द्वारकादास संपत का नाम भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक शो मैन के तौर पर लिया जा सकता है। उन्होंने कोहिनूर फ़िल्म की स्थापना की और लगभग 98 सामाजिक, धार्मिक, पौराणिक फिल्मों का निर्माण किया, और मूक फ़िल्मों में कई प्रथाओं की शुरुआत की।
जब भारत में फिल्में बननी शुरू हुईं तो सबके लिए ये विधा अनजान थी नई थी। लोग try and error के फॉर्मूले पर काम कर रहे थे, एक्सपेरिमेंट कर रहे थे। और वो कहते हैं न कि एक इंसान में सभी गुण नहीं होते मगर सभी में कोई न कोई ख़ासियत ज़रूर होती है तो एक तरह से सभी एक दूसरे से सीख रहे थे, इसलिए एक टीम बन जाती थी और वो साथ लम्बे समय तक चलता था। इसी तरह शुरूआती दौर में स्टूडियो सिस्टम की शुरुआत हुई। उन में से कुछ ने बहुत ही उत्कृष्ट फिल्में देकर अपनी पहचान बनाई।
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सिनेमा ने सिर्फ़ आर्टिस्टिक, क्रिएटिव लोगों को ही आकर्षित नहीं किया बल्कि राजाओं-नवाबों और व्यापारियों को भी अपनी तरफ खींचा।ऐसे ही एक कारोबारी थे द्वारकादास सम्पत जिनका जन्म हुआ 14 अक्टूबर 1884 को बड़ौदा राज्य के जामखम्भालीया कस्बे में। उनकी रूचि शुरू से ही नाटकों और सिनेमा में थी और जब 1902 में वो बम्बई आए तो तंबू सिनेमा (शुरुआती दौर में फ़िल्म थिएटर बहुत ज़्यादा नहीं थे, घुमंतू थिएटर्स थे जो जगह जगह घूम कर तम्बूओं में फिल्में दिखाते थे) में कई विदेशी फिल्में देखी और यहीं से सिनेमा के प्रति उनका लगाव इतना बढ़ गया कि 1904 में उन्होंने क़रीब 4000 रुपए ख़र्च करके थॉमस एल्वा एडिशन कंपनी से कायनेटोस्कोप कैमरा मंगवाया। उस कैमरे से उन्होंने कुछ फ़िल्में शूट कीं और प्रोजेक्टर से लोगों को दिखाईं। फिर द्वारकादास संपत एस एन पाटनकरकी “पाटनकर फ्रेंड्स एंड कंपनी” से बतौर फायनेंसर जुड़े।
कहा जाता है कि 1918 में द्वारकादास संपत ने “राजा श्रीपाल” और “राम बनवास” नाम से 32 एपिसोड्स का एक सीरियल बनाया था, जो उस समय बम्बई के मैजेस्टिक और अलेक्जेंडर सिनेमा हॉल में लगातार महीने भर तक चला। बाद में उन्होंने अहमदाबाद के एक्सीबिटर माणिकलाल पटेल से हाथ मिलाया और 1919 में कोहिनूर फिल्म कंपनी की स्थापना की थी। “कोहिनूर’ भारत के सबसे बड़े साइलेंट स्टुडिओज़ में से एक था जिसने अपने दौर की बेहद कामयाब फ़िल्में दीं। द्वारकादास सम्पत का ये स्टूडियो हॉलीवुड स्टाइल का कहा जा सकता है जहाँ एक ही वक़्त में कई प्रोडक्शंस होते थे, स्टोरी सेशंस होते थे, मोहनलाल दवे वहाँ प्रमुख लेखक थे। उस दौर में जब महिलाओं की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाया करते थे, कोहिनूर में कई महिला कलाकार काम करती थीं।
कोहिनूर की फ़िल्मों में कपड़े के पेंट किये बैकड्रॉप की जगह लकड़ी के मजबूत सेट का इस्तेमाल किया जाता था, ठीक बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी की तरह। लाइटिंग के लिए पेट्रोमेक्स का उपयोग किया जाता था। उस समय की ज़्यादातर फिल्मों में फ़िल्म के टायटल दो भाषाओं में परदे पर दिखाए जाते थे। मगर कोहिनूर की फ़िल्मों में टाइटल चार भाषाओं में दिखते थे – गुजराती, मराठी, अंग्रेजी और उर्दू। उस दौर की ब्लैक एंड व्हाइट साइलेंट फ़िल्मों में जहाँ न रंग नज़र आते थे न आवाज़ सुनाई देती थी। तब भी कोहिनूर की हेरोइंस रेशम की साड़ी में परदे पर दिखाई देती थीं। और फ़िल्म को जीवंत बनाने के लिए सिनेमा के परदे के पीछे से संवाद बुलवाए जाते थे और सीन के मुताबिक़ लाइव परफॉरमेंस दिया जाता था, और ये सब कहीं न कहीं कोहिनूर की फ़िल्मों के प्रति लोगों के आकर्षण को बढ़ाता था।
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कोहिनूर की शुरूआती कुछ फिल्में डॉक्युमेंट्रीज़ थी, जो द्वारकादास संपत के गाँधीवादी विचारों को दर्शाती थीं। भारत की वो पहली फ़िल्म जिसे बैन कर दिया गया था “भक्त विदुर” इसी स्टूडियो की थी, उसका निर्देशन कांजीभाई राठौड़ ने किया था। इसमें ख़ुद द्वारकादास सम्पत ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में व्हील ऑफ़ फार्च्यून के नाम पर गाँधी जी का चरखा भी दिखाया गया था, गाँधी जी की धोती और चरखा इसके बैन होने के लिए काफ़ी था। उसके बाद “गुल-ए-बकावली” और “काला नाग” भारतीय दर्शकों को बहुत पसंद आईं इनमें ख़लील नाम के अभिनेता ने काम किया था। स्टूडियो की कामयाबी को भाँपते हुए एक डिस्ट्रीब्यूशन एजेंट बचुभाई भगुभाई ने स्टूडियो की सभी फ़िल्मों के राइट्स खरीद लिए। 1925 तक ये हाल था कि कोहिनूर स्टूडियो की महीने की बुकिंग की आय 50 हज़ार रुपए से भी ऊपर पहुँच गई थी।
द्वारकादास संपत का सिर्फ़ स्टूडियो ही शाही नहीं था बल्कि वो ख़ुद भी पूरे शाही ठाट-बाट से रहते थे, और उस समय की दूसरी कई हस्तियों की तरह उनके भी गज़ब के शौक़ थे। कहते हैं कि उनके पास एक टाइगर था जो पालतू कुत्ते की तरह हमेशा उनके साथ रहता था। जब आपका समय अच्छा हो तो दुनिया आपके क़दमों में झुकती है लेकिन जब समय पलटता है तो हर चेहरे से नक़ाब उतर जाता है। द्वारकादास संपत के भी जब बुरे दिन शुरु हुए तो उनके भागीदार माणिक लाल ने भी उनका साथ छोड़ दिया। और ये बुरा समय आया 1923 में जब कोहिनूर स्टूडियो भयंकर आग की चपेट में आ गया और उस समय तक की सभी फ़िल्मों के निगेटिव्स जल कर ख़ाक हो गए।
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लेकिन द्वारकादास संपत ने हार नहीं मानी और अपना काम जारी रखा, उनके स्टूडियो के कर्मचारियों ने उनका साथ दिया और बिना तनख़्वाह के काम किया, कुछ और लोग भी मदद को आगे आए और द्वारकादास संपत ने नए निर्देशकों और कलाकारों के साथ काम किया और फिर से उठ खड़े हुए। कहा जाता है कि कोहिनूर स्टूडियो से स्टार सिस्टम की नींव पड़ी, तारा, ख़लील (Khalil Ahmad ) राजा सैंडो और ज़ेबुन्निसा ने यहीं से शुरुआत की, मोती और जमुना जैसे स्टार्स यहीं से निकले। साइलेंट एरा के सबसे कामयाब फ़िल्मकार होमी मास्टर ने कोहिनूर के लिए कई बेहतरीन फिल्में बनाई।
लेकिन R S चौधरी, मोहन भवनानी, R N वैद्य और नन्दलाल जसवंतलाल जैसे फ़िल्मकारों को प्रशिक्षित करने वाला कोहिनूर स्टूडियो 1932 में बंद हो गया। और लोग कोहिनूर के साथ-साथ द्वारकादास संपत को भी भूल गए। हाँलाकि उन्होंने बहुत से लोगों की आगे बढ़ने में मदद की थी मगर डूबते सूरज के बाद तो सिर्फ़ अँधेरा होता है और उसी अँधेरे में द्वारकादास संपत भी खो गए। सालों बाद 1953 में द्वारकादास संपत वाडिया मूवीटोन के रजत जयंती समारोह में दिखे जहाँ JBH वाडिया ने उन्हें सम्मानित किया था। उसके बाद फिर किसी ने उनकी ख़बर नहीं ली और 4 नवम्बर 1958 को उन्होंने आख़िरी साँस ली।
शायद फ़िल्म-इंडस्ट्री से बेहतर कोई उदहारण नहीं हो सकता कि वक़्त किस हद तक बदल सकता है, बेरहम हो सकता है। कोहिनूर स्टूडियो अपने समय के बड़े स्टुडिओज़ में से एक था, कलाकार, फ़िल्मकार वहां से स्टार्स बनकर निकले। मगर आज उसकी निशानी के तौर पर गिने-चुने पोस्टर्स के अलावा कुछ नहीं मिलता।