दत्ताराम

दत्ताराम वाडकर म्यूजिशियन, म्यूजिक अर्रेंजर और म्यूज़िक कंपोजर थे। लेकिन उनका शुमार भी उन फ़नकारों में होता है जिन्हें बहुत ज़्यादा मौक़े नहीं मिले लेकिन जितने मौक़े मिले उनमें उन्होंने ख़ुद को साबित किया। उनके तबले और ढोलक की थाप पर हम थिरकते हैं, झूमते हैं बिना ये जाने कि वो उनकी उँगलियों का कमाल है जिसने कितने ही मशहूर गीतों को रिदम दी और अमर कर दिया।

दत्ताराम को था कसरत का शौक़

दत्ताराम वाडकर का जन्म 1929 में गोवा में एक ग़रीब परिवार में हुआ था। 1942 में वो अपने परिवार के साथ मुंबई आ गए। मुंबई में उनकी माँ की मुलाक़ात एक और गोवा की महिला से हुई, उस महिला ने उन्हें अपने गुरूजी से मिलवाया गुरूजी ने उनका हाथ देखा और कहा कि हाथ तो बहुत अच्छा है और पूछा – तुम तबला सीखोगे ? तो दत्ताराम जी ने हाँ कर दी। अगले ही दिन गुरु पंढरीनाथ नागेशकर ने गंडा बाँधकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया।

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कुछ वक़्त उनसे सीखने के बाद दत्ताराम ने पंडित यशवंत केरकर से तबला सीखना शुरु किया, और यशवंत केरकर ने ही फ़िल्मी दुनिया से उनका परिचय कराया। उन्हीं के कहने पर वो संगीतकार सज्जाद हुसैन के पास काम करने लगे। लेकिन वो काम सिर्फ़ तीन महीने चला और ज़िंदगी वापस उसी रूटीन पर आ गई। ये बात तो बहुत से लोग जानते होंगे कि संगीतकार शंकर को कसरत का बहुत शौक़ था लेकिन दत्ताराम को भी यही शौक़ था जब उनके पास काम नहीं था तो वो कसरत करते और तबला बजाते।

दत्ताराम

एक दिन दत्ताराम के कसरत के शौक़ ने ही उनकी मुलाक़ात शंकर से कराई जो तब तक संगीतकार नहीं बने थे। दोनों कसरत करने एक ही जगह जाते थे। एक दिन शंकर ने वहाँ तबला देखा बजाना शुरु कर दिया। वो जिस तरह से तबला बजा रहे थे उसे देखकर दत्ताराम बहुत इम्प्रेस हुए और उनके मुँह से अनायास ही निकला – वाह वाह, तब शंकर को पता चला कि वो भी तबला बजाते हैं और वो भी उनके तबलावादन के क़ायल हो गए और इस तरह दोनों में गहरी दोस्ती हो गई।

बतौर सहायक संगीतकार शुरू किया फ़िल्मी सफ़र

फिर शंकर के बुलावे पर दत्ताराम पृथ्वी थिएटर्स गए वहां उनकी मुलाक़ात हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र, जयकिशन जैसे कई लोगों से हुई। ये सभी उस वक़्त तक स्टैब्लिशड नहीं हुए थे, सब पृथ्वी थिएटर्स में काम करते थे। फिर वो भी अक्सर पृथ्वी थिएटर्स जाने लगे तो और भी कई कलाकारों फनकारों से मुलाक़ात होने लगी। कुल मिलाकर कहें तो दत्ताराम वहाँ के लोगों और माहौल से अच्छी तरह परिचित हो गए। नाटकों के इंटरवल के दौरान राम गांगुली सितार बजाते थे और रामलाल शहनाई, तब तबला शंकर बजाते थे मगर फिर तबला दत्ताराम बजाने लगे, इस तरह दत्ताराम पृथ्वी थिएटर्स का हिस्सा बन गए।

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जब शंकर जयकिशन ने जोड़ी बनाकर संगीत देना शुरु किया तो दत्ताराम उनके सहायक बन गए। बाद में वो उनके लिए म्यूजिक अरेंजर का काम भी करने लगे। उनके साथ दत्ताराम ने क़रीब 35-40 साल तक काम किया। जब दत्ताराम ख़ुद संगीत देने लगे थे तब भी वो शंकर जयकिशन के साथ काम करते रहे। यूँ तो वो तबला और ढोलक में माहिर थे मगर “श्री 420” और “जिस देश में गंगा बहती है” में जो कमाल की ढफ सुनाई देती है वो उन्होंने ही बजाई थी।

दत्ताराम

मशहूर है “दत्तू का ठेका”

बतौर म्यूजिशियन उन्होंने सिर्फ़ शंकर जयकिशन के साथ ही नहीं बल्कि सलिल चौधरी, रोशन, कल्याणजी आनंद जी और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे कई दूसरे संगीतकारों के साथ भी काम किया। “मधुमती” के कई गानों में (घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के , आजा रे परदेसी, सुहाना सफर ) उनके तबला वादन का कमाल साफ़ सुनाई देता है। “अजी बस शुक्रिया” फ़िल्म के गीत “सारी सारी रात तेरी याद सताए” में उन्होंने ऐसी शानदार ढोलक बजाई कि सभी उनके क़ायल हो गए।

इंस्ट्रूमेंट्स पर अपनी कमाल की पकड़ के कारण फिल्म इंडस्ट्री में बतौर वादक उनका एक रुतबा था। दत्ताराम के तबलावादन की ख़ासियत थी ठेका यानी रिदम उनका ये ठेका इतना फेमस हो गया था कि दूसरे संगीतकारों ने उस ठेके को दत्ताराम का ठेका या दत्तू का ठेका नाम दे दिया था। बतौर संगीतकार अपनी पहली फ़िल्म “अब दिल्ली दूर नहीं” के गीत “चुन चुन करती आई चिड़िया” में उन्होंने उसी रिदम का इस्तेमाल किया था।

बतौर संगीतकार पहली फ़िल्म शंकर-जयकिशन की वजह से मिली

जब इस गाने की सिचुएशन दत्ताराम को सुनाई गई तो उन्होंने कई धुनें बनाई मगर ख़ुद उन्हें कोई धुन पसंद नहीं आ रही थी। फिर एक दिन उन्हें अपनी बनाई धुन से सेटिस्फैक्शन हुआ और वो धुन सुनाने के लिए राज कपूर के पास गए। राजकपूर की ख़ुद की प्रोडक्शन हो या वो उस फ़िल्म के हीरो हों वो ख़ुद सभी गानों की धुन सुनते थे और उनके अप्रूवल के बाद ही धुन फाइनल की जाती थी।

दत्ताराम

ये भी कहा जाता है कि राज कपूर को संगीत की इतनी समझ थी कि जिस गाने के बारे में वो ये कह देते थे कि वो सुपरहिट है वो वाक़ई हिट होता था। तो जब दत्ताराम ने उन्हें धुन सुनाई तो आधी धुन सुनकर ही राजकपूर बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने कहा कि गाना हिट है तुम जाके रिकॉर्ड कर लो। वाक़ई ये गीत हिट हुआ और आज भी गाया जाता है।

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“अब दिल्ली दूर नहीं” ये फ़िल्म दत्ताराम को शंकर जयकिशन की वजह से ही मिली थी। जब राजकपूर इस फिल्म का निर्माण कर रहे थे तो उन्होंने शंकर जयकिशन को बुलाकर कहा कि वो एक फिल्म बना रहे हैं जो एक बच्चे पर केंद्रित है इसमें न तो वो हीरो हैं न ही वो इसका निर्देशन करेंगे तब शंकर जयकिशन ने उनसे कहा कि आप ये फिल्म को दत्ताराम को दे दें।

दत्ताराम

लेकिन जो व्यक्ति एक फ़िल्म पर पैसा लगाएगा वो यूँ ही तो किसी पर दाव नहीं लगाएगा वो भी राजकपूर जैसा परफेक्शनिस्ट। लेकिन जब शंकर जयकिशन ने राज कपूर को दत्ताराम की क़ाबिलियत का विश्वास दिलाया और ये भी कहा कि अगर कोई मुश्किल आई तो वो दोनों उन की मदद करेंगे तब जाकर राज कपूर ने दत्ताराम को इस फ़िल्म में संगीत देने का मौक़ा दिया।

कई फ़िल्मों में दिया लाजवाब संगीत

फिर 1959 में आई राज कपूर और माला सिन्हा की फ़िल्म “परवरिश” जिसके लगभग सभी गाने मक़बूल हुए और उस फ़िल्म में हर फ्लेवर का गाना है। “परवरिश” में दत्ताराम की बनाई धुनें इतनी शानदार हैं कि जब लता मंगेशकर ने श्रद्धांजलि नाम की एल्बम में दूसरे गायकों और संगीतकारों के गीत अपनी आवाज़ में गाए तो उन्होंने इस फ़िल्म का मुकेश का गाया सैड सांग “आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें” भी शामिल किया।

क़ैदी नंबर 911(59), संतान(59), श्रीमान सत्यवादी(60), काला आदमी(60), फर्स्ट लव(61), डार्क स्ट्रीट(61), ज़िन्दगी और ख़्वाब(61), नीली आँखें(62), जब से तुम्हें देखा है(63) जैसी फिल्मों में दत्ताराम ने मधुर संगीत दिया। वो सभी गाने मेलोडियस थे मगर फ़िल्में बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हुईं इसलिए दत्ताराम का सितारा भी नहीं चमका।

  • बीते हुए दिन कुछ ऐसे ही हैं – फ़र्स्ट लव
  • रुत अलबेली मस्त समां – श्रीमान सत्यवादी
  • न जाने कहाँ तुम थे – ज़िन्दगी और ख्वाब
  • चोरी चोरी कौन मेरे दिल को गया छू – जब से तुम्हें तुम्हें देखा है
  • तुम्हें हुस्न देके खुदा ने सितमगर बनाया – जब से तुम्हें देखा है

दत्ताराम के साथ भी वही हुआ जो दूसरे कई म्यूजिक डायरेक्टर्स के साथ हुआ था। उन्हें बी ग्रेड फिल्में मिलने लगीं, “Tarzan Comes To Delhi (65), बालक (69), राका (65), चोरों का चोर(70) जैसी हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने कुछ मगधी, भोजपुरी फ़िल्मों में भी संगीत दिया। बाद के दौर में फिल्म संगीत से निराश होकर वो मुंबई छोड़ कर वापस गोवा चले गए।

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उनके वो दिन भी ग़ुरबत में ही गए उनके पास अपनी दवाओं तक के पैसे नहीं होते थे। उनकी किडनी में पथरी थी मगर पैसों की तंगी की वजह से वो उसका इलाज नहीं करा सके और 8 अक्टूबर 2008 को इस दुनिया से चले गए। हांलाकि दत्ताराम अपने वक़्त के दूसरे कई संगीतकारों से ज़्यादा भाग्यशाली रहे क्योंकि उनके हुनर को सभी ने सराहा, और कुछ अच्छे मौके भी उन्हें मिले। मगर दुखद ये है कि कुछ संगीत प्रेमियों को छोड़ दिया जाए तो ज़्यादातर लोग आज उनके नाम तक से वाक़िफ़ नहीं हैं।