G A चिश्ती वो संगीतकार थे जिन्हें हिंदुस्तान पाकिस्तान में बराबर पसंद किया गया और प्यार से उन्हें बाबा चिश्ती कहा जाता है।
संगीतकार ख़ैयाम का नाम तो सबने सुना होगा पर जिन्हें वो अपना गुरु मानते थे क्या आप उनके नाम से वाक़िफ़ हैं ? ये वो संगीतकार थे जिन्होंने बातचीत वाले गानों का सिलसिला शुरु किया। ये वो संगीतकार भी थे जिन्होंने एक फ़िल्म के 6 गाने एक ही दिन में लिखे कंपोज़ किये और रिकॉर्ड भी किये। क्योंकि वो सिर्फ़ संगीतकार नहीं थे बल्कि गीतकार और गायक भी थे। उन्होंने संगीत पर एक प्रामाणिक पुस्तक भी लिखी, यही थे ग़ुलाम अहमद चिश्ती जिन्हें आम लोग G A चिश्ती और फ़िल्म नगरी के लोग बाबा चिश्ती के नाम से बेहतर याद करते हैं।
G A चिश्ती भी इत्तिफ़ाक़न फ़िल्मों में चले आए
G A चिश्ती का जन्म 17 अगस्त 1905 को जालंधर के एक छोटे से गाँव में हुआ। उन्हें संगीत में रुचि थी और अपने स्कूल के दिनों में वो नात गाया भी करते थे। पर कहा जाता है रूचि होने के बावजूद वो किसी सरकारी नौकरी में सेटल होना चाहते थे। उन्होंने कुछ समय सिंचाई विभाग में काम भी किया। लेकिन एक बार जब लाहौर में उनकी मुलाक़ात मशहूर लेखक आग़ा हश्र कश्मीरी से हुई तो संगीत की राह खुलती चली गई। संगीत के प्रति उनका झुकाव देखकर और उनका टैलेंट देखकर आग़ा साहब ने 50 रूपए महीने की तनख़्वाह पर उन्हें अपना असिस्टेंट बना लिया। उस दौरान G A चिश्ती ने उनसे लेखन और संगीत की बारीक़ियाँ भी सीखीं। आग़ा हश्र कश्मीरी की मौत के बाद GA चिश्ती ने कोलंबिया ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कंपनी ज्वाइन कर ली और स्वतंत्र रूप से कंपनी के लिए संगीत देने लगे।
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उनके संगीत से सजी पहली फ़िल्म आई 1936 में नाम था दीन-ओ-दुनिया, इस फ़िल्म का संगीत उस दौर में बेहद मक़बूल हुआ। फिर उन्होंने R L शोरी की पंजाबी फ़िल्म सोहनी महिवाल(38) के लिए संगीत दिया, उसने भी उस समय धूम मचा दी थी। बाद में GA चिश्ती कलकत्ता चले गए वहाँ उन्होंने बहुत सी फ़िल्मों में म्यूजिक दिया। R C तलवार प्रोडक्शंस की कई फ़िल्मों में उन्होंने संगीत दिया। इनमें दो सुपरहिट पंजाबी फ़िल्में ‘चम्बे दी कली’ और ‘परदेसी ढोला’ भी शामिल हैं।
1941 में ही उनकी एक और पंजाबी फ़िल्म आई ‘मुबारक़’। 1944 की फ़िल्म “कलियाँ” के गीतों में उन्होंने बांसुरी का जो सुन्दर प्रयोग किया था उसे काफी समय तक याद रखा गया। 1945 की ‘अलबेली’ में उन्होंने शांति स्वरुप के साथ गीत भी लिखे। उस समय तक वो हिंदी और पंजाबी फ़िल्मों में संगीत देने के लिए जाने जाने लगे थे और बतौर संगीतकार स्थापित हो गए थे।
G A चिश्ती ने पाकिस्तान की पहली सिल्वर जुबली में संगीत दिया था
विभाजन के बाद 1949 में G A चिश्ती पाकिस्तान चले गए, पाकिस्तान जाने से पहले उन्होंने 13 हिंदी और चार पंजाबी फ़िल्मों के लिए म्यूज़िक कंपोज़ किया। इनमें दीन-ओ-दुनिया, पाप की नगरी, ख़ामोशी(४२), मनचली(43), कलियाँ(44), शुक्रिया(44), अलबेली(45), ज़िद(45), ये है ज़िन्दगी(47), जुगनू(47), झूठी क़सम(48), दो बातें(49), नई भाभी(50) के अलावा पंजाबी फ़िल्में सोहनी महिवाल, चम्बे दी कली, मुबारक़ और परदेसी ढोला शामिल हैं।
पाकिस्तान में उनकी शोहरत बहुत ज़्यादा बढ़ी, उनकी गिनती उन कुछ शुरूआती लोगों में की जाती है जिन्होंने पाकिस्तानी फ़िल्म संगीत को आकार दिया। शुरुआत में ही उन्होंने सच्चाई, मुंदरी और फेरे(49) इन तीन फ़िल्मों में संगीत दिया। ऐसा माना जाता है कि उस समय जिस तरह का स्तरीय संगीत वो देते थे, वैसा कोई और संगीतकार नहीं था। फेरे फ़िल्म दो महीने में बनकर तैयार हुई थी और सबसे कमाल की बात ये है कि इस के 6 गाने एक ही दिन में लिखे गए, कंपोज़ किये गए और रिकॉर्ड भी उसी दिन हुए। इससे पता चलता है कि GA चिश्ती कितने प्रतिभाशाली और रचनात्मक थे।
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‘फेरे’ ब्लॉकबस्टर थी, इसे पाकिस्तान की पहली सिल्वर जुबली माना जाता है। इसके गानों ने धूम मचा दी थी जो लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे। इस फिल्म ने बाबा चिश्ती को बहुत शोहरत दिलाई। लेकिन इसका साइड इफ़ेक्ट ये रहा कि उन्हें इसके बाद पंजाबी फ़िल्मों के ही ऑफर्स मिलने लगे। हाँलाकि उन फ़िल्मों ने भी उनकी लोकप्रियता में इज़ाफ़ा ही किया। इनमें सबसे इम्पोर्टेन्ट रही 1955 की पंजाबी फ़िल्म ‘पट्टन’।
लेकिन फिर पंजाबी फ़िल्मों का सिलसिला भी टूटा जब उन्होंने 1956 की फ़िल्म ‘लख्त-ए-जिगर’ में संगीत दिया। इस फ़िल्म में उनकी बनाई एक लोरी उस समय बहुत मशहूर हुई – चंदा की नगरी से आजा रे निंदिया, इसके अलावा उन्होंने ‘दूल्हा-भट्टी’, ‘यक्के वाली’, ‘बिल्लो’, ‘गुड्डी-गुड्डा’, ‘मिस 56’, ‘आबरु’, ‘रिश्ता’ और ‘चन्न तारा’ जैसी कई जुबली हिट्स में संगीत दिया।
G A चिश्ती हर तरह का संगीत देने में माहिर थे
उस समय G A चिश्ती के बारे में ये भी कहा गया कि वो सिर्फ़ ढोलक चिमटे वाला संगीत देते हैं पर पंजाबी फ़िल्में हैं तो ऐसा संगीत होना लाज़मी था। और वही लोकशैली उनके संगीत की ख़ासियत थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने सिर्फ़ एक ही तरह का म्यूजिक दिया, जैसे ही उन्हें अलग तरह की फ़िल्में मिली उन्होंने अलग तरह का संगीत भी दिया। प्रयोगात्मकता हमेशा उनके संगीत की ख़ासियत रही।
उन्हें बातचीत की शैली के साथ-साथ तथाकथित हिचकी गानों के लिए भी जाना जाता है। ये गाना याद कीजिये “हमारी गली आना अच्छा जी, हमें न भूलना अच्छा जी” ये एक बातचीत वाला गाना था और उस समय ये बहुत ज़्यादा चला था। इसी से मिलता जुलता गाना 1956 की फ़िल्म “मेमसाहब” में भी सुनने को मिलता है जिसके बोल राजेंद्र कृष्ण ने लिखे थे, पर उसमें संगीत दिया मदन मोहन ने। वैसे ये समानता एक और मशहूर गाने में है – “न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे”।
“शर्त” फिल्म के इस गाने में संगीतकार के तौर पर नाम आता है हेमंत कुमार का। मगर इसकी मूल धुन G A चिश्ती की है, पाकिस्तान जाने से पहले उन्होंने ये धुन किसी फ़िल्म के लिए बनाई थी जिसका इस्तेमाल इस गाने में किया गया। कमाल की बात ये है कि उस फ़िल्म इंडस्ट्री में जहाँ लोग एक दूसरे का क्रेडिट ख़ुद लेने पर आमादा रहते हैं, इस गाने के साथ उल्टा है। जब भी हेमंत कुमार से पूछा गया तो उन्होंने इस धुन का क्रेडिट G A चिश्ती को दिया और जब बाबा चिश्ती से दरयाफ़्त किया गया तो उन्होंने इसे हेमंत कुमार की धुन बताया।
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5 दशकों के अपने बेहद कामयाब फ़िल्मी सफर में उन्होंने 157 फ़िल्मों में क़रीब 5000 गानों की धुनें बनाईं। उन्होंने 12 बेहद पॉपुलर पाकिस्तानी फ़िल्मी गीतों के बोल लिखे, फ़िल्मों के अलावा भी उन्होंने बहुत से गीत लिखे। उन्होंने कई प्लेबैक सिंगर्स को इंट्रोड्यूस किया इनमें नूरजहाँ, ज़ुबैदा ख़ानम, सलीम रज़ा, नसीम बेगम, नज़ीर बेगम, माला, मसूद राणा, परवेज़ मेहदी जैसे नाम भी शामिल हैं। नूरजहाँ जब सिर्फ़ 9 साल की थीं तब GA चिश्ती ने उन्हें लाहौर के स्टेज पर इंट्रोडस किया था।
संगीतकार ख़ैय्याम का दिलचस्प क़िस्सा
दरअस्ल ख़ैयाम बतौर अभिनेता फ़िल्मों में अपना करियर बनाना चाहते थे इसीलिए अकसर लाहौर चले जाते थे। एक बार जब वो लाहौर में थे तो उन्हें चिश्ती बाबा से मिलने का मौक़ा मिला। उन्होंने एक फ़िल्म के लिए एक धुन बनाई थी लेकिन जब प्रोडूसर के सामने धुन सुनाने लगे तो उसका लास्ट पार्ट भूल गए पर उन्होंने उसी वक़्त उसमें एक नई धुन जोड़ दी।
इससे पता चलता है कि वो कितने स्पॉन्टेनियस और टैलंटेड थे। खैर ख़ैयाम साब पास ही खड़े थे और किसी तरह उन्होंने हिम्मत जुटा कर धुन के उस भूले हुए हिस्से को दोहरा दिया। चिश्ती बाबा बहुत प्रभावित हुए उन्होंने न सिर्फ़ ख़ैयाम साब की पीठ थपथपाई बल्कि उन्हें अपना सहायक बना लिया। पैसे भले ही नहीं मिले मगर संगीत का ज्ञान बहुत मिला इसीलिए ख़ैयाम साब उन्हें अपना पहला गुरु मानते थे।
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संगीत G A चिश्ती का जीवन था, और संगीत में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए 1989 में उन्हें पाकिस्तानी सरकार ने Pride Of Performance For Arts award से नवाज़ा। कहते हैं कि उन्होंने संगीत पर एक प्रामाणिक पुस्तक माफ़त-उल-नग़मात भी लिखी। ये भी कहा जाता है कि बाद में G A चिश्ती फ़क़ीर बन गए थे, वैसे भी स्वभाव से वो सरल और सीधे थे इसीलिए लोग उन्हें बाबाजी कहकर बुलाते थे। 25 दिसंबर 1994 को हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई।