डॉ सफ़दर आह (Dr. Safdar Aah Seetapuri ) शायर, गीतकार, स्क्रीन-राइटर और प्रगतिशील लेखक तो वो थे ही उनके व्यक्तित्व का एक अंजाना पहलू भी है जो उन्हें अपने वक़्त के दूसरे लेखकों से अलग करता है
इंटरनेट एक सागर की तरह है जब भी डुबकी लगाएंगे तो कुछ न कुछ तो हाथ आएगा ही। कभी सच का मोती, कभी उस की शक़्ल में कई तरह की अफ़वाहें और झूठी जानकारी। और कभी-कभी झूठ इतनी बार बोला जाता है कि वही सच लगने लगता है। और कई बार ऐसा भी होता है कि सच एक से दूसरे तक पहुँचते पहुँचते झूठ बन जाता है क्योंकि मैंने कहा कुछ और आपने समझा कुछ। डॉ सफ़दर आह के बारे में भी ऐसी कई बातें इंटरनेट पर मिल जाती हैं जिनमें उनके कृष्ण भक्त होकर वृन्दावन जाने की बात कही गई है या रामचरितमानस पर प्रवचन देने की।
महसूस हुआ कि सच जानना चाहिए, मगर बहुत कोशिशों के बाद भी ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पा रही थी। फिर एक किताब मिली जो उर्दू में थी और उसमें जो जानकारी है, वो काफ़ी कुछ डॉ सफ़दर आह के इंटरव्यू पर आधारित है। लेकिन वो किताब उर्दू में है जो मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर है तो फिर कुछ लोगों की मदद से उस किताब को खँगाला गया और इंटरनेट पर फैली जानकारी के अलावा कई नई बातें पता चलीं, और तब हर तथ्य को क्रॉस चेक करने के बाद एक ख़ाक़ा तैयार हुआ, और फिर ये पोस्ट भी लिखी गई।
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हो सकता है बहुत से लोगों के मन में ये सवाल उठे कि डॉ सफ़दर आह थे कौन ? तो आप याद कीजिए गायक मुकेश का पहला हिट गाना ” दिल जलता है तो जलने दे”, फ़िल्म थी “पहली नज़र” और इसमें संगीत था अनिल बिस्वास का। इसी सुपरहिट गीत के रचियता थे डॉ सफ़दर आह जो उर्दू के मशहूर लेखक और शायर तो थे ही, हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के भी मर्मज्ञ थे। उन्होंने और भी बहुत से हिट गीतों की रचना की थी जिनमें से कुछ आज भी फ़िल्म प्रेमियों को याद होंगे मगर उनका नाम ज़्यादातर लोगों के ज़हन से मिट गया है।
डॉ सफ़दर आह उर्दू, फ़ारसी, अरबी, अँग्रेज़ी, हिंदी और संस्कृत के ज्ञाता थे
28 अगस्त 1905 में जन्मे डॉ सफ़दर आह के पिता थे क़ाज़ी सैयद हैदर लेकिन सफ़दर आह अपने नाम के साथ क़ाज़ी या सैयद नहीं लिखते थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हुआ था इसीलिए उन्होंने अपने नाम के साथ सीतापुरी जोड़ लिया। उनकी माँ बहुत ही धार्मिक क़िस्म की महिला थीं और वो अपने एकलौते बेटे को धार्मिक शिक्षा देना चाहती थीं, इसीलिए उन्हें स्कूली शिक्षा के साथ-साथ, फ़ारसी, अरबी की तालीम भी दी गई।
पढाई के सिलसिले में डॉ सफ़दर आह ने कुछ समय भदोही, बनारस और लखनऊ में भी बिताया जिसका उनके ज़हन पर बहुत गहरा असर पड़ा, और यहीं से हिंदी, उर्दू और संस्कृत की गहरी समझ भी पैदा हुई। जब वो 13 साल के थे तभी उनकी माँ का निधन हो गया था और यहीं से उनकी ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया। आमतौर पर बेटों का लगाव माँ के साथ ज़्यादा होता है तो माँ के बाद घर से उनका जज़्बाती रिश्ता नाम मात्र का रह गया था। और यही वो समय था जब उनकी शायरी ने भी संजीदा लिबास पहनना शुरू किया।
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डॉ सफ़दर आह ने बहुत कम उम्र से ही शायरी करना शुरू कर दिया था। उनकी शायरी पर घर, समाज, राजनीति सभी ने बहुत असर डाला। जो दौर किसी बच्चे के दिमाग़ के विकसित होने का होता है उस दौर में उन्होंने विश्व युद्ध होते देखा, अपने देश में अंग्रेज़ों के अत्याचार को गहराई से महसूस किया। उसी दौर में उनकी शायरी लोगों के सामने आई। उसी का एक शेर है –
सीख ले तर्ज़े फ़ुग़ाँ बुलबुल दिल-ए-नाशाद से,
रोई है शबनम भी मेरे नाला-ओ-फ़रियाद से
1921-22 में उनकी एक नज़्म बहुत मक़बूल हुई और कई जगह छपी। उसका एक शेर है
32 करोड़ों की आवाज़ न कम समझो,
नारे जो किए हमने गर्दूं (आकाश) भी हिला देंगे
बचपन से उनके घर का माहौल भले ही धार्मिक और अनुशासित था। मगर उनके ख़यालात, उनकी शायरी तरक़्क़ीपसंद और बग़ावती तेवर लिए थी, जिसमें फिलॉसफी भी काफ़ी हद तक झलकती है। उनका कहना था कि ख़ुदा हमारा गढ़ा हुआ एक लफ़्ज़ है। उन्होंने कहा है –
अवतार, शयुक, अम्बिया आते हैं, जो ख़ुद नहीं जानते वो बतलाते हैं,
पायाने शब-ए-ज़ुल्म, किसी को न मिला, बातें करके सहर की सो जाते हैं
डॉ सफ़दर आह छोटी उम्र से ही उम्दा शायरी करने लगे थे
14 साल की उम्र से उनकी शायरी न्यूज़पेपर्स और जर्नल्स में छपने लगी थी। 17 साल की उम्र में उनका पहला कलेक्शन “अंजाम-ए-मोहब्बत” प्रकाशित हो गया था। पढ़ाई के दौरान ही वो लखनऊ की अदबी महफ़िलों, और मुशायरों में अक्सर शिरकत करने लगे थे। वो लखनऊ की युवा शायरों की पार्टी के अहम् सदस्य थे और लखनवी ग़ज़ल के उभरते हुए प्रतिनिधि समझे जाते थे। हाँलाकि उन्होंने ग़ज़लें बहुत कम लिखीं और इसका उन्हें अफ़सोस भी रहा कि वो ग़ज़ल को ज़्यादा वक़्त नहीं दे पाए।
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जिस दौर में सफ़दर आह शायरी के मैदान में उतरे थे, उसी समय में सीतापुर में ‘तरही मुशायरों’ की शुरुआत हुई। होता ये था कि सभी शायर एक तय किये हुए दिन और समय पर इकठ्ठा होते थे। और क्योंकि उस समय ख़्वाजा आतिश ग़ज़ल के क्षेत्र में मिसाल समझे जाते थे तो उनका दीवान सभी शायरों के सामने खोला जाता था और सीधे हाथ की तरफ जो भी पहली ग़ज़ल होती, उसी की ‘तरह’ पर शेर कहे जाते। सफ़दर आह उस समय कम उम्र थे मगर ऐसे मुशायरों में लगातार शिरकत किया करते थे और बड़े-बड़े शायरों के बराबर उम्दा शेर कहते थे। ऐसे ही एक मुशायरे में सफ़दर आह ने क़रीब एक घंटे में 11 शेर कहे।
कम उम्री में इतनी क़ाबिलियत यूँ ही नहीं आई बल्कि इसमें उनके उस्ताद का बड़ा हाथ था। कहते हैं कि उनके उस्ताद उनसे रोज़ाना एक ग़ज़ल लिखने को कहते, उस पर इस्लाह करते, बहुत तारीफ़ भी करते, बल्कि हर आने जाने वाले को सुनवाते। पर आख़िर में उसे अपने घर के खारे पानी के कुएँ में डलवा देते। कहते कि इससे उसका पानी मीठा हो जाएगा। ये एक उस्ताद का तरीक़ा था अपने शागिर्द की शायरी निखारने का। हो सकता है कि सफ़दर आह में ज़िंदगी के प्रति जो एक दार्शनिक भाव था, जो एक detachment की फ़ीलिंग थी, उसकी शुरुआत यहीं से हुई हो।
डॉ सफ़दर आह ने 1928 में अपना ख़ुद का उर्दू साप्ताहिक शुरू किया जिसका नाम था “हातिफ़” । 1934 में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक “जनता” का प्रकाशन शुरु किया। ये दोनों ही साप्ताहिक काफ़ी पसंद किये गए। अपने क्रन्तिकारी विचारों, शब्दों की गहराई, और शायरी के कारण डॉ सफ़दर आह की शोहरत दिन-ब-दिन बढ़ती गई और कहा जाता है कि वही लोकप्रियता उनके फ़िल्मों में आने की वजह बनी।
डॉ सफ़दर आह पहले प्रगतिशील लेखक थे जो फ़िल्मी दुनिया से जुड़े
डॉ सफ़दर आह की शायरी के चर्चे जब देश भर में होने लगे तो फ़िल्ममेकर्स का ध्यान भी उनकी तरफ़ गया और फिर 1938 में महबूब ख़ान ने डॉ सफ़दर आह को बम्बई आने का न्योता दिया। डॉ सफ़दर आह को फ़िल्मों में कोई दिलचस्पी नहीं थी पर महबूब ख़ान के बुलावे पर वो ये सोच कर मुंबई चले गए कि इसी बहाने शहर घूम लेंगे, लेकिन जो एक बार मुंबई आता है वो फिर यहीं का होकर रह जाता है।
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यही हुआ डॉ सफ़दर आह के साथ, जब मुंबई आये तो क़रीब 23 सालों का लम्बा और कामयाब सफ़र उन्होंने तय किया। उन्होंने ये सफ़र जिनके साथ तय किया उन सबको आज भी याद किया जाता है, उन फ़िल्मों को भी याद किया जाता है, मगर डॉ सफ़दर आह के बारे में एक आम फ़िल्म प्रेमी कितना जानता है ये बताने की ज़रूरत नहीं है। डॉ सफ़दर आह पहले प्रगतिशील लेखक थे जो फ़िल्मी दुनिया से जुड़े, उन्होंने आह सीतापुरी के नाम से फ़िल्मों में गीत लिखे।
महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी “अलीबाबा”, “औरत”, “बहन”, “गरीब”, “नई रौशनी”, “रोटी” जैसी फ़िल्मों के गीत उन्होंने लिखे। “रोटी” फ़िल्म सेंसर का शिकार हुई थी, UP में तो इस फ़िल्म को बैन ही कर दिया गया था। पहले सागर मूवीटोन में और जब सागर मूवीटोन और जनरल फ़िल्म्स के मर्जर के साथ नेशनल स्टूडियो अस्तित्व में आया तब भी सफ़दर आह ने महबूब ख़ान की फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। अनिल बिस्वास 1937 से ही सागर मूवीटोन के साथ काम कर रहे थे, और महबूब ख़ान की बहुत सी फ़िल्मों का संगीत उन्होंने ही दिया था।
उन्होंने अनिल बिस्वास के लिए काफ़ी गीत लिखे
डॉ सफ़दर आह ने 1939 में आई “कामरेड्स” में पहली बार अनिल बिस्वास के लिए गीत लिखे। कामरेड्स के बाद “अलीबाबा”(1940), “औरत”(1940), “आसरा” (1941), “बहन” (1941), “नई रोशनी” (1941), “रोटी” (1942) में भी अनिल बिस्वास का संगीत था और डॉ सफ़दर आह के गीत। उन्होंने अनिल बिस्वास के लिए ‘लाडली’ (1949), ‘लाजवाब’ (1950), ‘बड़ी बहू’ (1951), ‘नाज़’ (1954) और ‘मान’ (1954) जैसी फ़िल्मों के गीत भी लिखे।
पर इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म थी, मज़हर प्रोडक्शंस की “पहली नज़र” जो 1945 में आई थी। फ़िल्म में 10 गाने थे, सभी डॉ सफ़दर आह ने लिखे थे, मगर जो गाना रातों रात हिट हो गया, और जो आज तक लोगों को याद है, वो था मुकेश का गाया गीत “दिल जलता है तो जलने दे“। डॉ सफ़दर आह ने ये ग़ज़ल 1944 में लिखी थी, जो उस समय लाहौर के “उर्दू रोज़नामचा” और “वतन” में प्रकाशित हुई थी। कहते हैं कि एक्टर-प्रोडूसर-डायरेक्टर मज़हर ख़ान इसे फ़िल्म में शामिल नहीं करना चाहते थे, मगर ये फ़िल्म का हिस्सा बनी और न सिर्फ़ हिस्सा बनी बल्कि बेहद मशहूर भी हुई।
जैसा मैंने शुरु में बताया कि गायक मुकेश का पहला हिट गीत यही था, और ये आज भी उन्हीं के नाम से अमर है, मगर गीतकार का नाम शायद ही कोई जानता हो! और ये भी शायद ही कोई जानता हो कि फ़िल्म “पहली नज़र” के गीतों के अलावा उसकी कहानी और संवाद भी सफ़दर आह ने ही लिखे थे। क्योंकि इस फ़िल्म का प्रिंट किसी पब्लिक प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध नहीं है। डॉ सफ़दर आह ने “पहली नज़र” ही नहीं उस समय की कई फ़िल्मों की कहानी और संवाद भी लिखे। इनमें 1943 की प्रार्थना, 1946 की “1857” और 1946 की ही “उमर ख़ैयाम” जैसी फ़िल्में शामिल हैं।
1943 में रिलीज़ हुई मिनर्वा मूवीटोन की फ़िल्म प्रार्थना का निर्देशन सर्वोत्तम बादामी ने किया था। इस फ़िल्म में मोतीलाल, जहाँआरा कज्जन, सबिता देवी, के एन सिंह, जैसे कलाकारों ने काम किया था। फ़िल्म में 10 गाने थे जिन्हें लिखा था डॉ सफ़दर आह ने और संगीत दिया था सरस्वती देवी ने। डॉ सफ़दर आह ने कुछ फ़िल्मों का निर्देशन भी किया इनमें सबसे महत्वपूर्ण है 1947 में आई “भूख” जो सामाजिक फ़िल्मों में अपने वक़्त का मील का पत्थर मानी जाती है। मगर ये भी किसी पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है।
निर्देशक के तौर पर उनकी आख़िरी फ़िल्म थी ‘मान’ जो 1954 में आई थी। लेकिन बतौर संवाद लेखक उनका नाम महबूब ख़ान की आख़िरी फ़िल्म “सन ऑफ़ इंडिया” के संवाद लेखकों RS चौधरी और जलाल मालियाबादी के साथ मिलता है। हाँलाकि तब तक वो फ़िल्मी दुनिया से सन्यास ले चुके थे पर शायद महबूब ख़ान से पुराने संबंधों की ख़ातिर उन्होंने फ़िल्म में सहयोग किया हो! सफ़दर आह किरदार और सिचुएशन के मुताबिक़ ख़ुद बोलों में एक रिदम क्रिएट करते थे। उन के लिखे नग्में अपने दौर में बेहद मक़बूल हुए मगर फ़िल्मों में उन्हें वो शोहरत नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे।
उर्दू अदब में उनकी महत्वपूर्ण जगह है
उनका मानना था कि फ़िल्म और इल्म का दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। फ़िल्मी गीत चाहे जितने भी मशहूर हो जाएँ वो साहित्य में जगह नहीं पा सकते मगर साहित्य फ़िल्मों का हिस्सा बन सकता है। वो मुख्य रूप से एक साहित्यकार, एक शायर थे, और ये बात वो कभी नहीं भूले इसीलिए फ़िल्मों में काम करते हुए भी वो लगातार गंभीर लेखन करते रहे जो आम-ओ-ख़ास में मशहूर भी हुआ। फ़िल्मों के commercialization के लिए उन्होंने कहा था
अफ़सोस है ऐ आह, ये मालूम न था, गुलरेज़ को गुलफ़रोश बनना होगा
1959 में डॉ सफ़दर आह को दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने फ़िल्मों से सन्यास ले लिया। महाराष्ट्र के गणेशपुरी में उन्होंने अपना सारा समय लगभग एकांतवास में ही बिताया। उनके एकलौते बेटे ‘अफ़सर’ अपने परिवार के साथ बनारस में रहते थे। और वो गणेशपुरी के जंगलों में अपनी एक छोटी सी लाइब्रेरी के साथ, ज़्यादातर समय पढ़ने लिखने में ही बिताते थे। डॉ सफ़दर आह का गद्य और पद्य दोनों में बराबरी का दख़ल रहा, पर शायरी में उनका एक अलग ही मक़ाम था। उनका एक नाटक है “अक़्ल की शिकस्त” जो उन्होंने पूरी तरह रुबाई की शक्ल में लिखा था। जैसे राजकुमार और प्रिया राजवंश की फ़िल्म “हीर-राँझा” थी पोएटिक स्टाइल में।
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डॉ सफ़दर आह की एक महत्वपूर्ण किताब है “अमीर ख़ुसरो बहैसियत उर्दू शायर” कहते हैं अमीर खुसरो के बारे में जितना अच्छा सफ़दर आह ने लिखा, उतना अच्छा फिर कोई नहीं लिख पाया। उनकी दूसरी महत्वपूर्ण रचनाओं में “मीर और मीरियात”, “रुबाइयत-ए-ज़मज़मा”, नौ-ब-नौ, “गुलबुन” और “अमलदार-ए-करबला” शामिल है जो उर्दू अदब का सबसे बड़ा मर्सिया माना जाता है। साहित्य में उनकी हिंदी रुबाइयों की बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है जिनमें उन्होंने एक भी अरबी-फ़ारसी का लफ्ज़ इस्तेमाल नहीं किया। इसका एक नमूना पेश है
इस देश की ये सबसे प्यारी बोली, ये लखनऊ-ए-दिल्ली की सँवारी बोली
हीरे-मोती से बढ़के हैं इसके बोल, दाता फूले-फले हमारी बोली
सच और झूठ की पड़ताल
फ़िल्मों से सन्यास लेने के बाद क़रीब 20 साल डॉ सफ़दर आह गणेशपुरी में ही रहे और इस तरह रहे कि आस-पास के सभी लोग उनकी बेहद इज़्ज़त करते थे। यहाँ तक कि जब उस इलाक़े में धार्मिक दंगे हुए तब भी सफ़दर आह अकेले मुसलमान थे जो बेरोक-टोक उन रास्तों से गुज़र जाते थे। वो ज़्यादा किसी से मिलते जुलते नहीं थे, सिर्फ़ कुछ गिने-चुने लोगों से मुलाक़ात करते थे। आख़िरी वक़्त में न तो उनकी रूचि समाज में रही, न राजनीति में, उनके घर में कोई रेडियो भी नहीं था जिससे उन्हें बाहर की दुनिया की कोई ख़बर मिलती। साल में क़रीब एक महीना तो वो पूरी तरह मौन और एकांत में गुज़ारते थे, और वो अपने अकेलेपन में ख़ुश थे। वो कहते हैं
दुनिया की महफ़िलों में तनहा था मैं, तन्हाई में क्या अंजुम आराई है
डॉ सफ़दर आह के बारे में जो बात इंटरनेट पर जगहों पर कही गई है कि वो कृष्ण भक्त हो गए थे या वृन्दावन चले गए थे या वो रामचरितमानस पर प्रवचन देते थे। इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। हाँ, ये सही है कि उन्हें हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में रूचि थी, उन्होंने हिंदू धार्मिक साहित्य और महाकाव्यों का गहन अध्ययन किया था और तुलसीदास, कबीर और मीरा के बारे में विस्तार से लिखा भी। उन्होंने “तुलसीदास और रामचरितमानस” की उर्दू में समीक्षा की।
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“प्रेमबानी” में उन्होंने मीराबाई की जीवनी और उनकी रचनाओं की समीक्षा की। मगर प्रवचन वाली बात थोड़ी अतिश्योक्ति लगती है क्योंकि वो जब ज़्यादा लोगों से मिलते जुलते ही नहीं थे तो भला प्रवचन कैसे देंगे! ये हो सकता है कि वो उन ग्रंथों पर अपने कुछ ख़ास लोगों से चर्चा करते हों। वैसे योग को विज्ञान मानने वाले सफ़दर आह योग के भी अच्छे जानकार थे। 29 जुलाई 1980 को गणेशपुरी में रहते हुए ही डॉ सफ़दर आह सीतापुरी इस दुनिया से कूच कर गए। मगर जैसा उन्होंने ख़ुद कहा
याद रख आह कि इंसान नहीं मरता है कभी, ज़िंदगानी में अज़ल और अबद हैं मख़लूत
तो कलाकार और फनकार तो यूँ भी कभी नहीं मरते अपनी कला के ज़रिए हमेशा ज़िंदा रहते हैं।
फ़िल्मों की ज्ञात सूची
- अलीबाबा (1940)
- औरत (1940)
- बहन (1941)
- नई रोशनी (1941)
- आसरा (1941)
- रोटी (1942)
- ग़रीब (1942)
- बोलती बुलबुल (1942)
- विजय (1942)
- प्रार्थना (1943)
- विश्वास (1943)
- पैग़ाम (1943)
- पहली नज़र (1945)
- पहली नज़र (1945)
- 1857 (1946)
- उमर ख़ैयाम (1946)
- भूख (1947)
- लाडली (1949)
- लाजवाब (1950)
- बड़ी बहु (1951)
- मान (1954)
- मान (1954)
- नाज़ (1954)
- सन ऑफ़ इंडिया (1962)