिन अबरार अल्वी के स्क्रीनप्ले पर F C मेहरा ने फ़िल्म बनाई जिसका निर्देशन लेख टंडन ने किया। और हम सब जानते हैं कि ये शम्मी कपूर के करियर की कितनी महत्वपूर्ण फ़िल्म है।

वो फ़िल्म जो शुरु तो नहीं हुई मगर एक विवाद छोड़ गई

“साहिब बीबी और गुलाम” 1962 में आई थी। उस जैसी सोशल ड्रामा बनाने के बाद गुरुदत्त ने एक प्रयोग करने की सोची और घोषणा की अरेबियन नाइट्स-शैली की फ़िल्म “क़नीज़” बनाने की। ये फ़िल्म बनती तो ये उनकी पहली रंगीन फ़िल्म होती। लेकिन उससे भी दिलचस्प ये जानना है कि इस फ़िल्म की अनाउंसमेंट ने उनके सभी क़रीबियों को चौंका दिया। कइयों ने तो उन्हें लगभग डाँट लगाई कि एक provocative social subject से अचानक अलीबाबा की कहानी !! उनके लिए ये एक स्टैंडर्ड नीचे जाना था।

हाँलाकि गुरुदत्त को लगता था कि अलीबाबा भी कंटेम्प्रेरी इशू हो सकता है। लेकिन शायद वो ख़ुद भी उतने कन्विंस्ड नहीं थे, इसीलिए ये फ़िल्म भी कभी अंजाम तक नहीं पहुँचीं। शुरूआती शूटिंग के बाद ही इसे बंद कर दिया गया। लेकिन कनीज़ के साथ एक कंट्रोवर्सी भी जुडी है। फ़िल्म की हेरोइन थीं सिम्मी ग्रेवाल, जो इस फ़िल्म के बंद होने के बाद सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन तक पहुँच गईं, ताकि उनका बक़ाया मेहनताना उन्हें मिल सके, और वाक़ई गुरुदत्त ने उन्हें उनकी फ़ीस दी।

गुरुदत्त

गुरुदत्त की एक और फ़िल्म थी जिसकी अनाउंसमेंट हुई, फ़िल्म शुरु भी हुई लेकिन वो भी सिनेमा हॉल तक नहीं पहुँची। वो थी उनके भाई आत्माराम की कॉमेडी फ़िल्म “श श श”, इसे शूट शुरू होने के चार दिन बाद ही बंद कर दिया गया। गुरुदत्त ने एक बांग्ला फ़िल्म भी शुरू की थी “एक टुकू छुआ” ये फ़िल्म गुलशन नंदा के उपन्यास ‘नीलकमल’ पर आधारित थी, जिसमें बिस्वजीत और नंदा मुख्य भूमिकाओं में थे। इस फ़िल्म का निर्देशन करने वाले थे M सादिक़, लेकिन इसे शूट से एक दिन पहले कैंसिल कर दिया गया।

गुरुदत्त की आख़िरी कुछ फ़िल्में

पिकनिक

गुरुदत्त सिर्फ़ 39 साल के थे जब वो इस दुनिया से गए। उस समय वो तीन फिल्मों पर काम कर रहे थे। उन्हीं में से एक थी पिकनिक। हीरो थे गुरुदत्त और हेरोइन थीं साधना। फ़िल्म 50% बन चुकी थी, कुछ सांग्स भी फ़िल्माए जा चुके थे, लेकिन 1964 में ही गुरुदत्त की अचानक मौत के बाद इसे बंद करना पड़ा। शूट की हुई फ़िल्म का क्या हुआ, पता नहीं लेकिन क़रीब 20 साल बाद एक फ़िल्म आई जिसका नाम था “फ़िल्म ही फ़िल्म”। इस का सब्जेक्ट है – “फ़िल्म प्रोडक्शन”, इस फ़िल्म में कुछ अधूरी, डिब्बे में बंद हो चुकी फ़िल्मों की फुटेज दिखाई गई थी।

उसी में गुरुदत्त की अधूरी फ़िल्म “पिकनिक” के भी दो गीत शामिल किए गए, जो डिस्ट्रॉय होने से बच गए थे। एक है गुरुदत्त और साधना पर फ़िल्माया गीत जिसे आवाज़ दी मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले ने। इसके बोल हैं – कितना रंगीन है ये चाँद सितारों का सफ़र। पिकनिक फ़िल्म का दूसरा गीत हेलेन पर फ़िल्माया क्लब सांग है जिसके बोल हैं – आदमी को जीना है।

लव एंड गॉड

इंसान की तरह फ़िल्मों की भी अपनी-अपनी क़िस्मत होती है। कुछ फ़िल्में बहुत ज़ोर-शोर से लांच की जाती हैं मगर आधे रस्ते में ही दम तोड़ देती हैं और उन्हें डिब्बे में बंद कर दिया जाता है। कुछ फ़िल्में अपने निर्माण के सफर में इतनी मुश्किलें देखती हैं कि बन भी जाएँ तो उनका कोई भविष्य नहीं होता। ऐसी ही फ़िल्म है के. आसिफ़ की “लव एंड गॉड” 1963 में गुरुदत्त को हीरो लेकर ये फ़िल्म शुरू की गई थी। लेकिन उनकी अचानक मौत के बाद फ़िल्म में संजीव कुमार को हीरो लिया गया।

गुरुदत्त

ये भी संयोग ही है कि संजीव कुमार का जन्मदिन भी 9 जुलाई को ही आता है। ख़ैर ! जब संजीव कुमार फ़िल्म में आए तो फ़िल्म के निर्देशक के आसिफ़ गुज़र गए। इसके बाद फ़िल्म सालों लटकी रही। 15 साल बाद जैसे-तैसे के आसिफ़ की पत्नी ने के. सी. बोकाडिया की मदद से फ़िल्म को फिर से शुरू किया और जो भी जैसा भी बन पड़ा उसी के साथ ये फ़िल्म आख़िरकार 1986 में रिलीज़ हुई। 20 साल से भी ज़्यादा वक़्त के बाद रिलीज़ हुई फ़िल्म का जो हश्र होता है, उसका भी वही हश्र हुआ।

बहारें फिर भी आएंगी

मगर गुरुदत्त की एक फ़िल्म भाग्यशाली रही क्योंकि वो पूरी भी हुई और रिलीज़ भी हुई। ये थी गुरुदत्त की होम प्रोडक्शन और एक तरह से उनकी आख़िरी फ़िल्म “बहारें फिर भी आएंगी”। कहते हैं कि फ़िल्म का एक गाना जो माला सिन्हा पर फ़िल्माया गया है, जिसके बोल हैं “वो हँस के मिले हमसे हम प्यार समझ बैठे” और फ़िल्म के कुछ सीन्स गुरुदत्त के जीते जी शूट हो चुके थे। उनकी छाप इन क्लोज अप्स में दिखती भी है।

गुरुदत्त

जैसा कि कहा जाता है कि गुरुदत्त ने भारतीय सिनेमा को क्लोज-अप शॉट दिया, जिसे गुरुदत्त शॉट के नाम से भी जाना जाता है।उनका मानना था कि 80 प्रतिशत अभिनय आँखों से किया जाता है और 20 प्रतिशत शरीर से। इसीलिए इस तरह के शॉट्स उनकी फ़िल्मों की जान हैं। फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ की 12 रील्स बन चुकी थीं और गुरुदत्त को ये एहसास हो चुका था कि फ़िल्म नहीं चलेगी। शायद वो इसे भी बंद कर देते मगर इस फ़िल्म के साथ वो ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्होंने इसके लिए लोन लिया था। पर उनके चले जाने से हीरो के रूप में उनका कनेक्शन इस फ़िल्म से ख़त्म हो ही गया।

गुरुदत्त : एक जीनियस फ़िल्ममेकर

गुरुदत्त एक जीनियस थे, और अक्सर आपने भी देखा होगा कि जो लोग प्रोफेशनल लाइफ में बहुत नाम कमा लेते हैं, जिनका शुमार क्रिएटिव और इंटेलेक्चुअल्स में होता है, वो अक्सर ज़िंदगी में असंतुष्ट रहते हैं। शायद इसी वजह से गुरुदत्त के अंदर भी एक बेचैनी और ख़ला था जिसे उनकी क्रिएटिविटी भी नहीं भर सकी। वैसे गुरुदत्त बहुत हंसमुख इंसान थे, पर जब काम की बात आती थी तो बेहद गंभीर हो जाते थे, सेट पर ज़रा सा भी डिस्टर्बेंस उन्हें पसंद नहीं आता था।

गुरुदत्त

कहते हैं कि सेट पर वो एक बाघ की तरह होते थे। पर हाँ, कलाकारों से काम लेते समय वो कभी भी अपना संयम नहीं खोते थे, चाहे जितने रीटेक्स हों, कितनी ही ग़लतियाँ हों। अगर कोई कलाकार कह दे कि वो थक गया है तो वो उसी समय शूटिंग रोक देते थे, लेकिन अगर कोई उस सीन को उसी दिन ख़त्म करना चाहे तो फिर कितना भी समय लगे वो उसी दिन ख़त्म करते थे। शायद इसीलिए उनकी फ़िल्मों का एक-एक शॉट इतना शानदार दिखता है।

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आर-पार, Mr & Mrs 55, CID, प्यासा, काग़ज़ के फूल, चौदहवीं का चाँद, साहब बीबी और ग़ुलाम जैसी फिल्में गुरुदत्त फिल्म्स के बेनर तले बनी, इनमें से 5 का निर्देशन भी गुरुदत्त का था।  CID को छोड़कर सभी के हीरो भी वही थे। इनके अलावा बाज़, 12 O’clock, सौतेला भाई, बहुरानी, भरोसा, सुहागन और साँझ और सवेरा जैसी फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय किया। 2010 में, CNN के “All Time Top 25 Asian Actors” में उन्हें शामिल किया गया था।

लेकिन बतौर फ़िल्ममेकर उनका जो मक़ाम है वो कुछ अलग ही लेवल का है, उस ऊँचाई को छूना हर किसी के बस की बात नहीं है। अलग-अलग सब्जेक्ट्स को जिस सेंसिटिविटी के साथ उन्होंने प्रेजेंट किया, उसके लिए एक ख़ास विज़न चाहिए जो गुरुदत्त के पास था। एक्चुअली वो ख़ुद ही अपना कम्पटीशन थे, हर बार पहले से कुछ नया कुछ बेहतर करने की तलाश उन्हें रहती थी, जो कभी पूरी ही नहीं हुई इसीलिए अपनी किसी फ़िल्म से वो संतुष्ट नहीं हुए और यही असंतुष्टि उन्हें सबसे अलग करती है, और उनकी फ़िल्मों को timeless, कल्ट, क्लासिक बनाती है।